मकबूल फिदा हुसेन नहीं रहे। देश से बाहर, लंदन में 9 जून 2011 को उन्होंने अंतिम सांस ली; इस समय वह भारत में नहीं थे, बल्कि एक आत्मनिर्वासित जिंदगी जी रहे थे। इसलिए उनकी मौत का शोक और भी गहरा हो जाता है। अपने जीवन के आखिरी वर्षों में विवादों में जबरन घसीटे गए हुसेन निविर्वाद रूप से आधुनिक भारत के सबसे चर्चित कलाकार थे। उनकी दुनिया भर में ख्याति थी।
उनकी तारीफ में बहुत कुछ कहा जा सकता है, कहा भी गया है, लेकिन जो चीज उन्हें सबसे अलग बनाती थी, वह थी उनकी निरंतर प्रयोगधर्मिता और अनथक उत्साह। गोकि वे बुजुर्ग थे- जन्म उनका 1915 में हुआ था- और रिटायर होने की रस्मी उम्र के लगभग चार दशक बाद भी वे जिस जज्बे के साथ कला-कर्म में सक्रिय थे, वह लोगों को हैरत में डालता था।
साहित्य में नागार्जुन तात्कालिक परिघटनाओं और विषयों पर रचनात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए मशहूर रहे हैं।चित्रकला के क्षेत्र में हुसेन ने भी अक्सर अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं के तात्कालिक संदर्भ को अपनी कला का विषय बनाया। चाहे इंदिरा गांधी की हत्या हो, चाहे सफदर हाशमी की हत्या, चाहे सचिन तेंदुलकर का उभरना हो, चाहे सत्यजित राय को ऑस्कर मिलना या इमरेंसी की घटना हो या फ़ैज़ और मदर टेरेसा जैसे व्यक्तित्व- हुसैन ने अनगिनत परिघटनाओं और व्यक्तियों पर रंग-ब्रश से टिप्पणी की; यह उनका एक विरल गुण था, जो शायद ही किसी कलाकार में देखने को मिले।
आजादी के आसपास कलाकारों की जिस जमात ने अपने को पूर्व की राष्ट्रवादी और पुनरुत्थानवादी कला-प्रवृत्तियों से अलग करने की पहल की थी, हुसेन उन्हीं में से एक थे। वे 1947 में गठित प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में सूजा, रजा,आरा, गायतोंडे और बाकरे के साथ थे। कहना न होगा कि आजादी के बाद के कला परिदृश्य के निर्माण में इस ग्रुप की लगभग केंद्रीय भूमिका रही है। साथ ही यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में यूं तो शामिल सभी कलाकार विलक्षण हैं, लेकिन इनमें हुसेन की व्याप्ति सर्वाधिक महसूस की गई- कला जगत में भी और इसके बाहर भी। चित्रकार कृष्ण खन्ना के शब्दों में वस्तुतः वह आधुनिक भारतीय कला का मरकज (केंद्र) बन चुके थे।
हुसेन का अहम योगदान यह है कि उन्होंने आधुनिक कला को आम लोगों तक पहुंचाया। यह हुसेन ही थे, जिनके बहाने अधिकतर लोगों ने जाना कि समकालीन दौर की चित्रकला जो है उसका मुकाम क्या है। यह हुसेन ही थे, जिन्होंने कला के संदर्भ में बाजार को समझा और उसका इस्तेमाल किया। बाजारवाद बुरी चीज है और इतनी बुरी चीज है कि लोग बाजार को ही बुरा मान लेते हैं। लेकिन जैसा कि कबीर ने कहा है, ‘अमरपुर में बैठी बजरिया सौदा है करना’- हुसेन ने बाजार से घबराने की बजाय सोच-समझकर उसे अपनी शर्तों पर साधा। वह इंदौर के एक बेहद साधारण और मुफलिस-से परिवार में पैदा हुए थे और बंबई में फिल्मों की होर्डिंग पेंट करने का मेहनत भरा काम भी किया- लेकिन वह यहीं नहीं रुके। वह अपनी कीमत जानते थे और उन्होंने इसे कबूल करवाया। हालांकि वह पैसे के पीछे पागल नहीं थे। मुफलिसी से आर्थिक वैभव हासिल करने के बावजूद जेहनी तौर पर वे उससे निर्लिप्त-से इंसान बने रहे। अपनी मर्जी के मालिक!
हुसेन ने चित्र बनाने के साथ ही फिल्मों और लेखन के जरिए भी अपने को अभिव्यक्त किया। उनकी आत्मकथा साहित्यिक पैमाने पर भी एक श्रेष्ठ कृति है और भाषा के स्तर पर भी। उन्होंने लोकप्रियता को कोई अछूत चीज नहीं माना। फिल्मी अभिनेत्रियों के सौंदर्य के प्रति उनका आकर्षण जगजाहिर है, जिनकी खूबसूरती को उन्होंने अपने कैनवस पर उतारकर नई अर्थवत्ता दी। मगर हुसेन की खासियत यह थी कि उन्होंने किसी भी दौर में अपनी कला में भारत की समृद्ध कला परंपरा को ओझल नहीं होने दिया। वह उसकी सामासिकता और विविधता के गहरे जानकार थे। लेकिन भारतीयता और देश के नाम पर
उन्होंने किसी संकीर्णता को कभी स्वीकार नहीं किया। एक कलाकार के बतौर वह पूरी दुनिया को अपना दायरा मानते थे। वह उन चुनिंदा कलाकारों में थे जिन्होंने भारतीय महाकाव्यों और मिथकों को
आधुनिक और कलात्मक संदर्भों में मौलिक अंदाज में रूपायित किया। लेकिन इसी सिलसिले में उन्हें सियासी विवाद में घसीटा गया। सांप्रदायिक शक्तियों- संघ, विहिप, भाजपा वगैरह ने उन पर हिंदू देवी-देवताओं को अश्लील रूप से चित्रित करने का आरोप लगाया। एक घृणित सांप्रदायिक-राजनीतिक रणनीति के तहत जिस तरह मुस्लिम समुदाय में जन्म लेने वाले लोगों को निशाना बनाया गया,
हुसेन भी अचानक एक हिंदू विरोधी मुसलमान बना दिए गए। एक सुनियोजित अभियान चलाकर उन पर देश के विभिन्न हिस्सों में दो और दस नहीं, सैकड़ों मुकदमे किए गए। उनके चित्र जलाए गए, प्रदर्शनियों पर हमले किए गए। हरिद्वार की एक अदालत ने तो सम्मन का जवाब न देने के कारण उनकी संपत्ति कुर्क करने का आदेश दे दिया था और इंदौर की एक अदालत ने उनके खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया था। जिन पर बाद में उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी थी। 2006 में लंदन में भी हिंदू फोरम ऑफ ब्रिटेन ने उनके खिलाफ अभियान चलाया जिसके कारण प्रदर्शनी को रोकना पड़ा।
आज अपनी मृत्यु के बाद इन तथाकथित राष्ट्रवाद के ठेकेदारों को अचानक हुसेन महान भारतीय कलाकार लगने लगे हैं, इतिहास इन्हें इनके कुकृत्यों के लिए कभी माफ नहीं करेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सरकार के दूसरे लोग हुसेन की मौत को अपूरणीय क्षति बता रहे हैं, लेकिन इसी सरकार के पूर्व गृहमंत्री शिवराज सिंह पाटिल ने हुसेन को सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़नेवाला समझा था। नतीजतन हुसेन ने कतर की नागरिकता ले ली।
हुसेन का यह प्रसंग भारतीय लोकतंत्र के ऊपर लगातार मंडराते सांप्रदायिक-फासीवादी खतरों का ही स्पष्ट उदाहरण है।खैर, हुसेन ने मुखर होकर कभी भी सांप्रदायिक ताकतों का विरोध नहीं किया और न ही उन्हें इस लायक समझा कि अपनी कला के जरिए उनके प्रति प्रतिक्रिया या प्रतिरोध व्यक्त करते। वे चुपचाप अपनी मर्जी से सृजन करते रहे। कतर में रहे या जीवन के आखिरी दिनों में लंदन में, वे हमेशा सृजनरत
रहे। 95 साल की उम्र में भी उनका कला के प्रति उत्साह जरा भी कम नहीं हुआ था।
हुसेन ने ताजिंदगी कला और देश के लिए अपना प्यार सुरक्षित रखा। अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने जीवन के आखिरी दिन अपने देश में गुजारने की ख्वाहिश जाहिर की थी, जो पूरी नहीं हुई। यह भारत और उसकी समृद्ध कला को प्रेम करने वालों के लिए हमेशा एक टीस की तरह बनी रहेगी। समकालीन जनमत की ओर से इस महान भारतीय चित्रकार को हार्दिक श्रद्धांजलि!
2 comments:
उनकी आत्मकथा साहित्यिक पैमाने पर भी एक श्रेष्ठ कृति है और भाषा के स्तर पर भी। sahi kaha aapne fir chahe vah ila pal ki beyond the canvas ho ya fir rashida siddiki ki hussain ki kahani hussain ki zubani.
हुसैन के सिलसिले में नागार्जुन को याद करने में एक गहरी नज़र दिखती है. बेशक निर्वासन में हुसैन की मृत्यु एक कभी न मिटने वाला जख्म है. वे अपने हम जैसे हमवतनों के लिए कला की समझ के लिहाज से सयानापन हासिल करने की कठिन चुनौती छोड़ गए हैं.
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