पेड न्यूज़, कॉर्पोरेट की दलाली और दूसरे गोरखधंधों की कालिख से सना मीडिया बेशर्मी के नित नये आयाम स्थापित कर रहा है. अन्ना का उपवास प्रायोजित करने के बाद अब नरेन्द्र मोदी के मिशन पीएम में उसका उत्साह देखते ही बनता है. नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हैं. अपनी गुजरात प्रयोगशाला में मुसलमानों के व्यापक संहार का उनका प्रयोग बेहद सफल साबित रहा है और अब वे इसके सहारे प्रधानमंत्री पद तक पहुँचना चाहते हैं. कभी लालकृष्ण आडवाणी के रथ यात्रा के प्रयोग ने भी मुल्क को सांप्रदायिक खून ख़राबे की आग में झोंक दिया था और तब लौह पुरूष और सरदार पटेल के खिताब भी उन्हें मिले थे लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी दूसरे स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी के हिस्से में आई थी. अब सरदार पटेल का खिताब भी आडवाणी के बजाय मोदी के पास है और मोदी इसके सच्चे हक़दार भी हैं. आखिर 1947 में मुल्क के गृह मंत्री रहते हुए पटेल ने मुसलमानों के कत्लो गारत में जो भूमिका निभाई थी, नरेन्द्र मोदी ने बतौर मुख्यमंत्री गुजरात में उसी परम्परा को ज्यादा असरदार और `निर्भय` रहते हुए नई `ऊंचाई` दी. मोदी जानते हैं कि आडवाणी की हालत लालची बूढ़ी लोमड़ी जैसी है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पास उनके (मोदी) जैसे बनैले दांतों वाला दूसरा ऐसा चेहरा नहीं है जो हिन्दुत्ववादी अभियानों से तैयार वोटरों को नई ऊर्जा और आक्रामकता दे सकता हो. लगता है हमारे मीडिया को भी उनसे बड़ी उम्मीदें हैं. उनके शाही उपवास की कवरेज से तो यही लगता है. यानी कॉर्पोरेट अन्ना और मोदी दोनों का चितेरा है.
`आज तक` चैनल का उत्साह देखने लायक है. सुबह एंकर चीखता है, मोदी बदल गए हैं, उन्हें मौका दिया जाना चाहिए. वह गुस्से में है और जोर देकर कहता है, मोदी को मौका दिया ही जाना चाहिए. शाम हो चली है इसी चैनल पर एक महिला पत्रकार खुशी से फूली नहीं समा रही है. मोदी के भाषण की तारीफों के पुल बांधें जा रहे हैं. दैनिक भास्कर के मालिक संपादक श्रवण गर्ग भाषण की सूक्तियों का भक्ति भाव से `विश्लेषण` कर रहे हैं और वे कहते हैं कि मोदी का भाषण ऐसा लग रहा था, जैसे लाल किले से प्रधानमंत्री भाषण दे रहे हों. दूसरे चैनलों पर भी यही हो रहा है, मोदी बदल गए हैं, मोदी बदल गए हैं का शोर है. देखो-देखो हत्यारा संत हो गया है. देखो कैसा आक्रामक नेता, कैसा विनम्र हो गया है. माँ से आशीर्वाद लिया है. कहता है- `मानवता सबसे बड़ी प्रेरणा है. माँ और मानवता जैसे शब्दों के महिमा गई जा रही है. और अचानक मोदी का जीवन चरित्र आने लगता है. उनका बचपन, उंनका गाँव, उनका त्याग - वो सब जो मीडिया किसी के सीएम, पीएम आदि बनने पर या दुनिया छोड़ने पर पेश करता रहा है.
मीडिया साबित करना चाहता है कि मोदी विकास और शांति के मसीहा हैं. उन्हें कुछ मौलवियों से मिलते दिखाया जाता है. लगता है कि मोदी ने गुजरात के हत्यारे नेताओं और अफसरों को चार्जशीट करा दिया है, अपना कसूर मान लिया है और गुनाहों से तौबा कर ली है. लेकिन ऐसी छवि तो आक्रामक खूनी नेता का तेज खो सकती है, यही छवि तो जीवन की गाढ़ी कमाई है. विश्लेषक कहता है, नहीं जी, उनकी आक्रामकता जस की तस है. सुना नहीं, उन्होंने साफ़ कहा कि वे सेक्युलरिज्म में यकीन नहीं रखते. फिर किसी भी मकसद से किया हो पर डायलोग तो गब्बर का ही सुनाया है.
उपवास समारोह में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की उपस्थिति और तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता का प्रतिनिधियों को भेजना भी मोदी के बदलने और उनकी गैर साम्प्रदायिक छवि की स्वीकार्यता के रूप में दर्ज किया जाता है. मगर बादल तो खुद सांप्रदायिक राजनीति करने वाली जमात के प्रतिनिधि हैं. फिर मुसलमानों की खुशी-नाखुशी का पंजाब-हरियाणा जैसे राज्यों में कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता है. जयललिता का दक्षिणपंथी रुझान भी जगजाहिर है. वैसे भी एनडीए गैर भाजपाई दलों का सेक्युलर एजेंडा अटल बिहारी वाजपेयी की सेक्युलर छवि की तरह कभी भी मखौल से बढ़कर कुछ नहीं रहा है. आखिर गुजरात मुस्लिम संहार भी इन्ही दलों के बीजेपी की अगुआई में केंद्र की सत्ता में भागीदार रहते हुआ था.
तो न मोदी बदले हैं, न बीजेपी और न संघ बल्कि इन सबने देश के सेक्युलर मिजाज को काफी बदल दिया है. इसीलिये छोटे दलों को नहीं लगता है कि सेक्युलर छवि पर दाग़ आने से उन्हें कोई नुकसान होता है और न ही मीडिया को शर्म आती है. गांधी का मनचाहे ढंग से नाम लेने वाले अन्ना ने मोदी के उपवास और आडवाणी की यात्रा को लेकर गोलमोल रस्मी बयान जरूर दे दिया है पर साम्प्रदायिक ताकतों से लोहा लेने की गलती उन्होंने भी कभी नहीं की. बल्कि वे और ये ताकतें एक दूसरे के काम ही आते रहे हैं.