Thursday, November 28, 2013

अपने से डरा हुआ बहुमत : असद ज़ैदी



क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बन्दगी में मिरा भला न हुआ (ग़ालिब)

नमरूद बाइबिल और क़ुरआन में वर्णित एक अत्याचारी शासक था जिसने ख़ुदाई का दावा किया और राज्याज्ञा जारी की कि अब से उसके अलावा किसी की मूर्ति नहीं पूजी जाएगी। पालन न करने वालों को क़त्ल कर दिया जाता था। नरेन्द्र मोदी ने, जिनके नाम और कारनामे सहज ही नमरूद की याद दिलाते हैं, अब अपने आप को भारत का प्रधानमंत्री चुन लिया है। बस इतनी सी कसर है कि भारत के अवाम अगले साल होने वाले आम चुनाव में उनकी भारतीय जनता पार्टी को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं तो सबसे ज़्यादा सीट जीतने वाला दल बना दें। इसके बाद क्या होगा यह अभी से तय है। पूरी स्क्रिप्ट लिखी ही जा चुकी है। इस भविष्य को पाने के लिए ज़रूरी कार्रवाइयों की तैयारी एक अरसे से जारी है । मुज़फ़्फ़रनगर में मुस्लिम जनता पर बर्बर हमला, हत्याएँ, बलात्कार, असाधारण क्रूरता की नुमाइश और बड़े पैमाने पर विस्थापन इस स्क्रिप्ट का आरंभिक अध्याय है। यह उस दस-साला खूनी अभियान का भी हिस्सा है जिसके ज़रिए हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ हिन्दुस्तानी राज्य और समाज पर अपने दावे और आधिपत्य को बढ़ाती जा रही हैं।

यह आधिपत्य कहाँ तक जा पहुँचा है इसकी प्रत्यक्ष मिसालें देना ज़रूरी नहीं है -- क्योंकि जो देखना चाहते हैं देख ही सकते हैं -- पर जो परोक्ष में है और भी चिंताजनक है। मसलन, लेखक कवियों और कलाकारों के बीच विमर्श को जाँचिए, उस स्पर्धा और घमासान को देखिए जो हमेशा उनके बीच होता ही रहता है, हिन्दी के अध्यापकों से बात कीजिए, और मुज़फ़्फ़रनगर का ज़िक्र छेड़िये तो लगेगा मुज़फ़्फ़रनगर में शायद कोई मामूली वारदात हुई है जो होकर ख़त्म हो गई। जैसे किसी को मच्छर ने काट लिया हो! मुज़फ़्फ़रनगर की बग़ल में, दिल्ली में, बैठे हुए किसी को सुध नहीं कि पड़ोस में क्या हुआ था और हो रहा है, बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, भोपाल, पटना, चंडीगढ़ और शिमला का तो ज़िक्र ही क्या! इक्के दुक्के पत्रकारों, चंद कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार संगठनों की को छोड़ दें तो किसी लेखक-कलाकार को वहाँ जाने की तौफ़ीक़ नहीं हुई। उनमें से एक शरणार्थी कैम्प तो दिल्ली की सीमा ही पर है। मात्र एक ज़िले में क़रीब एक लाख लोग अपने गाँवों और घरों से खदेड़ दिये गए, शायद अब कभी वहाँ लौट नहीं पाएँगे, उनके भविष्य में असुरक्षा और अंधकार के सिवा कुछ नहीं, उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति साहित्य, कला, संस्कृति, पत्र-पत्रिका, अख़बार, सोशल मीडिया में सरसरी तौर से भी ठीक से दर्ज नहीं हो पा रही। ऐसे है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। और जो अब हो रहा है वो भी नहीं हो रहा!

मामला इतने पर ही नहीं रुकता। संघ परिवार, नरेन्द्र मोदी और भाजपा के उत्तर प्रदेश प्रभारी अमित शाह का इस प्रसंग से जैसे कोई वास्ता ही नहीं! मीडिया को उनका नामोल्लेख करना ग़ैर-जायज़ लगता है। मामले को ऐसे बयान किया गया कि यह सिर्फ़ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की चुनावी चाल थी जो उल्टी पड़ गई। अगर कोई कहता है कि कैसे मुज़फ़्फ़रनगर में गुजरात का प्रयोग विधिवत ढंग से दोहराया गया है, और इस वक़्त वहाँ की दबंग जातियाँ, पुलिस और काफ़ी हद तक प्रशासन मोदी-मय हो रहा है, और यह कि मुज़फ़्फ्ररनगर क्षेत्र में संघ परिवार बहुत दिन से ये कारनामा अंजाम देने की तैयारी कर रहा था, तो आम बौद्धिक कहने वाले की तरफ़ ऐसे देखते हैं जैसे कोई बहुत दूर की कौड़ी लाया हो। हिन्दी इलाक़े के बौद्धिकों में -- जिनमें अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी कम नहीं हैं -- फ़ासिज़्म को इसी तरह देखा या अनदेखा किया जाता है। अभी कुछ दिन पहले हिन्दी के एक पुराने बुद्धिमान ने यह कहा कि नरेन्द्र मोदी पर ज़्यादा चर्चा से उसीका महत्व बढ़ता है; बेहतर हो कि हम मोदी को 'इगनोर' करना सीख लें। एक प्रकार से वह साहित्य की दुनिया में आज़माये फ़ार्मूले को राष्ट्रीय राजनीति पर लागू कर रहे थे। इतिहास में उन जैसे चिन्तकों ने पहले भी हिटलर और मुसोलिनी को 'इगनोर' करने की सलाह दी थी।

अगर यह नादानी या मासूमियत की दास्तान होती तो दूसरी बात होती। इसी तबक़े के लोगों ने यू आर अनंतमूर्ति प्रकरण में जिस मुस्तैदी और जोश से बहस में हिस्सा लिया वह कहाँ से आई? अनंतमूर्ति ने जब यह कहा कि वह ऐसे मुल्क में नहीं रहना चाहेंगे जहाँ मोदी जैसा आदमी प्रधानमंत्री हो, संघ परिवार द्वारा लोकतंत्र पर जैसी फ़ासीवादी चढ़ाई की तैयारी है, अगर वह सफल हो गई तो यह देश रहने लायक़ नहीं रह जाएगा, तो लगा जैसे क़हर बरपा हो गया! शायद ही वर्तमान या अतीत के किसी लोहियावादी को एक साथ संघ परिवार और हिन्दी के उदारमना मध्यममार्गी लोगों का ऐसा कोप झेलना पड़ा हो। अचानक साहित्य और पत्रकारिता के सारे देशभक्त जाग उठे और बुज़ुर्ग लेखक के 'देशद्रोह' की बेहूदा तरीक़े से निन्दा करने लगे। यह अनंतमूर्ति की वतनपरस्ती ही थी कि उन्होंने ऐसी बात कही। रंगे सियारों के मुँह से यह बात थोड़े ही निकलने वाली थी! कौन चाहेगा कि उसका वतन एक क़ातिल और मानवद्रोही के पंजे में आ जाए? क्या इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि हज़ारों, बल्कि लाखों बल्कि लोगों को, रोते और बिलबिलाते हुए, अपने वतन को अलविदा कहनी पड़ी? पिछली सदी में जर्मनी में और स्पेन में, और १९४७ के भारत में क्या हुआ था? हर तरह के फ़ासिस्ट और साम्प्रदायिक लोग क्या इसी को शुद्धिकरण और राष्ट्र-निर्माण का दर्जा नहीं देते थे? कुछ लोग तमाम जानकारी जुटा कर यह साबित करने पर तुल गए कि अनंतमूर्ति नाम का शख़्स कितना चतुर, अवसरवादी और चालबाज़ रहा है। मामला फ़ासिस्ट ख़तरे से फिसलकर एक असहमत आदमी के चरित्र विश्लेषण पर आ ठहरा। वे किसका पक्ष ले रहे थे? ऐसी ही दुर्भाग्पूर्ण ख़बरदारी वह थी जिसका निशाना मक़बूल फ़िदा हुसेन बने। कई बुद्धिजीवी और अख़बारों के सम्पादक हुसेन को देश से खदेड़े जाने और परदेस में भी उनको चैन न लेने देने के अभियान का हिस्सा बन गए थे।

मुज़फ़्फ़रनगर पर ख़ामोशी और अनंतमूर्ति के मर्मभेदी बयान पर ऐसी वाचालता दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इससे यह पता चलता है कि ज़हर कितना अन्दर तक फैल चुका है। फ़ासिज्‍़म लोगों की भर्ती पैदल सैनिक के रूप में लुम्पेन तबक़े से ही नहीं, बीच और ऊपर के दर्जों से भी करता है। उसका एक छोटा दरवाज़ा बायें बाज़ू के इच्छुकों के लिए भी खुला होता है। कुछ साल के अन्तराल से आप किसी पुराने दोस्त और हमख़याल से मिलते हैं तो पता चलता है वह बस हमज़बान है, हमख़याल नहीं। आपका दिल टूटता है, ज़मीन आपके पैरों के नीचे से खिसकती लगती है, अपनी ही होशमन्दी पर शक होने लगता है। वैचारिक बदलाव ऐसे ही चुपके से आते हैं। बेशक इनके पीछे परिस्थितियों का दबाव भी होता है, पर यही दबाव प्रतिरोध के विकल्प को भी तो सामने कर सकता है। ऐसा नहीं होता नज़र आता इसकी वजह है बहुमत का डर और वाम-प्रतिरोध की परंपरा का क्षय। मेरी नज़र में जब लोग लोकतंत्र के मूल्यों की जगह बहुमतवाद के सिद्धान्त को ही सर्वोपरि मानने लगें, और राजनीति-समाज-दैनिक जीवन सब जगह उसी की संप्रभुता को स्वीकार कर लें, बहुमतवाद के पक्ष में न होकर भी उसके आतंक में रहने लगें, अपने को अल्पमत और अन्य को अचल बहुमत की तरह देखने लगें और ख़ुद अपने विचारों और प्रतिबद्धताओं के साथ नाइन्साफ़ी करने लगें तो अंत में यह नौबत आ जाती है कि बहुमत के लोग ही बहुमत से डरने लगते हैं। बहुमत ख़ुद से डरने लगता है।आज हिन्दुस्तान का लिबरल हिन्दू अपने ही से डरा हुआ है, उसे बाहर या भीतर के वास्तविक या काल्पनिक शत्रु की ज़रूरत नहीं रही। फ़ासिज़्म का रास्ता इसी तरह बना है, इसी से फ़ासीवादियों की ताक़त बढ़ी है। यह वह माहौल है जिसमें प्रगतिशील आदमी भी सच्ची बात कहने से घबराने लगता है, साफ़दिल लोग भी एक दूसरे से कन्नी काटने लगते हैं। बाक़ी अक़्लमंदों का तो कहना ही क्या, उनके भीतर छिपा सौदागर कमाई का मौक़ा भाँपकर सामने आ जाता है और अपनी प्रतिभा दिखाने लगता है। अक़लमंद लोग अपनी कायरता को भी फ़ायदे के यंत्र में बदल लेते हैं।

१९८९ के बाद पंद्रह बीस साल ऐसे आए थे जब भारत का मुख्यधारा का वाम (संसदीय वामपंथ ) यह कहता पाया जाता था कि दुनिया भर में समाजवादी राज्य-व्यवस्थाएँ टूट रही हैं, कुछ बिल्कुल मिट चुकी हैं लेकिन हिन्दुस्तान में वाम की शक्ति घटी नहीं बल्कि इसी दौर में उत्तरोत्तर बढ़ी है। वाम संगठनों की सदस्यता में इज़ाफ़ा हुआ है और यह इसका प्रमाण है कि वाम दलों की नीतियाँ सही हैं, और यह कि हमारी वाम समझ ज़्यादा परिपक्व, ज़मीनी और पायेदार है। बूर्ज्वा पार्टियों का दिवालियापन अब ज़ाहिर होने लगा है। इस सूत्र को इसी दौर की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति से मिलाकर देखें तो पता चलता है कि वाम के एक हिस्से ने अपने लिए कितनी बड़ी मरीचिका रच ली थी, और यथार्थ के प्रतिकूल पक्ष की अनदेखी करना सीख लिया था। वाम दलों ने अपनी बनाई मरीचिका में फँसकर अपने ही हौसले पस्त कर लिए हैं। इसी दौर में संघ परिवार की ख़ूनी रथयात्राएँ और सामाजिक अभियान शुरू हुए जिनकी परिणति बाबरी मस्जिद के विध्वंस और मुम्बई और सूरत के नरसंहारों में हुई। यह दौर हिन्दुत्व के राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्रीय तथ्य बनने का है, पहले खाड़ी युद्ध के साथ पश्चिम एशिया पर अमरीकी साम्राज्य के हमलों का है, और भारत में नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था के आत्मसमर्पण का है। इसी दौर में भारत स्वाधीन नीति छोड़कर अमरीका का मातहत और इज़राइल का दोस्त हुआ। इसी दौर में बंगाल की लम्बे अरसे से चली आ रही वाम मोर्चा सरकार ने अवाम के एक हिस्से का समर्थन खो दिया क्योंकि वाम सरकार और वाम पार्टियों के व्यवहार में वाम और ग़ैर-वाम का फ़र्क़ ही नज़र आना बंद हो गया था। यही दौर मोदी की देखरेख में गुजरात में सन २००२ का ऐतिहासिक नरसंहार सम्पन्न हुआ जिसमें राजसत्ता के सभी अंगों ने अभूतपूर्व तालमेल का परिचय दिया और भारत में भावी फ़ासिज़्म क्या शक्ल लेगा इसकी झाँकी दिखाई। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्तार, निजीकरण और कॉरपोरेट नियंत्रण के तहत इसी हिन्दू फ़ासिस्ट मॉडल को विकास के अनुकरणीय आदर्श की तरह पेश किया जाता रहा है।

आज हिन्दुस्तान में संसाधनों की कारपोरेट लूट लूट नहीं राजकीय नीति के संरक्षण में क्रियान्वित की जाने वाली हथियारबंद व्यवस्था है। भारतीय राज्य का राष्ट्रवाद अवामी नहीं, दमनकारी पुलिसिया राष्ट्रवाद है, अर्धसैनिक और सैनिक ताक़त पर आश्रित राष्ट्रवाद है। यह अपनी ही जनता के विरुद्ध खड़ा राष्ट्रवाद है। वैसे तो सर्वत्र लेकिन उत्तरपूर्व, छत्तीसगढ़ और कश्मीर में सुबहो-शाम इसका असल रूप देखा जा सकता है। आर्थिक नीति, सैन्यीकृत राष्ट्रवाद और शासन-व्यवस्था के मामलों में कांग्रेस और भाजपा में कोई अन्तर नहीं है। फ़ासिज्‍़म के उभार में इमरजेम्सी के ज़माने से ही दोनों का साझा रहा है। हिन्दुस्तान में फ़ासिज़्म के उभार का पिछली सदी में उभरे योरोपीय फ़ासिज़्म से काफ़ी साम्य है। जर्मन नात्सीवाद के नक़्शे क़दम पर चल रहा है। वह अपने इरादे छिपा भी नहीं रहा । बड़ा फ़र्क़ बस यह है कि भारतीय मीडिया और मध्यवर्ग इसी चीज़ को छिपाने में जी-जान से लगा है। फ़ासिज़्म फ़ासिज़्म न होकर कभी विकास हो जाता है कभी दंगा, गुजरात का नस्ली सफ़ाया गोधरा कांड की प्रतिक्रिया हो जाता है, मुज़फ़्फ़रनगर की व्यापक हिंसा जाट-मुस्लिम समुदायों की आपसी रंजिश का नतीजा या कवाल कांड की प्रतिक्रिया बन जाती है। हमारे बुद्धिजीवी विषयांतर में अपनी महारत दिखाकर इस फ़ासिज़्म को मज़बूत बनाए दे रहे हैं।

इस दुष्चक्र को तोड़ने का एक ही तरीक़ा है इन ताक़तों से सीधा सामना, हर स्तर पर सामना। और समय रहते हुए सामना। अपने रोज़मर्रा में हर जगह हस्तक्षेप के मूल्य को पहचानना। ऐसी सक्रिय नागरिकता ही लोकतंत्र को बचा सकती है। सबसे ज़्यादा ज़रूरी है आज व्यवस्था के सताये हुए अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई), दलित और आदिवासी के साथ मज़बूती से खड़े होने की। अगर वाम शक्तियाँ और ग़ैर-दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी वर्ग प्रतिबद्धता से यह कर सकें तो फ़ासिज़्म की इमारतें हिल जाएँगी और उनके आधे मन्सूबे धरे रह जाएँगे। इस समय ज़रूरत है फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ व्यापक वाम और अवामी एकता की -- अगर यह एकता राजनीतिक शऊर और ज़मीर से समझौते की माँग करे तो भी। बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी का काम इससे बाहर नहीं है।
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 `प्रभात खबर` दीवाली विशेषांक से साभार

4 comments:

Unknown said...

सांप्रदायिक-फासीवाद के खिलाफ नया विमर्श खड़ा करने के घटाटोप से अलग
`प्रभात खबर` दीवाली विशेषांक से साभार लिया हुआ एक जिद्दी धुन ब्लॉग पर चस्पाँ असद ज़ैदी की हमारे समय में फासिज़्म की खतरनाक आहट पर “अपने से डरा हुआ बहुमत” शीर्षक से की गई तल्ख टिप्पणी को अंत तक गौर से पढ़ा। और सच कहूँ तो सांसें रोके अंत का इंतज़ार करते हुए पढ़ा। ऐसा इसलिए कि इस मसले पर पिछले अनुभव बेहतर नहीं रहे हैं। वे उदार बुर्जूआ विचार के दायरे से बाहर नहीं रहे और इस नाते उनका हस्र भी उससे अलग नहीं रहा। उन दिनों सरकारी प्रतिक्रिया उदारवादी हिन्दू विचारों के इस्तेमाल और कानूनी उपायों का सहारा लेने तक ही सीमित रही। मुख्यधारा के वाम की प्रतिक्रिया भी इस सीमा रेखा को कभी पार नहीं कर पाई- “मंदिर बने, मस्जिद रहे, सब कानून का पालन करें“ आदि। पिछले दिनों सांप्रदायिक हमलों के भय ने हमारे सेक्युलर बौद्धिक जमात को अक्सर मंदिर के खिलाफ मण्डल को खड़ा करने की नकारात्मक रणनीति पर निर्भर बना दिया। एक स्तर पर तमाम दलित-पिछड़ी जतियों की एकता ने अपनी भूमिका निभाई भी लेकिन इसकी एक सीमा थी, उस सीमा के बाद वह अपना काम नहीं कर सकती थी। बाद को इसकी बुरी तरह विफलता उजागर भी हो गई। इन अनुभवों को समेटते हुए हममें आज तक बुनियाद में जाकर सांप्रदायिक-फासीवाद की जड़ें तलाशने, उसके खिलाफ लड़ने की कोई नई रणनीति तजवीज करने के प्रयास नहीं दिखते।
असद ज़ैदी की टिप्पणी में व्यक्त चिंताओं से रत्ती भर इधर-उधर हुए बिना, सौ फीसद सहमत होते हुए भी अंत तक जाते-जाते इन चिंताओं से उबरने के बारे में व्यक्त विचारों, पंक्तियों में (“इस समय ज़रूरत है फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ व्यापक वाम और अवामी एकता की -- अगर यह एकता राजनीतिक शऊर और ज़मीर से समझौते की माँग करे तो भी। बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी का काम इससे बाहर नहीं है।“) उसी पुरानेपन के होने का संदेह मौजूद मिला, जिस कारण मैं सांसें रोके अंत तक पढ़ता गया था। क्या मतलब है इस पंक्ति का – “ अगर यह एकता राजनीतिक शऊर और ज़मीर से समझौते की माँग करे तो भी।“ यह कौन सी एकता है? कहाँ बनी या बन रही है और किस समझ के तहत, जिसके लिए राजनीतिक सऊर और ज़मीर से समझौते की मांग असद कर रहे हैं? क्या यह पीछे 30 अक्तूबर को दिल्ली मे सीपीआई, सीपीएम, जदयू(नीतीश कुमार), सपा(मुलायम सिंह) और यूपीए सरकार में शामिल एनसीपी आदि का जो जमावड़ा हुआ था और कि जिसमें कॉंग्रेस के प्रति पूरी तरह से चुप्पी साधी गई थी, उसके साथ चलने की मांग तो नहीं? या क्या? यह सब स्पष्ट नहीं है। यह भी नहीं कि वे इस जमावड़े को फ़ासीवाद के खिलाफ लड़ाई के लिहाज से किस रूप में देखते हैं। सार्थक बहस चलाने के खयाल से बेबाक ढंग से कहूँ तो यह टिप्पणी सांप्रदायिक-फासीवाद के खिलाफ एक नया विमर्श खड़ा करने का घटाटोप जरूर बांधता है लेकिन उसका अंत तदर्थवाद में, एडहोकिज़्म में होता है। जैसा कि इस संदर्भ में ग्राम्शी ने कहा है- “तदर्थ कार्यवाही अपनी स्वाभाविक प्रकृति की वजह से दीर्घगामी और जैविक चरित्र की नहीं होती। यह लगभग सभी मामलों में पुनुर्स्थापन और पुनर्ससंगठन के लिए उपयुक्त होती है। लेकिन यह नए मूल्यों, नए विमर्शों और नए सामाजिक ढांचों की स्थापना के लिए उपयुक्त नहीं होती। यह बुनियादी तौर पर रच्छात्मक हो जाती है और किसी तरह की मौलिक रचना में सक्छम नहीं होती। जाहिर है तब उसकी अंतर्निहित मान्यता होगी कि पहले से अस्तित्वमान समूहिक इच्छा कमजोर और अस्त-व्यस्त हो गई है। उसका पातन हो रहा है। यह खतरनाक और डरानेवाला है। लेकिन यह निर्णायक और विपदा जनक नहीं है। उसे बस फिर से संकेंद्रित और शक्तिशाली बनाना जरूरी है।“ सच कहूँ तो असद कि इस टिप्पणी को पढ़ कर ऐसा नहीं लगता कि सांप्रदायिक-फासीवाद से लड़ने के लिए (पुनः ग्राम्शी के ही शब्दों में) “एक नवीन समूहिक इच्छा का बिलकुल नए सिरे से निर्माण किया जाए और उसे उन लच्छ्यो के प्रति प्रेरित किया जाए जो मूर्त और युक्तिसंगत हैं लेकिन जिसकी मूर्तता और विवेकपरकता को अभी तक एक वास्तविक और सार्वभौम रूप से विदित ऐतिहासिक अनुभव के द्वारा आलोचनात्मक ढंग से परखा नहीं गया है।“ जाहिर है हमें इसी तरह के नए प्रयाश की जरूरत है और इसीलिए ग्राम्शी का लंबा उद्धरण भी देना पड़ा है। इस खयाल से ही कि इसपर बहस समय कि मांग है और असद ने अपनी टिप्पणी से इसकी सही शुरुआत की है। यह सोचते हुए कि असद इस छोटी टिप्पणी में अपनी पूरी बात न कह पाएँ हों, जैसा कि होता है, हमने यह टिप्पणी इस प्रस्तावित बहस को आगे बढ़ाने के खयाल से लिखी है। इस पर असद समेत सभी साथी शरीक हों और सार्थक बहस चले तो संभव है भारतीय संदर्भ में हम किसी नए विमर्श को रच सकें।

Asad Zaidi said...

रामजी राय का आभारी हूँ कि उन्होंने इतनी हमदर्दी और ग़ौर से यह आलेख पढ़ा। आलेख में मूलतः मेरे दिल ही का हाल ही ज़्यादा है, विश्लेषण और काम के निष्कर्ष कम है। पर विमर्श का 'घटाटोप' खड़ा कर सकने की पेशेवराना सलाहियत मुझमें कम है। सो यह इल्ज़ाम बेजा है।

रामजी राय के दोस्ताना पाठ में बस दो बातें मुझे खटकीं जिनमें एक के दोषी वह हैं, दूसरी का मैं। निष्कर्ष की उम्मीद और इन्तिज़ार में पढ़ी गई चीज़ कई बार हताश करती है। आलेख यक़ीनन इस अनुशासन से बाहर चला गया है। इस में मौजूद अर्ज़े-हाल और बेचैन से ख़ुलासे ही निष्कर्ष की जगह घेरे हुए हैं।

आलेख के अंतिम हिस्से में आये आधे जुमले ("अगर यह एकता राजनीतिक शऊर और ज़मीर से समझौते की माँग करे तो भी।") से ज़रूर यह निष्कर्ष निकलता प्रतीत होता है कि मैं जैसे तैसे मुसीबत को टालने वाले, अल्पजीवी और सिद्धान्तहीन समझौते की माँग कर रहा हूँ। अगर ऐसा है तो मेरी सारी बातें ही बेकार हो जाती हैं। दरअसल मेरे दिमाग़ में इसका संदर्भ इससे पहले आया यह जुमला था : "सबसे ज़्यादा ज़रूरी है आज व्यवस्था के सताये हुए अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई), दलित और आदिवासी के साथ मज़बूती से खड़े होने की। अगर वाम शक्तियाँ और ग़ैर-दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी वर्ग प्रतिबद्धता से यह कर सकें तो फ़ासिज़्म की इमारतें हिल जाएँगी और उनके आधे मन्सूबे धरे रह जाएँगे।" मैं कहना चाहता था कि इस समय इन तबक़ों के साथ यह पक्षधरता बिना शर्त वाली ही हो सकती है, भले ही इसके लिए हमें उत्पीड़ितों के बीच राजनीतिक तैयारी, उत्साह या रिस्पांसिवनेस न मिले।

बाक़ी मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ कि दिल्ली में ३० अक्तूबर वाला बहुदलीय जमावड़ा मेरी निगाह में ख़ासा दयनीय था और ऐसी चीज़ों से कुछ नहीं होने वाला।

मैं उन लोगों में हूँ जो ग्राम्शी का नाम आते ही ढेर हो जाते हैं, पर उनके बिना भी रामजी राय की बातों से, और उन बातों के पीछे की भावना से, पूरी तरह सहमात हूँ।

असद ज़ैदी

वर्षा said...

असद ज़ैदी जी ने ये बहुत महत्वपूर्ण लेख लिखा है।
कई बार बहुत से लोग विचार के स्तर पर अटके हुए होते हैं। कनफ्यूज़। एक बहुत अच्छी बात जो समझ में आई....नागरिक सक्रियता। सचमुच इसी से तस्वीर बदली जा सकती है। हममें से बहुत से लोग हैं जो बेहतर विकल्प की तलाश में हैं जो दरअसल दिखाई ही नहीं देता या है ही नहीं..।

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 26/04/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !