Monday, July 31, 2017

हिन्दी नवजागरण में प्रेमचंद : मनमोहन


भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में एक प्रेमचंद भी हैं। आज़ादी के बाद बहुत से अवांगर्द कहते थे कि प्रेमचंद पुराने पड़ गए हैं। बल्कि प्रेमचंद के निधन के बाद ही बहुतों को ऐसा लगने लगा था। लेकिन इसे अलग से साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन ने प्रेमचंद के छोड़े हुए सिलसिले को बड़ी शिद्दत से संभाला और आगे बढ़ाया। आज़ादी के बाद के रचनात्मक संघर्ष की कहानी भी यही बताती है कि प्रेमचंद कभी इतने पुराने नहीं हुए कि उन्हें बार-बार याद करने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाए। प्रेमचंद का अधूरा काम पूरा होना तो मुश्किल है लेकिन यह आगे ज़रूर बढ़ा है चाहे इसका अधूरापन और भी फैला हुआ दिखाई देता हो। पिछले बीस-पच्चीस बरस में हमारे जीवन में जो कुछ घटा है उसे देखें तो प्रेमचंद और भी करीब लगते हैं और उनके होने की केन्द्रीयता और प्रासंगिकता और भी ज़्यादा समझ में आती है। कहना फ़िज़ूल है कि किसी लेखक की प्रासंगिकता का अर्थ यह नहीं कि नए संदर्भ में उस लेखक को हूबहू दुहराया जा सकता है। इन दिनों खाये-पिये दस-बीस फीसदी लोगों की दुनिया में प्रेमचंद चाहे क़तई अजनबी और फालतू नज़र आएं लेकिन उन करोड़ों-करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए प्रेमचंद का अर्थ अभी कम नहीं हुआ है जो साम्राज्यवादी विश्वीकरण के बर्बर हमलों की सबसे बुरी मार झेल रहे हैं।

जिस ऐतिहासिक कार्यसूची के इर्द गिर्द 19वीं 20वीं सदी के भारतीय नवजागरण का नक्शा उभर कर सामने आया था, शायद उसमें मध्यकालीन सरंचनाओं से बंधे एक परम्परागत समाज की अपनी जातीयता और आधुनिकता की खोज के लक्ष्य सबसे केन्द्रीय अनुरोध थे। इस संदर्भ में पहली बात जो गौरतलब है वह यह कि 19वीं सदी में भारतीय नवजागरण का अंकुरण उपनिवेशीकरण की मुहिम के साथ-साथ और एक औपनिवेशिक परिस्थिति में हुआ। आधुनिकता की सीमित प्रक्रिया के खुलने (आधुनिक शिक्षा, संचार, आधुनिक भाषा, नए मध्यवर्ग के उदय) के साथ जिस समय एक आन्तरिक आलोचना की भूमिका बनी और समाज-सुधार का एजेंडा सामने आने लगा, उसी समय पुराने सामाजिक ढांचों और वर्चस्व की प्रणालियों ने समाज सुधार के कार्यक्रम पर पुनरुत्थानवादी मुहिम के जरिए भारी दबाव बनाया जिससे उसके उदारवादी सारतत्व को कमज़ोर और अनुकूलित किया जा सके।

पुराने और नए उदीयमान सामाजिक अभिजन इस नवजागरण के नायक थे। पुनरुत्थानवाद की मिलावट के साथ समाज-सुधार के सीमित कार्यक्रम भी इन्हें एक नई जगह और आवश्यक गतिशील उर्जा देते थे। इससे इनकी छोटी-छोटी सामुदायिक पहचानें, बड़ी जातीय पहचान की शक्ल में ढ़ल कर सामने आती थीं और इनके वर्चस्व के लिए नई क्षेत्र-रचना होती थी।

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में एक राजनीतिक आन्दोलन के रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन की रेखाएं उभरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाज सुधार का कार्यक्रम पीछे जाने लगा। इसके अलावा सुधार के प्रश्न पर सामाजिक प्रतिक्रियावाद का संगठित और उग्र विरोध सामने आने लगा था। `समाज संशोधन` के आग्रह को `भारतीय संस्कृति` में `विजातीय हस्तक्षेप` और पश्चिम के अंधानुकरण के तौर पर चित्रित और प्रचारित किया गया। महाराष्ट्र के नवजागरण में, जहां रानाडे की `सोशल कॉन्फ्रेंस` या `प्रार्थना समाज` जैसी उदारवादी मध्यवर्गीय संस्थाओं के अलावा ज्योतिबा फुले और उनके सत्यशोधक समाज के रूप में समाज सुधार आन्दोलन की ज़्यादा मूलगामी धारा उभर आई थी, वहां यह पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया सबसे कड़ी थी। विवाह की उम्र 10 से 12 साल करने वाले `Age of Consent Bill` के आने पर महाराष्ट्र में `ऊंची जातियों` की ओर से तीखी प्रतिक्रिया की गई। यही नहीं लमाज सुधार की संस्था सोशल कॉन्फ्रेंस और नवोदित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रिश्ते को हिंसक अभियानों के ज़रिए तोड़ा गया। संस्कृति की राजनीति का सहारा लेकर अनुदार विचार और नवोदित राष्ट्रवाद में गूढ़ गठजोड़ कायम हुआ। कुछ ही समय में यह उग्र अनुदारवादी मुहिम साम्प्रदायिक विद्वेष और हिंसा का औजार बन गई। उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर भारत के नवजागरण का साम्प्रदायीकरण और विखंडन तेज हो गया। यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण उपनिवेशवादियों के लिए बेहद अनुकूल था जिनके एजेण्डे में 1857 के बाद विभाजनकारी कार्यनीति ने और भी ज़्यादा केन्द्रीयता हासिल कर ली थी।

बंगाल और महाराष्ट्र के मुकाबले हिन्दी प्रदेश के नवजागरण में उदारवादी सारतत्व पहले से ही कम था। इसकी एक वजह तो यही थी कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण ने जब तक होश संभाला तब तक भारतीय नवजागरण में उदारवाद की कार्यसूची, पुनरुत्थानवादस और सम्प्रदायवाद के भारी दबाव में आ चुकी थी। उत्तर भारत में नवजागरण शुरू से साम्प्रदायिक विभाजन और विद्वेष का शिकार था। पुरोहितवाद से कड़ी टक्कर लेने के बावजूद कुल मिलाकर आर्य समाज ने ज़्यादा उग्र और अपवर्जनकारी तरीके से अखिल हिन्दूवाद के एकीकृत कट्टरतावादी नमूने को प्रस्तावित किया। सामाजिक गतिशीलता की आकांक्षी कुछ उदीयमान द्विज जातियों और मध्य जातियों को अपना आधार बनाने के कारण पुरोहितवाद से लड़ना सुगम हुआ। लेकिन आर्यसमाज के नवब्राह्मणवाद में सामाजिक गतिशीलता के आश्वासन के साथ पुनरुत्थानवाद का पुट, संकीर्णता (`पश्चिम` विरोध या `विधर्मियों का आतंक`) और उग्र अनुदारता ब्रह्मसमाज के मुकाबले कहीं ज़्यादा थी।

19वीं सदी के हिन्दी नवजागरण का सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सर्वप्रिय अभियान उर्दू के मुकाबले नागरी लिपि में लिखी `नई चाल` की हिंदी (जिसे भारतेंदु मंडल के लेखकों ने `आर्य हिन्दी` कहा है) की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित था। किसी हद तक शिक्षा प्रसार के कार्यक्रम के अलावा शायद हिन्दी नवजागरण का यह अकेला कार्यक्रम था जिसमें `आन्दोलन` की ऊर्जा थी। भाषा और लिपि का मुद्दा धर्म से जुड़ गया था और साम्प्रदायिक विभाजन का सक्षम औजार बन गया था। तीखी विद्वेषपूर्ण स्पर्धा इसकी संचालिका शक्ति बन गई। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में हिन्दी नवजागरण की कुल मिला कर जो रूपरेखा बनी उसमें आर्य समाज और भारतेंदु मंडल के आलावा जात पांत के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ उभरीं `गौ रक्षिणी` सभाओं और `लिपि संवर्द्धिनी` सभाओं की बड़ी भूमिका थी। इन तमाम उपक्रमों को देसी रियासतों और रजवाड़ों का भरपूर सहयोग और सरंक्षण हासिल था। आर्य समाज ने `गौ रक्षा `और भाषा-लिपि के इन अभियानों में शरीक हो कर ही सनातन पंथ के प्रभाव क्षेत्र तक अपने नेतृत्व का विस्तार किया। बाद में `शुद्धि आन्दोलन` के जरिये इसी सिलसिले को नई आक्रामकता मिली।

इसे ऐतिहासिक विचित्रता ही कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के `जातीय जागरण` को जातीय विखंडन की नींव पर खड़ा होना पड़ा। विखंडन और `जागरण` सहवर्ती प्रक्रियाएं बन गईं। आधुनिक भाषा जातीय गठन का एक अनिवार्य औजार मानी जाती है। यह कोरा औजार भी नहीं है बल्कि यह जाति, धर्म की संकीर्ण पहचानों से बाहर एक वृहत्तर जातीय समुदाय के बनने की रासायनिक प्रक्रिया का अंग है। लेकिन खुद इस प्रक्रिया में ढ़ल कर निकली उत्तर भारत की ख़ूबसूरत आधुनिक बोली साम्प्रदायिक होड़ की शिकार हुई और दो टुकड़े हो गई। इतना स्पष्ट बंटवारा हुआ कि उर्दू-फ़ारसी के अच्छे जानकर होने के बावजूद फोर्ट विलियम कॉलेज के लल्लू जी लाल से लेकर बीसवीं सदी के लाला भगवानदीन तक के हिन्दी गद्य पर इसका छींटा तक दिखाई नहीं देता। 19वीं सदी के उर्दू विरोध की परम्परा बीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी की ख़िलाफत तक पहुंची।

इसी नवजागरण के हिस्से मुंशी प्रेमचंद भी थे। लेकिन इसे समझने में शायद कठिनाई न होनी चाहिए कि इसमें उनकी जगह ज़्यादा मुश्किल और अलग थी। उर्दू और हिन्दी दोनों के अलग-अलग लिखे गए इतिहासों में उनकी एक ही जगह है। इस बात का महत्व और अर्थ कभी कम न होगा कि प्रेमचंद ने अपने विचार और रचनात्मक व्यवहार के जरिए उत्तर भारतीय नवजागरण के साम्प्रदायिक विभाजन के धूर्त तर्क को सिरे से रद्द कर दिया और उसके झूठ के साथ कभी समझौता नहीं किया। इस `नीच ट्रेजैडी` के साथ प्रेमचंद कभी संतुष्ट सम्बन्ध नहीं बना सके, जबकि हिंदी नवजागरण के ज़्यादातर पुरोधाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचंद के बाद प्रगतिशील आन्दोलन ने ज़रूर इस खाई को अस्वीकार कर के हिन्दी-उर्दू को फिर से करीब लाने में मदद की। वरना हिंदी बौद्धिकता की `मुख्यधारा` की आत्मचेतना में पिछले दो सौ साल के इस अन्तर्विभाजन की पीड़ा शायद ही कभी झलकती हो। सच तो ये है कि खंडित हिंदी जाति की `गौरव यात्रा` का प्रसन्न चित्त वृत्तांत लिखने वाले ज़्यादातर इस अन्तर्विभाजन को ही हिन्दी नवजागरण का सबसे बड़ा कारनामा समझते हैं।

भाषा के मसले पर फिरक़ापरस्ती से लगातार लड़ने और हथियार न डालने का एक खास सामाजिक अर्थ था। अगर जातीय गठन के प्रश्न को प्रेमचन्द ज्यादा बुनियादी ढंग से पेश कर पाते हैं और अपनी रचनाओं में हिन्दुस्तानियत की ज्यादा मजबूत और ज़रख़ेज़ बुनियाद पर खड़े दिखाई देते हैं तो इसकी वजह यही है कि उन्होंने यथार्थ को विभाजन की बाधा के अंदर से नहीं देखा। `हिन्दू`, `मुसलमान` की अपवर्जी और बंद श्रेणियों या मिथक कल्पनाओं की मदद लिए बिना उन्होंने अपने समय के ठोस यथार्थ को, उसके ठोसपन में समझने और अपना रुख तय करने की कोशिश की। धर्म-संस्कृति की राजनीति के पाखंड को वे अच्छी तरह जानते थे, और उसकी छद्म गरिमा का कोई दबाव उन पर नहीं था। साम्प्रदायिकता किस तरह `संस्कृति` और `राष्ट्रवाद` की खाल ओढ़ कर सामने आती है और किस तरह साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन को विफल करना चाहती है, यह वे खूब समझते थे।

साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के लिए इस अचूक और निर्भ्रांत नज़र के चलते ही प्रेमचन्द के परिप्रेक्ष्य में उदारवादी अन्तर्वस्तु इतनी सघन है। क्योंकि नवजागरण काल में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद की राजनीति के उभार का एक अहम लक्ष्य ठीक इसी अन्तर्वस्तु को कमज़ोर करने का रहा है। इस तथ्य का भी इस चीज़ से ज़रूर एक रिश्ता है कि हिन्दी नवजागरण में प्रेमचनंद यथार्थवाद के सबसे बड़े आविष्कारक और प्रतिष्ठापक हैं। हिन्दुस्तान के देहात के अनेक ग़रीब चेहरे अपनी अनगिनत कहानियों के साथ पहली बार हिन्दी में प्रेमचन्द के ज़रिए ही दाख़िल हुए।

19वीं-20वीं सदी के हिन्दी नवजागरण में (निराला जैसे कुछ अपवादों को छोड़ कर) दलित प्रश्नों की शायद ही कोई जगह बन पाई। यह प्रेमचन्द की उदार जनतंत्रात्मकता का ही एक पहलू था कि वे जाति व्यवस्था की अतार्किता और बर्बरता को और इस में निहित झूठ, मक्कारी, फरेब और हरामखोरी को इतने निर्णायक और विस्तृत ढंग से सामने लाये। इसकी अमनुष्यता के खिलाफ लड़ना उन्हें हमेशा जरूरी लगा। उन्होंने साम्प्रदायिकता और जातिवाद के रिश्ते को ठीक-ठीक समझ लिया था। वे जानते थे कि धार्मिक पहचान को आक्रामकता देकर दलितों और स्त्रियों की अभिव्यक्तियों और प्रश्नों को आसानी से कुचला जा सकता है।

हालांकि, भारतेन्दुयुग में ही कई लेखकों ने जातपात की व्यवस्था में आ गई संकीर्णता और परजीविता की आलोचना की थी। लेकिन उनका परिप्रेक्ष्य `जाति सुधार` का था। `जाति सुधार` का परिप्रेक्ष्य अन्तत: जाति के सुदृढ़ीकरण का ही परिप्रेक्ष्य था। इसमें जातिव्यवस्था के उत्पीड़क और विभेदकारी वर्चस्ववादी चरित्र को नहीं समझा गया।

प्रेमचन्द ने संस्कृति के प्रश्नों को अर्थनीति के प्रश्नों से कभी अलग नहीं किया। न ही उन्होंने आर्थिक या वर्गीय प्रश्नों को सामाजिक-वैचारिक प्रश्नों से अलग किया। यानी प्रेमचन्द न संस्कृतिवाद का सहारा लेते हैं और न अमूर्त अर्थवाद का।

हिन्दी नवजागरण में और उससे भी कहीं ज्यादा उसकी विरुद कथा में लोकवाद की मिथकीय उपस्थिति की एक बड़ी भूमिका रही है। प्रेमचन्द साधारण जनता और खास तौर पर किसानों के लेखक कहे जाते हैं। गांधी का उन पर गहरा असर था। आधुनिक पूंजीवाद को वे गहरे संशय से देखते थे। लेकिन वे किसानों के लोकवाद से संचालित नहीं थे बल्कि शहरी-देहाती गरीबों के जनवादी हितों की नज़र से ही यथार्थ को देखते थे। उन्होंने किसान का या गांव का कोई रहस्यमय मिथक नहीं बनाया जिसकी आड़ लेकर निरंकुश सामाजिक संरचनाओं की पर्दापोशी की जाती है। देहात के ऐसे लोकवादी मिथक को तोड़ कर उन्होंने इसके पीछे चल रहे शोषण और दमन के वर्चस्ववादी सामाजिक-आर्थिक-विचारधारात्मक तंत्र की निष्ठुरता और निरंकुशता को बेपर्दा किया।

हिन्दी नवजागरण का समतलीकरण करते हुए अक्सर यह भुला दिया जाता है कि रामचंद्र शुक्ल के `लोकमंगल` और प्रेमचंद की नज़र में बुनियादी अंतर है। प्रेमचंद का लोक शुक्ल जी के लोक की तरह `उदार निरंकुशतंत्र` का कोई आदर्श नमूना या कोई ख़याल या रूपक भर नहीं है जिसमें वर्चस्व की प्रणाली को चुनौती देना धर्मद्रोह समझा जाय। वह तो ठोस सामाजिक शक्तियों के हितों के पारस्परिक संघर्ष से आंदोलित (और उसी से परिभाषित) एक उपद्रवग्रस्त रणक्षेत्र है जिसमें आर्थिक सामाजिक न्याय के ज्वलंत प्रश्नों की केन्द्रीयता हमेशा बनी रहती है। प्रेमचन्द की सतत चिन्ता वंचित तबकों के हक़ में सामाजिक रूपांतरण की है, जब कि शुक्ल जी का `लोकधर्म` एक ऐसी `ऑथोरिटी` की खोज है, जो `लोकरक्षा` कर सके यानी बाहर और अन्दर से बार-बार चुनौती पाने वाली सामाजिक अनुशासन की `आदर्श` व्यवस्था को मजबूती से लागू कर सके और `छोटे-बड़े` की मर्यादाओं (`शिष्टाचार` और `शील`) की प्रतिष्ठा कर सके। जबकि प्रेमचन्द अपनी दुनिया में बराबरी के मूल्य को केन्द्रीयता देना चाहते हैं।

उसी बनारस से प्रेमचन्द का भी ताल्लुक था जिससे कभी भारतेन्दु का या प्रेमचन्द के समकालीन रामचन्द्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद का। लेकिन यह देखना मुश्किल नहीं है कि प्रेमचन्द के बनारस और जयशंकर प्रसाद की `काशी` में कुछ न कुछ अन्तर ज़रूर है। प्रेमचन्द का बनारस `संस्कृति का कलश` नहीं है। प्राच्यवादियों की मिथक कल्पना के जादू के बाहर यह गरीब हिन्दू-मुसलमान छोटे काश्तकारों, कारीगरों, जुलाहों और दूसरे किरदारों से भरा पड़ा है।

नवजागरण की प्रक्रिया सारत: आधुनिकीकरण की प्रक्रिया थी। और यह उर्दू-हिन्दी के समग्र आधुनिक लेखन में किसी न किसी रूप में घटित हुई। इसे प्रेमचंद में ही नहीं दूसरे नवजागरणकालीन लेखकों में भी किसी न किसी तरह लक्षित किया जा सकता है। लेकिन प्रेमचंद हिन्दी नवजागरण की आत्मबाधा के फन्दे में नहीं फंसे। वे शायद ऐसा इसलिए कर सके क्योंकि वे अलग जगह खड़े थे। वे अन्दर से विभक्त कर दी गई वृहत्तर हिन्दी जाति के प्रतिनिधि रचनाकार थे और इसी जगह से जातीय गठन के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे, ज्यादा बुनियादी ढंग से। उन्होंने वास्तविकता को हिन्दी जाति के वर्चस्वशील सामाजिक अभिजनों की गतिशीलता के लक्ष्यों की नज़र से नहीं, इस जाति के बाहर पड़े वंचित तबकों और गरीबों के हितों की नज़र से देखा और इस जगह को कभी छोड़ा नहीं।

हिन्दी नवजागरण (या हिन्दी-उर्दू नवजागरण में) प्रेमचंद का विकासक्रम संभवत: सबसे अधिक सुसंगत और सतत है। उसमें लगातार एक निख़ार है। 1907 के प्रेमचंद, 1917-18 या 1922-24 के प्रेमचंद और 1934-36 के प्रेमचंद एक नहीं हैं। भावुक देश प्रेम, आर्य समाज की सुधार भावना, गांधीवादी करुणा की तमाम गलियों से गुजरते हुए भी वे लगातार एक समतामूलक न्यायसंगत समाज की रचना के स्वप्न में संचालित थे। और अंत में एक कठिन जगह पहुंच चुके थे जहां बिना किसी झूठी मदद, आसानी या सदाशयता के यथार्थ का बीहड़ और उलझा हुआ भू-दृश्य पूरा दिखाई देता है। अगर ऐसा न होता तो `कफ़न` या `पूस की रात` जैसी कहानियां न लिखी जातीं।

ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद आखिरी मंज़िल पर पहुंच चुके थे। बल्कि 1936 में जिस नए मोड़ पर वे खड़े थे वह एक नई शुरुआत जैसा लगता है। लैंगिक प्रश्नों पर उनके परिप्रेक्ष्य में पितृसत्तात्मक चेतना के दबाव किसी न किसी तरह आखिर तक दिखाई देते हैं। `गोदान` में भी स्त्रियों के बराबर के राजनीतिक अधिकारों के प्रश्न पर वे असमंजस में हैं और स्त्रियों की नागरिक छवि की गुत्थी को पूरी तरह सुलझा नहीं सके हैं।

हिन्दी नवजागरण में प्रेमचंद कुछ-कुछ उसी तरह मौजूद हैं जिस तरह मध्यकालीन भक्ति आंन्दोलन में कबीर मौजूद हैं। हिन्दी नवजागरण के सनातनवादी आख्यान में उन्हें जिस तरह एक `देवमंडल` का हिस्सा बना कर शामिल कर लिया गया है, इससे यक़ीनन उनकी अपनी ख़ास जगह खो गई है।
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मनमोहन



(यह लेख 1995 में लिखा गया था और 2006 में `सहमत-मुक्तनाद` में प्रकाशित हुआ था।)

Friday, July 7, 2017

अरुंधति के `द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस` पर शिवप्रसाद जोशी




अन्यतम ख़ुशी के अन्यतम संघर्ष की दास्तान

अरुंधति रॉय का नया उपन्यास: द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस

(मर गई बुलबुल कफ़स में कह गयी सय्याद से......)
-शिवप्रसाद जोशी

धीरे धीरे हर व्यक्ति बनकर.
नहीं.
धीरे धीरे हर चीज़ बनकर.
(उपन्यास से)

द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस का कैज़ुअल हिंदी अनुवाद भी थोड़ा मुश्किल है. क्या ये हो सकता हैः अन्यतम ख़ुशी की विज़ारत? या अन्यतम ख़ुशी का समूह? यहां मिनिस्ट्री ठीक ठीक मंत्रालय की ध्वनि में नहीं है. इस मिनिस्ट्री के तार आदिम ईसाइयत से भी जुड़े प्रतीत होते हैं. वो वंचितों का बसेरा है जहां से ख़ुशी को संजोए रखने की जद्दोजहद चलती है तो वो कोई मंत्रालय तो नहीं है. उपन्यास में ये तमाम ऐसे साधारण नागरिकों का एक बिखरा हुआ लेकिन किसी न किसी मोड़ पर एकजुट समूह है जो मुख्यधारा के समाज से अनाधिकारिक तौर पर बहिष्कृत हैं.

सामाजिक अलगाव ने उन्हे बाहरी किनारों पर फेंक दिया है. लेकिन किनारों को ही वे लोग अपना आशियाना बना चुके हैं और अपनी एक जन्नत उन्होंने बना ली है. उपन्यास में ये जन्नत गेस्ट हाउस ही है जो बेघरों, संदिग्धों, उत्पीड़ितों, हिजड़ों, नशेड़ियों, फक्कड़ों, ड्राइवरों, गायकों, लेखकों और एक्टिविस्टों का ठिकाना बन जाता है. वे अपनी निजी ज़िंदगियों की उथलपुथल से लड़ते भिड़ते हुए निकलते हैं और उम्मीद की मद्धम रोशनियों की दुनिया में दाखिल होते हैं. वे बहुत सारी भाषाएं बोलते हैं, बहुत सारे तरीकों से खुद को अभिव्यक्त करते हैं, वे विस्फोटक गालियां देते हैं, वे कब्रिस्तान को एक ऐसी जगह बना देते है जहां ख़ुशी, उत्सव और मोहब्बत का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला है, दुख और तकलीफ़े भी जैसी इस अन्यतम ख़ुशी की शाखाएं हैं. उसी से फूटी कुछ राहे हैं जो आगे जाकर लौट आती हैं. ख़ुशी यहां कोई स्थूल भाव नहीं है, वो किरदारों का आंतरिक सौंदर्य है. उनकी विचारधारा है. क्योंकि इसका जन्म एक अघोषित एकजुटता से हुआ है. अरुंधति इस तरह उपेक्षितों का सौंदर्यशास्त्र रचती हैं.

कथा के भीतर कथा और उसके भीतर भी एक कथा है और उसके भीतर भी एक कथा. उस सबसे भीतरी कथा की आंतरिकता भी एक कथा से बनी है जिसके उस कथा का बाह्य निर्मित हुआ है. इस तरह जैसे मात्र्युश्का का जादू हो. गुड़िया के भीतर गुड़िया. तहें. परतदार जीवन. दिल्ली की परत के ऊपर गुजरात की परत, उस परत पर कश्मीर की परत, उस परत पर मध्य भारत की परत, फिर तेलंगाना, आंध्रप्रदेश की परत. और भूगोल की परतें ही नहीं. किरदारों की भी. आफताब पर अंजुम की परत. मिस जेबीन प्रथम पर मिस जबीन द्वितीय की परत और उस जेबीन द्वितीय पर उदया की परत. विश्वास पर हर्बर्ट की परत. मूसा पर उसके विभिन्न रूपों की परत. ये रिश्तों का और किरदारों का जैसे एक नक्शा है. शहर भी एक किरदार की तरह शामिल है. लकीरें कहीं से खुलती कहीं उतरतीं और मुड़ती हैं. अरुंधति एक एक किरदार को जैसे पूछने बैठी हैं. वे अपनेआप उठते हैं और अपना रोल अदा करने निकल जाते हैं. लेखक उन्हें फॉलो कर रहा है. इस नॉवल की सबसे बड़ी खूबी यही है कि इसमें इतने सारे लोग, इतने सारे जीव, इतने सारे जानवर, पशु-पक्षी, फल-फूल और वनस्पति हैं कि जैसे कोई एक पूरी मुकम्मल पृथ्वी उन पन्नों पर फूट रही है.

अरुंधति अपनी कल्पना के यथार्थ में एक ऐसा सामूहिक जीवन देख रही हैं जहां सबके लिए जगह है. आवाजाही है. और सांस है. हमारी पाठक नज़र को इतनी सारी चीज़ें पहले शायद कभी नहीं मिली थीं. या वो तोल्स्तोय में ही मिली होंगी या मार्केस में. ये अनायास नहीं है कि आलोचक इतने किरदारों की आमद से बहुत प्रसन्न नहीं है. लेकिन ये जो हम लोग हैं, इतने बहुत सारे, इस वास्तविक जीवन में, इस विदग्ध समय में, हम कहां जाएं? अपनी आमद को वापस खींच लें?

प्रेम इस उपन्यास का केंद्रीय तत्व है. इस उपन्यास की धुरी. उसके आसपास सारी तबाहियां हैं. सारी खुराफातें सारे बुखार. इस प्रेम का निर्माण किया है एक अवर्णनीय उद्विग्नता है. उत्ताप सपने और बेचैनियां और अपनी कौम को बचाने की कामना, आसमान पर बिना हिलेडुले टंग गए कौवे की तक़लीफ़ की शिनाख्त, एक ऐसे नागरिक बोध के बारे में बताती है जो हम इधर अपने मध्यवर्गीय गुमानों में भूल गए हैं. हमारी एक नकली जन्नत है, अगर वो है कहीं. हमने अपने जीवन में कभी उसे नहीं देखा है. बेशक उसके लिए मालअसबाब जुटाए हैं, धार्मिकताएं और जुलस जलसे किए हैं, रोज बुदबुदाए हैं और घंटे घड़ियाल बजाए हैं. वो हमें नही मिली. अरुंधति के किरदारों ने उसे बनाया है. वो कहीं रखी नहीं मिली है. उसे अंजुम और सद्दाम हुसैन की बेचैन आत्माओं ने ढूंढा है और संवारा है. उनके साथ अराजकों का एक कुनबा है, तिलोत्तमा है, अंजुम की गोद ली बेटी जैनब, डॉ आज़ाद भारतीय, बूढ़ा मोची, निम्मो गोरखपुरी, उस्ताद हमीद, सईदा, इशरत, डॉ भगत, मिस जेबीन द्वितीय, इमाम ज़ियाउद्दीन और वे अपने हैं और अपनों को अपने हैं जो जन्नत गेस्टहाउस के इर्दगिर्द दफ़न हैं. उसमें उस्ताद हमीद का संगीत है. पहले जैनब और फिर मिस जेबीन द्वतीय की किलकारियां हैं, पायल घोड़ी की इतराहट है, बीरू कुत्ते का आलस है और कॉमरेड लाली की नरम भौंक. इस कब्रिस्तान में ही इस तरह का एक जीवन संभव है जहां मनुष्यों के साथ पशुओं पक्षियों फूलों और वृक्षों का वास है. यहां तक कि गेस्ट हाउस की दीवारें, कब्रें, छत, भी जैसे इस जीवित धड़कते संसार में एक प्राणयुक्त उपस्थिति हैं. एक अपरिहार्य सूत्र में सब बंधे हुए हैं. प्रेम का नहीं तो फिर किस चीज़ का ये सूत्र होगा. व्यक्तियों के बीच ही नहीं, जगहें और भूगोल भी इस सूत्र में गुंथे हुए हैं. अरुंधति शायद पहली लेखक होंगी जिनकी रचना में दिल्ली ख़ासकर पुरानी दिल्ली और राजधानी का हाशिया इतनी सूक्ष्म डिटेल्स के साथ आया है. ये ज़बर्दस्त ऑब्सर्वेशन है. और ये सिर्फ़ लेखकीय नोट्स का मामला नहीं है. इसे सहा गया है. हर धूल का ब्यौरा है. हर दीवार हर फुटपाथ हर गली हर झुग्गी. एक ऐसा समय जब, “महादेश की मूर्खता अविश्वसनीय दर से बढ़ती जा रही थी और उसे तब किसी सैन्य क़ब्ज़े की ज़रूरत भी नहीं थी.”

कश्मीर की दास्तान को सुनाने के लिए फिक्शन का सहारा लिया गया हो, बात ये नहीं है. बात ये है कि फिक्शन ही इस दास्तान के जरिए रचा गया है. एक ऐसे समय में जब, कवि मंगलेश डबराल के शब्दों में ‘यथार्थ बहुत ज्यादा यथार्थ’ हो तो कल्पना ही एक नया वैकल्पिक यथार्थ बन जाती है. नॉवल को पढ़ते हुए जादुई यथार्थ की जैसी बुनावट प्रतीत होती है लेकिन जैसा कि अरुंधति ने कहा है ये कुछ अलग ही यथार्थ है जो जादुई हो गया हो सकता है. द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स और द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में 20 साल का फासला है. भाषा और बनावट का भी उतना ही बड़ा फासला है. या इस फ़ासले को आप किसी मेज़रमेंट में नहीं ला सकते हैं. लेकिन कुछ समानताएं हैं. सतह पर अस्पष्ट लेकिन मर्म में उद्घाटित. द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स, द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में विलीन हो जाता है. मामूली चीज़ों का देवता, अन्यतम ख़ुशी के समूह में बाख़ुशी अपनी जगह पा जाता है. बाज़ दफ़ा ये मिनिस्ट्री ऑफ़ स्मॉल थिंग्स है. कब्रिस्तान में मामूली चीज़ें मामूली लोग मामूली देवता मामूली जानवर, मामूली वनस्पतियां, मामूली खुशियां मामूली दुख एक मामूली से मंत्रालय का सृजन करती हैं. जो एक गैरमामूली जीवन और गैरमामूली संघर्ष का प्रतीक है. अगर किसी को लगता है कि नये नॉवल में अरुंधति ने बड़े प्रतीकों का सहारा लिया है, तो वे शायद गलत होंगे. इसके लिए उपन्यास को एकबारगी पढ़कर किनारे रख देना काफ़ी नहीं होगा. नॉवल उन उपन्यास की दो या तीन रीडिंग्स चाहिए तब आपको सहज ही ये अंदाज़ा लग जाएगा कि मामूली चीज़ें और मामूली लोग ही इस उपन्यास की असाधारणता की हिफ़ाज़त करते हैं. यहां तक कि अमलतास का पेड़ भी भी दिल्ली की जानलेवा गर्मी और लू के थपेड़ों के ख़िलाफ़ उतप्त खड़ा है. “अमलतास का फूल खिलता है एक चमकदार, सुंदर, जिद्दी फूल. हर झुलसाती गर्मी में ये ऊपर उठता है और गरम भूरे आसमान को फुसफुसा कर कहता हैः फ़क यू.”

नॉवल एक सिनेमाई नैरेटिव की तरह भी हमारे भीतर गूंजता है. दृश्यों पर ये पकड़ बहुत विशिष्ट है. आपको व्यथा का वर्णन नहीं करना है, उसका दृश्य दिखाना है. ये ख़ूबी है. 2014, 2004, 2002, 1990 का दशक, यूपीए सरकार, तत्कालीन प्रधानमंत्री, कॉरपोरेट, इकोनमी, ठुंसा हुआ सब कुछः किताबों से लेकर कला तक और इन्हीं सब के बीच गुजरात का लल्ला, मंदिर, ईंटें और भगवा झंडे. भगवा जुलूस, भगवा हाहाकार, और भगवा सुग्गे (पैराकीट). लुटीपिटी और बरबाद अंजुम कब्रिस्तान का रुख़ करती है तो ये दृश्य जैसे पेज पर नहीं पर्दे पर घटित हो रहा है. “बूढ़े परिंदे मरने के लिए कहां जाते हैं?” नाम का पहला अध्याय इस तरह शुरू होता हैः

“वो कब्रिस्तान में एक पेड़ की तरह रहती थी. भोर में वो कौवों को विदा करती थी और चमगादड़ों के घर लौटने का स्वागत करती थी. सांझ में वो इसका ठीक उलटा करती थी. पालियों के दरम्यान, वो गिद्धों के प्रेतों से गप करती थी जो उसकी ऊंची शाखाओं में मंडराते रहते थे. उनके नाखूनों की नरम जकड़ को वो एक कटे हुए अंग पर दर्द की तरह महसूस करती थी. उसने पाया कि अलग होकर कहानी से निकल जाने को लेकर वे कुल मिलाकर नाख़ुश तो नहीं थे.”

“जब वो पहली बार आई, तो फ़ौरी क्रूरता के कुछ महीने उसने वैसे ही सहन किये थे जैसा एक पेड़ करता ही है- बेहिचक, अडिग.” वो ये देखने के लिए नही मुड़ती थी कि किस छोटे लड़के ने उसे पत्थर मारा, अपनी छाल पर अपमान की खरोंचों को पढ़ने के लिए वो गर्दन नहीं निकालती थी. जब लोगों ने उसका मज़ाक उड़ाया, उस पर फ़ब्तियां कसीं- बिना सर्कस की जोकर, बिना महल की रानी- तो वो अपनी चोट को अपनी शाखाओं के बीच से एक झोंके की तरह बहा देती थी और अपने सरसराते पत्तों के संगीत को दर्द कम करने वाले बाम की तरह इस्तेमाल करती थी.”

और जन्नत गेस्ट हाउस के वे उत्सव, वे मौजें, वे दावतें- फ़ेदेरिको फ़ेलिनी की “ला स्त्रादा” की याद दिलाती हैं. बरबादियों से उठकर जीवन राग फैल जाता है. भारतीय लेखकों में अरुंधति रॉय ने अपने फ़िक्शन को एक रोमानी कथानक से आगे दर्द और लड़ाई की तफ़्सील कुछ ऐसे निराले ढंग से बना दी है कि उनके साहस का अनुमान लगाया जा सकता है. वहां एक ऐसी फटकार है जिससे किसी को निजात नहीं. पुरानी दिल्ली के शाहजहांबाद में जहांआरा बेगम के घर, हजरत सरमद शहीद की दरगाह, उस्ताद कुलसुम बी की ख्वाबगाह, कब्रिस्तान और उसकी जन्नत, जंतरमंतर, मेजर अमरीक सिंह का यातना कक्ष, डल झील की हाउस बोट, नागराज हरिहरन यानी नागा का विशाल घर, या बिप्लब दासगुप्ता यानी गरसन होबार्ट का मकान और तिलो को किराए पर दिया कमराः हर जगह एक फटकार जैसे बरस रही है. और हिसाब मांग रही है. उत्पीड़ितों की आहें कभी हंसती है कभी रोती हैं चक्कर काटती रहती हैं, दिल्ली और सत्ता के दुष्चक्रों में फंसी हुई अंततः वे मानो पुराने परिंदों की तरह कब्रिस्तान के किसी पेड़ में जा अटकती हैं, वहां फड़फड़ाती हैं. जहां एक स्त्री है. “वो जानती थी कि वो लौटेगा. भले ही ये जटिल पहेली थी लेकिन उसने देखते ही अकेलेपन को पहचान लिया था.. उसने भांप लिया था कि कुछ अजीब ऊपरी तौर पर उसे उसकी छांह की उतनी ही ज़रूरत थी जितना कि उसे थी. और उसने अनुभव से जाना हुआ था कि ज़रूरत एक गोदाम थी जिसमें अच्छीख़ासी मात्रा में क्रूरता को भरा जा सकता था.”

शेक्सपियर के शुरुआती प्रभाव के बाद तोल्सतोय और जॉन बर्जर जैसे लेखकों से अरुंधति रॉय प्रेरित रही हैं. नॉन फ़िक्शन में उन्हें एडुआर्डो गालियानों का लेखन प्रभावित करता है. “ओपन वेन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका,” इस उपन्यास में ओपन वेन्स ऑफ़ कश्मीर भी बन जाती हैं, और ओपन वेन्स ऑफ़ डेहली भी. फर्क यही है कि गालियानो का वो दस्तावेजी गद्य है जिसमें रक्तरंजित दास्तान और मूल निवासियों के संघर्ष की तफ़सील है और अरुंधति का ये फ़साना है जिसमें यथार्थ और कल्पना घुलमिल गए हैं. षडयंत्रों और मुठभेड़ों और हत्याओं और प्रदर्शनों की धमधम दिल पर गुजरती धमधम है. जैसे टूटा कोई एक पुल या घर नहीं बल्कि एक ख़्वाब है. कश्मीर पर सैन्य अतिवाद का सामना एक प्रेम कहानी करती है जो बंदूक के साए में ही नहीं बल्कि मजारों, कब्रों, बागीचों, फलों के बागानों, फूलों के पेड़ों और घाटी और नदी और झील के अंधेरों उजालों और झिलमिलाहटों और जगमगाहटों और करुण पुकारों के बीच मंडराती हुई सी है. कोई तितली अपने विशाल पंखों के साथ फड़फड़ाते हुए स्वप्न, स्मृति और यथार्थ के कश्मीर में यहां से वहां उड़ रही है. बमों, बारुदी सुरंगों, बंदूकों, और यातना गृहों की चीखों के गुबार को काटते हुए अपनी उड़ान बनाती हुई. सबसे ऊपर आख़िरकार मोहब्बत और जज़्बा और जुनून है. मेजर अमरीक सिंह की बर्बरता भी मानो इस मोहब्बत के आगे ढेर हो जाती है. वो दूर अमेरिका जाकर परिवार सहित अपनी जान लेता है. कोई दुश्मन नहीं कोई हमला नहीं कोई साज़िश नहीं फिर क्यों दुर्दांत अमरीक सिंह अपने ही हाथों मारा जाता है, ये जैसे किसी शाप से पीछा छुड़ाने की यातना का आखिरी जायज़ अंत है. अपनी ही क्रूरता का प्रेत.

अरुंधति के उपन्यास के बारे में कहा जा सकता है कि ये बेसिरपैर का है. इसमें भावुकताएं और घिसापिटा तानाबाना है. ये एक तेज़ ड्रामा और थ्रिल वाली मसाला फिल्म है. जिसमें गालियां और सेक्स और उत्तेजना और एक्शन के छींटे हैं. इसमें भाषायी सजगता और गद्य का अनुशासन नहीं है. आख़िरी बातें इतनी जल्दी पूरी कर ली गई हैं मानो लेखिका उकता गई है, ब्यौरों और वर्णनों से और उसका धीरज टूटा है या अंत स्थिरता में नहीं हड़बड़ी का है. ये भी कह देना मुमकिन है कि अरुंधति ने एक “सेक्युलर” नॉवल लिखा है. एक सेट टार्गेट पाठक को ध्यान में रखकर. पश्चिम के पाठक को ध्यान में रखकर इसमें करुणा, अहिंसा, सर्वधर्म सद्भाव, पशु-पक्षी प्रेम और ईसाइयत की प्रचुरताएं जानबूझ कर हैं. ये भी कहा जा सकता है कि ये अरुंधति के अहम का उपन्यास है. इसमें उनका अहंकार बिखरा हुआ है. और ये भी कि कश्मीर पर रिपोर्ताज को नॉवल का हिस्सा बड़ी चतुराई से बनाकर अरुंधति ने एक तीर से दो निशाने या ज़्यादा या न जाने कितने निशाने साधने की कोशिश की है. क्या पुरस्कार भी कोई निशाना है. आदि आदि. उनके उपन्यास की आलोचना में ये कहा गया है कि इसमें बहुत सारे पात्र बहुत सारी आवाज़ें बहुत सारा शोर है. ये फंतासी, यथार्थ और साक्ष्यों का एक घोल सरीखा है. अरुंधति की आलोचना में ये भी कह दिया गया है कि इस उपन्यास पर उनकी निबंध शैली और उनके निबंध तेवरों का प्रभाव है. ये गल्प नहीं है. आलोचनाएं अपनी जगह हैं. निंदाएं भी. एक सही किताब एक सही आलोचना की हकदार है. आक्षेपों की नहीं. आलोचना, जब आक्षेप बन कर आती है तो वो हिसाब बराबर करने जैसा मामला बन जाता है. ठोस आलोचना ऐसी नहीं होती. उसमें जीवंतता और पारदर्शिता होती है. वो लेखक की छानबीन करती है. वो पंक्तियों से और विवरणों से साक्ष्य जुटाती है और औजार जुटाती है. वो सुपठित और व्यापक और तीक्ष्ण होती है. उसे इस उपन्यास की अंजुम की तरह खुरदुरा और नाजुक, सच्चा और साहसी, निर्भय और बेलौस होना होगा. हम आगे बढ़ते हैं.

द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में उछाड़ पछाड़ है. औपन्यासिक पैटर्न को रिलीजियसली फॉलो नहीं किया गया है. कुछ आलोचक कहेंगे कि अरुंधति ने सबकुछ समेटने के चक्कर में भाषा और नैरेटिव का संतुलन खो दिया. लेकिन आप ध्यान से नॉवल की रीडिंग लेंगे तो आप जानेंगे कि ऐसा जानबूझकर होने दिया गया है. सेट पैटर्न नहीं है. तोड़फोड़ है. अरुंधति ने अपनी कहानी को पूरी तरह से उसके किरदारों के हवाले कर दिया है. ये एक बहुत बड़ा जोखिम है. उनके हाथ में डोर है तो सही लेकिन उसका लगता है कोई बहुत इस्तेमाल करने की इच्छा उनकी नहीं रही होगी.

उपन्यास ऐसे भी लिखा जा सकता है. अपनी आलोचना कराता हुआ. लेकिन अंदर ही अंदर अपना काम करता हुआ. आलोचना का भी ये कड़ा इम्तहान है. सब्र चाहिए. देखिए कि लेखिका ने आपके लिए जानबूझकर वे सवाल रख छोड़े हैं. क्या मक़सद हो सकता है. क्या चाहती हैं वो. क्या ये पाठ में डूबने का एक विलक्षण और अजीबोग़रीब सा न्यौता है. गहराई का अंदाज़ा लगाना है तो डूबिए. ऊपर से तो नादानियां और कमियां और लूपहोल्स हैं. लेखक ऐसा ‘जाल’ भी बिछाता है! सोचिए. मेहनत और जज़्बे और पाठ का जाल! किसी लेखकीय बाजीगरी का नहीं बल्कि उसे खींच लाने का. कुछ आलोचक इस ‘जाल’ में फंसते हैं और वे लिखते हैं जो आमफ़हम है. लेकिन चुनौती इस ‘जाल’ को हटाने की है. अब सवाल ये है कि आखिर इस ‘जाल’ की ज़रूरत ही क्या है. तो बात यही है जो इस नॉवल ने रचाई है. वो इतनी आसानी से पकड़ में नहीं आना चाहता जबकि है वो इतने ‘मामूली’ लोगों की तफ़्सील. अरुंधति इस लिहाज़ से नटखट हैं.

अरुंधति के नॉवल में ‘हड़बड़ी’ है. एकदम संज्ञा की तरह, जैसी कि वो होती ही है, और वो ज़रूरत से नहीं स्वाभाविक रूप से होती है. बेचैनियां बनाती हैं उसे. कौन ‘संवेदनशील’ नहीं चाहेगा तिलो की तरह उस विशाल विलासी इलीट पारिवारिक जीवन से निकलकर अपनी एक थरथराती ऊब में लौट आने को. ये एक मानवीय हड़बड़ी है. जल्दी से कहीं पहुंच जाने का भी और देर तक वहीं कहीं किसी कुर्सी या किसी कब्र के पास बैठ जाने का भी इंतज़ार है. कथाओं-उपकथाओं-अंतर्कथाओं का कोई छोर नहीं है. वे शुरू एक पेड़ से होती हैं और शहर की रोशनियों पर ख़त्म होती हैं. लेकिन ये भी देखिए कि वे एक स्त्री से शुरू होती हैं और अनेक स्त्रियों तक जाती हैं. पूरा कहना भी जैसे अधूरी बात कहना है क्योंकि कथाएं शहर के नक्शे की तरह हैं. उनके प्रवेश और निकास का किसी को अंदाज़ा नहीं. ख़ुद लेखक की भी जैसे कोई इच्छा नहीं. वो बाज़दफ़ा लापरवाह है, भटकता हुआ, घिसटता हुआ, कहीं न जाने कुछ न बताने की घुप्प चुप्पी से घिरा हुआ. लेकिन वो आगे बढ़ता तो है. वो भी किरदारों की रचाई जा रही करामात में भागीदार है. लेखक के तौर पर ये अरुंधति की कामयाबी है कि उन्होंने किरदारों से अपनी बात नहीं कहलवाई है, वे भुगतते हुए सहमे हुए वंचित लोग हैं, अपनी बात को अपने उखड़े हुए ढंग से कहते हैं. वे ज़बान से भी उखड़े हैं और जगह से भी. कश्मीर की दास्तान में नक्सल बेल्ट की दास्तान घुलमिल जाती है और गुजरात की भी. दिल्ली की भी और दिल्ली में रहने वाले किन्नर समुदाय की भी. ये कई सारी दास्तानों का मानो जंतरमंतर है. आपको खुद की तलाश करनी है और खुद को पाना है. इस तरह क्या अरुंधति ने दो उपन्यास, एक बुकर अवार्ड, एक पटकथा और नॉन फ़िक्शन में राजनैतिक निबंधों की सात तूफ़ानी और उत्पात मचाती किताबें लिखकर, अपने लिए और इस देश के लिए आगामी समयों के नोबेल दावे में जगह बना ली है, कहना मुश्किल है लेकिन ये मानना न दूर की कौड़ी है न अतिरंजना. इंतज़ार करना चाहिए.

इस उपन्यास की एक ओर ख़ूबी है. इसका लचीलापन. पहला अध्याय अनिवार्यतः पहला अध्याय नहीं है. न ही आखिरी अध्याय आखिरी. आख़िरी वाक्य भी जैसे उपन्यास की शुरुआत है. वो पुनर्पाठ की बेकली जगाता है. बीच से आप इस उपन्यास का कोई पन्ना खोले. वहां से कहानी उभरने लगती है. मिसाल के लिए, 438 पृष्ठों वाली किताब का मैं 283वां पेज खोलता हूं और मेरी नज़र एक शीर्षक पर पड़ती है- “नथिंग”- कुछ नहीं. “मैं उन परिष्कृत कहानियों में से कोई कहानी लिखना चाहती हूं जिसमें भले ही बहुत कुछ न होता हो तो भी लिखने को बहुत कुछ रहता है. कश्मीर मे ये नहीं किया जा सकता है. जो वहां होता है, वो सफ़िस्टिकेटड नहीं है. अच्छे साहित्य के सामने बहुत ज़्यादा ख़ून है.” यहीं पर हम एक बार फिर गालियानो को याद कर सकते हैः लातिन अमेरिका की उधड़ी हुई नसों से जिनका गद्य रिसता है. एक बच्ची जो आदमी की देह में एक औरत की तरह बड़ी हो रही है, हो रहा है, हो रही-हो रहा है. पता नहीं कैसे उस वेदना को समझाएंगे जिसे वो आफताब से अंजुम बनी किन्नर ही जानती है जिसकी एक अदम्य चाहत ये है कि वो, “नेल पॉलिश से सजा और चूड़ियों से भरी कलाई वाला हाथ निकाले और मोलभाव करने से पहले, नाज़ुक अंदाज़ में मछली का गलफड़ा उठाकर देखे कि वो कितनी ताज़ा है.” इस उपन्यास में घटनाओं और स्थितियों की बेचारगियों के बावजूद कोई भी किरदार दयनीय नहीं है. वे दया नहीं मांगते. दलित युवक दयाचंद उर्फ़ सद्दाम हुसैन निजी सिक्योरिटी एजेंसी का गार्ड रह चुका है. राष्ट्रीय कला संग्रहालय में इस्पात के एक इंस्टालेशन की एकटक सुरक्षा, और स्टील के चमकते विशाल पेड़ पर सूरज की रोशनी ने उसकी नज़र तबाह कर दी है. उसे रात में भी आंख में दर्द होता है और पानी बहता है लिहाज़ा वो हर वक्त काला चश्मा पहने रहता है. लेकिन काले चश्मे वाला ये हमारा सबसे बिंदास और बहादुर और चपल और चतुर नायक है. सफेद घोड़ी पायल पर सवार होकर वो मानो कोई अघोषित रॉबिनहुड या कोई आदिवासी देवता है. मध्य भारत के जंगलों में भटकती नक्सली कॉमरेड रेवती, बलात्कार की शिकार होकर भी और समूह से अलगाई जाने के बावजूद अंत में बंदूक के साथ ही मरना चाहती है. क्योंकि वही उसका अब सच रह गया है. बलात्कार से पैदा हुई बेटी को जन्म के कुछ समय बाद ही वो जंतरमंतर पर छोड़ आती है. जहां से उसे नाटकीय हालात में जन्नत गेस्ट हाउस में अंजुम मैडम के पास ले आया जाता है. मिस जेबीन द्वितीय का नाम धारण करते हुए, वास्तविकता पता चलने के बाद मिस उदया जेबीन कहलाती है. इंटेलिजेंस ब्यूरो में सरकारी कार्यभार से लस्तपस्त बिप्लब भी आखिरकार अपने से लड़ता है, अपने कमरे में प्रेम और विवशताओं में छटपटाता एकालाप करता है. आखिर में वो भी आगे बढ़ने के लिए कोई दया नहीं, एक ड्रिंक चाहता है. जहांआरा बेगम, जो बेटा चाहती है लेकिन उसकी कोख में आती है एक लड़की जिसकी योनि बंद है. वो भी आफ़ताब से अंजुम तक के सफ़र में कहीं भी आत्मदया से पीड़ित नहीं है. एक ख़ूबसूरत, खुद्दार साहसी बेलाग बिंदास किन्नर के रूप में ख्याति पाती है और एक दिन किन्नरों के प्रसिद्ध ठिकाने को छोड़कर अपना जहां बना लेती है. तिलोत्तमा, प्रेम करती है. सच्चाई का साथ देती है. नाइंसाफ़ी से अपने ही अंदाज़ में टकराती है. आरामदायक जीवन ठुकराती है और कब्रिस्तान के उस घर में शरण लेती है जहां उसे आख़िरकार लगता है कि उसके होने का कोई अर्थ है, उसकी एक आत्मा है और उस दिन वो एक बहुत लंबी रात की गिरफ़्त से मुक्त हुई है. “अपनी ज़िंदगी में पहली बार, तिलो को महसूस हुआ था कि उसकी देह में अपने तमाम अंगों को एकोमोडेट करने के लिए पर्याप्त जगह थी.”

सारे पात्र जैसे अपने अपने युद्ध के लिए तैयार हैं. इस तरह ये नायकीय किरदारों का नॉवल है. अरुंधति से सीखना चाहिए कि स्त्री अधिकारों की सच्ची पुकार किसे कहते हैं. इसके लिए आपको उत्तर-नारीवादी नारों की आड़ में जाने की ज़रूरत नहीं है. आपको बस अपना जीवन देखना और जीना आना चाहिए. मुक्ति के मायने समझाने वाला नॉवल ये है. वो कैसे एक अमिट इच्छा बन जाती है. एक नया निशान. जहां ट्रांसजेंडर औरतों या हिजड़ों का उत्पाती या जघन्य ‘स्त्रीत्व’, जैविक वास्तविक औरतों के स्त्रीत्व से कमतर नहीं. उपन्यास में कुल 12 अध्याय हैं. द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस नाम से दसवां अध्याय है. अध्याय से पहले, नादेज़्दा मंदलस्ताम का एक कोट आता हैः “फिर मौसम बदलने लगे. ‘ये भी एक सफ़र है, एम ने कहा, ‘और वे इसे हमसे छीन नहीं सकते हैं.’

द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस, एक लगातार बनी हुई सिहरन है. या तो आप इश्क में कांपते हैं या ख़ौफ़ में या हमले में या अपना सच खोज लेने में या शांति पा लेने में या फिर नयी दुनिया बसा लेने की उम्मीद में. एमओयूएच, धकियाए गये खदेड़े गये लौटाए गये मारे गये सताए गये समुदायों में एक उम्मीद की कामना है. वे चीखते नहीं है चिल्लाते नहीं है रोकर बिखर नहीं जाते हैं. उन्हें तितर-बितर कर दिया जाता है. वे फिर जमा हो जाते हैं. वे आंतरिक एकजुटता के माहिर लोग हैं. मिट्टी के लाल. उन्हें एक सुंदर सहज जीवन की एक साधारण सी आकांक्षा हैं. उनकी दास्तानें हमें जख़्मी भी करती है. दिल पर एक भारी पत्थर बजता रहता है. धम धम. धम धम. किन्नर जीवन, दंगे, मुसलमानों पर हमले, जंतरमंतर से लेकर मध्य भारत के जंगलों के आंदोलनों तक की तपिश, आग और हिंसा, नफ़रत, विभाजन, प्रेम और त्रासदियां. ख़ुशी जैसे एक औजार भी है और आगामी लड़ाइयों के लिए एक हथियार भी. वो एक वासना नहीं है. वो चाहत है लेकिन उसमें एक निरर्थक खोखला नकली आशावाद नहीं है. वो एक बहुत दुर्लभ उम्मीद है जो उलटा आशावाद से आगाह ही कराती है. इस उम्मीद को नॉवल में दो महत्त्वपूर्ण उल्लेखों से समझ सकते हैं. आखिरी पेज में रात की रोशनियों में शहर घुमाने अंजुम, मिस जेबीन द्वितीय यानी मिस उदया जेबीन को ले जाती है, एक जगह उदया कहती है उसे सूसू लगी है. वो सड़क किनारे पेशाब कर खड़ी होती है तो उसके पेशाब के छोटे से तालाब में तारे और एक हज़ार साल पुराना शहर दमकने लगता है. नॉवल का एक्टिविस्ट और सरकार सेना गठजोड़ की फ़ाइलों में आतंकी मूसा, अलविदा कहने से पहले अपने पूर्व सहपाठी और आलोचक और पूर्व इंटेलिजेंस अधिकारी बिप्लब को संबोधित हैः “एक रोज़ कश्मीर, भारत को आत्मविनाश पर विवश कर देगा. तुम हमें तबाह नहीं कर रहे हो हमें निर्मित कर रहे हो. तुम खुद को तबाह कर रहे हो.” जब वो धीरे धीरे मद्धम नीची आवाज़ में लेकिन पूरी गहराई और सघनता के साथ ये बात कहता है तो एक सिहरन दौड़ जाती है, फिर फ़्रायड का विख्यात कथन ख़्याल में आता हैः डि श्टिमे डेर फ़ेरनुन्फ्ट इस्ट लाइज़े, आबर ज़ी रूह्ट निश्ट एहे ज़ी सिश गेह्योर फरशाफ्ट हाट. (The voice of Reason is low, but it does not rest until it is heard.)

और आख़िर में एक शेर. ये जैसे नॉवल में बिखरे हुए कल्पनातीत आशावाद का झंडा थामे हुए है. ये हमारी अभिजात नरमदिली और भौतिक और बौद्धिक नफ़ासत और भद्रता को जैसे डंक मारता है. मिट जाने की गरिमा के सामने किसी तरह जिए जाने की फजीहत की पोल खोलता है. ये अपना मखौल उड़ाता है. ये एक निर्भीक देसीपना है. डॉ आज़ाद भारतीय ने जेल में पुलिस पूछताछ के दौरान ये शेर सुना दिया था. और हर सवाल और हर पिटाई के जवाब में वो यही शेर कहते गए. उनसे सीखकर बाद में तिलोत्तमा ने अपने प्रेमी मूसा को जन्नत गेस्ट हाउस में ये शेर उस रात सुनाया था जिसके बाद उन्हें फिर कभी नहीं मिलना थाः

“मर गई बुलबुल कफ़स में/ कह गई सय्याद से/ अपनी सुनहरी गांड में/ तू ठूंस ले फस्ले-बहार”
***

समयांतर से साभार

Monday, July 3, 2017

ये रही मैं, तुम्हारे सामने, तुमसे मुकाबला करने के लिए : अरुंधति रॉय


Photo by TARUN BHARTIYA

तीन विभिन्न अंग्रेजी साक्षात्कारों से ली गईं चुनिंदा टिप्पणियां


रूपांतर : शिवप्रसाद जोशी


•मैं अपने काम के भीतर रहती हूं. हालांकि मैं ये कहूंगी कि कभी मैं उन लेखकों के बारे में सोचती थी जो अज्ञात रहना चाहते है- लेकिन मैं ऐसी नहीं रही हूं. क्योंकि इस देश में ये महत्त्वपूर्ण है, खासकर औरत के लिए, ये कहना जरूरी हैः “सुनो, ये रही मैं, मैं तुम्हारे सामने हूं तुमसे मुकाबला करने के लिए, और मैं यही सोचती हूं और मैं छिपूंगी नहीं.” अगर मुझसे किसी को साहस मिला है....प्रयोग का...कतार को छोड़कर निकल आने का....तो ये प्यारी बात है. मैं सोचती हूं कि हमारे लिए ये कहना बहुत महत्त्वपूर्ण हैः “हम कर सकते हैं! हम करेंगे! हमसे न उलझना! समझे.”


•बात ये है कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को उस कुख्यात खनन कंपनी से आर्थिक सहायता मिलती है जो आदिवासियों की आवाज़ों को ख़ामोश कर रही है, उन्हें उनके घरों से बेदख़ल कर रही है, और अब तो इसे ज़ी टीवी भी फंड कर रहा है, जो आधा समय तो मेरा शिकार करने के लिए पीछे पड़ा रहता है. तो सिद्धांत के तौर पर मैं ऐसे उत्सवों में नहीं जा सकती हूं. कैसे जा सकती हूं. मैं उनके खिलाफ लिख रही हूं. कहने का मतलब, बात ये नहीं है कि मैं कोई पवित्र या शुद्ध व्यक्ति हूं, जैसे हम सब में विरोधाभास होते हैं, हमारे कई मुआमले होते हैं, मेरे साथ भी यही है, मैं गांधी जी की तरह नहीं हूं, लेकिन सिद्धांत में, इसपर टिके रहती हूं. दुनिया के सबसे गरीब लोगों की आवाजों को बंद कर दबा कर आप आख़िर कैसे आप फ्री स्पीच का चमकदार मंच बन जाते हैं जहां लेखकों की चहलपहल और उड़ानें हैं. मुझे इससे समस्या है.


•जब मैं किताब लिख रही थी, तो सामयिक मामलात ज्यादा नहीं देख पाई. मैं फेसबुक आदि पर भी नहीं हूं. यूं मुझे इससे कोई समस्या भी नहीं है, लेकिन मुझे एडवर्ड स्नोडेन ने एक बात बताई थी. कि जब फेसबुक शुरु हुआ था तो सीआईए ने उसका जश्न मनाया था क्योंकि उन्हें बिना कुछ किए एक साथ सारी सूचनाएं मिल गई थीं. इससे अलग, बात ये भी है कि जब आप लिख रहे होते हैं, तो पढ़ने के बारे में थोड़ा विचित्र से हो जाते हैं- कभी कभी मैं पूरी किताब नहीं पढ़ रही होती हूं, सिर्फ़ कुछ डुबकियां लगा लेती हूं, अपने विवेक को परखने के लिए.


•मैं मानती हूं कि नायपॉल एक मुकम्मल सिद्ध लेखक हैं, हालांकि अपने वैश्विक नजरिए को लेकर हम दो छोरो पर हैं. लेकिन वास्तव में, मुझ पर उस रूप में किसी लेखक का उतना प्रभाव नहीं है. मुझे कहना पड़ेगा कि मुझे ये बात अविश्वसनीय लगती है कि भारत में लेखकों, और कमोबेश समस्त भारतीय लेखकों, या कमसेकम जानेमाने लेखकों.....चलिए लेखक न भी कहें, लेकिन उनमें उन चीज़ों को छिपा लेने का एक स्तर है जो यहां समाज के मर्म में अवस्थित हैं, जैसे जाति. आप देखिए कि यहां कुछ भारी गड़बड़ है. ये इस तरह से है कि रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका में लोग, रंगभेद का ज़िक्र किए बिना लिखते रहें.


•जो कुछ मैं जानती हूं, वो यहां है, जिस किसी को मैं जानती हूं, और वास्तव में बाहर मैं कभी रही नहीं हूं, विदेश में, तो किसी अजनबी देश में अकेले रह लेने का ख़्याल आतंकित भी करता है. लेकिन इस समय मैं मानती हूं कि भारत एक अत्यधिक ख़तरनाक जगह पर ठिठका हुआ है, मैं नहीं जानती कि किस के साथ क्या हो सकता है- मेरे साथ या किसी के साथ भी. ये कुछ उपद्रवी हैं जो ये तय करते हैं कि किसे मारा जाना है, किसे गोली मारी जानी है, किसे पीट पीटकर मार डालना है. मैं सोचती हूं कि शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि भारत में लोग, लेखक और अन्य लोग, उस तरह का संत्रास महसूस कर रहे है जैसे लोगो ने चिली और लातिन अमेरिका में झेला था. एक तरह का आतंक निर्मित हो रहा है जिसका हमें ठीक से अंदाज़ा भी नहीं है. ऐसे मौके आते हैं जब आप बहुत चिंतित हो जाते हैं, फिर गुस्सा, और फिर आप एक निडर ज़िद्दी बन जाते हैं. मैं मानती हूं कि ये कहानी अभी खुल ही रही है.


•ये किताब के बारे में नहीं है या वे क्या पढ़ते हैं क्या नहीं. ये उन कुछ निरंकुश नियमों के बारे में है जो उन्हें बना लिए हैं कि क्या कहना है, क्या नहीं कहना है, कौन क्या कह सकता है, कौन किसे मार सकता है. ये सब. मैं यहां रहती हूं, यहां लिखती हूं और ये किताब भी यहां के बारे में है. लेकिन स्थिति यहां बेकाबू है, नीचे ही. ये महज़ मार दिए जाने की बात नहीं है. ये कुछ ऐसा हैः अगर आप मुसलमान हैं तो जोखिम उठाए बगैर आप ट्रेन या बस में बैठ भी कैसे सकते हैं. तो मेरे साथ क्या होता है, मुझे नहीं पता है. मैंने एक किताब लिख दी है जिसे लिखने में मुझे दस साल लगे हैं, और दुनिया के 30 देशों में दुनिया के सबसे बड़े प्रकाशक इसे छाप रहे है. मैं कुछ मूर्खों को इस बात की इजाज़त नहीं दे सकती कि वे आएं और इसमें खलल डालें और तमाम हेडलाइनें उड़ा ले जाएं. मैं ऐसा क्यों करूं. बात उनके छोटे दिमागों के बारे में नहीं है, ये बात साहित्य की है. इसकी हिफ़ाज़त की जानी चहिए और इस पर्यावरण में तो समझबूझ कर की जानी चाहिए.


•इस उपन्यास को लिखने में दस साल लगे हैं. लेकिन मैं समझती हूं कि द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स और आज के बीच पिछले बीस साल में, मैंने यात्राएं की हैं, और इतनी सारी चीज़ों में मुब्तिला रही हूं, उनके बारे में लिखती रही हूं. जब मैं राजनैतिक निबंध लिख रही थी तो उनमें एक तरह की बड़ी अरजेंसी थी, हर बार आप एक स्पेस को या एक मुद्दे को खोल देना चाहते थे. लेकिन फिक्शन अपना समय लेता है और ये परतदार होता है. कश्मीर जैसी जगह में जो उन्माद प्रकट हो रहा हैः आप वहां की फ़िज़ां में निहित आतंक का वर्णन किस तरह करेंगे. बात सिर्फ किसी मानवाधिकार रिपोर्ट की नहीं है कि कि कितने लोग कहां कहां मरे. जो वहां हो रहा है उसके साइकोसिस का वर्णन कैसे करेंगे आप. फ़िक्शन के सिवाय.....मैंने फिक्शन इसलिए नहीं चुना क्योंकि मैं कश्मीर के बारे में कुछ कहना चाहती थी, लेकिन फिक्शन आपको चुनता है. मैं नहीं समझती कि ये बात इतनी सरल होती होगी कि मेरे पास देने के लिए कुछ सूचना है और इसलिए मैं एक किताब लिखना चाहती थी. ये ये तो देखने का एक तरीका है. सोचने का एक तरीका. ये एक प्रार्थना है, ये एक गीत है.

(दहिंदू डॉट कॉम में जास ओयाह से बातचीत)


`गल्प कभी घोषणापत्र नहीं हो सकता...`


•जो यात्राएं मैंने की हैं, जिन लोगों से मिली हूं, जो जीवन मैंने जिया है, और जो राजनैतिक निबंध मैने पिछले बीस साल में लिखे हैं वे सब द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस के स्वप्न निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं. लेकिन निबंध और नॉवल दो बिल्कुल अलग विधाएं हैं. फ़िक्शन लिखते हुए मैं रिलेक्स रहती हूं, लगभग स्वप्न में. मैं किसी तरह की जल्दी में नहीं हूं. मैं उन सब लोगों और प्राणियों (दुष्ट भी) के साथ रहना चाहती थी जो दस साल पहले मेरे पास आने लगे थे....देखने के लिए हम आपस में एक दूसरे को पसंद करते हैं या नहीं. फ़िक्शन कभी घोषणापत्र नहीं हो सकता, ढकाछिपा राजनैतिक निबंध, जिसमें कृत्रिम किरदार आपकी तरफ से बोलें, ये एक ऐसा यूनिवर्स बनाने की बात है जहां लोग घूमते भटकते रह सकें, मैं ऐसी कहानी लिखना चाहती थी कि जिसमें मैं किसी के पास से यूं ही न गुज़र जाऊं किसी छोटे से छोटे किरदार के साने से भी, बल्कि रुकं, एक बीड़ी जलाऊं और वक्त पूछूं. ऐसी कहानी जिसमें बैकग्राऊंड अचानक फ़ोरग्राउंड बन जाता है. शहर एक व्यक्ति बन जाता है...मेरे लिए फ़िक्शन लिखना, प्रार्थना के सबसे करीब है.

(स्क्रॉल डॉट इन)



`समयांतर` से साभार

(अरुंधति की तस्वीर The MINISTERY of UTMOST HAPPINESS के बारे में तरुण भारतीय की परिचयात्मक फिल्म से)

Sunday, July 2, 2017

गैर राजनीतिक उपन्यास एक मिथक है : अरुंधति रॉय

तीन विभिन्न अंग्रेजी साक्षात्कारों से ली गईं चुनिंदा टिप्पणियां - 1

रूपांतर : शिवप्रसाद जोशी

-गैर राजनीतिक उपन्यास नहीं लिखा जा सकता है. ये एक मिथक है. मैं मानती हूं कि हर छोटी परी कथा भी किसी न किसी रूप में राजनीतिक होती है. जब आप किसी चीज़ से परहेज़ करते हैं, तो वो भी उतना ही राजनीतिक है जितना कि उस चीज़ को संबोधित करना.
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-मेरे लिए, कहानी कहने का तरीका भी कहानी जितना ही महत्त्वपूर्ण है. जब आप कश्मीर जैसी जगहों के बारे में लिखते हैं, या मध्य भारत के जंगलों में जो हो रहा है उसके बारे में लिखते हैं, जिस किसी चीज़ के बारे में.....मैं कहती रही हूं कि फ़िक्शन एक सत्य है. क्योंकि इन जगहों में जो घटित हो रहा है, उस आतंक को सिर्फ़ रिपोर्ताज और प्रमाण आधारित रिपोर्टिंग या फुटनोट्स से समझाना, कभीकभार मुमकिन नहीं होता है. ख़ुद फ़िज़ां और वो लोगों को क्या करने करे लिए विवश करती है और आपको उस ख़ौफ़ के साथ कैसे बसर करनी होती है, सालोंसाल उसके साथ कैसा एडजस्ट करना होता है, तो ये दास्तान वास्तव में सिर्फ़ फ़िक्शन ही सुना सकता है.
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-अपने राजनीतिक लेखन में अक्सर ही मैं वास्तव में अपने लेखन से ज़्यादा आक्रोश महसूस करती हूं. जब मैं फ़िक्शन लिखती हूं तो मैं अपनी देह में बिल्कुल अलग व्यक्ति की तरह होती हूं. फ़िक्शन लिखते हुए मुझमें एक बड़ी शांति रहती है. हो सकता है ये अवचेतन में हो, लेकिन ऊपरी तौर पर मैं किसी ऑडियंस या पाठक या किसी और चीज़ के बारे में नहीं जानती हूं. मैं उसके स्वागत को लेकर बहुत ज़्यादा नहीं सोच रही होती हूं.
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-हाल में, विदेशी संवाददाताओ के एक दल के साथ, मैं दिल्ली में थी. भारत में जो कुछ हो रहा है और उसे कम्यूनिकेट करने की असमर्थता से वे लगभग सदमे में थे. क्योंकि वो चीज़ बॉलीवुड और मुक्त बाज़ार और बढ़ती इकोनमी के शोर में दबी हुई है....(उधर)..सैकड़ों हजारों राजनैतिक कार्यकर्ता भारत को उस बिंदु पर ले आ रहे हैं जहां उसे लगभह हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया गया है. मैं लोगों से कहती थी कि अगर भारतीय बाजार पूरी तरह खुला न होता, और भारत एक बड़ी वित्तीय ठिकाना न होता, तो हम आज जनसंहार और रासायनिक हथियारों और सड़कों में पीट पीटकर मार डालने की वारदातों, दलितों पर चाबुक बरसाने की वारदात के बारे में लिख रहे होते. अभी तो ऐसी भीड़ और ऐसे विजिलांटी हैं जो मुसलमानों की दाढ़ी खींच रहे हैं, उन्हें हिंदू नारे कहने पर मजबूर कर रहे हैं, लोगों को पीट पीटकर खत्म कर रहे हैं.
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-मुक्त बाज़ार इस सब के लिए जिम्मेदार नहीं है लेकिन मुक्त बाजार इस सब को शक्ति मुहैया कराता है. जो अवसर वो हासिल कराता है, अंतरराष्ट्रीय वित्त, ये उस तथ्य को धीरे धीरे ढक देते हैं कि क्रूरता और धर्मांधता का एक स्तर है.. अगर किसी दूसरे देश में, हजारों लोगों के कत्ल की कोई अगुवाई कर रहा होता, मुसलमानों को शरणार्थी शिविरों में धकेला जा रहा होता, तो बाहरी दुनिया में इसे अलग ढंग से लिया जाता. लेकिन अब भारत मार्केट फ्रेंडली, बॉलीवुडीय, धुंधला सा नाज़ुक गुदगुदा खिलौना है.
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-अमेरिका में बेलगाम पूंजीवाद के लिए कच्चा माल दूसरे देशों पर युद्ध थोपकर निकाला जा सकता है. भारत जैसे देशों में हम खुद का उपनिवेशीकरण कर ऐसा कर रहे हैं. मैं सिर्फ रूपक में नहीं कह रही हूं. मैं कहती हूं कि मध्य भारत के जंगल, अर्धसैनिक बलों से भरे हुए हैं जो स्थानीय लोगों को अपनी जमीन से बेदख़ल करने की कोशिश कर रहे हैं. सरकार के बहुत नजदीक एक व्यक्ति ने कहा कि “अफ्रीकी लोग सड़कों पर पीटे जा रहे हैं, मार डाले जा रहे हैं, भारत को नस्ली बताया जा रहा है,” तो उसने कहा, “हम नस्ली कैसे हो सकते हैं. हम इन काले दक्षिण भारतीयों के साथ भी तो रहते हैं.” हजारों किसान और आदिवासी जन, देशद्रोह के आरोप में जेल में बंद है क्योंकि वे अपनी जमीन को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं और वे जमीनें खनन कंपनियों को सौंपी जा रही हैं. जो वहां हो रहा है और बाहर भारत की जो छवि है, उन दोनों में एक गहरा विच्छेद है.
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(स्लेट डॉट कॉम में इसाक शोटनर से बातचीत के अंश)
`समयांतर` से साभार