Thursday, April 18, 2019

उत्तरआधुनिकता (पोस्टमॉडर्निज़्म) के बारे में नोट्स : शिवप्रसाद जोशी


हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है
 (उत्तरआधुनिकता (पोस्टमॉडर्निज़्म) के बारे में नोट्स)
शिवप्रसाद जोशी

उत्तरआधुनिकता यह नहीं कहती कि तुम आधुनिकता के ऊपर से छलांग लगाकर एक नये भाषा उत्पात में अपनी सनसनी के साथ दाखिल हो जाओ. वह छलांग जैसी फ़ुर्तीली कार्रवाई है ही नहीं. वह तो बहुत धीरे धीरे आधुनिकता में आ चुकी दरारों से रिस कर अंदर आती है और आधुनिकता के वृक्ष को भीतर से सोखने की तिकड़में करती है.

उत्तरआधुनिकता उत्तर-सत्य की जननी है. वह धर्मबहुल महानता और प्रकांडता वाले प्राचीन संसार के गल्पों, नैरेटिवों, मिथकों की पुनर्रचना भी है. वह एक प्राचीनता का निर्माण करती है और उस प्राचीनता के मिथ का निर्वहन. वह धर्म को एक नितांत निजी वृत्त से खींचकर ले आने वाली रस्सी है. वह तोड़फोड़ नहीं है जैसा कि उसके बारे में बहुप्रचारित है, वह व्यवस्थाओं का विपर्यय भी नहीं है जैसा कि अक्सर मान लिया जाता है. वह न बेचैनी है न उलझन न गड्डमड्ड. जैसा कि उसका ग्राफ़िक प्रेजेन्टेशन है. वह एक होशियार फ़ितरत है. मॉर्डेनिज़्म का वह विचलन है. जैसे वाम का उत्तर वाम. नया वाम नहीं. उसका उत्तर. लेकिन न दिशा न जवाब. बस पोस्ट. लेकिन आगे का भी नही, न अग्रिम, न आगामी. वह पीड़ित व्यक्ति की आह को बुझाने का उपक्रम करती प्यास है. वह प्यासों को पानी नहीं देती- उसकी अपरिहार्यता बताती रहती है, बाज़दफ़ा वो कहती है- अरे यह प्यास भ्रम है या यह असत्य है! या हो सकता है वो व्याकरण में पानी के पर्यायवाची खोजने चले जाएः जब तक मैं इसे जल न कहूं/ मुझे इसकी कल-कल सुनाई नहीं देती/ मेरी चुटिया इससे भीगती नहीं/ मेरे लोटे में भरा रहता है अंधकार. (असद ज़ैदी)

वह ख़ुद को, किसी निष्कर्ष पर न जाती हुई किसी लक्ष्य को असमर्पित, कहती है. लेकिन पोस्टमॉडर्निज़्म का लक्ष्य स्पष्ट है. वह मनुष्य की स्वाभाविकता का हरण है, एक अस्वाभाविक, सुन्न और मुग्ध मनुष्य की रचना उसका एक लक्ष्य है. नो मैन इज़ ऐन आईलैंड (कोई भी मनुष्य द्वीप नहीं है)- जॉन डोन्ने ने कहा था. नो टेक्स्ट इज़ ऐन आईलैंड (कोई भी पाठ द्वीप नहीं है)- उत्तरआधुनिक कहते हैं. कोई भी पाठ अपने तई मुकम्मल या संपूर्ण नहीं है. हर पाठ अधूरा है. वो समस्त का अंश है. फिर वे ये भी कहते हैं कि हर पाठ का अपना अर्थ है. एक पाठ के कई अर्थ और आशय संभव है. सही तो कहते हैं, आप कहेंगे. इसमें कैसी परेशानी. सही तो कहते हैं लेकिन करते नहीं हैं. वे अधूरा कहते हैं. वे पाठों के सुनियोजित पुनर्पाठ के उतावले हैं. वे चुने हुए पाठ उठाते हैं. सेलेक्टड. उन्हें मनमाने ढंग से खोलते हैं और कहते हैं कि इस पाठ में यह कहां है और यह क्यों नहीं है. वे मार्क्स को उनकी जमीन से उखाड़ लेना परम समझते हैं. वे जानते हैं कि सत्य क्या है. लेकिन कुछ देर बाद वे कहेंगे कि सत्य कुछ और है. और नहीं सत्य अनेक हैं. इसे वह पाठ की गैर-रेखीयता कहते हैं. इस तरह बुनियादी सच्चाई उत्तरआधुनिक भंवरों में डूब जाती है या उलट कर कहें कि वहां सच्चाई की बुनियाद नहीं होती है. वह निर्वात में टंगा हुआ एक भ्रम है. इस तरह उत्तरआधुनिक सच्चाई के संहारक हैं और झूठ के प्रचारक- घोषित अघोषित. नो टेक्स्ट इज़ ऐन आईलैंड उनकी ढाल है. फ़्रेडरिक जेमसन ने कहाः उत्तरआधुनिकता, हालिया (द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर) पूंजीवाद की सांस्कृतिक दलील है. ज़ियाउद्दीन सरदार ने कहाः उत्तरआधुनिकता पश्चिमी संस्कृति का नया साम्राज्यवाद है. उत्तरआधुनिक कंधे उचकाएंगें: ये महज़ उद्धरण हैं. वे ऐसा क्यों करेंगें. क्योंकि उत्तरआधुनिकता उद्धरणों से बचती फिरती चलती है. उद्धरण उसकी शिनाख़्त करते हैं. वह सिर्फ़ अपना उद्धरण धारण करती है. उसे लगता है उसका अपना कोट पर्याप्त है.

उदीयमान दक्षिणपंथी कहते हैं यह मार्क्सवाद की बला है. पहले वे पूछते थेः यह मार्क्सवाद क्या बला है. कुछ अन्य निरपेक्षतावादियों का मत है कि उत्तरआधुनिकता नहीं रही- वो विलुप्त हो चुकी है. इसके उलट जब जब आधुनिकता अपने को बेहतर कर रही होती है तब तब वह दोगुने वेग से उस पर प्रहार करने आ जाती है. वह यही हैं. अपनी कृत्रिमता में. लेकिन अपने मक़सद में फलतीफूलती. उत्तरआधुनिकता एक समकालीन ऐंठन है. कोई इस तक नहीं पहुंचता, यह अपने शिकार चिह्नित करती है और फिर उनका वरण और फिर उन्हें लपेट देती है. उत्तरआधुनिक व्यक्तित्व एक सर्पीला और कई घुमावों और खांचों वाली कील की तरह होता है. वहीं पूरा होता जाता घुमाव. अगर कवि है तो उसके किरदार में, अगर लेखक है तो उसके विचार में, नेता है तो उसकी ज़बान में यह कील होगी. लेकिन वह दुख नहीं होगाः वह क्य़ा है जो इस जूते में गड़ता है/ यह कील कहां से रोज़ निकल आती है/ इस दु:ख को क्यों रोज़ समझना पड़ता है?” (रघुबीर सहाय). उत्तरआधुनिकता के पास आत्मा से टकराते ऐसे प्रश्न नहीं हैं. वह दुःख नहीं जानती. दुःख का उत्सव जानती है. निराशा को वह आत्मरुदन में बदल देती है और पता भी नहीं चलता. करुणा की उसे परवाह नहीं. प्रेम के लिए उसके जखीरे में एक से एक वार हैं. उत्तरआधुनिकता बस प्रतीकों में अपना सफ़र तय करती है. या उन्माद में. राष्ट्रीय झंडे में फड़फड़ाहट या फिसलन की तरह चिपकी है. अस्थियों, विसर्जनों और श्रद्धांजलियों में गोंद की तरह या लोटों में गेंद की तरह. यह चित्र भी है और भाव भी और संदेश भी. प्रणब मुखर्जी भूतपूर्व राष्ट्रपति हैं. उससे पहले एक संदेश हैं. वह एक सिंबल भी हैं. उनके पास जो संदेश है वही मीडियम यानी माध्यम है. मीडियम इज़ द मैसेज वाले मैकलुहानी दिन गए, अब संदेश ही माध्यम बना दिया जाता है. नाना स्वरूपों में विचरण करती हुई उत्तरआधुनिकता राम को खंजर बना देती है हनुमान को प्रचंड. वॉट्सऐप से भीड़ के बीचोंबीच वही है जो बम की तरह फटती है. उत्तर आधुनिकता एक भीड़ है जो आधुनिक जीवन पर हिंसक उतावली है. भीमा कोरेगांव के यथार्थ में अरबन नक्सली का नैरेटिव उसी का सजाया हुआ है. स्पर्शों को घात में बदल देती है. उसे आज़माया ही जाता है इसलिए कि नागरिक लड़ाइयां देश तोड़ने का षडयंत्र पेश हो सकें. देश का और उसके वजूद का  इतना काल्पनिकीकरण और वॉट्सऐपीकरण वो कर देती है. उसी की कृपा है कि देशभक्ति भाव नहीं चाशनी है. हमारे चेहरे टपके हुए और लिथड़े हुए हैं. अस्मिताएं डरी हुई हैं. भय अब प्रछन्न नहीं है, वह नागरिक होने का एक लक्षण है. सत्ता के उपकरणों से उत्तरआधुनिकता एक नया क़िला बनाने की ओर उन्मुख  है जिसे वो आगे चलकर राष्ट्र कहेगी.

उत्तरआधुनिकता एक महा-स्वप्न से उभरी क्रिटिकल धाराओं से पीछा छुड़ाने चली थी. उसे बहुत काम करने थे. भाषा और कला को पांडित्य से छुटकारा और दबेछिपे सांप्रदायिक मंतव्यों को फ़ाश करना था. उसे और इतालो काल्विनो बनाने थे और यथार्थ और स्मृति के नायाब शहरों में लेखक की तरह भटकना था. मिशेल फ़ूको को उसने क्या से क्या बना दियाः एक घाघ  नॉर्मेटिविस्ट (युर्गेन हाबरमास ने कहा). वह ऐन इस दुष्कर हिंदी पट्टी से एदुआर्दो गालियानो और टैरी एगल्टन की तलाश करती, उन्हें पहचानती. वोअपार ख़ुशी का घराना” (मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस) क्यों नहीं बना पाई जो इतने सारे नैरेशन में गुंथा हुआ है और जिन थरथराहटों से भरा हुआ है, वो उत्तरआधुनिकों को समझ क्यों न आईं? बाढ़ एक कुदरती फ़िनोमेना है, कुदरती आफ़त नहीं.’ लेकिन उत्तरआधुनिकता एक ग़ैर कुदरती आफ़त है, क्योंकि वह एक ग़ैर कुदरती फ़िनोमेना है. वह चालाकी से देरिदां के विखंडन में जा मिली, वहां उसका देर टिकना नामुमकिन था, उत्तर संरचना में दाख़िल हुई. वह उत्तरऔपनिवेशिक होकर प्रतिरोध, दमन, हाशिया, एलजीबीटी पर मुखर हुई, वह दलितों और उत्पीड़ितों के लिए आई थी लेकिन वह उत्तर इतिहास बनाने लगी और उत्तर सत्य गढ़ने लगी. उत्तरआधुनिकता ख़ुद को सबऑल्टर्न साबित करने कहां नहीं उतरी. लेकिन गायत्री स्पीवाक ने सही कहा कि अपने लिए जगह हासिल करने यानी सांस्कृतिक वर्चस्व में अपनी जगह सुनिश्चित कर लेने वाली जद्दोजहद, सबऑल्टर्न होना नहीं है. उत्तरआधुनिकता का लंबी लड़ाई से वास्ता नहीं. उसमें उपलब्ध जीवन को ठुकराने’ (मंगलेश डबराल) की ताब नहीं है. और न ही उस दृश्य को बचाने का साहस जो चारों तरफ़ अदृश्य हुआ जाता है. आगे और आगे जाने की, ऊंचा और ऊंचा होने की, नया और नया होने की उसकी लालसा एक विकरालता में तब्दील हो गई. वह बाड़ों को गिराना चाहती थी- ठीक था, नो टेक्स्ट इज़ ऐन आईलैंड- उसका कहना बनता था, वह भाषा की देहरियां ड़ना चाहती थी- ठीक था, वह ज़िद और साहस के नये प्रतिमान गढ़ना चाहती थी- ठीक था, वह मुख्यधारा नहीं मानती थी- ठीक था, वह नये मनुष्य के निर्माण को प्रतिबद्ध बताई जाती थी- ठीक था. लेकिन यह क्या. उत्तर आधुनिकता, तुम जो निशान मिटाती जाती हो, जो हुंकार और अहंकार तुमसे उठता है, जो धूल तुम उड़ाती हो- यह तो किसी बर्बरता के प्रवेश के संकेत हैं- तुम आततायी की आंधी क्यों बनी. 

दुनिया के वैचारिक, साहित्यिक, कला आंदोलनों में उत्तरआधुनिकता को एक अवस्था या एक चरण या एक दर्शन के रूप में मान्यता दिलाने की कोशिशें भी जारी हैं. और ये काम आज से नहीं, 20वीं सदी के चौथे दशक से चला आ रहा है. जब दूसरा विश्व युद्ध ढलान पर था, बंटवारे हो चुके थे, हिंसाओ ने नरसंहार कर दिए थे, चार्ली चैप्लिन और सार्त्र पिकासो आदि से लेकर अपने यहां फैज और मुक्तिबोध तक आधुनिक मनुष्य की चीखें और संताप, आगामी लड़ाइयों की रूपरेखा बना रहे थे, आगे चलकर और अंदर दाखिल होकर भाषाओं में जाएं और अपनी हिंदी में जाएं तो लेखक कवि कहानीकार अपनी रचनाओं में एक उद्विग्न और जूझते मनुष्य के संकटों की शिनाख्त कर रहे थे, हां बेशक यही वह दौर भी था जब उत्तरआधुनिक अपनी छटाओं और प्रशस्ति बेलाओं के साथ आसपास मुखर थे. वे हरगिज़ नहीं चाहते थे कि भाषा और विचार की आधुनिकता अपना स्पेस बनाए. लेकिन ऐसा कहां होता है. ऐसा भी कहां होता है कि सच्चाई को लड़ना ही न पड़े. उत्तरआधुनिकता दरअसल एक थोपी हुई वैचारिकता है, वह चीज़ों का नुकसान करने आई है. हम अपने स्वप्न बना रहे होते हैं और वो इस स्वप्न को एक चटपटा विलास या एक आतुर याचना बना देती है. हिंदी जैसी भाषाओं में यह संकट आया है. गद्य और कविता में यह संकट दिखता है. प्रयोगों पर उत्तरआधुनिकता का कब्ज़ा तो खासा चिंताजनक है. और यह उतरकर सामाजिक व्यवहारों में भी दाखिल हो रहा है- भयावह है. आधुनिक मनुष्य की इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि अभी 21वीं सदी में भी उसकी लड़ाइयां जबकि जारी हैं और कठिन हैं, उसे उत्तरआधुनिक का लबादा पहनाकर शिथिल किया जा रहा है. इस विंडबना को तोड़ना भी उसका मौजूदा कार्यभार होना चाहिए. 

एक सच्चे, सजग और साहसी नागरिक के लिए तीन लड़ाइयां हैं. ख़ुद से लड़ना और दुष्टताओं से लड़ना है. आधुनिक मनुष्य को उत्तरआधुनिकता के कभी नाज़ुक कभी सख़्त आघातों से भी बचना है. उत्तरआधुनिकता नहीं जानती लेकिन इस तरह एक तत्पर और मुस्तैद नागरिक के निर्माण के काम आती है जैसे तानाशाह के भेस में हमारा चार्ली अपना विख्यात भाषण देने जाता है और उम्मीद पर उदास होता हुआ विकल मनुष्यता में पुकारता हैः बर्बरों की नहीं हमारी है यह दुनिया. अपनी विख्यात आत्मकथा में चैप्लिन ने कहाः ग़ैर-नात्सी होने के लिए यहूदी होना ज़रूरी नहीं है. एक नॉर्मल, डीसन्ट मनुष्य होना काफ़ी है. उन शब्दों को थोड़ा बदलकर कह सकते हैं: प्रतिबद्ध होने के लिए उत्तरआधुनिक होना ज़रूरी नहीं है. इस फ़िल्म से ठीक पहले साहित्य में उत्तरआधुनिकता को प्रस्थापित किया जा रहा था. कला और संगीत में वो पहले आ चुकी थी. उत्तरआधुनिकता झपटने आई थी. लेकिन....वे ऐतिहासिक पुकारें थीं, कठिन और जानलेवा समयों की. दक्षिण एशिया का भूगोल देखिएः मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं / सँवारती हुई मुझे / उठी सहास प्रेरणा. (मुक्तिबोध) दशक वही चालीस. या शायद कुछ ज़रा पहले नक्श-ए-फ़रियादीः अरसा-ए-दहर की झुलसी हुयी वीरानी में / हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है / अजनबी हाथों के बे-नाम गरांबार सितम / आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है...(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)

उत्तरआधुनिकता अतीत में लौट नहीं सकती है. लौटना उसका लक्षण नहीं है. उसे गवारा नहीं है. लौटेगी तो वह अपनी परिभाषा से उतर जाएगी. ऐसा वह भला क्यों करेगी. वह अतीत से सीखती नहीं है उसे सोखती है. अतीत उसकी कामनाओं का कंकाल है. टकराव और वैमनस्य के नैरेटिवों में वह अतीत का विद्रूप कर उलीच देती है. चालीस का दशक आया ही चाहता था जब वह कला और संगीत में घुसपैठ करने पहुंची. पसीने, संघर्ष, ख़ून और जद्दोजहद से तरबतर आधुनिकता के रचनाकार जब नये संसार का स्वप्न देखते थे तब वह साहित्य पर अपना चोला डालने पहुंच गई थी.

उत्तरआधुनिकता हमारे स्वप्नदर्शियों के बीच से, हमारे साधारण जन के बीच से तुम जाओ, तुम बेशक राख उड़ाओ, अपनी भव्यताओं से हैरान करो, अपने ज्ञान और और मानमर्दन की अपनी ध्वंस-शक्ति पर उत्सव करो या अवैज्ञानिकता को अपने प्रणाम पर भयानक गदगद हो उठो- हमें बख़्श दो. हमें तुमसे भय नहीं है. हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है. अपनी आधुनिकता की विकृतियां दूर कर उसे बेहतर बनाना है, हिफ़ाज़त हर हाल में करनी है. मार्क्स ने कहाः “Mein Verhältnis zu meiner Umgebung ist mein Bewußtsein. (माइन फरहेल्टनिज त्सू माइनर उमगेबुंग इस्त माइन बिवुस्स्टज़ाइन) हिंदी रूपांतरण कुछ इस तरह से कि अपने पर्यावरण से मेरा संबंध ही मेरी चेतना है.इस आधुनिकतम विचार को फांद पाना उत्तरआधुनिकता के लिए मुमकिन नहीं. इसलिए नहीं कि यह दीवार है इसलिए कि यह बुलंदी है.

(नोटः इस निबंध में उत्तरआधुनिकता को शब्द द्वय की तरह नहीं लिखा गया है. यानी यहां उत्तर और आधुनिकता के बीच कोई हाइफ़न यानी समास चिन्ह नहीं रखा गया है. इसलिए कि इसे आधुनिकता की निरतंरता में आगे की कोई स्थिति या चरण या अवस्था मानने की अपेक्षा लेखक का मानना है कि यह आधुनिकता के समांतर एक प्रवृत्ति एक वैचारिक सैद्धांतिक और सामरिक पोज़ीशन है. वह उत्तरआधुनिक इसलिए नहीं है कि आधुनिकता के बाद उसका आना हुआ है, कि उसका कोई ऐतिहासिक काल है, वह उत्तरआधुनिक इसलिए है कि वह आधुनिकता की वैचारिक ज़मीन पर क़ब्ज़े की नीयत से कला, साहित्य, संस्कृति, दर्शन में लाई गई प्रविधि है. वह नयेपन का छद्म है.  इसकी सबसे अधिक चोट राजनीतिक चेतना पर पड़ रही है. यही चिंता है. हालांकि उत्तरआधुनिकता को लेकर ऐसे संदेहों या चिंताओं को कॉन्सपिरेसी थ्योरी से पीड़ित ग्रंथि बता देने का चलन है लेकिन आधुनिकों को हर तरह के हमले के लिए तैयार रहना चाहिए और भाषा और विचार और राजनीति में शैलीगत और व्यवहारिक परिवर्तनों का स्वागत एक सचेत आधुनिक की तरह करना चाहिए. इतालो काल्विनो ने जब एक अद्भुत भाषा और अद्भुत संरचना की तलाश की तो उन्होंने नहीं कहा कि वह उत्तरआधुनिक हैं, उत्तरआधुनिकों ने कहा कि वह उत्तरआधुनिक भाषा है. जबकि काल्विनो का गद्य, भाषा और विचार की महान आधुनिकता ही थी. और ऐसे काल्विनो अकेले लेखक नहीं थे. भारत समेत दक्षिण एशिया, लातिन अमेरिका, यूरोप- साहित्यिक सांस्कृतिक भूगोलों की यह लिस्ट बहुत लंबी तो नहीं लेकिन इतनी छोटी भी नहीं कि उत्तरआधुनिकता के कोट में समा जाए.)
-शिवप्रसाद जोशी

(समयांतर, अप्रैल 2019 में प्रकाशित)