Saturday, April 27, 2019

समझौता एक्सप्रेस: न्याय की गाड़ी पटरी से कैसे उतरी?- धीरेश सैनी

`हालांकि ऐसा हो सकता है कि उनका मामला लंबा खिंचे लेकिन उन्हें जरूर रिहा कर दिया जाएगा।`
`द कैरवैन` में फरवरी 2014 में छपी लीना रघुनाथ की स्टोरी के मुताबिक असीमानंद ने उनके साथ इंटरव्यू में आतंकी गतिविधियों में अपनी संलिप्तता और इस बारे में आरएसएस लिंक की बात स्वीकार करने के साथ यह उपरोक्त पंक्ति भी बोली थी। स्वामी असीमानंद को समझौता एक्सप्रेस विस्फोट केस में भी एनआईए कोर्ट ने 21 मार्च 2019 को बरी कर दिया है। इस केस के चारों आरोपियों असीमानंद, कमल चौहान, राजिंदर चौधरी और लोकेश शर्मा के बरी हो जाने के साथ ही आतंक की इतनी बड़ी वारदात `अनसुलझी` रह गई है। लेकिन, इस `राष्ट्र-राज्य` और सरकार के लिए इस केस की शुरुआती जांच से खड़े हुए सवाल जस के तस बरक़रार हैं। इनकी वजह से ही एक नया सवाल पैदा होता है कि असीमानंद और इस केस के दूसरे आरोपी बरी हुए या सरकार के इशारे पर नैशनल इनंवेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) ने उन्हें बरी होने दिया। जिस समय यह लेख प्रेस में जाने के लिए तैयार है, स्पेशल एनआईए कोर्ट के जज जगदीप सिंह के फैसले का सार अखबार में शाया हो चुका है कि एनआईए ने केस के ज़रूरी साक्ष्यों को दबा दिया। उन्हें रिकॉर्ड पर लाया ही नहीं गया।

गौरतलब है कि इस आतंकवादी वारदात में जांच जिन नामों तक पहुंची थी, उनमें से कई आरएसएस से जुड़े बड़े नाम थे। खास बात यह है कि केस की शुरुआती जांच करने वाली हरियाणा पुलिस की इस एसआईटी के प्रमुख रहे सीनियर आईपीएस (अवकाश प्राप्त) विकास नारायण राय भी इस केस में जुडिशल ट्रायल को लेकर संतुष्ट होने के बावजूद एनआईए की भूमिका को लेकर सवाल खड़े करते हैं। हरियाणा पुलिस की एसआईटी की लाइन ऑफ इन्वेस्टीगेशन पर क़ायम विकास कहते हैं कि सरकार यूपीए की रही हो या एनडीए की और जांच एजेंसी सीबीआई रही हो या एनआईए, जांच की लाइन वही रही जो उनके नेतृत्व वाली हरियाणा पुलिस की एसआईटी ने इस्टेबलिश की थी। चार्जशीट भी उसी पर जारी हुई और गवाहियां भी उसी पर हुईं।

समझौता एक्सप्रेस केस में असीमानंद समेत चारों आरोपियों के बरी हो जाने के बावजूद फैसले में जज ने जो कहा, वह सरकार और उसकी जांच एजेंसी एनआईए दोनों के लिए शर्मनाक है। स्पेशल एनआइए कोर्ट के जज जगदीप सिंह ने 160 पन्नों के अपने फैसले में साफ़ कहा है कि अभियोजन पक्ष द्वारा दबा लिए गए सबूत रिकॉर्ड पर नहीं लाए गए। जिन स्वतंत्र गवाहों का हवाला दिया गया, उनसे पूछताछ नहीं कि गई। अभियोजन पक्ष को सपोर्ट न करने वाले गवाहों से जिरह तक नहीं की गई। आरोपियों की किसी मीटिंग, अपराध को लेकर किसी तरह की सहमति या अपराध में उनके शामिल होने को लेकर कोई साक्ष्य पेश नहीं किया गया। अपनी स्टोरी के पक्ष में एनआईए ने न सीसीटीवी फुटेज खंगालकर पेश करने की ज़रूरत महसूस की, न उन डोरमेट्रीज के रेकॉर्ड जुटाए गए जहां आरोपियों के ठहरने की बात कही गई थी। आरोपियों की यात्रा का भी कोई साक्ष्य पेश नहीं किया गया। यहां तक कि मौका ए वारदात से मिले सूटकेस के कवर इंदौर की जिस दुकान पर सिले होने की बात जांच में सामने आई थी, उस महत्वपूर्ण साक्ष्य को भी सुचारु जांच प्रक्रिया के अभाव में बेकार जाने दिया गया। प्रज्ञा ठाकुर, सुनील जोशी, संदीप डांगे और असीमानंद के बीच फरवरी-मार्च 2007 में होती रही बातचीत के कॉल रिकॉर्ड का दावा तो किया गया पर इस सम्बंध में न कॉल रिकॉर्ड, न मोबाइल फोन या कोई सम्बंधित साक्ष्य ही अदालत में पेश किया गया। (देखें, Indian Express 29 मार्च 2019)

गौरतलब है कि पाकिस्तान जा रही समझौता एक्सप्रेस में हरियाणा के पानीपत शहर के पास 18 फरवरी 2007 को किए गए विस्फोट में 68 लोग मारे गए थे जिनमें से अधितर पाकिस्तान के नागरिक थे। इस विस्फोट में ट्रेन के दो डिब्बे पूरी तरह जल गए थे। इस बात को लेकर कभी कोई दोराय नहीं रही कि यह एक बड़ी आतंकी वारदात थी। सवाल यह था कि इस वारदात के पीछे कौन सा आतंकी संगठन है। `हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी मुसलमान क्यों होता है` जैसे सवाल उछालकर आरएसएस से जुड़े उग्र हिंदुत्ववादी तत्व मुसलमानों को आतंकवाद का पर्याय प्रचारित करते ही रहे थे। यूं भी विभिन्न आतंकवादी घटनाओं में मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों के नाम आते रहे थे। हरियाणा पुलिस की जांच में आरएसएस से जुड़े लोगों के नाम सामने आने से पहले तक इस विस्फोट के पीछे भी सिमी या किसी अन्य मुस्लिम कट्टरवादी संगठन की भूमिका की आशंका जताई जा रही थी।

हरियाणा पुलिस के पूर्व महानिदेशक विकास नारायण राय उस समय पानीपत से लगे करनाल जिले के मधुबन में स्थित हरियाणा पुलिस एकेडमी के डायरेक्टर थे। यह संयोग था कि केस की जांच के लिए गठित की गई हरियाणा पुलिस की एसआईटी के नेतृत्व की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई थी। विकास बताते हैं कि जब यह वारदात हुई थी, उसके दो दिनों बाद दिल्ली में भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश मंत्रियों के स्तर की वार्ता प्रस्तावित थी। उन्हें भी लगा था कि यह विस्फोट इस बातचीत को पटरी से उतारने के लिए ही किया गया है और इसके पीछे पाकिस्तानी सेना के इशारे पर आईएसआई या उसके द्वारा संचालित किसी ग्रुप का हाथ है। विकास मौके पर पहुंचने वाले पहले अफसर थे और रात में ही की गई छानबीन में उन्हें महत्वपूर्ण सुराग हासिल हो गया था। यह एक अटैची में डिवाइस इंटेक्ट था जो फटा नहीं था। इसे डिस्मेंटल किया गया। इसकी ट्यूब की प्लेट पर लिखे कंप्यूडटर फार्मूले के आधार पर एसआईटी इस तरह की अटैची के ठिकानों की तलाश करते हुए इंदौर की एक दुकान तक जा पहुंची थी। आख़िरकार इस केस में हिंदुत्ववादी संगठन के सुनील जोशी, डांगे और रामचंद्र कलसांगरा का नाम उभरने लगा था। इनमें से सुनील जोशी तो मध्य प्रदेश में आरएसएस से जुड़ा रह चुका जाना-पहचाना नाम था। यह बेहद चौंकाने वाली और आँखें खोल देने वाली जानकारी थी और इसने एक अजीब किस्म का सन्नाटा पैदा कर दिया था। ऐसा सन्नाटा कि मध्य प्रदेश पुलिस केस में सहयोग करने के लिए तैयार नहीं थी।

समझौता एक्सप्रेस विस्फोट केस में हरियाणा पुलिस की एसआईटी की जांच में शुरू में सामने आए तीन लोगों में से एक सुनील जोशी की 29 दिसंबर 2007 को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। बाकी दोनों सुनील डांगे और रामचंदर कलसांगरा रहस्यमय ढंग से गायब हो गए थे। (यह भी याद रखना होगा कि सुनील जोशी की हत्या के आरोप में मध्य प्रदेश की स्वयंसेवक शिवराज सिंह की अगुवाई वाली भाजपा सरकार के दौरान वहां की पुलिस ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को गिरफ्तार किया था। यह प्रज्ञा ठाकुर की पहली गिरफ्तारी थी।) समझौता एक्सप्रेस केस बाद में एनआईए को ट्रांसफर कर दिया गया था। विकास नारायण राय कहते हैं कि सुनील जोशी की हत्या हो जाने के बावजूद डांगे और कलसांगरा को गिरफ्तार कर पूछताछ की जाती तो केस का नतीज़ा कुछ और होता। सवाल यह है कि डांगे और कलसांगरा कहां गायब हो गए। विकास कहते हैं कि एनआईए को दोनों का ट्रेस मिलता रहा था। बाद में दोनों को रहस्यमय ढंग से छुपा दिया गया। अपने प्रफेशनल रवैये के लिए मशहूर इस अवकाश प्राप्त आईपीएस का मानना है कि डांगे और कलसांगरा को `बाई डिजाइन` न छुपाया जाए तो उनके पकड़ में न आने का सवाल ही पैदा नहीं होता। आखिर कोई कहां गायब हो सकता है?
गौरतलब है कि विकास नारायण राय के नेतृत्व में हरियाणा पुलिस की जांच ने हडकंप मचा दिया था। आतंकवाद से जुड़े विभिन्न मामलों को लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय की कॉआर्डिनेशन मीटिग में भी इस बात को लेकर हैरानी थी। भारतीय गृह मंत्रालय को पाकिस्तान से बातचीत में अपमैनशिप (अपना हाथ ऊपर रखने) के लिहाज से पाकिस्तानी एंगल की तलाश थी। कॉआर्डिनेशन मीटिंग्स के दौरान ही उन्होंने पाया कि 2006 के मालेगांव ब्लास्ट, 2007 के मक्का मस्जिद ब्लास्ट और  अजमेर शरीफ ब्लास्ट का तरीक़ा ए वारदात (मोडस ऑपरेंडी) ठीक समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट जैसा था। मालेगावं ब्लास्ट के सिलसिले में महाराष्ट्र एटीएस के चीफ हेमंत करकरे को अहम सुराग हाथ लग चुके थे और उनकी जांच में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित और असीमानंद के नाम सामने आए थे। ये तीनों अभिनव भारत नाम के संगठन के सदस्य बताए जा रहे थे। असीमानंद आरएसएस में भी बड़ी हैसियत रखते थे। आरएसएस के वनवासी कल्याण आश्रम के विस्तार में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। प्रज्ञा सिंह ठाकुर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रह चुकी थीं। करकरे अपनी जांच की उपलब्धियों के चलते भारी दबाव में थे और उन पर हिंदुत्वविरोधी साजिशों के आरोप लगाए जा रहे थे। विकास नारायण राय ने हेमंत करकरे से बात की थी। इससे पहले कि काफी हद तक एक से सुराग हासिल कर रहे इन दोनों पुलिस अधिकारियों की बैठक हो पाती, मुंबई आतंकी हमले में 27 नवंबर 2008 को करकरे की हत्या हो गई थी।

सवाल यह है कि हेमंत करकरे या विकास नारायण राय जैसे अपवाद माने जा सकने वाले अफसर इन मामलों की जांच से न जुड़े होते तो? समझौता एक्सप्रेस विस्फोट की जांच विकास नारायण राय न कर रहे होते तो क्या कोई दूसरा आसान रास्ता न अपना लिया जाता? मसलन जैसा कि विकास खुद शुरू में इस केस में सिमी या ऐसे किसी संगठन का हाथ मान कर चल रहे थे, कोई और अफसर गहन जांच के फेर में पड़ने के बजाय किन्हीं मुसलमान युवकों को दबोच कर केस खोल देने का दावा नहीं कर सकता था?
विकास कहते हैं कि सिमी से जुड़े लोगों से भी पूछताछ की गई थी। सुरागों और सबूतों के आधार पर तफ़्तीश करते हुए नतीज़े तक पहुंचना पुलिस ट्रेनिंग का हिस्सा होता है और किसी भी पुलिस अधिकारी को इसी रास्ते पर चलना ही चाहिए था। हाँ, बहुत से मामलों की तरह मक्का मस्जिद केस में उसी शाम मुस्लिम मुहल्ले के लड़के उठा लिए गए थे। विरोध खड़ा होने पर पुलिस फायरिंग में 6-7 लोग मारे भी गए थे। अजमेर शरीफ केस में भी जांच की यही लाइन थी। बाद में स्थिति बदलती गई। समझौता एक्सप्रेस केस में हमें गिरफ्तारियों की जल्दी नहीं थी। हम सामने आ रहे सुरागों के सहारे पुख़्ता ढंग से गहराई तक जाना चाहते थे।

लेकिन, क्या हर पुलिस अधिकारी इतना प्रतिबद्ध और सेक्युलर हो सकता है, विकास कहते हैं कि ऐसा होना पुलिस की ट्रेनिंग का हिस्सा है। देश का सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य जिस तरह का है, क्या चाहकर भी ऐसे केस में हर कोई अफसर अपनी जान पर खेल कर प्रतिबद्ध रह सकता है? इस सवाल पर विकास कहते हैं कि दबाव हमेशा होते हैं पर अगर पुलिस अधिकारी संविधान और अपने दायित्वों के प्रति प्रतिबद्ध है तो वह अपना काम करेगा ही। लेकिन तथ्य यह भी है कि विकास खुद इस केस में भयंकर असहयोग का सामना कर चुके थे। हरियाणा पुलिस की एसआईटी को इंदौर में पूछताछ के बाद हिंदुत्व लिंक के सुराग हासिल होते ही मध्य प्रदेश पुलिस ने पूरी तरह असहयोग का रवैया अख्तियार कर लिया था। यहां तक कि डांगे और कलसांगरा के फोटो तक उपलब्ध नहीं कराए जा रहे थे। समकालीन तीसरी दुनिया पत्रिका को दिए गए एक इंटरव्यू (मीडिया विजिल वेबसाइट पर उपलब्ध) में विकास ने बताया था कि इंदौर की सूटकेस की दुकान के दो लड़कों जिनमें एक हिंदू था और एक मुसलमान, को पकड़ कर पानीपत में एक महिला मजिस्ट्रे ट के सामने पेश कर रिमांड मांगी गई तो `बड़ा अजीब अनुभव हुआ। हमारी समझ में आया कि वो दबाव में थी। उसने कहा तुम लोग किसी को भी पकड़ लाते हो और रिमांड मांगते हो। उसे लगा कि हम लोग तो इससे पहुंच जाएंगे वहां… ये बता देंगे उस लड़के का नाम कि कौन आया था। उसने आखिर में हमारा अप्लिकेशन पढ़ा और रिमांड दे दी क्योंयकि कोई चारा था नहीं। उन लड़कों ने सहयोग किया, फिर हमने उन्हेंे डिस्चार्ज कर दिया। उसी दौरान सुनील जोशी, सुनील डांगे और कलसांगरा का नाम आना शुरू हो गया।`

विकास नारायण राय इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उनकी टीम की इन्वेस्टीगेशन लाइन में गड़बड़ी होती तो उसे बदल देना दूसरी जांच एजेंसियों के लिए आसान हो जाता। शुरू में सीबीआई की मॉनिटरिंग के बाद केस एनआईए के पास चला गया था। विकास मानते हैं कि यह उचित ही था क्योंकि एनआईए का गठन इस तरह के केसेज देखने के लिए ही किया गया था। उनकी जांच टीम ने जो लाइन तय की थी, सीबीआई और एनआईए उसी पर बढ़ीं। यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही नहीं बल्कि एनडीए सरकार के कार्यकाल में भी। असीमानंद की या दूसरे आरोपियों की गिरफ्तारियां भी हरियाणा पुलिस की एसआईटी ने नहीं की थीं बल्कि उसकी इन्वेस्टीगेशन लाइन को फॉलो करते हुए एनआईए ने ही की थीं। बाद में जांच की लाइन को डीरेल करने की कुछ कोशिशें जरूर हुईं। मसलन, अटारी बोर्डर पर पकड़े गए किसी आदमी का हवाला दिया गया जिससे पूछताछ में कुछ हासिल नहीं हुआ था या फिर किसी नये डॉक्यूमेंट का दावा किया गया। लेकिन सवाल यह है कि इन्वेस्टीगेशन लाइन को बदल देने वाला कोई नया सबूत या अहम सुराग था तो सरकार या एनआईए ने सप्लीमेंट्री चार्जशीट पेश किए जाने में दिलचस्पी क्यों नहीं ली। विकास कहते हैं कि इस केस के जुडिशल ट्रायल में कोई कमी नहीं रही पर लगता है कि एनआईए ने केस को जान-बूझकर खराब किया।
 
आतंकवादी वारदातों के हिंदुत्व लिंक के सबूतों को लेकर यूपीए सरकार के दौरान ही उतनी मुस्तैदी नहीं बरती जा रही थी जितनी कि इस तरह के मामलों में अपेक्षित थी। जांच एजेंसियों के असीमानंद तक पहुंच जाने के बाद आरएसएस के एक महत्वपूर्ण नेता इंद्रेश कुमार को लेकर भी तमाम तरह की आशंकाएं जताई जा रही थीं। सीबीआई ने उनसे पूछताछ भी की थी। हालांकि, उन्होंने आरोपों को निराधार बताते हुए आक्रामक तेवर बनाए रखे थे और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर व स्वामी असीमानंद आदि पर लगे आरोपों को भी साजिश करार दिया था। लेकिन सवाल संघ की टॉप लीडरशिप को लेकर भी उछल रहे थे। दावा तो यह भी किया गया था कि मोहन भागवत को भी इस बारे में जानकारी थी। असीमानंद के चार साक्षात्कारों के आधार पर `कैरवान` में प्रकाशित हुई लीना रघुनाथ की चर्चित स्टोरी में भी दावा किया गया है कि असीमानंद ने उन्हें इस बारे में जानकारी दी थी। लीना रघुनाथ की इसी स्टोरी के मुताबिक, कोर्ट के सामने अपने इक़बालिया बयान में भी असीमाननंद ने कहा था कि `हमलों का षडयंत्र आरएसएस के एक वरिष्ठ सदस्य को जानकारी में रखकर किया गया था`।
` दिसंबर 2010 और जनवरी 2011 में असीमानंद ने कोर्ट के सामने दो अपराधों की स्वीकारोक्ति की। ये बयान दिल्ली और हरियाणा की कोर्ट में हुए जिनमें उन्होंने हमले की योजना बनाने की बात स्वीकारी। उन्होंने कानूनी सहायता लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने न्यायिक हिरासत में 48 घंटे गुजारे थे और इस दौरान उन्हें जांच एजेंसियों से दूर रखा गया था जिसके बाद उन्होंने ये बयान दिए थे। इसका अभिप्राय ये था कि उनके ऊपर कोई दबाव न रहे और उन्हें मन बदलने का मौका मिल सके। दोनों बार असीमानंद ने तय किया कि वे अपने अपराध स्वीकारेंगे और इसी के तहत कोर्ट में अपने बयान दर्ज करवाए। उनके और उनके दो साथी षडयंत्रकारियों के गुनाह कबूलने में एक समान बात सामने आई जिसमें कहा गया था कि इन हमलों का षडयंत्र आरएसएस के एक वरिष्ठ सदस्य को जानकारी में रखकर किया गया था।` (लीना रघुनाथ/कैरवान)

कांग्रेस की तरफ से `भगवा आतंकवाद`की बात भी उठाई गई थी पर आरएसएस और उसके संगठन आक्रामक तेवर में आ गए थे तो सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन गड़बड़ा जाने के डर से कांग्रेस घबराकर चुप हो गई थी। लेकिन, जांच एजेंसियों के पास जिस तरह के सबूत लग रहे थे, आरएसएस उनकी गंभीरता को समझ रहा था। 2010 में आरएसएस और हिंदुत्व पर आतंक का तमगा लगाने की साजिश का आरोप लगाते हुए आरएसएस नेताओं ने देशभर में प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था। लखनऊ में मोहन भागवत खुद धरने में शामिल हुए थे।

जाहिर है कि मीडिया में आए असीमानंद के इंटरव्यू का अदालती लिहाज से कोई महत्व नहीं था। असीमानंद ने कोर्ट में दिए गए इक़बालिया बयान से भी
28 मार्च 2011 को पलटते हुए दावा किया था ये बयान दबाव का नतीजा थे। लीना रघुनाथ के मुताबिक, उन्होंने ट्रायल कोर्ट के सामने एक अर्जी दी थी जिसमें लिखा था, “असीमानंद के कथित स्वीकारोक्ति को मीडिया को लीक किया गया। ये चौंकाने वाला है और जानबूझकर किया गया लगता है। ये एक डिजाइन का हिस्सा लगता है जिसके तहत मामले का राजनीतिकरण करके इसका प्रचार किया जा सके। इससे ये भी लगता है कि इसका मीडिया ट्रायल किए जाने की भी योजना है जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदू आतंक की धारणा को बल दिया जा सके और इससे देश की सरकार चला रही पार्टी को फायदा पहुंचाया जा सके।”  गौरतलब है कि लीना रघुनाथ ने यह भी जिक्र किया था कि उन्हें दिए गए इंटरव्यू में असीमानंद ने किसी तरह के टॉर्चर से इंकार किया था। बाद में असीमानंद ने कैरवान मैगजीन की रिपोर्टर से मिलने की बात तो स्वीकार की थी पर उसकी खबर को झूठा और बनावटी बताया था।

यूं भी आरएसएस अपने सदस्यों यहां तक कि पदाधिकारियों के कामों के लिए सुविधानुसार खुद को जोड़ने या अलग करने की नीति पर चलता रहा है। आरएसएस इस बात पर जोर देता रहा है कि वह उससे जुड़े रहे किसी व्यक्ति के कामों के लिए जिम्मेदार नहीं होता है। विकास नारायण राय कहते हैं कि यह बात जरूर है कि ब्लास्ट की जांच में सामने आए कई नाम संघ से जुड़े रह चुके थे लेकिन सिर्फ़ इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता था कि संघ किसी योजना में शामिल था।
 
2014 में आरएसएस की राजनीतिक विंग भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में ताकतवर सरकार बनाने में कामयाब हो गई तो यूं भी स्थितियां बदल चुकी थीं। मालेगांव विस्फोट केस में विशेष सरकारी वकील रोहिणी सालियन ने अक्तूबर 2015 में दावा किया था कि केंद्र में नई सरकार बनने के बाद एनआईए उन्हें `भगवा आतंक` के मामलों में नरम रुख अख्तियार करने के लिए कह रही है। एनआईए की कार्यशैली को लेकर विकास नारायण राय ने सितंबर 2016 में `समकालीन तीसरी दुनिया`पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में भी सवाल उठाए थे। रिटायर होने जा रहे एनआईए के तत्कालीन चीफ के कार्यकाल में विस्तार को लेकर भी सवाल उठा था। जाहिर है कि ऐसी स्थितियों में कोर्ट में इन मामलों की पैरवी कमजोर पड़ जाने की आशंकाएं स्वाभाविक रूप से जोर पकड़ रही थीं।

गौरतलब है कि समझौता एक्सप्रेस केस का फैसला आने से पहले मक्का मस्जिद विस्फोट केस में भी इसी तरह का फैसला आ चुका है। असीमानंद का नाम मक्का मस्जिद केस में भी शामिल था और एनआईए के पास जो सबूत थे, उन्हें काफी मजबूत माना जाता था। इसके बावजूद एनआईए ने फैसले को लेकर ऊपरी अदालत में अपील की जरूरत नहीं समझी थी। समझौता एक्सप्रेस केस में भी सरकार या उसकी जांच एजेंसी एनआईए फैसले के खिलाफ अपील करेगी, ऐसी किसी भी संभावना को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने पूरी तरह खारिज कर दिया है। भले ही इससे आतंकवाद से लड़ने की भारतीय सरकार की प्रतिबद्धता के दावे कमज़ोर पड़ते हों और पाकिस्तान पर आतंकवाद के मामलों में दबाव बनाने की रणनीति पर भी असर पड़ता हो।

समझौता एक्सप्रेस का फैसला आने के बाद संघ और उसके सहयोगी संगठनों की खामोशी हैरान करने वाली थी। इस बार इन संगठनों से जुड़े लोगों की प्रतिक्रिया वैसी नहीं थी जैसी कि मक्का मस्जिद केस के फैसले के बाद रही थी। तब फैसले को भगवा और हिंदुत्व को बदनाम करने की साजिश नाकाम हो जाने के रूप में प्रचारित किया गया था। हो सकता है कि मीडिया की मुख्यधारा के अनुकूल होने के बावजूद इस केस की जांच से जुड़ी बातों को तत्काल नये सिरे से चर्चा में न आने देने के लिए यह रणनीति अपनाई गई हो। लेकिन, 29 मार्च को फैसले की कॉपी सार्वजनिक हो जाने जिसमें साक्ष्यों को रोकने के मामले में एनआइए पर सवाल हैं, भाजपा को अपनी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली को आगे करना पड़ा। बाद में भाजपा के शीर्ष नेताओं ने इस बारे में बयान दिए। जेटली ने कहा `कांग्रेस ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए 'हिंदू आतंकवाद' की थ्योरी को गढ़ा था और इसे स्थापित करने के लिए फर्जी सबूतों के आधार पर बेगुनाह लोगों के खिलाफ केस दर्ज किए थे। लेकिन, अब अदालत के आदेश आने के बाद इसका पटाक्षेप हो गया है। यूपीए सरकार के कदम से धमाके को अंजाम देने वाले वास्तविक गुनहगार बच निकले।` जेटली के इस बयान के खोखलेपन और सरकार की संदिग्ध भूमिका को जाहिर करने के लिए फैसले से जज की इस टिपप्णी को दोहराना ही काफी होगा कि एनआईए ने कारगर सबूतों को रेकॉर्ड पर आने से रोक दिया था। जहां तक बेगुनाहों के बच निकलने का सवाल है तो `आतंकवाद के खिलाफ सबसे मजबूत सरकार` पांच साल पूरा कर लेने के बावजूद क्यों `वास्तविक गुनहगारों` तक नहीं पहुंच पाई। वास्तविकता यही है कि इस केस में शुरू में ही इस्टेबलिश हुई जांच की लाइन को सरकार बदल जाने के बावजूद बदल पाना मुमकिन नहीं हो सका। वास्तविकता यह भी है कि इस केस में जिस तरह के एविडेंस हासिल हो रहे थे, उन्हें अंज़ाम तक पहुंचाने के लिए जांच एजेंसी को अपेक्षित आज़ादी यूपीए सरकार के दौरान भी नहीं थी। कांग्रेस का गुनाह असल में यह है।
(समयांतर, अप्रैल 2019 में प्रकाशित) 

2 comments:

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 27/04/2019 की बुलेटिन, " यमराज से पंगा - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सरदार हरि सिंह नलवा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।