कल (इतवार) कई सालों बाद एनएसडी में जाकर कोई नाटक देखा। गाँधी पर केंद्रित यह नाटक `पहला सत्याग्रही` देखने जाने की एकमात्र वजह इसके लेखक रवीन्द्र त्रिपाठी रहे। वही इस कशमकश की वजह हैं कि नाटक ने जो निराशा और क्षोभ पैदा किया है, उसका ज़िक्र करुं, न करुं और करुं तो कैसे करुं। एक तरीक़ा यह सोचा कि नाटक की अच्छाइयों पर कुछ तबसरा करते हुए वह नागवार बात कहूं जो कहना चाहता हूँ। बार-बार लिखने और डिलीट करने के बाद लगा कि ऐसे में अपना जो ढंग है, वही काम आ सकता है। जो बात कहे जाने के लिए मजबूर कर रही है, उसे सीधे कहा जाए। नाटक गाँधी के जरिये सत्ता में बैठे लोगों के साम्प्रदायिक इरादों को प्रचारित करता है। हैरानी यह है कि इस नाटक के लेखक के रूप में रवींद्र त्रिपाठी जैसे उस पढ़े-लिखे शख़्स का नाम जुड़ा है जिसके प्रति आकर्षण की शुरुआत उसकी विष्णु खरे से हुसेन पर लिखे गए एक लेख (खरे के) को लेकर वैचारिक भिड़ंत थी।
एक घंटे 50 मिनट का यह नाटक जो निर्देशक सुरेश शर्मा के मुताबिक, गांधी से महात्मा बनने की गाथा है, दक्षिण अफ्रीका में गाँधी को रेल के प्रथम श्रेणी के कोच से बाहर फेंकने से उनकी हत्या तक जाता है। जहाँ तक गांधी से महात्मा बनने की गाथा की बात है, श्याम बेनेगल एक प्रभावी फिल्म The Making of the Mahatma बना चुके हैं। सत्ता के चरित्र को देखते हुए उसके अधीन आने वाले किसी संस्थान में खेलने के लिए गाँधी पर शायद कोई ऐसा नाटक तैयार किया जा सकता था जो पूरी तरह राजनीतिक गाँधी की राजनीति को छुए बिना आध्यात्मिक सी, भले मानुस की सी, देवता की सी छवि बनाकर काम चला लेता। जैसा कि निर्देशकीय में कहा गया है, ``मैं इस चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहता था कि स्वाधीनता संग्राम में गांधी जी का क्या-क्या योगदान रहा। उस समय के उनके समकालीन नेताओं के साथ उनके क्या-क्या संवाद हुए, कहां-कहां विचारों पर मतभेद, किन-किन नेताओं के विचारों के साथ उनकी सहमति थी इत्यादि।`` अफ़सोस कि यह दावा ठीक नहीं है।
यह नाटक बेहद सचेत ढंग से और बेहद सलेक्टिव ढंग से गाँधी के मतभेद पर फोकस करता है। भारतीय नेताओं से मतभेद के रूप में कई बार एक ही नाम आता है, वो जिन्ना का है या फिर मुस्लिम लीग का। इसके अलावा देश में कोई और राजनीतिक विचार, संगठन या शख़्स थे, जिससे गाँधी असहमत थे या जो गाँधी के ख़िलाफ़ थे, उनको लेकर नाटक ख़ामोशी ओढ़े रहता है। नाटक के बीच में आता है कि जिन्ना और मुस्लिम लीग विभाजन की मांग उठाते हैं। जिन्ना की वजह से नोआखाली हो जाता है। नाटक के एक आख़िरी दृश्य में जो काफ़ी प्रभावी ढंग से रचा गया है जिसमें बूढ़े गाँधी दक्षिण अफ्रीका वाले युवा बैरिस्टर मोहन से संवाद कर रहे होते हैं तो भी अकेला नाम जिन्ना ही विभाजन के लिए जिम्मेदार होता है।
दक्षिण अफ्रीका की घटनाओं और चम्पारण के अलावा जिस घटना पर सबसे ज़्यादा फोकस किया गया है बल्कि सबसे ज़्यादा अग्रेसिव ढंग से किया गया है, वह है नोआखाली के दंगे। `जिन्ना के डाइरेक्ट एक्शन` से हुए दंगों की ख़बर पाकर व्यथित गाँधी वहाँ पहुंच जाते हैं। मुसलमानों को नसीहत देते हैं कि स्त्रियों का अपहरण और बलात्कार क़ुरान का अपमान है। हिंदुओं को अपने घरों में लौटने के लिए कहते हैं और पीड़ितों के लिए सेवा कार्य करते हैं। दंगों का लाइव करने में नाटक का लेखक या निर्देशक कौन अपनी रचनात्मकता के `शिखर` पर पहुंचता है, यह वे दोनों तय कर लें। गोल टोपियां पहने मुसलमान हिंदू स्त्रियों को घेरते हैं। पीले वस्त्रों वाले जोगी-जोगिन नोआखाली की व्यथा गाते हुए गुज़रते हैं। इस दौर में करियर के उज्जवल भविष्य के लिए और क्या चाहिए? बंगाल का हिंदू इलीट क्या कर रहा था, गाँधी की हत्या तक देश में जिन्ना के अलावा भी क्या कोई और ताक़तें थीं जो थोड़ा-बहुत साम्प्रदायिकता या देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार थीं, नाटक नहीं बोलता। हिन्दू महासभा, आरएसएस, आर्य समाज के लोग क्या कर रहे थे, नाटक नहीं बताता। क्या नोआखाली के अलावा भी दंगे हुए? हाँ, नाटक स्वीपिंग कमेंट स्टाइल में बताता है कि नोआखाली की प्रतिक्रिया में बिहार में। शायद कलकत्ते में भी। 1947 तक गाँधी दिल्ली तक में किस तरह जूझ रहे थे और पटेल तक से कैसे उन्हें उलझना पड़ रहा था, यह नाटक नहीं बताता। बस जिन्ना, मुस्लिम लीग और मुसलमान अपवाद हैं। इधर पंजाब में भी क्या हुआ और दिल्ली व आसपास भी क्या हो रहा था, उसे दिखाने की ज़रूरत होती तो रवींद्र त्रिपाठी और सुरेश शर्मा क्या लिखते-दिखाते? तब हत्यारों और बलात्कारियों के सिरों पर गोल टोपियों ही पहनाई जातीं या उनका रंग काला-पीला होता? अच्छा है, पंडितजी द्वय इस चक्कर में नहीं पड़े। गाँधी की हत्या दिखाई गई पर इस तरह कि नहीं दिखाई गई। अपनी मृत्यु के आभास का उल्लेख करते हुए गाँधी प्रार्थना सभा में मतलब मंच से ग्रीन रूम में चले जाते हैं और अँधेरे में गोलियां चलने की आवाज़ें आती हैं। वे कौन हैं जिन्होंने गाँधी को मारा, नहीं पता। दर्शक मान सकते हैं, नोआखाली वाले गोल टोपी वाले मुसलमान ही होंगे, नाटक में हत्यारे और बलात्कारी वही तो हैं।
(मुसलमानों का अभिनय कर रहे कलाकारों के पहनवावे की बात से नोआखाली गए गाँधी से प्रभावित होकर उनके अभियान में शामिल हुई ग़रीब बुर्के वाली औरत भी याद आ रही है। उन दिनों का पता नहीं, पर आज भी बुर्का बंगाल की महिलाओं का प्रतिनिधि पहनावा नहीं है। सूती साड़ी शायद वो असर न पैदा करती? गाँधी के अभिवादन के बदले बंगाली मुसलमान का नोमोस्कार के बजाय सलाम वालेकुम/“सलाम अलैकुम ज्यादा ऑथेंटिक होगा? हिन्दू गाँधी के हाथ पर बंधे कलावे के लिए भी तो तारीफ़ हो। यही छोटी-छोटी पकड़ तो लेखक और निर्देशक को 'विश्वसनीय' बनाती हैं।)
गाँधी को अगरबत्ती दिखाने के बाद उनके भजन से शुरू हुआ नाटक उनके भजन पर ही सम्पन्न हो जाता है। बा को `श्री रामचन्द्र क़ृपालु भजमन` पहले ही सुनाया जा चुका होता है। नाटक में और भी गीत हैं। एकला चला रे भी और कुछ लोकगीत शैली वाले भी। गाँधी की स्वच्छता अभियान वाली छवि भी है। और सर्व धर्म सद्भाव व दूसरी बहुत सारी अच्छी-अच्छी बातें हैं जिन्हें आप एनएसडी के सम्मुख सभागार में आज सोमवार शाम 6.30 बजे ख़ुद गाँधी के सहयोगी महादेव देसाई, प्यारे लाल, सोनिया शलेसिन, कैलिन बाख और जोसफ के. डोक के मुंह से सुनेंगे तो और अच्छी लगेंगी।
शुरू में ही मैंने उन रवींन्द्र त्रिपाठी का ज़िक्र किया था जिन्होंने विष्णु खरे के हुसेन पर लिखे का कड़ा प्रतिवाद किया था। याद है कि जनसत्ता में हुसेन पर छपे विष्णु खरे के लेख का तब सबसे पहला प्रतिवाद मैंने अपने ब्लॉग पर लिखकर किया था जिसका शीर्षक था - `हुसेन प्रकरण : क्या विष्णु खरे ने बूढ़े कन्धों से सेक्युलरिज्म का `भार` उतार फेंका?` मैं किसी निर्देशक सुरेश शर्मा को नहीं जानता। अपने उसी प्रिय लेखक रवीन्द्र त्रिपाठी को ही जानता हूँ। सवाल है कि क्या रवींद्र त्रिपाठी ने भी अपने कन्धों से कुछ उतार फेंका है?
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