Monday, November 2, 2009

कार्तिक-स्नान : मनमोहन

एक ही दिन
एक ही मुहूर्त में
हत्यारे स्नान करते हैं

हज़ारों-हज़ार हत्यारे

सरयू में, यमुना में
गंगा में
क्षिप्रा, नर्मदा और साबरमती में
पवित्र सरोवरों में

संस्कृत बुदबुदाते हैं और
सूर्य को दिखा-दिखा
यज्ञोपवीत बदलते हैं

मल-मलकर गूढ़ संस्कृत में
छपाछप छपाछप
खूब हुआ स्नान

छुरे धोए गए
एक ही मुहूर्त में
सभी तीर्थों पर

नौकरी न मिली हो
लेकिन कई खत्री तरुण क्षत्रिय बने
और क्षत्रिय ब्राह्मण

नए द्विजों का उपनयन संस्कार हुआ
दलितों का उद्धार हुआ

कितने ही अभागे कारीगरों-शिल्पियों
दर्ज़ियों, बुनकरों, पतंगसाज़ों,
नानबाइयों, कुंजडों और हम्मालों का श्राद्ध हो गया
इसी शुभ घड़ी में

(इनमें पुरानी दिल्ली का एक भिश्ती भी था!)

पवित्र जल में धुल गए
इन कमबख्तों के
पिछले अगले जन्मों के
समस्त पाप
इनके खून के साथ-साथ
और इन्हें मोक्ष मिला

धन्य है
हर तरह सफल और
सम्पन्न हुआ
हत्याकांड

7 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

कर्मकांड के छद्म को उधेड़ती बेहतरीन कविता।

Anonymous said...
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Ashok Kumar pandey said...

आप लोग ऐसी एनानिमस कविता! लगाते क्यों हैं भाई। इसमे ब्लाग के नाम के बहाने दिनेश जी का अपमान भी है।

मै इस पर अपना विरोध दर्ज़ कराता हूं। कृपया इसे शीघ्र हटायेम्।

Rangnath Singh said...

धार्मिक पाखण्ड के खिलाफ बहुत ही सशक्त कविता है।

Rangnath Singh said...

आप आप अपने मेल से मेरे मेल पर एक मेल कर दें। मेरा मेल पता है rangnathsingh@gmail.com। या फिर अपना मेल पता ही बता दें।

Ek ziddi dhun said...
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Ek ziddi dhun said...

अशोक भाई, दिनेश जी ब्लॉग की दुनिया में हैं और पूरी सामाजिक-राजनैतिक प्रतिबद्धता के साथ हैं. वे भी ऐसे चिरकुटों को समझते ही हैं. मनमोहन की प्रतिबद्धता और उनके जीवन के बारे में कुछ कहने की भी जरुरत नहीं है.
गली-गा दिया था, बाद में हटा दिया. नेट पर भी इन दिनों कम जा पता हूँ. बहरहाल आपके हुक्म की तामील करते हुए मैं इसे हटा देता हूँ.