Monday, January 24, 2011

रियाज़ के दम पर या सिर्फ रियाज़ के दम पर नहीं!



पंडित भीमसेन जोशी को
जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि
संगीतज्ञों में शहंशाह भीमसेन जोशी ने आज पुणे में 89 बरस की उम्र में आखीरी सांसे लीं. अपने धीरोदात्त, मेघ-मन्द्र स्वर के सम्मोहन में पिछले ६० सालों से भी ज़्यादा समय से संगीत विशेषज्ञों और सामान्य लोगों को एक साथ बांधे रखनेवाले जोशी जी संभवत: आज की दुनिया के महानतम गायक थे. वे सचमुच भारत रत्न थे. जन संस्कृति मंच उनके निधन पर गहरा दुःख व्यक्त करता हे और उस महान साधक को अपनी श्रद्धांजलि भी.
जोशी जी 4 फरवरी १९२२ को कर्नाटक के गदग, (धारवाड़) में जन्में थे. उन्हें भारत रत्न 2008 , तानसेन सम्मान 1992 , पद्म भूषन 1985 , संगीत के लिए संगीत नाटक एकेडमी पुरस्कार 1975 और पद्म श्री 1972 समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका था. उन्होंने अपनी अंतिम प्रस्तुति 2007 में सवाई गन्धर्व महोत्सव में दी. अब्दुल करीम खान के शिष्य सवाई गन्धर्व उनके गुरु थे और जोशी जी उनकी याद में हर साल पुणे में संगीत सम्मलेन आयोजित करवाते थे.
शुरू से ही जोशी जी एक यायावर थे. तीन साल की उम्र के जोशी जी घर से गायब हो या तो मुआज्ज़िन की अज़ान की नक़ल करते या फिर किसी मंदिर में 'हवेली संगीत' सुनते पाए जाते. किराना घराने के उस्ताद अब्दुल करीम खान का गाया राग झिंझोटी रेडियो पर सुना और ११ साल की उम्र में घर छोड़ गुरु की तलाश में उत्तर की और निकल भागे. बिना पैसे के खड़गपुर, कोलकाता, दिल्ली घूमते घामते जालंधर पहुंचे और फिर वहां से सलाह मिली कि अब्दुल करीम खान साहब के प्रखर शिष्य सवाई गन्धर्व से सीखो. इस दौरान उन्होंने कई तरह के काम किये. अंततः उन्हें गुरु मिले सवाई गन्धर्व.
हिन्दुस्तानी के साथ ही मराठी और कन्नड़ संगीत में भी उनके योगदान को कभी भुलाया न जा सकेगा. शास्त्रीय संगीत को जनप्रिय बना देने की उनमें अद्भुत सलाहियत थी. तुकाराम सहित ढेरों भक्त कवियों की कविताओं को उन्होंने संगीत में पिरोकर श्रोताओं का मान उन्नत करने का यत्न किया. उनके लिए शास्त्रीय संगीत कोई उच्च भ्रू विशिष्टों की जागीर न था. शास्त्रीय संगीत के दरवाज़े उन्होंने आम इंसान के लिए खोल दिए थे.
जोशी जी की सांगीतिक प्रतिभा बहुआयामी थी. उन्होंने फिल्मों के लिए भी कुछ गाने गाये, भजन गाये, और शास्त्रीय संगीत तो खैर उनका अपना घर ही था. किराना घराने की उस्ताद अब्दुल करीम खान साहब से चली आ रही परम्परा में जोशी जी ने बहुत कुछ जोड़ा. घरानों की शुद्धता के नियम के वे कभी आग्रही नहीं रहे. दरअसल किराना घराने के तो वे उस्ताद थे ही, पर अपनी गुरु बहन गंगूबाई हंगल से अलग, दूसरी रंगत और घरानों के प्रभाव भी उनकी गायकी में घुल-मिल जाते हैं. उनका मानना था कि एक शिष्य को गुरु की दूसरे दर्जे की नक़ल करने की बजाय उसके गायन को विकसित करने वाला होना चाहिए. उनके गायन में कहीं सवाई गन्धर्व और रोशन आरा बेगम का असर है तो कहीं मल्लिकार्जुन मंसूरऔर केसरी बाई का. ऐसा मानते हैं कि जोशी जी की सा (षडज) की अदायगी में केसरीबाई का काफी असर है. जोशी जी अपनी शैली से भी लगातार लड़ते रहे, विकसित करते रहे. इसी जज्बे और संशोधनों का प्रमाण है कि किराना घराने की लम्बी परम्परा में सिर्फ उन्होंने ही राग रामकली को गाने की हिम्मत की.
उदात्तता से भरी उनकी मंद्र आवाज़ में जबरदस्त ताकत थी. पौरुषेय ताकत जिसका अपना एक अलग सौंदर्य होता है. बावजूद इसके कि वे हिन्दुस्तान के सबसे बड़े शास्त्रीय संगीतकारों में शुमार किये जाते थे, जोशी जी की खासियत स्वरों के मूल स्वरुप पर उनकी अद्भुत पकड़ थी. अपने अंतिम दिनों के एक इंटरव्यू में भी उन्होंने रोजाना लम्बे रियाज की बात तस्लीम की थी. मज़ाक में अपने को संगीत का हाई कमिश्नर कहने वाले जोशी जी सच में इस ओहदे से कहीं जियादा के हकदार थे, कहीं बड़ी शख्सियत थे.हिंदी की दुनिया की तरफ से श्रद्धांजलि -स्वरूप उनपर लिखी हिन्दी कवि
वीरेन डंगवाल की कविता प्रस्तुत है-

भीमसेन जोशी

मैं चुटकी में भर के उठाता हूँ
पानी की एक ओर-छोर डोर नदी से
आहिस्ता
अपने सर के भी ऊपर तक

आलिंगन में भर लेता हूँ मैं
सबसे नटखट समुद्री हवा को

अभी अभी चूम ली हैं मैंने
पांच उसाँसे रेगिस्तानों की
गुजिशता रातों की सत्रह करवटें

ये लो
यह उड़ चली 120 की रफ़्तार से
इतनी प्राचीन मोटरकार

यह सब रियाज़ के दम पर सखी
या सिर्फ रियाज़ के दम पर नहीं!


(जन संस्कृति मंच की ओर से महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा जारी )

3 comments:

सुशीला पुरी said...

अपनी कविता के साथ सुरों के सूरज को नमनाञ्जलि !

खुशी के आदिम उद्घोष सी
गूँजती है तुम्हारी आवाज़
मेघ बनकर फूँकती है
मन मे मल्हार
बूँदों सी झरती है देह पर
नेह ही नेह ,
रक्तकोशिकाओं के पाँवों में
बंध जाते हैं रुनझुन घुंघरू
अनगिन छंदों में गूँथकर आह्लाद
हवाएँ कर देती हैं अभिषेक
और वापस लौट आती है
हंसी , साँसों की ,
चुप्पियाँ चुपचाप चुन लेती हैं
खण्डहरों के खोह
स्वप्न जगते हैं...कि पलकें ढाँप लेते हैं
तुम्हारी आवाज़ की बरखा
खींच लाती हैं गगन से रश्मियाँ
खिली गीली गुनगुनी सी धूप
जिसे ओढ़ती हूँ मै
ज्ञात नहीं सदियों सदियों से
सुर तुम्हारे जी रहे मुझको
कि मै ही ले रही हूँ जन्म फिर फिर ...!
--- सुशीला पुरी

उम्मतें said...

सम्यक प्रविष्टि के लिए आभार !

वर्षा said...

उन पर लिखी ये कविता बड़ी सुंदर