Wednesday, May 16, 2012

कार्टून विवादः एक मानवीय अवलोकन : लाल्टू


भारतीय समाज दलित और गैर-दलित दो तबकों में बँटा है। एक इंसान को औरों से अलग कर देखना मानव मूल्यों की दृष्टि से ग़लत है। पर सामाजिक गतिकी के स्रोत न्याय अन्याय के वांछित-अवांछित कारण हैं। इस आलेख में मुख्यतः गैर-दलितों से संवाद करने की कोशिश है। एक प्रताड़ित तबके के बारे में संवेदना की बात करना अहंकार हो सकता है। इसलिए एक सीमित परिप्रेक्ष्य में ही इस आलेख को पढ़ा जाना चाहिए। यहाँ जिन विद्वानों से असहमति प्रकट की गईं हैउनके प्रति हमारे मन में सम्मान है। वे जागरुक और सचेत हैंसमाज के लिए पथ-प्रदर्शक हैंऐसा हम मानते हैं।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा जारी ग्यारहवीं कक्षा की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में संविधान पर चर्चा के साथ छपे नेहरू-अंबेदकर कार्टून पर जो विवाद छिड़ा हैउससे बुद्धिजीवियों में ध्रुवीकरण बढ़ा है। इसके पहले प्रेमचंदगाँधी बनाम अंबेदकरअंग्रेज़ी शासन के दौरान दलितों की स्थिति में बदलाव जैसे कई विषयों पर ऐसा ही विवाद काफी तीखे तेवरों के साथ हुआ है।

दलित चिंतकों ने इन बहसों में जो रुख अपनाया हैवह सही या ग़लत हैयह तो इतिहास तय करेगापर उनमें एक तरह की लामबंदी दिखती है। पर निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाए तो गैर-दलित भी लामबंद दिखते हैं साधारण संवेदनाहीन लोगों में दलित विरोधी मान्यताओं का होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करतापर उदारवादी चिंतक जो आम तौर पर दलितों के साथ उनके संघर्षों में कंधा मिलाकर चलते हैंवे भी इन मुद्दों पर एकतरफा और दलित चिंतकों से भिन्न राय ही रखते हैं और अक्सर अपनी असहमति पुरजोर आवाज़ में सामने रखते हैं।

कार्टून वाला मौजूदा मामलाप्रेमचंद पर हुई बहस से अलग है। सामाजिक विसंगतियों और दलितों के निपीड़न पर संवेदना जगाने में जिन साहित्यकारों की सबसे अहम भूमिका रहीउनमें प्रेमचंद अग्रणी रहे। उनकी रचनाओं में से चुनी हुई पंक्तियों को प्रसंग से बाहर रख कर नहीं पढ़ा जाना चाहिए। कार्टून प्रसंग ऐसा नहीं है। नए नए आज़ाद हुए मुल्क का संविधान लिखे जाने में हो रही देर पर बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया के प्रतीक के रूप में शंकर का 1949 में बनाया कार्टून 2006 में पाठ्य-पुस्तक में डाला गया। पहले महाराष्ट्र और फिर राष्ट्रीय स्तर पर दलित चिंतकों ने आपत्ति जताई कि इस कार्टून में अंबेदकर का अपमान किया गया है। संसद में शोरगुल के बाद सरकार ने हस्तक्षेप करते हुए इस कार्टून को हटाने का निर्णय लिया। दलित नेतृत्व की इस माँग को भी सरकार ने मान लिया कि जिस समिति के तत्वावधान में यह पुस्तक तैयार की गई थीउसके खिलाफ कार्रवाई की जाए। इसे अकादमिक समुदाय ने अपनी स्वायत्तता पर हस्तक्षेप मानते हुए हर तरह से विक्षोभ प्रकट किया है। जिस समिति के तत्वावधान में यह पुस्तक तैयार की गई थीइसके दो सदस्योंयोगेंद्र यादव और सुहास पालसिकर ने समिति से इस्तीफा दे दिया है। पालसिकर ने इस बारे में संवाद और सहयोग की कोशिश की हैपर उनके साथ कुछ दलित युवकों ने हिंसात्मक व्यवहार किया है। योगेंद्र यादव ने संसद में हुई बहस का खुला विरोध करते हुए बयान दिए हैं। पत्र-पत्रिकाओं मेंअंतर्जाल में गैर-दलित टिप्पणीकारों ने सरकार और दलित नेताओं की कट्टर आलोचना की है।

यहाँ कई मुद्दे हैं। क्या सरकार को अकादमिक मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिएक्या गैर-दलितों का एक कार्टून पर दलितों की असहमति पर इतना शोर मचाना ठीक हैक्या दलित समाज में अंबेदकर को एक मसीहे की तरह माननाजिसपर कोई उँगली न उठा सकेयह ठीक है?

भारतीय राजनीति में मुख्यधारा की पार्टियों के नेतृत्व से जनता का विश्वास उठ चुका है। यहाँ हम मानकर चलेंगे कि सांसदों के हल्ले-गुल्ले को गंभीरता से लेने का कोई तुक नहीं है। कार्टून से संबंधित जो बड़े मुद्दे हैंउनको और समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण को समझने की कोशिश हम करें। कार्टून में शंकर का जो उद्देश्य था और पाठ्य-पुस्तक समिति के सदस्यों ने उसे जैसे देखाउससे अलग हटकर इसे देखने की कोशिश करें।

कार्टून में अंग्रेज़ी भाषा में प्रचलित मुहावरे 'स्नेल्स पेस (घोंघे की गति)' से चल रहे संविधान लेखन के काम पर कटाक्ष है। जनता अपेक्षारत है,संविधान लेखन समिति के अध्यक्ष अंबेदकर घोंघे पर सवार हैं और पीछे से नेहरू चाबुक चलाते हुए घोंघे को आगे बढ़ाने की कोशिश में हैं। कल्पना कीजिए कि एक आम स्कूल में यह पाठ पढ़ाया जा रहा है। कक्षा में सवर्ण और दलित दोनों पृष्ठभूमि के बच्चे हैं। अंबेदकर का घोंघे पर सवार होना किसी सवर्ण बच्चे को हास्यास्पद लग सकता है। वह इस कार्टून का इस्तेमाल किसी दलित बच्चे को तंग करने के लिए कर सकता है। अंबेदकर के ठीक पीछे नेहरू का चाबुक लिए खड़े होना कार्टून को और भी जटिल बना देता है। सही है कि काल्पनिक स्थितियों से घबराकर हमें निर्णय नहीं लेने चाहिए। पर किशोरों के लिए पाठ्य-पुस्तक तैयार करते हुए सचमुच इन सवालों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?सुविधासंपन्न लोग अपने बच्चों की पाठन सामग्री के बारे में आमतौर पर सचेत रहते हैं। ज़रा भी शक हो तो हम सवाल उठाते हैं। यहाँ कोई चूक तो नहीं हो गई है? 1949 में शंकर के सामने ये सवाल न थेपर 2006 में समिति सदस्यों कोखास तौर को उनको जो दलितों की समस्याओं के बारे में हम सबको आगाह करते रहे हैंयह खयाल नहीं आया कि इस कार्टून में समस्या हैयह हमें सोचने को मजबूर करता है। योगेंद्र और सुहास विद्वान हैंवे प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता भी हैं। यह कार्टून पुस्तक में शामिल कैसे हुआ?

मान लें कि कार्टून को इस तरह से देखना ग़लत हैपर अगर किसी ने इसे ऐसे देखा और आपत्ति जताई तो इसे हटाने से कितना नुकसान होता हैयह कोई आस्था पर आधारित आपत्ति नहींसंभव है ऐसा होता तो हम इसे सहानुभूति के साथ देखतेयह तो हजारों वर्षों से चल रही हिंसा और बहिष्कार के अनुभव पर आधारित प्रतिक्रिया है। गैर-दलित इस बात को नहीं समझ पाते तो गड़बड़ दलितों में नहींहम ही में है। अक्सर दलितों की प्रतिक्रिया सही नहीं होती हैपर क्या यह आश्चर्य की बात है कि दलित बौखलाहट भरी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं। निरंतर बहिष्कार की पीड़ा हमारी मानवता को हमसे छीन लेती है।

एक कार्टून वहीं तक सीमित होता हैजो दृश्य वह प्रस्तुत करता है। वह प्रेमचंद की कहानी नहीं होताजिसे पूरी पढ़कर ही हम सामान्य निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं।

कुछ लोगों को लगता है कि दलित बुद्धिजीवी आलोचना झेल नहीं सकते। उन्हें लगता है कि अंबेदकर को खुदा बनाने की कोशिश चल रही है। वे कहते हैं कि आखिर कार्टून तो गाँधी नेहरू पर भी बनते रहे हैं। प्रताड़ित जन की प्रतिक्रिया कैसी होती हैविश्व इतिहास में इसके बेशुमार उदाहरण हैँ। साठ के दशक मेंजब अमेरिका में काले लोगों को बराबरी का नागरिक अधिकार देने का आंदोलन शिखर पर थाजिसमें कई गोरे लोग भी शामिल थेप्रसिद्ध अफ्रो-अमेरिकी कवि इमामु अमीरी बराका (मूल ईसाई नामः लीरॉय जोन्सने लिखाः- 'ब्लैक डाडा निहिलिसमुस। रेप द ह्वाइट गर्ल्स। रेप देयर फादर्स। कट द मदर्स थ्रोट्स।कोई भी इस हिंसक अभिव्यक्ति को सभ्य नहीं कहेगा। आर्थिक वर्ग आधारित निपीड़न भी हिंसक प्रतिक्रिया पैदा करता है। हाल तक कोलकाता शहर में दीवारों पर सुकांतो भट्टाचार्य की ये पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती थीं - 'आदिम हिंस्र मानव से यदि मेरा कोई नाता हैस्वजन खोए श्मशानों में तुम्हारी चिता मैं जला कर रहूँगा।बराका की कविता आज भी यू ट्यूब पर संगीत के साथ सुनी जा सकती है। गोरों ने इसका विरोध किया या नहींइसका कोई दस्तावेज नहीं हैपर अफ्रो-अमेरिकी स्त्रियों ने प्रतिवाद कियायह इतिहास है। गोरों से आया विरोध निरर्थक हैपर अफ्रो-अमेरिकी समुदाय के अंदर से आया विरोध सार्थक हो गया। क्या भारतीय समाज में गैर दलितों को भी ऐसे ही धीरज रखना नहीं चाहिए?

दलित चिंतकों में यह समझ क्या हमसे कम है कि अंबेदकर को खुदा नहीं बनाना हैऐसी कोई वजह तो है नहीं कि वे हमसे कम समझदार हों। यह तो उन्हें भी पता है कि गाँधी नेहरू पर भी कार्टून बनते रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम निजी अनुभवों से आहत होकर यह मानने लगे हों कि दलित चिंतक सही निर्णय ले ही नहीं सकतेउनके लिए सही निर्णय सिर्फ हम ही ले सकते हैंनिश्चित ही ऐसी संकीर्ण सोच के शिकार योगेंद्र या सुहास नहीं हैं। तो फिर हमें इन प्रक्रियाओं के मनोविज्ञान को सहानुभूति और संवेदना के साथ समझने की ज़रूरत है। गाँधी नेहरू को खुदा मानने वाले लोग भी हमारे समाज में हैंपर अंबेदकर उन लोगों का खुदा है जिनके लिए और किसी मान्य खुदा के पास जाना हजारों वर्षों तक वर्जित था। 1949 में ही अफ्रो-अमेरिकी कवि लैंग्स्टन ह्यूज़ ने लिखा - 'ह्वाट हैपेन्स टू अ ड्रीम डिफर्डदरकिनार किए गए सपने का क्या हश्र होता है? / क्या वह किसमिस के दाने की तरह धूप में सूख जाता है? / या वह घाव बन पकता रहता है? / क्या उसमें सड़े माँस जैसी बदबू आ जाती है?/ या वह मीठा कुरकुरा बन जाता है....? शायद उसमें गीलापन आ जाता है और वह भारी होता जाता है या फिर वह विस्फोट बन फूटता है?'

इतना तो कहा ही जा सकता है कि निपीड़ितों का मनोविज्ञान जटिल है। इस जटिलता में हमारी भागीदारी कितनी हैहम यह समझ लें तो गैर-बराबरी की इस दुनिया में हम अपनी मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं। और दूसरी ओर जो विस्फोट हैंउनको झेलने की ताकत हममें होइसकी कोशिश हम कर सकते हैं। अपनी मुक्ति के बिना किसी और की मुक्ति का सपना कोई अर्थ नहीं रखता।

जहाँ तक संसद की बहस का सवाल हैवहाँ शोरगुल होता रहता है। उससे परेशान होकर योगेंद्र और सुहास समिति से निकल गए हैंयह दुखदायी है। उनके खिलाफ जो हिंसक बयान आए हैं और पुणे में हुई घटना की निंदा हर सचेत व्यक्ति कर रहा है। उनसे यही अपेक्षा की जा सकती है कि वे वापस अपना काम सँभालें और गंभीरता से हमारे बच्चों को सही पाठ सिखाने का काम करते रहें।

(लाल्टू जी का यह लेख जनसत्ता में `विवाद के बीच एक संवाद` शीर्षक से छपा है।)

5 comments:

Anonymous said...

नेहरु संविधान जैसी बेजुबान पुस्तक पर चाबुक बरसा रहे हैं. वाह.. क्या वे बेवकूफ हैं, या विद्वान अपनी व्याख्या से हमें बेवकूफ बना रहे हैं. देश में अम्बेडकर की मूर्तियों पर गंदगी फैंकी जाती है वहाँ वे जीवंत रूप से नफरत के केन्द्र में मौजूद होते हैं. न तो वे प्र्श्नेतर हैं न ही जीवित सन्दर्भों से कटे हुए. ब्राह्मण की मोहर के बगैर उनका देवता बनना लगभग असम्भव है. जब अम्बेडकर ही काम में डिले करता है तो उसके अनुयायी तो करेंगे ही. मारो सालों को. यही व्यापक भारतीय समाज के हित में है, और दलितों के भी. अम्बेडकर और आरक्षण व्यवस्था के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विरोधियों के लिए यह जश्न और एकता का समय है. जिस तरह निर्मल बाबा के विरुद्ध सारे पोंगापंथी ब्राह्मणवादी अध्यात्मवादियों ने एकता दिखाई है. इसी तरह की एकता ब्राह्मण बुद्धिजीवी और उनके अविवेकी अनुयायी दिखा रहे हैं. सभी चीजों की मनमानी व्याख्या पर इनका एकाधिकार है.

Anonymous said...

नेहरु संविधान जैसी बेजुबान पुस्तक पर चाबुक बरसा रहे हैं. वाह.. क्या वे बेवकूफ हैं, या विद्वान अपनी व्याख्या से हमें बेवकूफ बना रहे हैं. देश में अम्बेडकर की मूर्तियों पर गंदगी फैंकी जाती है वहाँ वे जीवंत रूप से नफरत के केन्द्र में मौजूद होते हैं. न तो वे प्र्श्नेतर हैं न ही जीवित सन्दर्भों से कटे हुए. ब्राह्मण की मोहर के बगैर उनका देवता बनना लगभग असम्भव है. जब अम्बेडकर ही काम में डिले करता है तो उसके अनुयायी तो करेंगे ही. मारो सालों को. यही व्यापक भारतीय समाज के हित में है, और दलितों के भी. अम्बेडकर और आरक्षण व्यवस्था के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विरोधियों के लिए यह जश्न और एकता का समय है. जिस तरह निर्मल बाबा के विरुद्ध सारे पोंगापंथी ब्राह्मणवादी अध्यात्मवादियों ने एकता दिखाई है. इसी तरह की एकता ब्राह्मण बुद्धिजीवी और उनके अविवेकी अनुयायी दिखा रहे हैं. सभी चीजों की मनमानी व्याख्या पर इनका एकाधिकार है.

Anonymous said...

कार्टून समर्थकों में एक चीज कॉमन है – प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष आरक्षण विरोधी मानसिकता !

समर said...

कार्टून विवाद पर इससे बेहतर और सारगर्भित टिप्पणी अभी तक नजर से गुज़री नहीं. और तर्क, बस यह कहूँ कि एक लेख लिख रहा था और आपने मेरे जेहन वाले सारे तर्क यहाँ पहले ही लिख दिये हैं. तो अब मेरे लेख की जरूरत बची ही नहीं, इसलिए अब यह लेख साभार साझा कर रहा हूँ.

Anonymous said...

कई ऐसे कम्यूनिस्ट संगठन हैं जो अपनी पूँजी गरीब-गुरबों (दलित,आदिवासी,पिछडों) से जुटाते हैं. किताबें छापने और बेचने का धंधा करते हैं. रिजर्वेशन पाए दलितों को अपराधबोध से ग्रस्त रखते हुए क्रांति के नाम पर उनका इस्तेमाल करते हैं. होलटाइमर के लिए तमाम सुविधाएं छोटी-मोटी नौकरियाँ करने वाले दलित जुटाते हैं. होलटाइमर मध्यमवर्गीय सुविधाओं के साथ बौद्धिक कार्य(अध्ययन,लेखन,अनुवाद,तर्क-वितर्क,भाषणबाजी आदि) करते हैं. अन्य साथियों (दलित,आदिवासी,पिछडों) को भी नारा लगाना,गाने गाना,थोडा बहुत पढ़ना,लिखना,बोलना सिखाया जाता हैं. संगठन के सिद्धांतकार प्राय: ब्राह्मण या सवर्ण जातियों के लोग होते हैं. ये अपने सिद्धांतों और रणनीति में ब्राह्मणवादी स्थापनाओं से मुक्त नहीं हो पाते, क्योंकि संगठन में इनकी आलोचना करने वाले प्रभावी लोग नहीं होते. संगठन के दलित साथिओं को ऐसे काम में उलझा कर रखा जाता है जिसकी वजह से इनकी स्वतंत्र बौद्धिक चेतना का विकास नहीं हो पाता. दलित साथी नौकरी व बाल-बच्चों की जिम्मेदारियों के साथ सांगठनिक कार्य करते हुए मीडियाकर, पिछलग्गू व हाँ में हाँ मिलाने वाले के तौर पर विकसित होते हैं. कभी-कभार ये थोड़ा बहुत बोलते हैं तो इन्हें कमजर्फ़ कह इनकी खिल्ली उड़ाई जाती है. कई स्वतंत्र बौद्धिक चेतना वाले दलित महत्वाकांक्षी होते हैं. चूँकि संगठन में तो इनकी चल नहीं पाती अत: ये प्रशासनिक सेवाओं आदि के सपने को पूरा करने में जुट जाते हैं, ताकि कम से कम अपने निजी जीवन को तो बदला जा सके.