Monday, January 14, 2013

शमशेरः कुछ निजी नोट्स - शुभा


शमशेर के बारे में हिंदी जगत में जैसे एक रूढ़ि बन गई है कि वे बड़े मुश्किल कवि हैं या वे रूपवादी हैं या वे मार्क्सवादी हैं, या वे प्रयोगवादी और सुर्रियलिस्ट हैं या वे चित्रकला के बोध और औज़ारों का प्रयोग कविता में करते हैं। यह धारणा भी है कि वे प्रणय-चित्रो के कवि हैं। और भी बहुत सी धारणाएं शमशेर  के बारे में प्रचलित हैं। इनमें से अधिकतर धारणाओं में सच्चाई के अंश भी मौजूद हो सकते हैं लेकिन शमशेर हिंदी कविता के बड़े प्रतिष्ठित और आदरणीय कवि होते हुए भी बहुत कम समझे गये कवि हैं। बने-बनाये सांचों (स्टीरियोटाइप) की नज़र से देखने की प्रवृत्ति के चलते शमशेर की समग्रता और उनकी रचना का केंद्र सामने नहीं आ पाया है। हिंदी कविता को उसकी कुछ पुरानी सीमाओं से मुक्त करने वाले कवि के तौर पर शमशेर की पहचान अभी नहीं हो सकी है। खंडित दृष्टि, वितंडा और पंडिताऊपन की प्रवृत्तियां भी शमशेर को समझने में बड़ी बाधाएं हैं। शमशेर के काव्य की विषय वस्तु पर भी शिल्प के मुक़ाबले कम चर्चा हुई है। मुक्तिबोध ने हिंदी में `सामान्यीकरण` की `बुरी आदत` की चर्चा शमशेर पर लिखी अपनी टिपण्णी में की है। शमशेर व्यंजना या ध्वनि के कवि हैं। इस ध्वनि के संदर्भ बहुत अधिक ठोस व ऐतिहासिक हैं, वे सामान्यीकृत और औसत न होकर विशेष हैं। संभवतः इस कारण भी शमशेर को समझना अभी तक मुश्किल बना हुआ है। शायद इसीलए आलोचकों ने शमशेर पर जमकर नहीं लिखा।

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शमशेर एक बड़े पाक-साफ़ व्यक्ति और कवि हैं। यह पाक़ीज़ग़ी किसी सती-सावित्री की पाक़ीज़ग़ी नहीं है, एक आशिक़ की पाक़ीज़ग़ी है। वे हमारे समय के सरमद हैं। क्या खुशनसीबी है! इस कमबख़्ती के दौर में, आलम-ए-नापायेदार में ऐसा साबुत क़दम हमारे बीच हुआ।

सबसे पहले, शमशेर हिंदी के ऐसे कवि हैं जिनकी हिंदी चेतना विभाजित नहीं है। वे अपने ढंग के अकेले कवि हैं जो हिंदी-उर्दू के ऐसे सम्मिलित प्रवाह में रहते हैं जो हिंदी प्रदेश कहे जाने वाले इलाक़े की कोख से ही संभव हुआ। हिंदी और उर्दू जुड़वां भ्रूण की तरह इसकी कोख में आये और रहे। हमारे साबुत दिल आशिक़ शमशेर भी इसी गुनगुनी कोख के जीवनदायी द्रव में, उसके प्रवाह और झंझाओं में रहते आये। इस कोख़ के क्षतिग्रसत किये जाने के बाद भी वह शमशेर की स्म़ति में रहती आयी। शमशेर खुद उस कोख में तब्दील हो गये।

शमशेर हमारे इलाक़े के मार्क्सवादी सूफ़ी कवि हैं। बदहाली के बावजूद इस इलाक़े के समाज और समृद्ध संस्कृति के ख़ज़ाने को समझने में न जाने कितनी नयी विश्लेषणकारी श्रेणियां सामने आयेंगी। सूफ़ियों की तरह शमशेर सच्चे रोमांटिक हैं और मार्क्सवादी की तरह कठोर यथार्थवादी हैं। वे ऐसी मधुमक्खी हैं जो नीम के फूल से बड़ा मीठा शहद बनाती है। वे शहद के छत्ते की रक्षा के लिए मधुमक्खी वाला डंक भी रखते हैं। इसीलिए हिंदी आलोचक उनके प्रति एक तरह की उदासीनता बरतते हैं। वैसे भी सदगृहस्थ सच्चे आशिक़ों से सुरक्षित दूरी बनाकर रहते हैं और चोरी छुपे तथाकथित प्रेम-प्रसंग पकाया करते हैं।

शमशेर प्रेममार्गी हैं। उन्होंने प्रेममार्ग को मध्ययुगीन आध्यात्मिकता के झुटपुटे से निकालकर यथार्थवाद की रोशनी में खड़ा कर दिया। औद्योगिक युग के उत्पीड़ितों-वंचितों, बिखरे अकेले उदास मज़दूरों और कम्युनिस्टों की तड़प से इस रास्ते को आबाद किया। वह पक्षधरता जो इकतरफ़ा लगती है, होती नहीं। एक ऐतिहासिक विफलता के भीतर छिपे सबसे क़ीमती मानवीय सार को रंग और रूप सहित शमशेर ने विलक्षण अभिव्यक्ति दी है। एक समग्र या कहना चाहिए पूरी तरह संगत सेंसिबिलिटी आश्चर्यजनक है, खासतौर से एक रोमेंटिक अंतर्प्रवाह की लगातार गाढ़ी होती उपस्थिति के बीच। मुक्तिबोध के अलावा इस तरह की समग्र सेंसिबिलिटी का कोई दूसरा उदाहरण नहीं, हालांकि मुक्तिबोध ज्ञानमार्गी हैं। मुक्तिबोध और शमशेर दोनों एक साथ हमारे पास हैं। एक के पास वैज्ञानिक की बेचैनी है, साहस है; दूसरे के पास आशिक़ की तड़प है, धैर्य है। यह हिंदी साहित्य में हमारी पिछली सदी का सबसे ख़ूबसूरत चित्र है, उपलब्धि है। यह एक मशाल की तरह है।

कम्युनिस्ट आंदोलन में बिखराव के बाद शमशेर ने पहला काम यह किया कि तमाम फ़ालतू चीज़ें जीवन से निकालकर एक अवकाश तैयार किया, एक फुर्सत, एक परिस्थिति, अपने लिए, अपने भीतर, अपने आस-पास ताकि रचना की जा सके। शमशेर ने व्यर्थ की उठापटक और संबंधों से अपने को अलग किया। यह उनकी `स्ट्रेटजी` थी जो उन्हें अकेले ही बनानी थी। यह शमशेर की पॉलिटिक्स भी है, गहरी पॉलिटिक्स। शमशेर के बिंब, रंग और ध्वनियां उनके एकांत में ही जीवित होती हैं। शमशेर का यह रचनात्मक एकांत एक वैकल्पिक दुनिया है जो भागने से या मिथ्याकरण से नहीं, यथार्थ के बीच एक सलेक्शन से बनी है। यहां शमशेर बड़े आज़ाद व्यक्ति हैं, तात्कालिक बाहरी दबावों से मुक्त. ऊंची-नीची सीढ़ियों और फांकों में बंटी चेतना से अलग, अपने भीतरी दबावों को जगह देते हुए वे एक पक्षधरता की रचना करते हैं। इस पक्षधरता के कारण शमशेर की कविता में हर क्षण एक मानवीय उपस्थिति है, एक साक्षी की उपस्थिति है। इस कविता में हर रंग, शब्द ध्वनि और ख़ामोशी एक सटीकता और भिन्नता (डिस्टिंक्शन) पैदा करती है। यह भिन्नता जैसे स्वयं एक प्रमाण की तरह है। यहां किसी चीज़ का औसतीकरण नहीं होता, हर चीज़ विशेष है, हर संबंध विशेष है। यहां कोई संबंध, कोई संवेदना, कोई रेखा फ़ालतू जगह नहीं लेती। जैसे यहां हर चीज़ वस्तुगत है, अपनी धड़कन और अपनी सांसों सहित अपने अवकाश में उपस्थित है। अगर किसी को शमशेर अतिवादी लगते हैं तो इसलिए कि उनकी वैकल्पिक दुनिया में बदले हुए अनुपातों के द्वारा वस्तुगत को या कहें एक संवेदन-सत्य को हासिल किया गया है। शमशेर का `महीन-युग-भाव` उनके ऐसे बटख़रे हैं जो मिलीमीटर और मिलीलीटर के सौंवे हिस्से को भी पूरा पकड़ लेते हैं। यह महीन पकड़ एक न्याय चेतना है जो बोध में घुली हुई है और सेंसिबिलिटी की संगत में व्यक्त होती है। इसमें बोध और विचार के बीच झोल नहीं है, असंगति नहीं है, कोई दोग़लापन नहीं है, कुछ भी दूसरों को दिखाने के लिए बाहर से नहीं बटोरा गया है, हर चीज़ संवेदना से छनकर आयी है। इसीलिए शमशेर की हर कविता में प्रेम मौजूद है। इस कविता में कोई `अन्य` नहीं है। इस कविता में संवेदना का प्रक्षेपण बहुत है, प्रदर्शन बिल्कुल भी नहीं। शमशेर की आत्मस्थता री गुणवत्ता के कारण ही उनकी कविता ऐसी है जैसे अपने से बात कर रहे हों, जैसे अपने बिल्कुल क़रीबी से बात कर रहे हों। कोई अतिरिक्त ऊंची आवाज़, कोई झल्लाहट, कोई चिल्लाहट उनके वातावरण में नहीं है। हालांकि वे सत्ता संबंधों को स्वीकार नहीं करते थे, साम्प्रदायिक परिस्थिति से वे लगातार दुखी रहे, उस पर कविताएं लिखीं, उन कविताओं में अथाह दुख और अथाह प्रेम मौजूद है। शमशेर की कविता में ंमौजूद अविभाजित दुख और अविभाजित प्रेम ही सूफ़ियों वाले गुण पैदा करता है। सुर्रियलिस्टिक शैली उनकी तात्कालिक कार्यनीति है जो लंबी स्ट्रैटेजी को बनाए रखने के काम आती है। शमशेर कोई भोले-भाले प्रेमी नहीं हैं। वे सत्ता संबंधों को समझते हैं, उन्हें निश्चित दूरी पर रखते हैं, वर्ग-विषमता को पहचानते हैं, वे  कम्युनिस्टों के संघर्ष और ऐतिहासिक विफलता को समझते हैं, वे उनसे निकली इच्छाओं, आदर्शों, दुखों के साथ हैं, साम्राज्यवाद के मंसूबे वे समझते हैं और एक अंतर्राष्ट्रीय वैश्विक चेतना रखते हैं। वे यथार्थ को स्वीकार करते हैं। कम्युनिस्ट आंदोलन के बिखराव पर पूंजीवादी व्यवस्था में लोगों के अंदर पैदा होने वाले बेग़ानेपन (सेल्फ एलिनेशन) के ख़िलाफ़ वे एक सजग व्यक्ति-चेतना से प्रतिबद्ध रहे। यह व्यक्ति चेतना `इंसानियत की तलछट में छोड़े गए स्वाद` से `शराब` खींचती है और आत्मविस्मृति, बेग़ानेपन और अवमूल्यन को परे धकेलती हुई एक मनुष्य व्यक्ति की स्मृति को क़ायम रखती है। यह पूंजीवादी जनतंत्र में ऐतिहासिक रूप में पैदा हुआ मनुष्य व्यक्ति है जिसने आज़ादी का स्वाद कुछ समय के लिए चख़ा है और यह स्वाद उससे छिन गया है;

वो बहारों के मंच
वो जब हम ख़ुद एक
गुलाब का
पर्दा थे गोया
दहकता हुआ, और वो गीत
हैरान, ख़ामोश; और वो जोश से फड़फड़ाते
आज़ाद बुलबुलों के तराने ये सब

          क्यों आज याद आये ही जा रहे हैं
                        याद आये ही जा रहे हैं

हमें इस नुचे-खुचे
            बुच्चे आशियाने में
            आज?

यह स्मृति और यह हानि ही शमशेर की कविता का केंद्र है। यह स्मृति किसी ख़त्म हो गई चीज़ की स्मृति नहीं है, यह बिछड़ी हुई चीज़ की स्मृति है। इस बिछड़े हुए स्वपन का रंग और सौंदर्य, हानि और दुख शमशेर के यहां छाया हुआ है।यह स्वपन और यह हानि `बारीक़ शमशेरीय छन्नी से छाना हुआ मार्क्सवाद` है जिसे शमशेर स्वयं `शराब, यानी इंसानियत की तलछट का छोड़ा हुआ स्वाद` कहते हैं।

मुक्तिबोध का एकांत सत्ता केंद्रों के ध्वंस की गहरी इच्छा और आत्माभिव्यक्ति की दुर्निवारता से बना है, जबकि शमशेर का एकांत बेग़ानेपन के ध्वंस और मनुष्य व्यक्ति के अनुसंधान से बना है। यह मनुष्य व्यक्ति ठोस है, ऐतिहासिक है। इसका अंतर्जगत शमशेर के यहां खुलता है, यही वह रंगशाला है, जिसके सौंदर्य, गरिमा, दुख और प्रेम को देखकर, उसकी आत्मीयता, उसकी तीक्ष्णता के बीच साक्षी की उपस्थिति को देखकर हम बार-बार चकित होते हैं। शमशेर की कविता ऐसा आईना है जो हमें हमारा अंतर्जगत दिखाता है, इसे शमशेर `समाज-सत्य का मर्म` कहते हैं। इस समाज-सत्य के मर्म को देखने से बहुत सारी ज़िम्मेदारियां आयद होती हैं, अपनी सतही-खोखली जगह नज़र आती है, अपनी हानि नज़र आती है और अपना ही ऐसा जगमग रूप नज़र आता है जिसे धारण करने से हम डरते हैं। इसीलिए हम शमशेर की कविता से भी बचते हैं और आसान चीज़ों को अपनाये रखते हैं।

कवयित्री-एक्टिविस्ट शुभा का यह लेख नया पथ (जुलाई-सितंबरः 2011) से साभार। ऊपर शमशेर का फोटो लक्ष्मीधर मालवीय के कैमरे से (इसके लिए असद ज़ैदी और जलसा का आभार)
शुभा की तस्वीर कुलदीप कुणाल के कैमरे से।

5 comments:

Ashok Pande said...

बेहतरीन. हमेशा की तरह. शुभा जी का लिखा भीतर तक जाता है और देर तक महकता - महकाता रहता है. शानदार!

36solutions said...

शमशेर से इस तरह रूबरू होना अच्छा लगा.

वर्षा said...

शमशेर ने अपनी एक कविता में जब आकाश को राख से लीपा हुआ चौका कोई....कहा तो बचपन में पढ़ी गई ये पंक्ति मेरे जेहन से चिपक गई थी।
शमशेर को शुभा के ज़रिये समझना बिलकुल अलग तरीके से शमशेर को समझना था। और शुभा का लिखा हुआ पढ़ना बिलकुल अलग अनुभव होता है।

शिवप्रसाद जोशी said...


और शमशेर की कविता के जिन असाधारण संदर्भों, हवालों के बारे में शुभा जी ने बताया है उसमें अगर हम अमीर ख़ान साब को भी कुछ देर के लिए ले आएँ. देखिए कितनी नज़दीकी कई मौक़ों पर बैठती है. वो मौन, कितना अद्भुत, गायन में और कविता में. यानी कह सकते हैं कि शमशेर बहादुर सिंह की पोएट्री का संगीत, अमीर ख़ान के संगीत की पोएट्री के पास बार बार जाता है, बाज़ दफ़ा चहलक़दमी करता है. वे दोनों इतने आसपास हैं, साथ साथ भी दिखने लगते हैं. वे शांत स्थिर प्रेममय अडिग अविचल अभिव्यक्तियाँ एक दूसरे पर गिरती नहीं, न एक दूसरे को कमतर करतीं, बस वहीं कहीं. ख़ुद से बात करती हुई. हिंदी कविता में अमीर ख़ान को अगर कुछ हद तक कोई संभव कर पाने की कोशिश कर पाया है तो सबसे पहले वो यक़ीनन शमशेर ही होंगे.
शुभा जी ने मुक्तिबोध और शमशेर के बारे में कहा कि “यह हिंदी साहित्य में हमारी पिछली सदी का सबसे ख़ूबसूरत चित्र है, उपलब्धि है. यह एक मशाल की तरह है.” हमारी आज की सदी, आज के समय में शुभा जी, आपके गद्य और ऑब्ज़रवेशंस के बारे में हम ऐसा ही कह सकते हैं. कितने अद्भुत ढंग से लिखा है आपने.

Ashok Kumar pandey said...

शमशेर को समझने के लिए मुझे हमेशा लगा है कि कला से अधिक आत्मीयता और विचारधारा की समझ की ज़रुरत होती है..शुभा जी के इन नोट्स की अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी