Monday, January 7, 2013

प्रलाप : लाल्टू


शब्द मिले अनंत तो क्यों प्रलापमय


नहीं उल्लास नहीं यह ब्रह्मांड, जो हो रहा प्रसार
चीखें हैं, है दुःख ही अनिवार अपरंपार

है, अवश्य है कोई ईश्वर कण कण में व्याप्त
सखा नहीं, शत्रु है वह, जानो जो करो शिनाख्त

युधिष्ठिर, क्यों निर्वाक, ओ नीतिविशारद,
पीड़ाओं से देख भरा यह संसार लबालब

2009 में क्या हुआ था?
पूछता हूँ कि 9002 में क्या होगा?
सापेक्षता से सराबोर बयानों में छूट जाते हैं चीखों के रंग
जो 2009 से जुड़े हैं 9002 से जुड़ेंगे
सामान्य सा वह वर्ष
जिसमें जादुई जो कुछ था कुछ नितांत निजी विक्षिप्त क्षण
जो कुछ होगा कुछ नितांत निजी विक्षिप्त क्षण

तीन सौ सवा पैंसठ दिनों की अखिल वार्षिकी में मानव के लिए दस मिनट ढूँढता हूँ
हजारों साल बाद कभी पूछूँगा
9002 में क्या हुआ था?

आदमी को सपनों के बाज़ार में ले जाता है जादूगर
आदमी को आजादी के सपने बेचता है जादूगर
आदमी की चिंता में बारबारकईकईबारलगातार रोता हुआ दिखता है जादूगर
आदमी को आदमी की परंपराओं में ले जाता है जादूगर
आदमी को आदमीआदमी कहता
आदमी को आदमीआदमी कहकर चिल्लाता है जादूगर

आदमी जानता है कि सपनों की खरीदारी आज दो और चार का कारोबार है
आदमी जानता है कि राष्ट्रीय झंडा जिस पर लपेटा गया है वह एक जादूगर की लाश है
आदमी जानता है कि दुःखों से भरा ब्रह्मांड है, दुःखों का समंदर है,
दुःखों का पहाड़ है
आदमी जानता है कि सब कुछ गड्डमड्ड है, खयाल गड्डमड्ड हैं, दुःख गड्डमड्ड हैं
आदमी जानता है कि सत्य असत्य है, विश्वास अविश्वास है, युक्ति युक्तिहीन है
आदमी जानता है कि जीवन सूचनाओं के ब्रह्मराक्षस की लीद है
एकमात्र
सत्य
जो
सत्य
है
वह
है
भूख

दूर सफेद दीवारों पर चमकती धूप है
हवा के कण परस्पर दूर होते जा रहे
प्रकाश के साथ ताप का अहसास तरंगित हो रहा
ज़मीं से आस्मां तक धधक रही है फिजां
एकमात्र सत्य
वह है भूख है जो सत्य
ज़र जोरु ज़मीन भर नहीं
यह भूख निगलती है खुद को ही
क्रमशः और और विकराल बनती
कौन कह सकता है कि है उपजी
किस भूख से कौन सी कला
श्रृंखला कौन सी कौन सी वि
श्रृंखला
कैसा धर्म कैसा मर्म
यह ग़रीब की भूख नहीं जो चाहती अन्न गर्म
यह सत्य उस दुनिया का है
जहाँ किसी चीज की कमी नहीं
फिर भी जैसे कुछ भी है नहीं
इस तरह दौड़े आते हैं लोलुप
आँखें अंतड़ियाँ शिश्न योनियाँ
सब कुछ चबा जाने पर भी जो नहीं मिटती
यह सत्य उस भूख का है

यह धरती रहने लायक नहीं है
यह धरती रहने लायक नहीं है

आ हा हा मैं कहाँ खो गया
इतनी बारिश होती रही
बूँदें टिप टिप बदन पर आ आ गिरतीं
और मैं कहाँ खोया रहा
कितनी बातें बूँदों से करनी थीं
यहाँ वहाँ हर जगह जो फल रहीं उलटबासियाँ
उनसे एक-एक कर सुननी थीं
मैं जाने कहाँ खो गया

हवाओं में जो चीख सुनते हो, वह बहार की गूँज है
बहार आयी है दु:स्वप्नों का बोझ लिए
बहार आयी है खबरें लिए कि बहुत सारे लोग हमेशा के लिए धरती से उड़ चुके हैं
अंतरिक्ष से किस जानिब वे आये थे किस जानिब वे चले गए कौन जानता है
वे मर्द थे या औरत किसको खबर है

ढूँढती कि शून्य में किस दरवाज़े से वह अन्दर आए बहार आई है
अश्कों का बोझ लिए बहार आयी है

शायर के लफ्ज़ लिए कि नई रस्म है वतन में कि सर झुका के चलो बहार आई है
यहाँ कोई नहीं रहेगा सिर्फ वर्दियों के सिवा आर-पार
आदमी को तारों के पार रहना है और मुल्क है कि बँधा है तार-तार
मौत के सौदागरों को मिलते हैं तमगे
कि बहार आएगी तो वे सीना तान कर चलेंगे
बहार आई है दोस्तो, वादियों पर बिछ रही है, मोदी के तमगों को छू रही
है और चीख रही है
सुनो कितने तमगे हैं कितनी मौतें बहार पूछ रही है
कि कितनी मौतें और होंगी कि तमगों से भर जायेंगे वर्दियों के चप्पे चप्पे
बहार पूछ रही है
सुनो बहार की बद दुआ सुनो कि वर्दियां मिट जाएँगी धूल और खून की बदबू में
सड़ जायेंगी
रहेगा आदमी फिर फिर मरने को तैयार कि बहार का श्रृंगार करे कि त्यौहार हो
हो नाच गान
हो आज़ादी.

एक शहेला
दुनिया जो पहले से बेहतर है आज
वह शहेला के होने से है
उसके जाने के बाद उतनी बेहतर दुनिया रह गई है
और और शहेलाएँ खिलखिलाती उड़ रही हैं नाच रही हैं
किसको किसको खत्म करेगा जादूगर पूछ आओ युधिष्ठिर
मरेंगी और शहेलाएँ चीखें होंगी और प्रसारित
यह हमारी सृष्टि की गतिकी है युधिष्ठिर

मरना तो है ही सबको
सजना है कंकालों से कायनात को
भस्म के अथाह जंजालों से
फिर भी आँसू हैं बहते
ऐसे ही आततायियों की गोलियों से भूनी जाओगी बार बार ओ शहेला
कल इशरत कल सोनी सूरी आज शहेला
अनगिनत नाम बन कर आओगी
इतिहास की भैरवी तान ढूँढते
तुमसे टकराते रहेंगे हम

बहार आयी है खबरें लिए कि बहुत सारे लोग हमेशा के लिए धरती से उड़ चुके हैं
अंतरिक्ष से किस जानिब वे आये थे किस जानिब वे चले गए कौन जानता है
वे मर्द थे या औरत किसको खबर है
हा हा, सीना फटा जाता है युधिष्ठिर
सीना फटा जाता है...

नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखें हैं, है दुःख ही अपरंपार
बेटियाँ तारीख में तब्दील हो गयी हैं।
29 मई : सूरज उस दिन वाकई छिपा और अँधेरा वक़्त पर आया। अँधेरे के जाने
की तारीख नहीं आती। कोई बतलाता है कि साल गुजर गया - एक और साल आने को
है। अँधेरे में ढूंढता हूँ नई तारीखें।

अँधेरे में सुनता हूँ जाने कितनी सदियों से चीख रही हैं आशिया और नीलोफर।

बेटियाँ तारीख में तब्दील हो गयी हैं।

बेटियाँ बाग़ में जा रही हैं। मेहनती जवान बेटियों से मिलने उतर आये हैं
रंगीले अब्र धरती पर। बेटियाँ बहते नाले में पानी छलकाती हुई नाचती हैं
कदम-कदम। सुडौल चेहरों पर आँखें आपस में खेल रहीं हैं अनजाने खतरनाक खेल।
पलकें उठी हुई हैं मतवाली। यौवन से उल्लसित नदी जंगल गाते हैं आने वाली
आज़ाद सुबह के गीत।

अँधेरा उतरता है, अँधेरे ने वर्दियां पहनी हुई हैं। अँधेरे के हाथों में
बंदूकें हैं। अँधेरे में चीखतीं बेटियाँ हैं ।
एक फारेनसिक विशेषज्ञ का कहना है कि वह तारीख है जब एक आज़ाद सुबह को
रोकने के लिए बेटियों को चीरफाड़ कर चबा रहे थे जानवर। युधिष्ठिर, कोई
बिंब बताओ, कविता को लीक पर लाओ। कुछ गीत सा हो, कुछ प्रगीत सा हो। कुछ
ऐसा कि आलोचक आत्मीय शब्द ढूँढ सकें, कुछ तग़ज़्जुल हो, कुछ बात हो, कुछ
बात हो।

चीखें बेटियों की गूँजती रहीं पहाड़ों के बीच। बेधती रहीं चट्टानों को।

सदियों से उफन रही तारीख की गूँज उमड़ती चली है। जवान लड़कियों को
महाशून्य में धकेल धरती बंजर होती चली है।

हर दिन गुजरता है
मोदी की सजा में एक दिन और कम हो जाता है
इस तरह लोकतंत्र हँसता रहता है खुद पर खुद
1984 – 1992- 2002-2991-4891-छुक छुक छुक
कि बसंत का सामूहिक बलात्कार हो रहा है खबर आती है
सस्ते टिकटों पर फूलों की योनियाँ बिक रही हैं खबर आती है
कोई कहता है कि हर फूल होता है एक इन्सान
मसला जा रहा है हर ओर इन्सान
देखो रीअल वर्चुअल गर्भवती औरतें नंगी नाच रहीं
सचमुच इस रात की कोई सुबह नहीं
गुड गवर्नेंस के सपनों में एक्स्टेसी जी रहे भले लोग हैं
चारों ओर संतुष्ट लोग हैं
कि हमें इमेजिन्ड फीयर से घबराना नहीं चाहिए संतुष्ट लोग हैं

क्या करूँ, डरपोक हूँ, डरता हूँ
कहते हैं कि हिटलर का टेक्नोलोजी में कोई जोड़ नहीं था...

धरती बंजर होती चली है। भक्षकों की टाप से उड़ते हैं बवंडर, काँपते हैं
माँओं के दिल। देर तक सुनती है आवारा कुत्तों का रुदन-चीत्कार।

दो कुत्ते एक चट्टान पर
एक भूरा एक काला
परस्पर से दो फीट दूर लेटे हुए हैं
एक समांतर विश्व है
जहाँ भूरे वाले कुत्ते का रंग काला है
वहाँ हो सकता है मोदी का रंग अहसान जाफरी सा
वहाँ कौन कुत्ते की मौत मरता है

पर मुझे किसी की मौत से क्या लेना
मैं नास्तिक
सृजन के अखिल नियम ही मेरे ईश्वर
मैं किसी की मृत्यु की कामना नहीं करता
काले या भूरे कुत्ते की तो कतई नहीं

एक दूसरे में बदल सकते हैं पाकिस्तान हिंदुस्तान भी
मसलन मैं हो सकता हूँ पाकिस्तानी
और परवेज हूदभाई हिंदुस्तानी
प्रेम नफरत सब अदल-बदल सकते हैं
फितरत हमारी कि बार बार उठ खड़े हो हम कहते रहे
कि हमारे समांतर संसार में नफरत न होगी
न होगा वहाँ कोई ओसामा, बुश, मोदी
कोई तासीर इसलिए न मारा जाएगा
कि उसने मेरी बेटी के माथे पर है हाथ रखा
कि बेटियाँ वहाँ दौड़ती आएँगीं
मेरे सीने से लिपट जाएँगीं
और वापस लौट अपने नृत्यलोक में जाएँगीं
ता ता थेई थेई ता ता थेई थेई गाएँगी

महाविश्व के एक साल में दस ही मिनट मिले
तो क्यों मिले संतापमय
शब्द मिले अनंत तो क्यों प्रलापमय
नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखें हैं, है दुःख ही अपरंपार

दुखों के धमाके दुःख उबलते
दुःख तारे दुःख ग्रह दुःख ही जमते
दुखी देश दुखी परिवेश
रोता शिशु जैसा यह ब्रह्मांड है
यहाँ दुःख का नाम इतिहास है
दुःख ही ज्ञान विज्ञान विकास है
चलो किसी और सृष्टि की तलाश में
चलें

आवाजें इर्द गिर्द घूमती मिटाती अपनी प्यास हैं
अशरीरी साँसों से भर जाता परिवेश है
मैं रोता रहता हूँ
रोते रोते ही
जड़ होता रहता हूँ
औरों का क्या खुद का रोना भी
दिखता नहीं एक समय के बाद
मैं किस ज़िंदगी की शुरुआत हूँ और किस का अंत
कौन जानता है मुझे कौन है नाज़िर मेरा
यह मेरा मकसद है मेरी नियति भी यही कि मैं
तमाम रस्मों के खिलाफ उठ खड़ा हूँ
महज यह कहने कि मुझे चाहिए आजादी

मैं पत्थर फेंका जाता हूँ मैं मर्सिया जनाजों में गूँजता हूँ
अत्याचारियों की गोलियाँ जातीं मेरे आर पार मैं सीना भूना जाता हूँ
हर किस के सर पर मैं मौत मँडराता हूँ
मैं ही जीवन मैं सपना घाटी की किशोरियों का हूँ
मैं तुम्हारे खिलाफ अगस्त्य के समय से खड़ा हूँ
महज यह कहने कि मुझे चाहिए आजादी

आवाजों में अक्सर कोई पहचानी तरंग होती है
क्षणिक कंपन उँगलियों से उठकर हृदय के गहनतम कोनों में घूम आती है
और देर रात दूर क्षितिज तक गूँजती है
मैं जड़ होता रहता हूँ

इस तरह क्रंदन प्रलाप में कहाँ छिप रहे हो
कोई सुबह सुबह चालीस सेकंड रोता है
उसका रोना महज एक संख्या
कौन है
सुबह सुबह खुद को सहलाता
चालीस सेकंड बाद फोन कट गया
ब्रह्मांड सन्न-सा रह गया
क्या वह इसी ब्रह्मांड से आती आवाज थी
एक आवाज यूँ गुम हो गई
अनंत काल तक अपनी अनदेखी पहचान रख गई

जो भी वह था, उस के अंदर भी प्रलाप करता हूँ बैठा एक मैं
युवा कवियो, उसे छोड़ आओ गुड गवर्नेंस के चारों ओर बने पेशाबघरों में
कोई शब्द मोदी का विकल्प ढूँढ लो तत्सम में
और बुन लो एक कृत्रिम प्रेम कविता
हो सकता है केन्या युगांडा नाईजीरिया से भगा पैसा
थूक मैल में लिपटा वहाँ मनमोहनी गीतों में हो रहा हो सुरबद्ध
हत्या बलात्कार के बीच आ हा हा हा आरोह अवरोह में संबद्ध
आदमी की आँखें नहीं हैं वहाँ
आदमी सूअर से बदतर है वहाँ
यश है वहाँ उन आधुनिक मंदिरों में
वहाँ तमगे हैं तुम्हारे इंतज़ार में

हा, हा, सीना फटा जाता है
इस वक़्त सभी मुहावरे हैं नाकाम
युवा कवियो, हम कैसे अपनी पहचान करें
किधर हैं हम खड़े
अत्याचारियों के साथ या अपने ज़मीर के साथ
हम खड़े हों पर कैसे हों हम खड़े
जब प्रेम एक व्यर्थ खयाल बन गया
हर कोई चमड़े का इंच-इंच बेच रहा
सामूहिक मैथुन ही बचा जीवन की परिभाषा में
युवा कवियो, हम कैसे अपनी पहचान करें

जिन्हें दिखता नहीं कि लोग मर रहे हैं
कि प्राण विलुप्त हो रहा है धरती पर से अनायास
वे कहते हैं कि मैं लिखता हूँ सायास
एक औरत मरती है सड़क किनारे इश्तिहार में
बच्चे हाँ बच्चे मरते हैं सड़क किनारे गू मूत में कीड़ों जैसे
आदमी मरता है निरंतर सभ्यता में
बहुत कुछ बहुत सारे लोगों को नहीं दिखता
समस्वर चिल्लाते हैं वे देखो यह है सायास लिख रहा
जब कहता हूँ कविता नहीं है यहाँ
पूछते हैं कविता है कहाँ
क्यों लिखता है कोई बार बार
बुनता है शब्द जाल निरंतर प्रलाप
विलाप विलाप विलाप विलाप

नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखें हैं, है दुःख ही अपरंपार।

----

(लाल्टू की यह महत्वपूर्ण कविता `जलसा` अंक 3 साल 2012 में छपी है। ऊपर पेंटिंग The Old Guitarist पाब्लो पिकासो की है।)

5 comments:

शिवप्रसाद जोशी said...


लाल्टू की ये कविता पढ़वाने के लिए आपका शुक्रिया धीरेश. लंबे समय बाद थर्राहट और बेचैनी से भरने वाली लंबी कविता पढ़ी है. देवी प्रसाद मिश्र की लंबी कविता के बाद लाल्टू की ये कविता पढ़कर संतोष लगता है और लंबी कविता के पीछे न सिर्फ़ कितनी मेहनत है बल्कि कैसी वेदना और उछाड़ पछाड़ का बोलबाला है, ये भी दिखता है.

जिस रफ़्तार से हमारे वक़्तों में बुरेपन का दख़ल बढ़ रहा है, "नये युग में शत्रु" से लेकर इस हमारे अपने "प्रलाप" तक कुछ न सही तो एक भरोसा तो बनता ही जाता है. प्रतिरोध की सामर्थ्य भी और ज़िद भी और गहरी होती जाती है.

pallav said...

क्या कहूं ऐसी कवितायें एक कवि लिखने के लिए मजबूर है, यह हमारे समाज पर स्वयं एक टिप्पणी है।

शिरीष कुमार मौर्य said...

यह कविता तीन महीने पहले पढ़ी थी...लगातार कई बार रुक-रुक कर पढी। तब से महसूस होती रही। जलसा का इंतज़ार इसकी वजह से भी है...कम्‍प्‍यूटर की झलमल से बाहर पन्‍नों पर पढ़ने का अवसर अधिक सहूलियत देता है। पत्रिका का इंतजा़र अब भी है पर कविता फिर पढ़ रहा हूं यहां... शुक्रिया धीरेश भाई।

अजेय said...

कांसंट्रेट नही कर पाया . कहीं कहीं लय पकड- मे आती है , बहुत जगहों पर भटक भटक गया . मेरी अपनी ही समझ की सीमाएं होंगी . टेस्ट (स्वाद) का फरक़ होगा . लालटू अच्छे कवि हैं , पर इस कविता को तभी पसन्द कर पाऊँगा , जब किसी खास मूड मे ही सही , यह खुद को पढ़वा लेगी . देवी प्रसाद मिश्र की कविता आप को एक दम बाँध लेती है . यह ऐसा नही कर पाई. लेकिन इसे अभी एकाध बार और पढ़ूँगा

कविता रावत said...

लाल्टू जी की यह सुन्दर कविता पढ़वाने के लिए आपका आभार!...ऐसी कवितायेँ मन में हलचल मचा जाती हैं ...