Wednesday, March 6, 2013

तीसरी दुनिया के लिए शावेज का महत्वः विद्यार्थी चटर्जी



गरीबों को सशक्त करने का मतलब क्या अमीरों को अलग-थलग छोड़ देना और उनकी नाराजगी मोल लेना है? किताबी सिद्धांत तो ऐसा नहीं कहते, लेकिन व्यवहारिक दुनिया में यह बात सही है। बिस्तर पर पड़े वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज से बेहतर इसका जवाब कौन दे सकता है, जिन्होंने हाल ही में तेल उत्पादन के मामले में सउदी अरब को पहले पायदान से नीचे धकेल दिया है। दुनिया भर की नजरें समाजवाद, बोलिवेरायाई क्रांति (सीमोन बोलिवार के नाम पर, जिन्होंने स्पेन के शासन से कई लातिन अमेरिकी देशों को उन्नीसवीं सदी में मुक्त कराया) और ईसाइयत (ईसा की शिक्षा के मुताबिक गरीबों के प्रति न्याय और करुणा की चेतना) के इस पैरोकार पर आज टिकी हैं जो वास्तव में बहुत बीमार है। गरीबों को सस्ता खाना और आवास दिलाने तथा शिक्षा और स्वास्थ्य तक उनकी पहुंच बढ़ाने की शावेज की घरेलू नीतियों ने उन्हें लगातार चार बार चुनाव में जीत का सेहरा पहनाया है। पिछली बार वह अक्टूबर 2012 में जीते थे जब उन्हें कुल पड़े वोटों का 54 फीसदी हासिल हुआ था। इससे पहले कभी भी मूलवासी आबादी को इस देश में इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया।

सामाजिक न्याय यानी गरीब तबके के लिए बेहतर जीवन के प्रति शावेज की प्रतिबद्धता ने उन्हें अमेरिका, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और पश्चिमी तेल कंपनियों की खुराफाती तिकड़ी के खिलाफ खड़ा कर दिया है। शावेज के सत्ता में आने से पहले वेनेजुएला की विशाल तेल संपदा उन्हीं लोगों द्वारा लूटी जा रही थी जो आज उन्हें सत्ता से हटाने की ख्वाहिश रखते हैं। उनका गुस्सा समझ आता है क्योंकि शावेज ने न सिर्फ इस लूट को खत्म किया बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक को पश्चिमी देशों से तेल की ज्यादा कीमत मिले। पश्चिमी तेल कंपनियों गल्फ शेल, स्टैंडर्ड ऑयल और टेक्साको को पहले के मुकाबले ज्यादा रॉयल्टी देने को बाध्य कर के शावेज ने करोड़ों लोगों का दिल जीत लिया है। दुनिया भर की ज्ञात समूची तेल संपदा का पांचवां हिस्सा वेनेजुएला में है, इस तथ्य का उन्होंने फायदा अपनी बात मनवाने के लिए बखूबी उठाया है।

अमेरिका द्वारा कराकस के तख्त को पलटने की लगातार कवायद जाहिर तौर पर समूचे लातिन अमेरिका के करोड़ों घरों में चर्चा का विषय बनी हुई है, जो पूंजीवादी जगत के लोभ, धोखे और वर्चस्व के एक माकूल जवाब के तौर पर कैंसर से जूझ रहे राष्ट्रपति को देखते हैं। न सिर्फ लातिन अमेरिका, बल्कि तथाकथित 'तीसरी दुनिया' के कुछ दूसरे हिस्से भी यह जानने के लिए कम उत्साहित नहीं हैं कि इतने जीवट और संकल्प वाले इस शख्स ने जनता के लिए सामाजिक न्याय और बेहतर आर्थिक जीवन सुनिश्चित करने का अपना लक्ष्य कैसे पूरा किया है। अपने गौरवशाली पूर्वजों निकारागुआ के सैंदिनिस्ता या कहीं ज्यादा याद किए जाने वाले चिली के अलेंदे के नक्शे कदम पर चलते हुए शावेज आज प्रतिरोध, बहाली और पुनर्निर्माण का प्रतीक बन कर उभरे हैं। आज वे न सिर्फ अपनी जनता के लिए, बल्कि राहत की छांव खोज रहे एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के दूसरे देशों के लिए भी उदाहरण हैं- उस आत्मसंकल्प की प्रेरणा हैं जिसे पूंजीवादी विश्व के आकाओं ने संगठित तौर पर नुकसान पहुंचाने की कोशिश की और जब कभी उनके हित आड़े आए, उन्होंने अपना लोकतांत्रिक आवरण उतार फेंका।

वेनेजुएला बोलिवेरियाना- पोएब्लो ई लूचा दे ला क्वार्तो गेहा मूंजियाओ (वेनेजुएला बोलिवेरियाना- जनता और चौथे विश्व युद्ध का संघर्ष) नाम की फिल्म के निर्माताओं के मुताबिक दुनिया भर के लोग फिलहाल वैश्विक स्तर पर जारी चौथे विश्व युद्ध का हिस्सा हैं और यह युद्ध नवउदारवादी पूंजीवाद व वैश्वीकरण के खिलाफ है। साक्षात्कारों के कुछ अंश और आर्काइव के फुटेज के मिश्रण से बनी और सुघड़ता से संपादित की गई यह फिल्म तथाकथित बोलिवार क्रांति के रूप में तेजी से पनपते एक वैकल्पिक आंदोलन की छवियों को दिखाती है।

यह आंदोलन फरवरी
1989 में शुरू हुआ था जब ईंधन और खाद्य वस्तुओं के दाम बढऩे के खिलाफ विद्रोह हो गया जिसमें कई लोग मारे गए थे। बाद के वर्षों में 1998 तक यहां सामाजिक अस्थिरता कायम रही, जब अचानक राष्ट्रपति के चुनाव में एक पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल ह्यूगो शावेज की जीत हो गई। एक नया संविधान पारित किया गया और शावेज ने भ्रष्टाचार व महंगाई को खत्म करने का वादा किया- वह वादा वे आज तक पूरी शिद्दत से पूरा करने की कोशिश करते आए हैं। दूसरे लातिन अमेरिकी देशों की ही तरह वेनेजुएला के सामने भी वैश्वीकरण, अंतरराष्ट्रीय आर्थिक राजनीति और अमेरिकी साम्राज्यवाद का खतरा है। इस दौरान एक मजबूत जनाधार और संचार प्रणाली के माध्यम से खड़ा हुआ वेनेजुएला की जनता का संघर्ष नवउदारवादी पूंजीवाद के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन में तब्दील हो चुका है।

हमेशा अमेरिका को खुश करने में लगे भारत (हाल में एफडीआई के मुद्दे से इसे समझा जा सकता है) से यह उम्मीद करना नाजायज होगा कि वह बोलिवेरियाई आंदोलन को समर्थन दे। लेकिन कहना न होगा कि इस देश के सभी जागरूक लोगों का लक्ष्य होना चाहिए कि वे इस तरह से मिलजुल कर काम करें जिससे लचीली रीढ़ वाली अपनी भारत सरकार को वे नवउदारवाद के खतरे के करीब जाने से कम से कम रोक सकें।

कामगार तबकों के बीच लोकप्रिय शावेज ने जाहिर तौर पर मध्यवर्ग और उच्चवर्ग में अपने कई दुश्मन पैदा कर लिए हैं। ये वर्ग नहीं चाहते कि शावेज अपनी योजना के मुताबिक तेल से आने वाला मुनाफा वंचित और कमजोर जनता में दोबारा बांट दें। सितंबर 2001 में आयरलैंड के दो स्वतंत्र फिल्मकार किम बार्टले और डोनाशा ओब्रायन शावेज की जिंदगी पर फिल्म बनाने के लिए कराकस गए थे। उनकी छवि एक चमत्कारी नेता की थी, जनता के आदमी की, जो एक लोकप्रिय राजनेता होने के साथ विचारक और बौद्धिक विमर्शकार भी था और एक राष्ट्रवादी सिपाही भी, जिसके इतिहासबोध और उद्देश्यों में अखिल लातिन अमेरिका की अनुगूंज थी। हुआ ये कि दक्षिणपंथियों द्वारा किए गए एक तख्तापलट में शावेज की सरकार गिर गई और ये फिल्मकार उस देश में हो रही एक क्रांति की तरह ही वहां फंस गए।

कोई जादुई यथार्थवाद था या कुछ और
, लेकिन एक झटके में 48 घंटे के भीतर शावेज दोबारा सत्ता में आ गए। यह फिल्म द रिवॉल्यूशन विल नॉट बी टेलिवाइज्ड इस छोटी सी अवधि में होने वाले तमाम नाटकीय मोड़ों और पड़ावों को कैद करती है। विद्रोहियों के विजयीभाव भाषण, उनके खिलाफ सेना के विद्रोह और अंतत: शावेज की सत्ता में वापसी इस उत्तेजक सेलुलाइड अनुभव में उत्कर्ष के क्षण हैं। अपेक्षा के मुताबिक निजी स्वामित्व वाले टीवी स्टेशनों ने शावेज के तख्तापलट का समर्थन किया था, जैसा कि मीडिया अमीरों और ताकतवरों का हमेशा ही पक्ष लेता है। जिस तरह से खबरों को उस वक्त लिखा गया, वह देखने लायक है। फिल्म के निर्देशक इस सवाल का जवाब बड़ी ईमानदारी से देते हैं कि क्रांति का प्रसारण जब टीवी पर होता है, तो वास्तव में क्या होता है।

प्रतिक्रांति के एजेंट के रूप में मीडिया का जिक्र आया है तो निकारागुआ में मार्क्‍सवादी सैंदिनिस्ता के सत्ता में आने के पल को नहीं भूला जा सकता जब पश्चिमी प्रेस ने इक_े और खास तौर पर मानागुआ के सबसे बड़े अखबार ने उनके खिलाफ कुत्सा प्रचार अभियान चलाया था। जैसे कि मीडिया के कुत्सा प्रचार और झूठ से मन न भरा हो, अमेरिका में प्रशिक्षित और अनुदानित भाड़े के कॉन्ट्रा विद्रोहियों को निकारागुआ में पड़ोसी देश हॉन्डुरास के रास्ते घुसाया गया ताकि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सैंदिनिस्ता सरकार का तख्तापलट किया जा सके। इसीलिए जब कभी वॉशिंगटन की जबान से लोकतंत्र, स्वतंत्रता, मानवाधिकार आदि शब्द फूटते हैं, तो बाकी दुनिया जो कि कई जगहों पर अमेरिका से भी ज्यादा स्वतंत्र है, तय नहीं कर पाती कि इस पर हंसे या गाली दे, जिसका अमेरिका सच्चा हकदार है।

गैर-दोस्ताना सरकारों के खिलाफ अमेरिका की साजिशों पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक, लेखक और शिक्षक अचिन विनायक ने कोलकाता के एक दैनिक में कुछ साल पहले लिखा था, ''अमेरिका और वेनेजुएला के उसके साझीदार बाहर से आखिर क्या कर पाएंगे, या क्या होने की उम्मीद रख सकते हैं? अमेरिका का पैर पश्चिमी एशिया में फंसा है इसलिए फिलहाल सीधा हमला मुमकिन नहीं है। शावेज विरोधियों के लिए सबसे अच्छी रणनीति तीन काम करने की होगी। विचारधारात्मक स्तर पर उनके खिलाफ यथासंभव ताकत से प्रोपेगैंडा और दुष्प्रचार किया जाए। आर्थिक मोर्चे पर किसी भी तरीके से उनके शासन को अस्थिर किया जाए, चाहे तोड़-फोड़ ही क्यों न करनी पड़ जाए। सैन्य स्तर पर कोलंबिया की सेना 
और सरकार को उकसाया जाए कि वह वेनेजुएला में अघोषित जंग छेड़ दे। लेकिन सबसे असरदार और तात्कालिक उपाय हत्या करवाना होगा, और हाल ही में एक कार में हुए विस्फोट में शावेज के सरकारी वकील की हत्या से यह संभावना मजबूत हो जाती है।''

चालीस साल पहले लोकतंत्र के प्रतीक चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे के साथ अमेरिका ने जो किया, वह आखिर कोई कैसे भूल सकता है। उनका 'अपराध' सिर्फ इतना था कि उन्होंने देश के तांबा उद्योग का राष्ट्रीकरण कर दिया था ताकि देश के मजदूर बेहतर जिंदगी बिता सकें और यह संपदा अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों एनाकोंडा, केनेकॉट और सेरो के हाथों लुटने से बचाई जा सके। सीआईए की साजिश से ऑगस्तो पिनोशे द्वारा किए गए इस तख्तापलट में न सिर्फ राष्ट्रपति अलेंदे बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद उनके हजारों समर्थकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, चाहे वे शिक्षक रहे हों, कलाकार, मजदूर नेता या किसान नेता। गलियों से सड़क तक के ऐसे किसी भी शख्स को नहीं बख्शा गया जो सामाजिक विकास और इंसानी तरक्की के वैकल्पिक मॉडल के अलेंदे के नजरिये का समर्थक था। अलेंदे की मौत का फरमान तांबे में छुपा था, उनसे पहले चिली के राष्ट्रपति जोस मैनुअल बाल्माचेदा की मौत नाइट्रेट संपदा लेकर आई थी जबकि इस बार की लड़ाई तेल के कारण शावेज और उनके अमेरिका समर्थित विरोधियों के बीच है जिन्हें ''आठ के समूह'' से भी कुछ का समर्थन हासिल है।

शावेज का हवाना में इलाज चल रहा है। वहां से आ रही खबरों के मुताबिक यदि वे घर आ गए, तब भी अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभा पाएंगे। उनके उपराष्ट्रपति निकोलस मादूरो का व्यक्तित्व उतना चमत्कारिक नहीं है, न ही उन्हें शावेज जैसा लोकप्रिय भरोसा घरेलू या अंतरराष्ट्रीय दायरे में हासिल है। पहले की अन्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को खत्म कर के उसकी जगह ज्यादा समतापूर्ण व्यवस्था लाने की शावेज की नीतियों के विरोधियों के लिए हमला करने का शायद यही सही समय है। लातिन अमेरिका ही नहीं, समूची दुनिया सांस रोके देख रही है कि क्या होने वाला है।

यह समझना मुश्किल नहीं है कि वेनेजुएला के दक्षिणपंथी आखिर शावेज का इतना विरोध क्यों कर रहे हैं। पहली बात तो यही है कि पुराने दिनों में जिस तरीके से वे पैसे और ताकत की लूट मचाए हुए थे, अब वैसा नहीं कर पा रहे और उनके सब्र का बांध टूटने लगा है। एक और वजह यह है कि शावेज का क्यूबा के साथ करीबी रिश्ता है, जो अमेरिकी सांड़ के लिए किसी लाल झंडे से कम नहीं है जबकि अमेरिका खुद वेनेजुएला में विपक्ष के नेता एनहीक कापीलेस राउंस्की जैसे नेताओं का मार्गदर्शक है। क्यूबा में तीस हजार डॉक्टर और पैरामेडिकल कर्मचारी गरीबों के लिए जो काम कर रहे हैं, उसकी सराहना करने के बजाय कापीलेस जैसे नेता उसकी आलोचना करते फिरते हैं। वे शावेज की सत्ता के करीबी अल्पविकसित देशों को सब्सिडीयुक्त तेल बेचने के भी खिलाफ हैं। कराकस में बैठे अमेरिका के पिट्ठुओं को यह बात परेशान करती है कि चीन और भारत को वेनेजुएला ने तेल के मामले में ''तरजीही देश'' का दर्जा दिया क्यों है। शावेज ने तो खुल कर कह दिया है कि अमेरिका के तेल बाजार पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए उनसे जो बन पड़ेगा, वे करेंगे। फिर इसमें क्या आश्चर्य यदि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें अपना असली दुश्मन मानता है?

अमेरिका जितना ज्यादा शावेज से नफरत करेगा, वे उतना ही ज्यादा अपने लोगों के करीब आते जाएंगे जिन्होंने उन्हें बार-बार चुना है। वेनेजुएला के इतिहास में पहली बार हुआ है कि गरीबों को निशुल्क स्वास्थ्य, शिक्षा और मुनाफारहित खाद्य वितरण प्रणाली मुहैया कराई गई है। गरीब वर्ग को इससे सम्मान और ताकत का अहसास हुआ है। पिछले चुनावों में पड़े 81 फीसदी वोट बताते हैं कि इस देश के लोग कितनी शिद्दत से चाहते थे कि शावेज वापस सत्ता में आ जाएं। ऐसी स्थिति में यदि शावेज को कुछ भी होता है, तो वेनेजुएला की जनता के दुख और हताशा का कोई ओर-छोर नहीं रह जाएगा।

ऐसा कुछ भी हुआ
, तो सदमा सिर्फ वेनेजुएला तक सीमित नहीं रहेगा। पिछले डेढ़ दशक के दौरान शावेज एक उभरते हुए लातिन अमेरिका का प्रतीक बन कर उभरे हैं- एक ऐसे उबलते महाद्वीप का प्रतीक, जो अमेरिका की प्रभुत्ववादी साजिशों के खिलाफ उबल रहा है। वास्तव में लंबे समय से झूल रहा गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी अचानक इधर के वर्षों में ही प्रोत्साहित हुआ है और यह सब वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया, इक्वेडोर और निकारागुआ की वाम रुझान वाली सरकारों के नेतृत्व का ही परिणाम है। अर्जेंटीना और ब्राजील यदि अमेरिकी नीतियों और हरकतों की उतनी खुल कर निंदा नहीं करते, तो सिर्फ इसलिए इन्हें अमेरिका का समर्थक नहीं कहा जा सकता। पेरू भी अमेरिका से सतर्क है। दुनिया भर में लोगों को आशंका है कि शावेज की गैरमौजूदगी में उनकी विरासत खत्म तो नहीं होगी, लेकिन कमजोर जरूर हो जाएगी। उनका किया रंग ला ही रहा था कि बीच में वे कैंसर की चपेट में आ गए। क्या विडंबना है!
सबसे ज्यादा निराशा हालांकि मुझको इस बात से होती है कि शावेज की निशक्तता या फिर उनकी दुर्भाग्यपूर्ण अनुपस्थिति भारत के राजनीतिक वर्ग को नहीं अखरेगी, जो किसी भी कीमत पर अपनी जेब भरने के टुच्चे खेल में जुटा हुआ है। मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, चिदंबरम और विश्व बैंक व आईएमएफ के दूसरे घोषित टट्टुओं के लिए तो शावेज को जीते जी एक प्रेत की तरह नजरंदाज करना और उनकी अनुपस्थिति को यथाशीघ्र भुला देना ही बेहतर है। एक ओर शावेज हैं जो अपनी पूरी क्षमता से अपने प्राकृतिक और मानव संसाधनों का इस्तेमाल कर के एक नया राष्ट्र बनाने में लगे हैं जहां वेनेजुएला के अब तक उपेक्षित रहे लोगों को सम्मान और मजबूत आवाज मिल सके। दूसरी ओर भारत के नेता और उनके आर्थिक सलाहकार हैं जो किसी धार्मिक उपदेश का पालन करते हुए अपने यहां से गरीबों को खत्म करने में जुट गए हैं।

(विद्यार्थी चटर्जी अंग्रेजी के वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक हैं। वे मोटिफ पत्रिका के संपादक रहे हैं। उनका यह लेख समयांतर के फरवरी 2013 अंक में छपा है। यहां यह शावेज के निधन पर उनके संघर्ष और उनकी महान परंपरा को समर्पित है।) 


1 comment:

varsha said...

शावेज की निशक्तता या फिर उनकी दुर्भाग्यपूर्ण अनुपस्थिति भारत के राजनीतिक वर्ग को नहीं अखरेगी, जो किसी भी कीमत पर अपनी जेब भरने के टुच्चे खेल में जुटा हुआ है। मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, चिदंबरम और विश्व बैंक व आईएमएफ के दूसरे घोषित टट्टुओं के लिए तो शावेज को जीते जी एक प्रेत की तरह नजरंदाज करना और उनकी अनुपस्थिति को यथाशीघ्र भुला देना ही बेहतर है। behatareen post..