[वरिष्ठ कवि निर्मला गर्ग पिछले दिनों एक हिंदी अख़बार में गीतकार और फ़िल्मकार गुलज़ार की प्रशंसा में छपे एक लेख को पढ़कर परेशान हो गईं। लेख में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अहमद फ़राज़ को गुलज़ार जैसे 'युग-पुरुष' के मुक़ाबले हल्का-फुल्का और निम्नतर, गुलज़ार पर किताब लिखने वाले किन्हीं खेतान को महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल के बराबर, और हिंदी के कुछ बड़े कवियों, जैसे शमशेर, रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह को गुलज़ार से थोड़ा ऊँचा ठहराया गया। एक ही वार में तीन पुण्य काम सम्पन्न हो गए : हिंदी साहित्य का महिमामंडन, उर्दू साहित्य का मान-मर्दन और गुलज़ार का राज्यारोहण। प्रतिवाद में निर्मला जी ने लेख लिखा जो मूल निबंध के लेखक के लंबे और कातर से जवाब के साथ छपा। बाद में कुछ संदेहास्पद से 'पाठकीय' पत्र भी छपे। निर्मला जी को साथी लेखकों से अनेक प्रतिक्रियाएँ मिलीं जिनमें से दो बड़ी मार्मिक (या कि मज़ेदार) हैं। ये उनकी अनुमति से यहाँ दी जा रही हैं।]
1.
पहली नसीहत
एक बुज़ुर्ग उर्दू शाइर की मुख़्तसर राय : "गुलज़ार साहब के आगे किसका नाम ले दिया, मोहतरमा! फ़ैज़ साहब बेचारे उस दरजे में कहाँ हैं! गुलज़ार साहब की तो ग़ालिब और मीर से बराबरी बैठती है।" [निर्मला जी ने इनसे गुज़ारिश की थी कि वे गोलमोल बात न करें, साफ़-साफ़ बताएँ इस मामले में क्या सोचते हैं।]
2.
दूसरी नसीहत
दूसरी नसीहत
[इस लेखक ने निर्मला जी की चुनौती के जवाब में ई-मेल संदेश में निम्नलिखित बिरादराना सलाह दी।]
(चुने हुए अंश)
प्रिय निर्मला जी,
…
अब ज़िक्रे गुलज़ार : अव्वल तो मज़मून जिस अख़बार में शाया है वो एक जिहादी अख़बार है, वहाँ की रीत से आप वाक़िफ़ हैं। कैसी भयानक और जहालत भरी चीज़ें आये दिन प्रायोजित तरीक़े से वहाँ छपती रहती हैं… हमेशा से उस अख़बार का यही हाल है। आप वहाँ सुधार की उम्मीद छोड़ दें …जहाँ तक गुलज़ार पर मेरी राय का सवाल है, आप बखूबी जानती हैं कि मेरी राय क्या है… पर एक बिरादराना सलाह देने से अपने को बाज़ नहीं रख सकता --
कि जिन्हें फ़ैज़ और फ़राज़ नहीं चाहिएँ, गुलज़ार ही चाहिए, उन्हें ऐसा चाहने से रोका कैसे जा सकता है! वे गुलज़ार ही को डिज़र्व करते हैं। मिर्ज़ा कह गए हैं : 'चाहिए अच्छों को जितना चाहिए / ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए!' मुझे तो कुछ ताज्जुब इस बात पर है कि नरसिंह राव (मरहूम) और मनमोहन सिंह ने हिंदुस्तान का जैसा नक़्शा बना दिया है उसमें गुलज़ार को राष्ट्रकवि और गोपीचंद नारंग को राष्ट्रीय साहित्य-चिंतक पद अभी तक क्यों नहीं दिया गया!
इसकी भी क्या शिकायत कि गुलज़ार साहब की निगाहें अब ज्ञानपीठ पुरस्कार, राज्यसभा, दादासाहब फाल्के पुरस्कार, पद्मविभूषण, निशाने-इम्तियाज़ और ऑस्कर फ़ॉर लाइफ़टाइम अचीवमेंट वग़ैरा पर हैं। कोई हैरानी नहीं कि इनमें से कुछ या प्रत्येक इनाम इन्हें मिल जाए। मौसूफ़ हर सरकार, हर अख़बार और हर नौकरशाही के लिए अपनी उपयोगिता बनाए रखते हैं, हर प्रतिष्ठान को नज़दीक से जानते हैं, उन्हें उनकी हुनरमंदी के बदले ये सब क्यों न हासिल हो! वो गवर्नरी के भी हक़दार हैं। गुजरात उनके लिए बिल्कुल ठीक रहेगा। वह वहाँ वली दकनी की कमी किसी को महसूस नहीं होने देंगे।
अभी कहीं पढ़ने को मिला कि उन्हें असम विश्वविद्यालय का चांसलर नियुक्त कर दिया गया है, और यह कि उधर के लोग इस समाचार को सुनकर बहुत खुश और आशान्वित हैं।
आवारा पूँजी के इस ज़माने में पता नहीं कैसी कैसी चीज़ें खुशी और आशा का भेस धरकर आती हैं; खेद, हताशा और शोक की तो जगह ही ख़त्म हो गई है।
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[इति]
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1 comment:
बेहतरीन, लाजवाब और विचारों की सटीक अभिव्यक्ति | आभार
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