Wednesday, September 11, 2013

झुलसी आरजुओं का मुज़फ़्फ़रनगर

वे 1989-90 के दिन थे, मेरे छात्र जीवन के दिन। अपने आरजुओं के शहर मुज़फ़्फ़रनगर में जमकर आवारागर्दी के दिन। रामजन्मभूमि के नाम पर आरएसएस आए दिन नए-नए प्रतीकों के साथ सक्रिय था। उसके कार्यकर्ता मुस्कराते हुए, जी-जी करते हुए अपनी बात कहते थे तो कभी चौराहों पर तीखे भाषण देते हुए। इस सब के प्रति एक अजीब सा आकर्षण अपने मन में भी पैदा होता और कई बार अपने मन की रोशनी में ही इस सम्मोहन और आकर्षण का ज़हर भी साफ-साफ दिखाई दे जाता। मुज़फ़्फ़रनगर में दंगों की रिहर्सल के तौर पर कई बार भगदड़ का आयोजन किया जा चुका था। (दंगे हो भी चुके थे और बाद में भी `सफल` दंगे भी आयोजित किए गए।) इन्हीं दिनों गांव-गांव और शहर के गली-मोहल्लों में रामशिला पूजन कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे थे। इन्हीं दिनों एक फर्रे पर अपनी बेचैनी अटपटे ढंग से दर्ज की थी। आज गांव में एक पुरानी संदूकची में यह फर्रा पड़ा मिला। आज अपना वो प्यारा शहर और पूरा जिला साम्प्रदायिकता की आग में धू-धूकर जल रहा है। 1947 में और बाद में परंपरा की तरह आयोजित किए जाते रहे दंगों में और बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस के बाद के दंगों में भी जो रेशे बचे रह गए थे, वे जल रहे हैं। वही पुराना फर्रा जिसका कोई अर्थ नहीं रह गया है, पूरी नाउम्मीदी के साथ-

मैं चीख-चीखकर खोल देना चाहता था उनके झूठ की पोल
उनके खूंखार चेहरे पर चढ़ी सभ्य मुस्कान नोंच लेना चाहता था
और जनता को बता देना चाहता था
कि ये ईंटें जो तुमने तैयार की हैं
तुम्हारे शयनकक्षों के लिए नहीं हैं
और ये लोहा भी
तुम्हारे दरवाजों, नलों के लिए नहीं है
और मेरे दोस्तो
ये तुम्हारे पूजाघरों के लिए भी नहीं है
कतई नहीं है दोस्तो
जिस लिए कि तुम्हें बताया गया है

दोस्तो! तुम्हारे ही हाथों तैयार हुआ है
तुम्हारी जेलों, सलाखों, हत्याओं का सामान
दोस्तो! उनके चेहरे का जादुई सम्मोहन
अपने ही लहू से भिड़ाता रहेगा तुम्हें

और मैं चीखा
और पागल करार दे दिया गया
और एक दिन चुपचाप
ज़िंदा दफ़ना दिया गया
इस रेगिस्तान में
पर मेरी चीख
एक दिन उगेगी़ फूल बनकर
और सुगंध वे कैद न कर सकेंगे
यही उम्मीद जीवित बनाए है मुझे
इस गरम रेत के तले

3 comments:

Arun sathi said...

एक दिन उगेगी़ फूल बनकर
और सुगंध वे कैद न कर सकेंगे
यही उम्मीद जीवित बनाए है मुझे

बहुत लोग इस उम्मीद में जिन्दा है.....
बहुत बहुत बेहतरीन..

varsha said...

कि ये ईंटें जो तुमने तैयार की हैं
तुम्हारे शयनकक्षों के लिए नहीं हैं
और ये लोहा भी
तुम्हारे दरवाजों, नलों के लिए नहीं है
और मेरे दोस्तो
ये तुम्हारे पूजाघरों के लिए भी नहीं है
कतई नहीं है दोस्तो
जिस लिए कि तुम्हें बताया गया है
nahin hai

वर्षा said...

बहुत खरी और बहुत जानदार कविता है।