Wednesday, December 28, 2016

मनमोहन की मशहूर कविता ‘आ राजा का बाजा’


‘आ राजा का बाजा’ कविता के बारे में
-मनमोहन
पिछले दो-ढाई साल से इस कविता का एक अजीबोगरीब पाठ फेसबुक पर घूम रहा है और जो कभी भी, कहीं भी प्रकट हो जाता है, उसके बारे में मैंने कई बार स्पष्टीकरण दिया है कि यह कविता का मूल पाठ नहीं है। लेकिन यह फिर भी जारी है। अरसे तक मेरे लिए यह गुत्थी ही बनी रही कि कविता के इस पाठ का स्रोत क्या है? बहुत बाद में पता चला कि कविता-कोश में यह कविता इसी तरह दर्ज है और वहीं से लोग इसे उठाते हैं। मेरे कहने पर अनिल जनविजय ने इसे कविता-कोश से हटा दिया। लेकिन अभी भी कविता का यही पाठ सर्कुलेशन में है। इसमें यकीनन कुछ दोष मेरा भी है कि मैं इसके मूल पाठ को पेश न कर सका।
यह कविता आपात्काल की दहशत भरी परिस्थिति में लिखी गई थी और घोर आपात्काल के दिनों में ही ‘उत्तरार्ध’ के संभवतः ग्यारहवें फासीवाद विरोधी अंक में अन्य कुछ कविताओं के साथ प्रकाशित हुई थी। उन दिनों इसका अनेक ढंग से उपयोग हुआ। आपात्काल खत्म होने के बाद के वर्षों में जन नाट्य मंच ने ‘राजा का बाजा’ नाम से बेरोजगारी पर एक नाटक किया, जिसका शीर्षक के अलावा कविता से सिर्फ इतना लेना-देना था कि उसमें इस कविता की चंद पंक्तियों को अपने ढंग से बदलकर और एक आरती की धुन में ढालकर पैरोडी की तरह इस्तेमाल कर लिया गया था। वही पंक्तियाँ शायद किसी विधि से कविता कोश वालों के हाथ लग गईं।
देश की मौजूदा परिस्थिति आपात्काल के मुकाबले कहीं ज्यादा गंभीर और भयावह है। आपात्काल के तुरंत बाद के समय की मानसिकता से तो यह और भी उलट है। ऐसे में इस कविता के नाम पर चल रहा पैरोडी पाठ और उसकी उत्फुल्ल ‘जय जगदीश हरे’ धुन मुझे खासतौर पर परेशान कर रही थी।
‘उत्तरार्ध’ के अनेक पुराने अंक नापैद हो गए हैं। मैंने उन्हेें हासिल करने की कोशिश कई बार की लेकिन नाकामयाब रहा। अचानक करीब आठ-दस साल पहले अपनी ही पत्रिकाओं में आपात्काल के दौर का एक क्षत-विक्षत जर्जर अंक हाथ लगा, तभी यह और कुछ अन्य कविताएँ किसी तरह फोटोकाॅपी कराकर रख ली थीं। उन्हीं को ढूँढ़कर निकाला है और अब (रिकाॅर्ड ठीक करने के लिए) यह पोस्ट कर रहा हूँ।


आ  राजा  का  बाजा  बजा

ता ऽ थे ई  ता ऽ
ता ऽ  गा ऽ
रो टी  खा ... न  खा ...
गा ऽ
आ ...
आ  रा जा  का  बा जा  ब जा

स च  म त  क ह
चु प   र ह...  चु प  र ह ...
स ह  स ह  स ह

रा श न
न न ... न न ...
ईं ध न ...
न न ... न न ...
ब र त न   ठ न  ठ न
चु प... चु प...
श ठ   सु न...
सु न...  चा बु क  च म का र
ज न  ग न  म न
अ धि ना य क.... ना य क ...
उ न्ना य क...     प त वा र
जी व न   खे व न हा र

त न  म न  वे त न
स ब  अ र प न  क र
तु र त   तु र त
भ ज  उ त्पा द न ... पा द न...
के व ल

मू क  ब धि र  बन
व ध  ल ख
म त  क र
कु न मु न

झु ल स न  ठि ठु र न  स ब
म न  की  त न  की  पी...
पी... जी...

ल ब  रँ ग  चु न  ज प
अ नु शा स न
शा स न
के व ल

मु ड़  तु ड़  नि चु ड़  नि चु ड़
इ त   उ त  उ ड़  म त
लु ट  पि ट  बि क
धि क्  उ फ  म त  क र

जु त    च ल  उ ठ
झ ट प ट  क र
श्र म  से  न  ड र
श्र म  से  न  ड र
श्र म  से  न  ड र

ड ग  में  ड ग म ग  म त  क र
म ग में  म त  क र  ह र क त
ब क  ब क  ब स  क र
च ट  प ट  क र  क र त ल
सं भ ल  सं भ ल  च ल
आ ता  है  र थ
ल थ प थ  ज न प थ  प र

छ म...छ म...
ल क द क     स ज ध ज
आ ता  है  रा ज कुं व र  को म ल
ओ  रे  ख ल  ब न  ट म ट म

इ ठ  म त
ह ठ  त ज
च ल  उ ठ
झ ट प ट  क र

आ ... गा...
ता ... थे ई ...ता ...ऽ ऽ
आ ऽ

आ  रा जा  का  बा जा  ब जा।

1 comment:

जयप्रकाश त्रिपाठी said...

आंधियों में भी दिवा का दीप जलाने की प्रेरणा देते कवि के अमर शब्द