Wednesday, April 2, 2008
ये कैसा समर्थन
अपरिहार्य कारण से कई दिन ब्लॉग पर गैरहाजिर रहा। ये अपरिहार्य शायद अभी परेशान करे। बहरहाल एक बात मुझे परेशान कर रही है। शिवानी की हत्या के आरोप में आर के शर्मा ने अम्बाला में नाटकीय ढंग से गिरफ्तारी दी थी। उसने एक गिलास में कुछ (शायद पानी) पीया और फिर उसकी बेटियों ने उससे घूँट लीं, फिर उसके वहां जमा समर्थकों ने (अफसरों के समर्थक कौन लोग होते हैं , मैंने तब अनुमान लगाया था )। बात यह कि इस तरह की कारगुजारियों के बाद भी पत्नी, बेटियाँ और माँ क्यों बचाव में खडी होती हैं। अमेरिका में हाल में जो गवर्नर सेक्स स्कंडल में फंसा, उसके साथ भी प्रेस के सामने उसकी पत्नी (भले ही मुरझाये चेहरे से आयी, खडी थी )। और भी ऐसे तमाम मसलों में ऐसा देखा गया। ये क्या है?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
कई बार जिन्दगी आपको वो करने को मजबूर कर देती है जिसके लिए आपका जमीर कभी तैयार नहीं होता आपके द्वारा बतायी गयी दोनो घटनाओं में महिलाओं द्वारा अपने पति या पिता को दिया गया नैतिक समर्थन का कारण क्या रहा होगा शायद एक महिला होने के नाते मै समझ सकती हूं. बहुत मुश्किल होता है परिवार, समाज, दुनियादारी के फेरो से ऊपर उठ कर एक इंसान की तरह सोचना और कदम बढ़ाना. आदमी किसी भी तरह के रिश्ते का जामा तो तुरन्त पहन लेता है पर सिर्फ इंसान बनने में बहुत कठिनाई होती है उसे. क्योंकि हर तरह के रिश्ते से ऊपर उठ कर सिर्फ इंसान बन कर जीना हमेशा सहुलियत भरा नही होता और एक औरत के लिए तो यह एक भावनात्मक मजबूरी भी बन जाता हैा
mai manjula ji se bilkul sahamat hu....bahut kuch bahar walo ke liye oorhna hota hai,lekin wastav me aise grinit rishte hamesha-hamesha ke liye ek dans chor jate hai...phir chahe wo pati-patni ke bich ka rishta ho ya phir bap-beti ke bich ka.
लेकिन फिर भी औरत जीती हैं इनको ओढ़ कर. क्योंकि वो बेटी, पत्नी, बहन और मां बनते बनते यह भी शायद भूल जाती है कि सबसे पहले एक इंसान है या अगर सही शब्दों का प्रयोग करें तो भुलाने का मजबूर कर दी जाती है
परिवार बहुत शातिर इकाई भी है और मजबूरी के बजाय मौज के लिए भी खूब समझौते यहाँ पनपते हैं. औरतें भी यहाँ खूब पित्र्सत्ता सीखती हैं. जींद में एक लडकी के प्रेमी के साथ विवाह करने के लिए घर से चले जाने पर लडकी के परिवार की औरतें लड़के के परिवार की लडकी से रेप करा रही थीं, और लाठियाँ लिए इसे बेहद गौरव का काम बता रही थीं
बेहद..........गलीज सच्चाई है, जिसके बारे मे आपने लिखा है .....और इन सब के केन्द्र मे न तो कोई रिश्ता होता है न कोई सम्बन्ध..........सिर्फ़ और सिर्फ़ इंसान होता है........इन्सान से बड़ा और भयावह सच और किसी का नही हो सकता........जानवरों का भी नही.
mai smajhti hun aisa samajik sanrchna ki badhyata ke tahat hota hai jisme humare dharm riti rivaj pramprayen sab ek aurat ko yahi sikhate hai ki ek achcchi estri vahi hai jo har haal men pati ka sath de. dusri bat yadi samajik rup men wo use apradhi svikar kar bhi leti hai to uska samajik jiwan asurakshit ho jata hai isliye mahilayen sab jante samjhte hue bhi chup rah jati hai wo ise parivarik masla samjhti hain jabki jarurat ye hai ki aise masle samajik bane. deepti
Post a Comment