आज ३१ जुलाई प्रेमचंद का जन्मदिन है। तिलिस्मी किस्सों से शुरू हुए प्रेमचंद जल्द ही आम आदमी के जीवन संघर्षों को साहित्य की मुख्यधारा में ले आए थे। फिर अपनी यात्रा में वे लगातार संघर्ष करते हुए आधुनिकता की ओर उन्मुख रहे। नवजागरण के नाम पर पल रहे भ्रष्टाचार मसलन भाषा की सांप्रदायिकता, शुद्धिकरण, छुआछूत, पुनरुत्थानवाद आदि को उन्होंने सिरे से खारिज किया और अंततः वे प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के गवाह भी बने। कहना न होगा कि एक न्यायकारी समाज के लिए उनकी बेचैनी उन्हें गांधी के ट्रस्टी सिद्धांत को खारिज करते हुए कम्यूनिस्ट एजेंडे तक ले गई।
आज घीसू, माधव, हामिद आदि के लिए बची-खुची जगह भी तेजी से गायब हुई है। सांप्रदायिक, पूंजावादी और साम्राज्यवादी ताकतें कुटिल गठजोड़ से और मजबूत हुई हैं। देश और दुनिया के जो हालात हैं, उनमें प्रेमचंद और भी प्रासंगिक व जरूरी हो गए हैं। प्रेमचंद पर मनमोहन का एक लेख जल्द टाइप करने की इच्छा है, कोशिश करूंगा।
4 comments:
प्रेमचंद वाकई में आम आदमी के लेखक थे। प्रेमचंद की परंपरा को बचाये रखते हुवे आगे बढाये जाने के यत्न किया जाना आज के तमाम प्रोग्रेसिव व जनवादी लेखको के सामने सबसे बडी चुनौती है।
बंधु। बाकी सब ठीक है। मगर मैं यह जानना चाहता हूँ कि ये मनमोहन जी हैं कौन जिनके बारे में तुम लंबे समय से बात करते रहे हो। मुझे कुछ कविताएं भी पढाई हैं तुमने इनकी।
मेरे मन में एक बात आई है। आज ही हंस पढ़ रहा था। संपादक महोदय अपने नाम से ऊपर 'संस्थापक-प्रेमचंद' को प्रतिष्ठित कर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाए हुए हैं। घीसू, माधव और हामिद हंस में भी नहीं मिलते। प्रेमचंद संस्थापक की जगह आज भी संपादक होते तो हंस में हामिद मिलता क्या...?
पलाश जी, इस दौर में शंकाए स्वाभाविक हैं। लेकिन चूंकि प्रेमचंद एकाएक किसी फैशन के तहत सांप्रदायिकता विरोध और आम लोगों के फेवर में ख़ड़े नहीं हुए थे बल्कि एक सतत विकास प्रक्रिया के तहत आगे बढ़ते गए थे। आज वो कहीं ज्यादा मुस्तैदी से इस जगह खड़े दिखाई देते।
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