मेरी एक दोस्त का फ़ोन आया. एक संगठन में काम कर चुकी है और फिलहाल भी घर से दूर रहकर काम कर रही है. उसकी दिक्कत यह है कि उसकी सरकारी नौकरी लग गयी है और उसके परिवार ने भागदौड़ कर होम डिस्ट्रिक्ट में पोस्टिंग का जुगाड़ कर लिया है. मेरी दोस्त जानती है कि होम पोस्टिंग का मतलब है, पूरी तरह परिवार के ढांचे में जकड जाना. उसका भाई उसे प्यार करता है पर इस मामले में वो बाप के साथ है. मेरी दोस्त का फ़ोन राखी के त्यौहार वाले दिन आया था.
इसी दिन पता चला कि संतलेश को उसको देवर ने बेच दिया है. संतलेश के पति का कत्ल हो गया था और इस इल्जाम में उसे ही फंसा दिया गया था. उसके भाई हैं पर वे मुकदमे में पैसा खर्च नहीं करना चाहते. आख़िर संतलेश को उसके देवर ने इस शर्त के साथ छुडा दिया कि वो धरती में हिस्सा नहीं मांगेगी और एक आदमी के साथ रहने लगेगी. संतलेश के भाई का कहना है कि बहन ने उसकी नाक कटवा दी है और वह उसके लिए मर गयी है.
मेरी एक मौसी है. मौके-बेमौके उसे भाई के घर से कपड़े-लत्ते और दूसरे उपहार मिलते रहे हैं. अब यह सिलसिला बंद हो गया है. उसे खतरनाक विशेषणों से नवाजा जा रहा है. उसका कसूर सिर्फ़ यह है कि उसने पिता की संपत्ति से अपने हिस्सा मांगने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है.
मेरे पिता आदर्शवादी हैं. घोर संकटों में भी पैसे का मोह नहीं किया. बेटियों को पढाया-लिखाया. वकील भी हैं पर पिता की संपत्ति में बेटी के हिस्से की बात उन्हें नागवार गुजरती है.
अधिकतर ऐसा ही है. भाई अपनी बहनों पर कुर्बान रहते हैं. उनकी शादी में खूब धूम करने को तत्पर. शादी के बाद उपहार देने या गले मिलकर रोने को भी. संपत्ति में हिस्से की बात चले तो बहन के कत्ल को तैयार. बहन प्यार कर ले या अपनी मर्जी से शादी करे तो भी उसकी खैर नहीं. हमारे महापुरुषों का भी इन मसलों पर यही रुख रहा है, भारतेंदु जैसे लेखकों का भी.
असल में ये हमारी महान परम्परा है. राखी के त्यौहार की यह भी अजीब बात है कि बहन राखी बांधे और हिफाजत का वचन ले. ऐसा क्यों नही कि बहन अपनी हिफाजत लायक ख़ुद बने. खुदमुख्तार हो, अपने फैसले ख़ुद ले. लेकिन यह हमारी परम्परा के खिलाफ है.
यहां तो राखी का त्योहार भी रस्म है और फिर `ऑनर` के नाम पर उन्हीं बहनों का कत्ल भी।
इसी दिन पता चला कि संतलेश को उसको देवर ने बेच दिया है. संतलेश के पति का कत्ल हो गया था और इस इल्जाम में उसे ही फंसा दिया गया था. उसके भाई हैं पर वे मुकदमे में पैसा खर्च नहीं करना चाहते. आख़िर संतलेश को उसके देवर ने इस शर्त के साथ छुडा दिया कि वो धरती में हिस्सा नहीं मांगेगी और एक आदमी के साथ रहने लगेगी. संतलेश के भाई का कहना है कि बहन ने उसकी नाक कटवा दी है और वह उसके लिए मर गयी है.
मेरी एक मौसी है. मौके-बेमौके उसे भाई के घर से कपड़े-लत्ते और दूसरे उपहार मिलते रहे हैं. अब यह सिलसिला बंद हो गया है. उसे खतरनाक विशेषणों से नवाजा जा रहा है. उसका कसूर सिर्फ़ यह है कि उसने पिता की संपत्ति से अपने हिस्सा मांगने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है.
मेरे पिता आदर्शवादी हैं. घोर संकटों में भी पैसे का मोह नहीं किया. बेटियों को पढाया-लिखाया. वकील भी हैं पर पिता की संपत्ति में बेटी के हिस्से की बात उन्हें नागवार गुजरती है.
अधिकतर ऐसा ही है. भाई अपनी बहनों पर कुर्बान रहते हैं. उनकी शादी में खूब धूम करने को तत्पर. शादी के बाद उपहार देने या गले मिलकर रोने को भी. संपत्ति में हिस्से की बात चले तो बहन के कत्ल को तैयार. बहन प्यार कर ले या अपनी मर्जी से शादी करे तो भी उसकी खैर नहीं. हमारे महापुरुषों का भी इन मसलों पर यही रुख रहा है, भारतेंदु जैसे लेखकों का भी.
असल में ये हमारी महान परम्परा है. राखी के त्यौहार की यह भी अजीब बात है कि बहन राखी बांधे और हिफाजत का वचन ले. ऐसा क्यों नही कि बहन अपनी हिफाजत लायक ख़ुद बने. खुदमुख्तार हो, अपने फैसले ख़ुद ले. लेकिन यह हमारी परम्परा के खिलाफ है.
यहां तो राखी का त्योहार भी रस्म है और फिर `ऑनर` के नाम पर उन्हीं बहनों का कत्ल भी।
7 comments:
धीरेश भाई, दिख रहा है लड़ने का हौसला और जज्बा भी। पता नहीं क्यों, यह पोस्ट मुझे राखी के बहाने स्त्री की आजादी की बात की ओर नहीं ले जा पा रही। शायद, मैं तुम्हारी निजी हालत से वाकिफ हूं इसलिए। और इसलिए भी यह मुझे कविता की तरह लग रही है, जिसमें तुमने अपने को अपने से और अपनी बीमारी से लड़ने के लिए तैयार किया है। हम सब साथ हैं।
यह आधा सच है भई या बेहतर शब्दों में कहूँ तो कहीं कहीं सच कुछ और है।
मुश्किल तो ये है भाऊ कि बहनों को कोई खुदमुख्तारी करने लायक बनने ही नहीं देता...हम चाहते हैं कि 'सारा आकाश' हमारा रहे और उनके हिस्से में 'विस्तृत नभ का कोई कोना' न जाने पाए...
बचपन से जिस प्रभुत्व व सत्ता का पाठ बच्चो को घुट्टी में पिलाया जाता है, वो उन्हें अपने जेन्डर से अलग हट कर एक इंसान की तरह सोचने नहीं देता. इसीलिए शायद अधिकतर पढ़े लिखे और समझदार भाई भी बहनों को अधिकार देने के मामले में रूढिवादिता का परिचय देते हैंा
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आपको अब आरहे बदलाव को भी देखना चाहिये था ।
न्यूक्लियर परिवारों में सभी कुछ लड़की की इच्छा व
मूड से होने लगा है ।
वैसे अब वो भाई भी न रहे जो बहन की रक्षा का वचन लें। न वो बहनें ही रहीं। रिवाज़ है,बस चल रहा है।
riwazon aur paranprao ko hum ab nibha nahin rahe balki dho rahe hain...
sanyog kahen ya mere man ka vidrohi swar ko dekh eswar ne haume bahan hi nahi diya...
badalna kuchh bhee to apne ghar se shuruaat honi chahiye
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