Friday, August 22, 2008

चूतिया नहीं वजाइनल कहते हैं संस्कृतपुरुष

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में २१ अगस्त २००८ को `हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी` विषय पर गोष्ठी के दूसरे सत्र में रमेश चन्द्र शाह बोले। उनका जोर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी पर था। अपने व्याख्यान के बाद एक श्रोता के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही देश को एकता के सूत्र में बाँध सकती है, न कि हिन्दुस्तानी कही जाने वाली हिन्दी। इस सत्र के तुंरत बाद लंच हुआ। मुझे यह देखर हैरानी हुई कि शाह साहब कुछ युवकों को कह रहे थे- तुम्हें जवाब देना चाहिए। उनकी भाषा में ही मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए। साहित्य पर उनका ठेका है क्या? मुझ अपरिचित को बातें सुनते देख वे युवक इधर-उधर हो गए। मैंने कुछ समझने की कोशिश की और कुछ समझा भी। (जाहिर है कि शाह अपने व्याख्यान को लेकर सवाल उठाने वालों और अपने समर्थकों की चुप्पी को लेकर नाराज होंगे) मैंने एक स्टुडेंट से ही पता किया तो मालूम हुआ कि जिन युवकों से शाह साहब मुखातिब थे, वे अखिल विद्यार्थी परिषद् से जुड़े शावक थे।
बहरहाल आगे बढ़ते हैं और गोष्ठी के बाहर बन रही या चल रही हिन्दी का रूप देखते हैं कि वो कितनी संस्कृतनिष्ठ है। रमेश चन्द्र शाह और राजकिशोर की हाय-हलो होती है। किसी बात पर राजकिशोर कहते हैं कि हिन्दी का समाज चूतिया समाज है। शाह साहब- कृतघ्न है। राजकिशोर- नहीं, नहीं चूतिया है। शाह साहब लजाने का अभिनय करते हुए कहते हैं- चूतिया नहीं वजाइनल कह लेता हूँ। वजाइनल है। राजकिशोर- वजाइनल नहीं फिर वजाइनीज कहिये। कुछ देर बाद कोई एक कहता है कि हिन्दी में काम करना शव साधना है। दूसरा कहता है, शव सम्भोग है। फ़िर दोनों कहते हैं, हाँ शव सम्भोग है।

12 comments:

Ashok Pande said...

बहुत ज़बरदस्त लिखा धीरेश भाई! बहुत सही मार लगाई हिन्दी के साहब लोगों को भी और बिना कहे बहुत ज़्यादा भी कह गए.

अब देखो कौन कौन बौराता-भौंकता तुम्हें काट खाने आता है. इंजेक्शन लगवा के रखना लगातार हंसते जाने का.

बहरहाल, अपनी तबीयत का पूरा ख़याल रखना. मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हमेशा साथ हैं.

कुमार मुकुल said...

अच्‍छी रपट लिख दी आपने, ये संस्‍कुति पुरूष यही कर सकते हैं, यूं यह अखबारी दुनिया का प्रचलित शब्‍द है, जहां मन जिसे देखो इसका खुलकर प्रयोग करता है,यूं एक सवाल उठता है कि यहां मुखिया कौन है यानि मुख से कौन पैदा हुआ है ...आन बाट काहे ना आया का सवाल कबीर उठा ही चुके हैं, हमारी इस महान संस्‍कृति में स्‍त्री कहां है, वह इन सभा संगोष्ठियों में कैसे भाग ले सकती है जहां गाली के तौर पर उसके एक अंग का प्रयोग धडल्‍ले से होता हो...

Unknown said...

ramesh chandr shah jis word ko english mein bolna chahte hain, wo unhe urdu ka lagta hoga. he shah ji, aap ise sanskritnishth hindi mein kya kahenge? `Bhagwan` bol lete...

पलाश said...

"मैं मां को ले कर भावुकता का वह वातावरण नहीं बनाना चाहता जो हिन्दी कविता में एक दशक से बना हुआ है (इसके पहले यह दर्जा पिता को मिला हुआ था)। लेकिन मां-बेटे या मां-बेटी का रिश्ता एक अद्भुत और अनन्य रिश्ता है। इस रिश्ते का सम्मान करना जो नहीं सीख पाया, वह थोड़ा कम आदमी है। मेरी मां जैसी भी रही हो, 'साकेत' में मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्ति मेरे सीने में खुदी हुई है कि माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही। मैं कुपुत्र साबित हुआ, मेरा यह दुख कोई भी चीज कम नहीं कर सकती। उसका प्रायश्चित यही है, अगर कोई प्रायश्चित हो सकता है, कि मैं एक ऐसी संस्कृति की रचना करने में अपने को होम कर दूं जिसमें मां का स्थान जीवन के शीर्ष पर होता है। "(राजकिशोर के ब्लॉग से)

जेएनयू में कौन सी संस्कृति रच रहे थे राजकिशोर!

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

वाह भाई वाह! २० अगस्त की तगडी हडताल के बाद २१ की ये लताडह जरुरी थी इन कमबख्त चोटीधारी संस्कृतनिष्ठ हिन्दीवालो को।
साहित्य की ठेकेदारी करने को उतावले हिन्दूत्व के स्वंयभू ठेकेदार ABVP के मुर्ख (चाहे तो चूतिया या वजाइनल या वजाइनीज कह ले) लौन्डे व उनके पोंगा-पंडीत मुखिया हिन्दूस्तानीवालो को क्या जवाब देते, इनकी दुनिया तो नवजागरणी भ्रष्टाचार से शुरू हो वही खत्म हो जाती हैं।
पलाश साहब राजकिशोर जी क्या रच रहे है उसे छोडीये अब आप ही हमें बता दे चूतिया को हिन्दी मै क्या कहा जाये? कही आप भी शाह साहब के वजाइनीज्म से सहमत तो नहीं हैं? रमेश चन्द्र शाह जैसे हिन्दूत्व के ठेकेदार संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के बहाने देश की एकता विखंडीत करने का षडयंत्र रच रहे हैं, इस तहजीब (चाहे तो संस्कृति कह ले) को आप क्या कहेंगे? आप चाहे जो कुछ भी कहे हम तो इस संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की संस्कृति को चूतियापा कहते हैं। ...

डा. अमर कुमार said...

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बहुत ही तीखा प्रहार किया है,
असलियत, अरे वही... वास्तविकता तो यह है कि यदि
किसी से शुद्ध हिन्दी में बात करने का अभिनय करो, तो
वह खड़बड़ा जाता है, यानि कि ऎसी हिंदी उसके लिये तंज़
की भाषा होती है ।
अपनी पत्नी से कहिये कि, ' प्रिय, आज सांय ५ बजे तक
अपना श्र्ंगार कर रखना, चलचित्र दर्शन हेतु छविगृह प्रवेश
पत्र की व्यवस्था हो जाना संभावित नहीं, सुनिश्चित जानो '

समझिये कि आपने अपने लिये ज़ूते खाने का पूरा इंतज़ाम
कर लिया है । मैं मज़ाक नहीं उड़ा रहा हूँ, बल्कि इस रवैये से
क्षुब्ध हूँ । इन लोगों ने अपनी संस्कृति और भाषा का आभिजात्य
बनाये रखने की सनक में, सबको एक एक कर अकग ही करते गये हैं ।

Ashok Pande said...

जो शावक थे (या समझे जा रहे हैं), उन्हें तो तरीक़े से अपना नाम तक हिन्दी में लिखना नहीं आता.

हमारे यहां सतत गुन्डकर्म में लीन हयात सिंह नामक एक भगवा सरगना से मैंने उस के नाम का मतलब पूछा तो वो बोला कि नाम-हाम से क्या होता है और क्या होता है मतलब-फतलब से.

और इस के अलावा जो रमेश साह जी हैं (असल में पहाड़ में 'शाह' कोई जाति नहीं होती, 'साह' होती है,) उन्होंने तो अपनी असल जात तक छिपा ली. हो सकता है ऐसा अशोक वाजपेई के इसरार पर हुआ हो कि भई 'साह' नाम में हिन्दी साहित्य के भीतर ग्लैमर पैदा करने की कूव्वत नहीं.

साह साहब को मैंने सिर्फ़ एक बार सुना है अल्मोड़ा में जहां वे साहित्य के नाम पर ग्रीक माइथोलोजी के उद्धरण देते हुए ईश्वर-परमात्मा जैसा कुछ जाप करके श्रद्धावनत पहाड़ियों (जिनकी निगाह में उनके शहर का यह आदमी 'बड़ा' बन चुका था) का चप्पू बना रहे थे. मुझे उस आदमी के भीतर ईश्वर जैसी कोई मृत चीज़ की बू आई - कै करने की इच्छा हुई थी.

भाषा सीखने या हिन्दी का प्रसार करने को किसी सचेत समाज को साह (सॉरी शाह) जी जैसे गरदन तक आत्ममोह के कीचड़ में लिपटे केंचुओं की ज़रूरत नहीं है जो वक़्त आने पर एक ही दिन नाथूराम गोडसे, गांधी, भगतसिंह, सैक्स, बास्केटबॉल और मृदा-अपरदन पर अलग -अलग जगहों पर व्याख्यान दे सकते हैं. दाम मिले तो!

शैलेश मटियानी जी याद आते हैं बहुत जो अक्सर मुझसे कहते थे: "ये चूतिया रमेश साह साला बहुत हरामी जीव है!"

जय हो हिन्दी भाषा की!

जमाए रहो धीरेश!

Unknown said...

ashok vajpeyee kuchh bole

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

भाई लोगों, राजकिशोर ने अपने ब्लॉग पर चरित्र कैसे बनता है शीर्षक से कुछ लिखा है. मैंने उन्हें कमेन्ट भेजा है कि जिद्दी धुन पर आपके संवाद पढ़कर पता लग गया है कि कैसे बनता है. पता नहीं इस कमेन्ट को वे पुब्लिश होने देंगे या नहीं. जेएनयू के दोस्तों से पता ये भी लगा है कि अशोक वाटिका के एक और पंछी ज्योतिष जोशी भी रमेश शाह के साथ मंच से चहके थे और कर्मकांड की खूबी याद कर रहे थे. (प्रयाग शुक्ल भी मंच पर थे, बेचारे का मन वैसे आशिक वाटिका में ही रमता है. वैसे अशोक वाटिका में शाह और ज्योतिष जैसे संघियों की खूब जमती है). इससे बड़ा कांड यह था कि केदारनाथ सिंह, मनीजर पांडे जैसे भी बड़े भडैत किस्म की गर्दन हिला रहे थे (बेचारे बीजेपी सरकार आने की किसी स्थिति के लिए इंतजाम करते होंगे). भला हो चमन लाल का और स्टूडेंट्स का कि प्रतिवाद किया.
पलाश ने सही लिखा - जेएनयू में हो क्या रहा है? राजकिशोर का ढोंग भी यहाँ पेस्ट कर उन्होंने सही किया. vaise shah kee sahee dhunai ashok pande ne kee hai

वर्षा said...

बड़े-बड़े लोगों के विचारों के बीच सिर्फ इतना कि जिनकी दुकान हिंदी से चल जा रही है वो हिंदी की बिंदियां ठीक कर रहे हैं,वैसे कल बातचीत में एक बंदे ने कहा भाषा का संबंध सीधा पूंजी से हो गया है।

वर्षा said...

बड़े-बड़े लोगों के विचारों के बीच सिर्फ इतना कि जिनकी दुकान हिंदी से चल जा रही है वो हिंदी की बिंदियां ठीक कर रहे हैं,वैसे कल बातचीत में एक बंदे ने कहा भाषा का संबंध सीधा पूंजी से हो गया है।