Monday, August 10, 2009
क्या हबीब आएंगे यह लड़ाई लड़ने?
दो महीने हुए जब हबीब तनवीर रुखसत हुए तो उनके बारे में काफी-कुछ लिखा गया था. लेकिन इस बात का ज़िक्र कम ही किया गया कि वे कला की दुनिया में प्रभावी (और अब दुर्लभ) सेक्युलर उपस्थिति थे. विशुद्ध कला के पैरोकार उनके रंग कौशल पर तो काफी लिख रहे थे लेकिन आरएसएस के कुनबे से उनकी मुठभेड़ पर वे चुप ही थे. जिन लेखकों ने इस बारे में लिखा भी, वे प्रायः वही लेखक थे जिन पर लाल रंग में रंगे होने की `तोहमत` है.
यह सर्वविदित तथ्य है कि `लिविंग लीजेंड` की कला जोखिम भरे रस्ते से होकर गुजरती थी. 90 के दशक में सांप्रदायिक उभार के साथ उनके सेक्युलर मिजाज़ के नाटकों को लेकर संघ का कुनबा बेहद हमलावर हो गया था. `मोटेराम का सत्याग्रह`, `पोंगा पंडित`, `जिस लाहौर नहीं वेख्या` जैसे नाटक कट्टरपंथियों को कभी रास नहीं आये. हबीब साहब को नाटकों के प्रदर्शन के दौरान भी हमले झेलने पड़े, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता और मजबूत होती गई. उन्होंने बहुत से `सेक्युलर चेम्पियनों` की तरह इसका न रोना रोया और न इसके लिए किसी वाहवाही की अपेक्षा की. उन्होंने यही कहा कि वे कला की दुनिया और सड़क दोनों जगह लड़ सकते हैं. वे होते तो `चरणदास चोर` पर छत्तीसगढ़ की संघी सरकार की पाबंदी को लेकर किसी की मदद ताकने के बजाय मोर्चा संभाले मिलते.
तो क्या मोनिका मिश्र और हबीब तनवीर की मौत के साथ हमारे लेखकों, कलाकारों और जागरूक नागरिकों ने नया थियेटर और उसके मूल्यों का भी फातिहा पढ़ दिया है? क्या इस लड़ाई को आकर लड़ने की जिम्मेदारी उन मरहूमों की ही बनती है? जाहिर है कि यह लड़ाई सेक्युलर, डेमोक्रेटिक और प्रोग्रेसिव मूल्यों की हिफाज़त की लड़ाई है और ये लड़ाई इन मूल्यों में आस्था रखने वाले हर कलाकार, एक्टिविस्ट और साधारण नागरिक के सामने खड़ी है.
जहाँ तक लेखकों, कलाकारों का सवाल है तो प्रेमचंद और हुसेन पर हमलों व ऐसे बहुत से दूसरे मसलों पर व्यापक एकजुटता और इच्छाशक्ति का अभाव सामने आता रहा है. हुसेन के मसले पर तो कई `प्रोग्रेसिव` लेखक अक्सर राइट लिबरल और कई बार राइट विंग की भाषा बोलते भी मिल जाते हैं. इस `बौद्धिक` वर्ग ने हाल के उदयप्रकाश-योगी आदित्यनाथ प्रकरण और प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान प्रकरण में भी हद दर्जे की अवसरवादिता, मूल्यहीनता और लिजलिजापन दिखाया है. तो क्या ताजा मामले में प्रमुख प्रोग्रेसिव संगठनों को क्रूर आत्मालोचना करते हुए और अपने बीच के रंगे सियारों को अलग करते हुए साझा रणनीति के साथ मोर्चा नहीं संभालना चाहिए?
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10 comments:
संगठनों में छिपे रंगे सियार ही जब बहुमत में हों तब कौन किसको अलग करेगा?
सुनील
हिम्मत जुटाने और जुट जाने के इस वक्त को कार्रवाई में तब्दील कर देने की यह जिद्दी धुन बजती रहे मित्र। पीपे परात और तसलों का संगीत, जो योगेन्द्र आहूजा की कहानी मर्सिया का बीज वाक्य है, बार बार याद आता है।
bahut achchha, sashakt, praasangik aur moolyvaan hastkshep. dhiresh ji, ham sabhi samaan soch rakhnevaalon ko chhattisgarh chalnaa chaahiye aur jaisa ki 'kabaadkhaana' par bhai sundarchand thakur ne kahaa hai ki vahaan chalkar is naatak ke manchan ko mumkin banaanaa chaahiye. mahaz likhne se ab kuchh honevaalaa nahin hai, haalaanki likhnaa bhi zaroori hai.
---pankaj chaturvedi
kanpur
संुदर चंद ठाकुर का सुझाव सौ फीसद अमल में लाने लायक है। प्रतिरोध का यही तरीका रचनात्मक है।
एक और शिकायत है कि ब्लाग दुनिया में उदय प्रकाश मसले और हंस वार्षिकी को लेकर जो बहसें हुई वो विस्तृत चर्चा का केन्द्र बनीं। लेकिन चरण दास चोर को लोगों ने बहुत ही रचनात्मक तरीके से बहस से बाहर किया है। लोहे को लोहा काटता है कि तर्ज पर। ऐसे भले ही किसी को चे ग्वेरा की कभी याद नहीं आए लेकिन इस वक्त जरूर आ गई !!
क्या चरणदास चोर पर आने वाली पोस्ट दूसरी पोस्टों से ज्यादा देर तक नहीं रहनी चाहिए।
जिससे ब्लाग की दुनिया में इस मामले को लेकर एक वैचारिक सरगर्मी पैदा हो।
क्या यह ऐसी ही बात है जो आई और गई हो जाएगी ?
कुछ लोगों ने इस मामले में बहुत करीने से किनारा कर लिया है क्या उनसे बहस नहीं चाहिए ?
क्या यह मुद्दा हमारे बहस से थोड़ा भी गर्म नहीं होगा ?
साझा रणनीति के साथ मोर्चा जरूर संभालना चाहिए
सतनामी समाज बरसों से इस नाटक को देखता आ रहा है। इसमें कुछ सतनामी कलाकारों ने काम भी किया है। फिर अचानक आपत्ति क्यों हो गई। इसके पीछे क्या कारण हैं और कौन इसे संचालित कर रहा है, इन सब चीजों की गहराई में जाना होगा। सतनामी समाज को विश्वास में लेकर ही यह लड़ाई लडऩी चाहिए, ताकि छत्तीसगढ़ सरकार की विभाजनकारी नीति की पोल खोली जा सके। सतनामी समाज की आपत्ति की आड़ लेकर चरणदास चोर को प्रतिबंधित करना अगर जायज है तो क्या इसी तर्क का आधार पर ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताडऩा के अधिकारी जैसी चौपाई पर स्त्रियों और शूद्रों की आपत्ति के कारण रामचरित मानस पर भी प्रतिबंध लगाया जा सकता है? क्या छत्तीसगढ़ सरकार ऐसा करने की हिमाकत कर सकेगी?
2007 में एक साक्षात्कार के दौरान हबीब साहब ने कहा था-‘सवाल सिर्फ मेरे नाटकों का नहीं है। सवाल अभिव्यक्ति की आजादी का है। आप कोई फिल्म बनाते हैं, तो बवाल हो जाता है। पेंटिंग बनाएं तो बवाल। लेखक को भी लिखने से पहले दस बार सोचना पड़ता है कि इससे पता नहीं किसकी भावना आहत हो जाए और जान-आफत में। दुख की बात यह है कि सरकार इस सब पर या तो चुप है, या उन्मादियों के साथ खड़ी नजर आती है।'
उनकी बात एक बार फिर सही साबित हो गई है।
रंगनाथ जी
चे की याद कैसे आई यह आपको क्या बताऊं… आप तलवार जल्दी उठा लेते हैं और तुरंत हमलावर तेवर अपना लेते हैं…यह गुस्सा स्वाभाविक ही है सो शिकायत कोई नहीं। वैसे नहीं आती यह निष्कर्ष मत निकालिये…
हांचरण दास चोर को लेकर चंहुओर विरोध ज़ारी है और हमेशा की तरह हम इस बार भी इसका हिस्सा है। कबाडखाना पर हमने पूछा भी था कि मुर्दाबाद से आगे क्या? आप एज़ेण्डा तय कीजिये हम आपके साथ हैं।
आप ईमानदार हैं पर इससे यह तय नहीं होता कि बाकी सब …
हां विरोधस्वरूप ही बिना ज़्यादा काम किये 'वे चुप है' लगाई है।
हां अगर विरोध मंचन हुआ तो हम उसमें आने को तैयार हैं।
पर छत्तीसगढ के कुछ मित्रों का कहना है कि मंचन पर प्रतिबन्ध लगा ही नहीं है…कन्फ़र्म कर रहा हूं।
आपसे मिलने की ख्वाहिश है.....!!
अशोक कुमार पाण्डेय जी ने ज़रूरी बात उठाई है. पहले मालूम तो कर लीजिये.
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