बड़ा हल्ला रहता आया है कि प्रभाष जोशी पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष हैं. उनके शीर्ष पुरुषवादी विचार हमेशा ही सामने आते रहे हैं, यह बात अलग है कि हमारे बहुत से `सेक्युलर`, `प्रगतिशील` व `उदारवादी` इस तरफ से आँखें मूंदे भक्ति-भाव से उनकी और उन जैसे कई रंगे सियारों की बंदगी किये जाते हैं. इस दौर में जबकि दुनिया भर में प्रगतिशील ताकतों का दबाव कम हुआ है और भेड़ की खाल में छुपे भेड़िए अपनी असली शक्ल में आकर हुआं-हुआं करने लगे हैं तो प्रभाष जोशी जैसे शीर्ष पुरुष भी अपने फलसफे के साथ खुलकर सामने आ रहे हैं. हालाँकि सती प्रथा हो या ऐसे दूसरे मामले, वे पहले भी यही सब करते रहे हैं. फिलहाल वे मनु महाराज से भी आगे निकलकर ब्राह्मण श्रेष्ठता साबित करने के लिए जहरीली ज़िद पर उतर आए हैं. उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ प्रेम भी देखते ही बनता है जब वे संघ पर पूर्व में लगी पाबंदियों पर गुस्सा दिखलाते हैं. पेश हैं उनके raviwar.com को दिए गए साक्षात्कार से कुछ अंश-
`...सिलिकॉन वैली अमेरिका में नहीं होता, अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं लगा होता. दक्षिण के आरक्षण के कारण जितने भी ब्राह्मण लोग थे, ऊंची जातियों के, वो अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन है या चेयरमेन इंडियन है या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है. क्यों ? क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है. क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है. तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारिरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं. यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं. सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते. ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं. इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ. आईटी में वो इतने सफल हुए.
अपने समाज में अलग-अलग कौशल के अलग-अलग लोग हैं. अपन ने ये माना कि राजकाज में राजपूत अच्छा राज चलाते है. क्यों माना हमने ? एक तो वो परंपरा से राज चलाते आ रहे है, दूसरा चीजों के लिए समझौते करना, सब को खुश रखना, इसकी जो समझदारी है, कौशल जो होती है, वो आपको राज चलाते-चलाते आती है. आप अगर अपने परिवार के मुखिया है तो आप जानते हैं कि आपके परिवार के लोगों को किस तरह से हैंडल किया जाये.
ब्राह्मणों का वर्चस्व
मान लीजिए कि सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेल रहे है. अगर सचिन आउट हो जाये तो कोई यह नहीं मानेगा कि कांबली मैच को ले जायेगा. क्योकि कांबली का खेल, कांबली का चरित्र, कांबली का एटीट्यूड चीजों को बनाकर रखने और लेकर जाने का नहीं है. वो कुछ करके दिखा देने का है. जिताने के लिए आप को ऐसा आदमी चाहिए, जो लंगर डालकर खड़ा हो जाये और आखिर तक उसको ले जा सके यानी धारण शक्ति वाला. अब धारण शक्ति उन लोगों में होती है, जो शुरू से जो धारण करने की प्रवृत्ति के कारण आगे बढ़ते है. अब आप देखो अपने समाज में, अपनी राजनीति में. अपने यहां सबसे अच्छे राजनेता कौन है ? आप देखोगे जवाहरलाल नेहरू ब्राह्मण, इंदिरा गांधी ब्राह्मण, अटल बिहारी वाजपेयी ब्राह्मण, नरसिंह राव ब्राह्मण, राजीव गांधी ब्राह्मण. क्यों ? क्योंकि सब चीजों को संभालकर चलाना है इसलिए ये समझौता वो समझौता वो सब कर सकते है. बेचारे अटल बिहारी बाजपेयी ने तो इतने समझौते किये कि उनके घुटनों को ऑपरेशन हुआ तो मैंने लिखा कि इतनी बार झुके है कि उनके घुटने खत्म हो गये, इसलिए ऑपेरशन करना पड़ा. ये मैं जातिवादिता के नाते नहीं कह रहा हूं. एक समाज में स्किल का लेवल होता है, कौशल का एक लेवल होता है, जो वो काम करते-करते प्राप्त करता है. उस कौशल का आप अपने क्षेत्र में कैसा इस्तमाल करते हैं, उस पर निर्भर करता है. इंदिरा गांधी बचपन में गूंगी गुड़ियाओं की सेना बना कर लड़ा करती थीं. जब वह प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने अपने आसपास गूंगे लोगो की फौज खड़ी की. ऐसे लोग, जो उसके खिलाफ बोल नहीं सकते थे. या जो अपनी खुद की कैपासिटी में कुछ कर नहीं सकते है. वही एक सर्वोच्च नेता रहीं. बचपन के जो खिलौने होते हैं, वो बाद में हमारे औजार बनते है. जिससे हम चीजों को हैंडल करना सीखते है. क्रिकेट में भी आप देखेंगे, सभी क्रिकेटरों का एनॉलिसिस करके देखेंगे तो आप पाएंगे कि सबसे ज्यादा सस्टेन करने वाले, सबसे ज्यादा टिके रहने वाले कौन खिलाड़ी हैं ? सुनील गावस्कर सारस्वत ब्राह्मण, सचिन तेंदुलकर सारस्वत ब्राह्मण.
--देखिए, दो लोग थे जिन्होंने कहा कि हम आजाद नहीं हुए। एक तो कम्युनिस्टों ने कहा कि हम आजाद नहीं हुए दूसरा हिंदुत्ववादियों ने कहा था। हिंदुत्ववादी ने भी इस आंदोलन में भाग नहीं लिया और कम्युनिस्टो ने भी. कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ अंग्रेजों की मुखबिरी की थी। क्योंकि उस वक्त उनको लगता था कि रूस दुनिया में स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा है तो उसकी मदद करो. तो जिधर रूस है, वो उधर चले गए. हिंदुत्ववादियों को लगता था कि अगर पाकिस्तान को यह देश सौंप कर जाएंगे, टुकड़ा करके तो बाकि टुकड़ा हम हिंदुओं को मिलना चाहिए.
--जब नक्सलियों पर प्रतिबंध लगा तो कुछ पार्टियों ने कहा कि प्रतिबंध लगाना गलत है, क्योंकि हम उनसे राजनीतिक रूप से निपट सकते हैं, ये कहा गया. मैंने तब लिखा कि भाई आप नक्सलाईट से तो राजनीतिक रूप से निपट सकते हैं और इसलिए आप कहते हैं कि उन पर पाबंदी मत लगाओ. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर इस देश में तीन बार पाबंदी लगी, सन 1948 में, सन 1975 में और 1992 में बाबरी मस्जिद के बाद. तब तो किसी लोकतांत्रिक उदारवादी ने उठकर नहीं कहा कि भाई आरएसएस पर पांबदी क्यों लगाते हो. हिंदुत्व से हम विचार से निपटेंगे. हम राजनीतिक रूप से निपटेंगे हिंदुत्व वालों से. नक्सलाईट के बारे में आप कहते हैं क्योंकि नक्सलाईट से आपको सहानुभूति है. अगर इस देश को अपने हिंदुत्ववादियों से सहानुभूति नहीं होगी तो उनको वो वापस मोड़ कर नहीं ला सकते. इसलिए संवाद सबसे जारी रखना चाहिए. वह चाहे नक्सलवादी हो या फिर हिंदुत्ववादी हो क्योंकि इसके अलावा लोकतंत्र में कोई तरीका ही नहीं है.
सती हमारी परंपरा
• मुझको आपका एक बहुचर्चित लेख याद आता है सती प्रथा वाला... मैं यह मानता हूं कि सती प्रथा के प्रति जो कानूनी रवैया है, वो अंग्रेजों का चलाया हुआ है. अपने यहां सती पति की चिता पर जल के मरने को कभी नहीं माना गया. सबसे बड़ी सती कौन है आपके यहां ? सीता. सीता आदमी के लिए मरी नहीं. दूसरी सबसे बड़ी कौन है आपके यहां ? पार्वती. वो खुद जल गई लेकिन पति का जो गौरव है, सम्मान है वो बनाने के लिए. उसके लिए. सावित्री. सावित्री सबसे बड़ी सती मानी जाती है. सावित्री वो है, जिसने अपने पति को जिंदा किया, मृत पति को जिंदा किया. सती अपनी परंपरा में सत्व से जुड़ी हुई चीज है. मेरा सत्व, मेरा निजत्व जो है, उसका मैं एसर्ट करूं. अब वो अगर पतित होकर... बंगाल में जवान लड़कियों की क्योंकि आदमी कम होते थे, लड़कियां ज्यादा होती थीं, इसलिए ब्याह देने की परंपरा हुई. इसलिए कि वो रहेगी तो बंटवारा होगा संपत्ति में. इसलिए वह घर में रहे. जाट लोग तो चादर डाल देते हैं, घर से जाने नहीं देते. अपने यहां कुछ जगहों पर उसको सती कर देते हैं. `
http://www.raviwar.com/ से साभार लिए गए अंश
32 comments:
निश्चित तौर पर प्रभाष जोशी के वक्तव्य घ्रणित मानसिकता का प्रसार कर रहे है। सिर्फ़ विरोध कह देने भर से ऎसी मानसिकतओं का विरोध संभव है क्या ?
एक लम्बी कविता जो ऎसी ही स्थितियों से नाइतिफ़ाकी के चलते लिखी गई थी
(साक्षात्कार, संस्मरण और तुम्हारे विचारवान लेख)
उसका एक अंश रख रहा हूं:
तुम्हारे संस्मरणों में
तुम्हारे पाला बदलने के कारणों को
ढूंढा नहीं जा सकता
किसी उल्लू की आंख से ;
पहाड़ की खोह में
समूचित धूप न पड़ पाने की वजह से
बची हुई थोड़ी-सी बर्फ की
गढ़ी गयी आकृति; ओम
तुम्हारे भीतर
तमसो मां ज्योतिर्गमय का
नाद उत्पन्न कर रही है,
और प्रार्थना में बुदबुदाते
तुम्हारे होठों पर
फड़-फड़ाकर चिपक गया है तमस
तुम्हारी भोली-भाली अदा है निराली;
जो वर्षों से दबी
तुम्हारे भीतर की घृणा के प्रकटीकरण पर
अपनी नादानी का
झूठा सहारा ले रही है
voltair ke tarj parkahunga ki,
"mai kyi bar tumse asahmat hota hu lekin tumhare kahne ke sahas ko salam karta hu"
is mudde par to aapse purn sahmati hai. koi to in murtiyo ke bhitari khokhalepan par dhyan dilaye !!
aapka blog apne blog role me laga rahaa hu ummid hai aapki anumati mil jayegi.
ek bar fir se.....salam
जिद्दी धुन, तुम जिद्दी धुन ही बने रहोगे. अब सर्वोदयी लोगों के पीछे पड़ गए हो! पहले अनुपम मिश्र... पीछे प्रभाष जोशी... ये लोग भेड़ की खाल में भेड़िये हैं जैसा कि तुम कह रहे हो... तो यह समझ लो एक दिन अपने "धर्म" का पालन करते हुए ये तुम्हें उठा ले जाएंगे.
फिर भी तुम्हारे साहस की दाद देता हूँ कि मुन्नाभाई की ताईं लगे रहते हो.
पूरा इन्टरव्यू अभी पढ़ा नहीं है... इन अंशों को पढ़ कर 'अपन' की तो तबीयत झक्क हो गयी भैया... ऐसे बामनन पै तो कोटिन हिन्दू वारिये...
एक बात समझ में नहीं आती कि जोशी जी को यह किस जनसंख्या-विशेषज्ञ ने बताया कि पहले के युग में बंगाल में लड़कियां अधिक होती थीं और लड़के कम?
सुनील
पूरा साक्षात्कार तो पढ़ने पर ही पता चलेगा लेकिन जो अंया उद्धृत किए गए हैं वे प्रभाषजी के चिंतन का पतनशील पक्ष उजागर करते हैं ।
खेदजनक है।
कोई हैरत नहीं हुई भाई धीरेश!
उनसे जातिवादी प्रलाप की उम्मीद नहीं थी !पर उनकी संस्थिति तो उन्हें ही तय करना है !
ये प्रभाष जोशी वहीँ हैं जिनकी फोटो लगी है? 'जोश' में आ गए होंगे.
इस आदमी को लोग क्रिकेट एक्सपर्ट समझते हैं। अब इनसे पूछा जाये कि भईये ये अज़हरूद्दीन,गावर और बायकाट कौन थे? और अश्वेत कालीचरण और सोबर्स? ससुरे टिकना कहां से सीख गये?
पढकर बिलकुल गंगा किनारे के अपने रिश्तेदारों की याद आ गयी जो दही चूरा खाके खटिया पर पादते हुए ऐसे ही ओरिजिनल प्रलाप किया करते हैं।
The article link is here.
http://raviwar.com/baatcheet/B25_interview-prabhash-joshi-alok-putul.shtml
I think it is necessary to read the full article to form an opinion.
I think his cast-theory is outdated, because we do not inherit the physical skills from our parents, each generation has to invent those, and in that respect, the power of muscles and ability of thinking brain is determined more by the personal exposure and opportunities than inheritance.
However, he had also said many things which do not tally with the philosophy of "hindutva", and one should not brand him Under that category. He seems to be more or less advocating for middle ground. His stance on "adivasi" and forging dialogue with people with extreme ideologies, and inclusiveness are positives in this interview.
प्रभाष जोशी के जो विचार आपने उद्धृत किए हैं, वे निश्चय ही प्रतिक्रियावादी लगते हैं, पर गहराई से देखें, तो उनमें से कुछ विचारों के साथ सहमत भी हुआ जा सकता है -
उनका आरक्षण-विरोधी विचार ठीक लगता है। यह देश को बांट रहा है, जोड़ नहीं रहा है। पर बहुत कम लोगों में इसका विरोध करने और इसका विकल्प प्रस्तुत करने का साहस है।
सती के संबंध में उनका विचार नारी-विरोधी और पुरुषसत्ता का समर्थन करनेवाला लगता है, पर सती और अंग्रेजी राज में जो संबंध है, उसकी ओर उन्होंने जो इशारा किया है, वह ऐतिहासित तथ्य है। इसके बारे में डा. रामविलास शर्मा ने विस्तार से लिखा है, राजा राममोहन राय की समीक्षा वाले अपने लेख में। देखिए, उनकी पुस्तक, भारतीय साहित्यि की भूमिका, में राजा राममोहन राय और बंगाल का नवजागरण वाला निबंध। यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन दिल्ली से निकली है।
इस निबंध में अनेक नई बातें स्पष्ट होती हैं, जैसे, राजा राममोहन इतने अंग्रेज भक्त क्यों थे - वे अंग्रेजों द्वारा खड़े किए गए नए वर्ग, यथा जमींदार वर्ग, का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिनका हित अंग्रेजों के साथ जुड़ा हुआ था; सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में बंगाल में सती प्रथा एकदम से क्यों उग्र रूप धारण कर गई - अंग्रेजों ने भूमि-वितरण के जो नए कानून बनाए, उससे इसका सीधा संबंध था, और इसी की ओर प्रभाष जोशी ने भी संकेत किया है। और भी कई बातें डा. शर्मा के इस निबंध से स्पष्ट होती हैं।
सती के मामले में हम अंग्रेजों को और विलियम बेंटिक जैसे लोगों को प्रगतिशील मानते हैं, पर वास्तव में सती प्रथा के लिए जिम्मेदार स्वयं अंग्रेज थे।
मेरा कहना यह है कि लोगों के विचार जैसे भी हों, हममें उनके विचारों को सही कसौटी में परखने की क्षमता होनी चाहिए, और किसी को कोई अप्रिय या भड़काऊ या सरासर गलत विचार रखने मात्र के लिए खटघरे में खड़ा नहीं कर देना चाहिए। यह हमारी बचकानेपन को ही उजागर करता है। इसके बदले हमें उनके विचारों के विश्लेषण करने और सही को ग्रहण करने और गलत को छोड़ने की परख होनी चाहिए।
ये चिरकुट किस्म के लोग तब पैदा नहीं हुए थे जब प्रभाष जी ने संघी कट्टरपन के खिलाफ मुहीम चलाई थी.साथ ही उन्होंने लाल झंडे वालो को भी धोया .
प्रभाष जोशी क्रिकेट को पसंद करते हैं लेकिन इस चर्चित खेल में एक शब्द होता है टेंपरिंग। तो आपने पूरे कथन को बिल्कुल ही गलत संदर्भ में पेश किया है। प्रभाष के कहने के पीछे तात्पर्य है कि जब आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई तो सवर्णों के पास विकल्प सीमित हो गये और निजी क्षेत्र में उन्होंने संभावनाएं तलाशी जिसका परिणाम है कि भारत आज आईटी में शीर्ष पर है। रही बात सती कि तो उन्होंने बताया कि सती तो वह है जो अपने पति की रक्षा करती है। यह तथाकथित सेकुलर कहे जाने वाले लोग नक्सलियों के अधिकारों की ही बात करते हैं इनमें अगर हिम्मत हो तो समाज में मौजूद हर प्रकार के दोषों के खिलाफ बराबरी से आवाज उठाये।
यह हर्ष का विषय है कि अपन के सनातन धर्म के कट्टर पहरुए प्रभाष जोशी के खुले विचारों के समर्थन में इतने सारे हाथ उठ रहे हैं. धीरेश को चाहिए कि अगली बार आनंद मोहन के विचार भी सामने लाएं.
प्रभाष जोशी के उसी साक्षात्कार के कुछ और अंश भी पढ़िए:
आदिवासियों को आप हिकारत की नजर से देखते हैं. समझते हैं कि उनके संसाधनों को लूटे बिना हमारा विकास नहीं हो सकता. पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह कह रहे थे कि 6 करोड़ लोगों को देश में विस्थापित किया गया है, उसमें से 40 प्रतिशत लोग आदिवासी हैं.
ऋग्वेद में 63 शब्द मुंडारी भाषा के हैं. कहां से आ गए वो. वो ऋषि लोग क्या चोर थे, जो उनकी भाषा को उठाकर ले आए. उन ऋषियों के साथ इन मुंडाओं का कितना व्यवहार रहा होगा, वो आप सोचिए. उनके सबसे अच्छे श्लोकों में, उनकी सबसे अच्छी ऋचाओं में मुंडारी शब्द आए.
आज आदिवासी हैं, तो फिर कल दलित हैं, फिर मुसलमान हैं, फिर क्रिश्चियन हैं फिर आपका क्या बचेगा ? सिर्फ ब्राह्मण और राजपूत ? सिर्फ ब्राह्मण और राजपूत क्या ये देश को चला लेंगे ? ब्राह्मण से दिमाग के काम करवा लो लेकिन वो मेहनत के कौन से काम कर सकता है. खेती करके खड़ी कर देगा वो या फिर मजदूरी करके खड़ा कर देगा वो ? उससे नहीं बनेंगे ये काम. राजा से भी नहीं बनेंगे.
धीरेश जैसा कि आपने खुद ही कहा है, इस तरह ''महान राष्ट्र'' की ''महानता'' का पक्ष तो प्रभाष जी पहले से ही लेते रहे हैं। पता नहीं कुछ लोगों को प्रभाष जोशी के इस लेख पर हैरानी क्यों हो रही है।
ya to Prabhash joshi mafi mange ya fir Uday Prakash se mafi mangvane wale vapis jakar Uday Prakash se mafi mangen. Taya hona hai ki Uday prakash aur Rajendra Yadav ke peechhe pad jani ki mul vajah kya hoti hai aakhir ?
जो लोग विचारधाराओं की राजनीति से जुड़ते हैं और बदले में उतना नहीं पाते जितने की आकांक्षा पाले रहते हैं उनके जीवन में इस प्रकार के विचलन आते ही हैं, फिर वे अपना फल किसी और पेड़ से तोड़ने को बढ़ने लगते हैं। इस समस्या का विश्लेषण या विकल्प वे लोग भी प्रस्तुत नहीं कर सकते जिन्होंने अपनी विचारधारात्मक खेमे बंदियां तय कर रखी हैं। प्रभाष जोशी (या कोई भी)इससे पहले अतार्किक बातें करते रहे हों और वे तब इसलिये सुहाती रही हों कि वे अपनी कुतार्किता से मिलती थी।
इसलिये मेरा मत है कि चिंतक की राजनीतिक पक्षधरतायें नहीं होनी चाहिये।
this old man seems to be reincrnation of manu.agar ye patrakarita ke shirshpurush mane jaate hain to ye hamari samuhik samajik asafalta hai.this is not his personal thought he is just represnting the thinking of majority of brahman who worship manu.
अपन जे नहीं समझ पा रहे कि कल तक कुछ हिंदी अखबारों को भ्रष्टाचार के खिलाफ नसीहत देने वाला मालवा का यह सेक्युलर पत्रकार ब्राह्मण कैसे हो गया। भैये, लगता है धारणा बदलनी पड़ेगी।
धीरेश को बधाई, अगर तलाश कर यह न छापते तो इस करतूत का तो अपन को पता इच नहीं चलता।
क्या बात है !! यह देश है वीर जवानों का !!
प्रभाष जोशी ने संघ वालों के खिलाफ उठाई थी और लाल झण्डे वालों को भी धो दिया था ...... अपने ही अखबार में अपनी ही मांद में वो ये सारे वीर रस से भरपूर कारनामे करते रहे हैं।
.......आदिवासीयो को उनका वाजिब हक दिलाने की पैरवी कर दी.....और इसलिए अब उन्हें निकृष्टतम स्तर पर जाकर बाभनवाद को फैलाने का कानूनी और नैतिक अधिकार मिल जाता है !!.....
यह मामला तो एक साक्षात्कार का है इसलिए प्रभाष जोशी के पास सौ चोर रास्ते होगे लेकिन उनमें साहस है तो एक रविवार इसी महान थिसिस पर कागद कारा कर दें। और उसके बाद देखें........
मैं विरोधी लेखक से बहस करके उसके वैचारिक धूर्तता को उजागर करने में विश्वास रखता हूं। लेकिन जो लोग संख्याबल जुटाकर सिग्नेचर कराकर विरोध प़त्र प्रकाशित करते हैं उनको इस मामले पर आगे आना चाहिए। उनकी निष्पक्षता को वक्त के तराजु पर तुलने का वक्त आ गया है।
जो छपा है उस साक्षात्कार को किसी भी संदर्भ-प्रसंग में पढ़ कर देख लीजिए। वो धूर्त बाभनवाद की पैरवी करता दिखता है।
जो लोग प्रभाष जोशी के सत्कर्मों की याद दिला रहें हैं उन्हंे बता दूं कि उनने अपने उन कर्माें का खूब फल खाया है। हिरो बन के रहे हैं। तो धत्कर्मों का फल खाने में उनको और उनके अंध प्रशंसकों को आपत्ति क्यांे है ?
कुछ भोले भाले भक्तों का मानना है कि जो संघ विरोधी है वो सांप्रदायिक या जातिवादी कैसे हो सकता है ?
इन लोगों का सांप्रदायिक कांग्रेसी पण्डितों, कराती पण्डितों की सूची भेजनी पड़ेगी क्या ?
बालसुब्रमण्यम जी
आरक्षण का वैचारिक आधार पर विरोध करना और जातिय आधार पर बौद्धिक कामों में अपनी श्रेष्ठता का दावा और कुत्सित प्रचार करना दोनों दो अलहदा बातें हैं।
दुनिया भर के उल्लुओ को समझ में आ गया लेकिन भारतीय उल्लुओं को नहीं समझ आया कि प्रतिभा का जाति या नस्ल से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसका संबंध तो अवसर और परिवेश से है।
अगर ये बाभन इतने ही अमूर्त चिंतन की खान हैं तो मुझे बताएं कि पिछले सौ साल में उत्तर भारत में कौन सा ब्राह्मण दार्शनिक भारत में पैदा हुआ है जो रसेल,विटगेंस्टाइन,सात्र,माक्र्स का सामने टिक सकेगा। भारत में दार्शनिक पैदा होने बंद हो गए क्या ??
प्रभाष जोशी के महान राजपुत राज चलाने के इतने काबिल होते तो अपनी जीभ से अंग्रजों का जूता न चमकाते। दौ सौ साल देश गुलाम न रहा होता।
प्रभाष जोशी को भारतीय इतिहास की चार आना की भी जाकारी है कि नहीं ? उपनिषद सुनने वाले सभी ब्राहमन थे क्या ? गीता,महाभारत, रामायण, को लिखने वाले क्या था ?
मुद्दा यह है कि प्रभाष जोशी इंटरनेट पर आते नहीं और उनका अखबार उनके खिलाफ लेख का कतर कर लेटर के रूप में छाप देगा !! वरना उन्हें अपने वायवीय दर्शन का करारा मुह तोड़ जवाब मिल गया होता। जिसने बका है जब वही बहस में नहीं है तो हवा से बहस करने का कोई तुक नहीं बनता।
रामविलास शर्मा !!
आप उन्हें पढ़ते हैं तो जानते ही होंगे वो अपने अंत समय में श्रृग्वेद के रास्ते होते हुए सरस्वती सभ्यता को पुरावशेषों में भटकते रहे थे। ........यानि वैचारिक चूक किसी से हो सकती है।
रामविलास जी की भयंकर बौद्धिक भूल के बावजूद मैं कहुंगा राम विलास जी और प्रभाष जोशी में जमीन आसमान का अंतर है। दोनों के प्रतिबद्धता में,दोनों चरित्र में, दोनों के योगदान में। दोनों की किसी तरह तुलना संभव नहीं है।
रही बात अंग्रजों की, तो इण्यिन नेशनल कांग्रेस की स्थापना अंग्रेजो ने ही की थी, भारत का पुलिस कानून,दण्ड विधान.,एकीकरण.... भारत में पोस्ट आफिस,टेªन,रेडियो,फोन लंबी सूची बनाई जा सकती है......इन बातों से कही आप भी मनमोहन सिंह की तरह यह नहीं सोचते कि अंग्रेजों का शासन अच्छा था !!
यानि जरूरी नहीं कि अग्रजों ने अपने हित के लिए जिस काम की शुरूआत की हो उसका अंत उनके हित में हुआ हो !!
काश कि प्रभाष जोशी ब्लाग पर होते !!!!!!
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दुनिया भर के उल्लुओ को समझ में आ गया लेकिन भारतीय उल्लुओं को नहीं समझ आया कि प्रतिभा का जाति या नस्ल से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसका संबंध तो अवसर और परिवेश से है।
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मुद्दा यह है कि प्रभाष जोशी इंटरनेट पर आते नहीं और उनका अखबार उनके खिलाफ लेख का कतर कर लेटर के रूप में छाप देगा !! वरना उन्हें अपने वायवीय दर्शन का करारा मुह तोड़ जवाब मिल गया होता। जिसने बका है जब वही बहस में नहीं है तो हवा से बहस करने का कोई तुक नहीं बनता।
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काश कि प्रभाष जोशी ब्लाग पर होते !!!!!!
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रंगनाथ ने मार्के की बातें कहीं हैं। और इण्टरनेट से इन लोगों की दुश्मनी की वजह क्या है !? इंटरनेट जो वास्तविक लोकतंत्र ला रहा है, वो दिखावटी लोकतंत्र को रास नहीं आ रहा।
जोशी जी तो हो सकता है जोश मे सब कह गये हों. या फिर उन के पास कहने के लिये कुछ बचा न हो इस लिए....
लेकिन इस देश की सत्ताधारी जातियां यही सोच रख्ती हैं. चाहे वो लाल हों, भगवा या तिरंगा... उंकी नज़र मे जो ऊपर उठ गया वोह ब्रह्मण है...अंडर्टेकर , खली, बल्मिकि, माईकल जेक्सन, हिट्लर,दलाई लामा, चे ग्वारा, ब्रूस्ली, लेनिन, ओबमा, मंडेला ,शेर, अज्गर, शार्क सब ब्रह्मण ही तो हैं, नही ?
ताक़तवर को अपनी ओर मिला दो, यही है राज करने की नीति..........
आरक्षण का कितना लाभ हुआ इस देश को कि तमाम ब्रह्मण आई टी एक्स्पर्ट हो गए. (ये भी पता लगा कि समुद्र पार कर के कोई मलेच्छ नही होता ) थेंक्स टू मिस्टेर अम्बेडकर शर्मा.
और माफ करना बतर्ज़ जोशी जी मैं ये सब जातिवादी सोच से प्रेरित हो कर नही कह रहा हूं.
......
प्रभाष जोशी जैसे लोग को जब मौका मिलता है तब अपनी खाल उतर कर खड़े हो जाते है जातिवादी कि घिडित मानसिकता को नए तर्कों से तरफदारी करते है क्या ये कहना चहेते है कि बुधि का ठेका इन्ही के पास है क्या ये बात सकते है कि बाल्मिक ,व्यास भी इन्ही कि बिरादरी के है
आपने सही किया है प्रभाष जोशी के साक्षात्कार पर बहस चलाकर ऐसे विचारों के प्रति जितनर व्यापक चर्चा हो उतना ही हिन्दीभाषी समाज के लिए अच्छा होगा,कादे दोस्तों को गंभीरता के साथ उनके विचारोंकी वैविध्य के साथ आलोचना लिखनी चाहिए,छोटी टिप्पणियों से यह मामला समझ में आने वाला नहीं है,इस तरह के विचारों की परतों को खोला जाना चाहिए।
buddape mein joshi ji sathiya gaye hain
सबसे पहले ये बता दूं की मैं ब्रह्मण नहीं हूँ और ना ही ब्राहमणों को औरों से श्रेष्ट मानता हूँ | फिर भी इतना तो मैंने खुद ही अनुभव किया है की ब्रह्मण दिमाग के तेज और धीरवान होते हैं | मैं बालसुब्रमण्यम जी से सहमत हूँ की "लोगों के विचार जैसे भी हों, हममें उनके विचारों को सही कसौटी में परखने की क्षमता होनी चाहिए, और किसी को कोई अप्रिय या भड़काऊ या सरासर गलत विचार रखने मात्र के लिए खटघरे में खड़ा नहीं कर देना चाहिए। यह हमारी बचकानेपन को ही उजागर करता है। इसके बदले हमें उनके विचारों के विश्लेषण करने और सही को ग्रहण करने और गलत को छोड़ने की परख होनी चाहिए।"
प्रभाष जी कहते हैं कि सिलिकॉन वैली नहीं होती अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं होता. दक्षिण के आरक्षण के कारण ब्राह्मण अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन है या चेयरमेन इंडियन है या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है.
(ब्राह्मण और इंडियन क्या समानार्थी शब्द हैं ?)
ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है. क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है.
(क्या ब्रह्म अव्यक्त है ? क्या सब कुछ, यह संसार, सृष्टि, प्रकृति, सारा स्थूल जगत, यह दृश्यमान कायनात जिसके हम सब हिस्से हैं, स्वयं ब्रह्म उपासकों के ही अनुसार, उसी ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति नहीं ?)
जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारिरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं. यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं.
(IT में वायवीय क्या है ? उसमें अमूर्त क्या है ? उसमें आकाशीय या काल्पनिक क्या है ?
ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं. इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ. आईटी में वो इतने सफल हुए.
(IT में क्या अव्यक्त है ? क्या अभौतिक है ? क्या अयथार्थ है ? जोशी जी कुछ भी नहीं बताते. कोई तर्क नहीं देते. बस उन्होंने अपने आप फैसला कर दिया है कि आईटी वायवीय, अव्यक्त, अमूर्त, आकाशीय या अवास्तविक या काल्पनिक कोई चीज़ है. इससे साबित होता है कि वो न तो ब्रह्म के बारे में कुछ जानते हैं न आईटी के.
राकेश रेनू
(पिछले पत्र से आगे)
शायद जोशी जी की समझ यह है कि केवल स्थूल और दृश्यमान ही भौतिक, यथार्थ, व्यक्त और वास्तविक होता है. जो आँखों को नज़र नहीं आता वह अभौतिक, अयथार्थ, अव्यक्त, अवास्तविक, काल्पनिक, आकाशीय इत्यादि होता है.
आईटी की प्रक्रियाएं इलेक्ट्रॉनिक स्तर पर चलती हैं. जब कंप्यूटर पर कुछ क्लिक किया जाता है, तो उसकी माइक्रोचिप्स में कोई भी हरकत या परिवर्तन मानवी आँखों को नज़र नहीं आती/आता, क्योंकि सारी हरकतें इलेक्ट्रॉनिक स्तर पर होती हैं. लेकिन एलेक्ट्रोंस शायद जोशी जी के विचित्र तर्कों के अनुसार अभौतिक, अयथार्थ, अव्यक्त, अवास्तविक, काल्पनिक, और आकाशीय इत्यादि होते हैं. इसलिए आईटी अभौतिक, अयथार्थ, अव्यक्त, अवास्तविक, काल्पनिक, आकाशीय इत्यादि है.
इसी तरह वे ऊर्जा, चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण इत्यादि को भी अभौतिक, अयथार्थ, अव्यक्त, अवास्तविक, काल्पनिक, आकाशीय इत्यादि समझते होंगे.
जोशी जी के तर्क के अनुसार ब्राह्मण उन पेशों के लायक नहीं जहाँ स्थूल, दृश्यमान, भौतिक, शरीरी, ज़मीनी और वास्तविक चीज़ों से पला पड़ता है. जैसे मैकेनिकल इन्जीनीरिंग, मैनेजमेंट, चिकित्सा, बैंकिंग, उद्योग, व्यापार, राजनीति, प्रशासन वगैरह. तो इन सारी जगहों से क्या ब्राहमणों को निष्कासित कर दिया जाना चाहिए ? केवल हवाई और अमूर्त चिंतन और आईटी में ही उनकी जगह होनी चाहिए ?
जोशी जी को सलाह : कृपया भविष्य में कुछ कहने से पहले बार बार सोचें, जो कहने जा रहे हैं उसकी सारी परिणतियों, प्रभावों और परिणामों के बारे में. पब्लिक डोमेन में कोई
भी बात पूरी गंभीरता और जिम्मेदारी से कही जानी चाहिए. यह नहीं कि मुंह फाड़ कर कुछ भी बक दिया.
प्रभाष जी कहते हैं कि सिलिकॉन वैली नहीं होती अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं होता. दक्षिण के आरक्षण के कारण ब्राह्मण अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन है या चेयरमेन इंडियन है या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है.
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आरक्षण से पहले दक्षिण भारत में ब्राहमण क्या कर रहे थे !? घुईयां छील रहे थे !? तब क्यों नहीं उन्होंने यहीं पर बना ली सिलीकोन वैली !? अगर अमेरिका में थोड़ा-सा कुछ कर भी लिया तो इसमें ज़्यादा-सा योगदान ब्राहमणों का माना जाए या अमेरिका का ?
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