मेरा जीवन
नाक की दिशा में दौड़ाता है
कान, आँख
सिर, मुँह
कुछ नहीं
नाक की दिशा में दौड़
हाथ, पाँव
पेट, पीठ
कुछ नहीं
नाक की दिशा में दौड़
पीठ की दिशा में अन्धकार है
पेट की दिशा में दौड़
मेरा जीवन कहता है
नाक की दिशा में दौड़
मेरा जीवन कहता है
क्या करता है?
नाक की दिशा में दौड़
मेरा जीवन कहता है
आएँगे कई कई मोड़
नाक की दिशा मत छोड़
***
यह कविता ८० के दशक की एक पुरानी पत्रिका `कथ्य` में उनकी दो अन्य कविताओं के साथ छपी थी। यह सुखद है कि विष्णु नागर निरंतर सक्रिय हैं। उनका नया कविता संग्रह `घर के बाहर घर` इसी महीने पुस्तक मेले तक आ रहा है।
10 comments:
अच्छी कविता
अच्छा लगा विष्णु नागर जी को पढ़कर.
बेहतरीन कविता
८० के दशक में नागर जी ने नाक की दिशा की अंतहीन दौड़ को पहचानकर यह रचना की थी , पहले भी हमारी पीढ़ियां नाक की सीध में दौड़ती रही हैं , पर आज हम अपने बच्चो कोतो जैसे नाक की दिशा में स्वतः दौड़ने का मौका तक नही दे रहे , बल्कि उन्हें तेजी से और तेजी से भगा रहे हैं ... इस चक्कर में कही न कही लगता है कि कुछ दिशा भ्रम भी हो चला है .
jaankari ke liye shukriya
मेरा जीवन कहता है
आएँगे कई कई मोड़
नाक की दिशा मत छोड़।
.............
अद्भुत-अद्भुत।
वाह…
vaah
मेरा जीवन कहता है
आएँगे कई कई मोड़
नाक की दिशा मत छोड़।
सीधी सपाट और यूनिवर्सल बात को कविता में ढ़ाल देना...वाह!
विष्णउ जी की जीजीविषा अनुकरणीय है...
वाह कथ्य के पुराने अंक से खोजकर निकाली है आपने नागर जी की यह कविता ..मतलब साहित्य के पुरातत्ववेत्ता आप भी है ।
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