इस देश की जनता के स्वाभिमान को नष्ट करने के नए नए कीर्तिमान बनाने वाली यूपीए सरकार ने फिर एक नया कारनामा किया। उसकी संस्कृति मंत्रालय ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसंग की खैरात बांटने के काम में देश की साहित्य अकादमी को ही लगा दिया। साहित्य अकादमी को सैमसंग के प्रचारक की भूमिका में खड़ा कर दिया गया। जनसत्ता में कवि विष्णु खरे के लेख छपने के बाद से ही लेखकों में साहित्य अकादमी और सैमसंग के बीच हुए इस गठजोड़ को लेकर बहस शुरू हो गई थी। बहुत जल्दी नाम और यश हासिल कर लेने के लिए आतुर कुछ नए लेखकों ने इस गठजोड़ के पक्ष में कुतर्क दिया, मगर आम तौर पर इसके प्रति लेखकों में एक विरोध भाव ही देखा गया। 13 दिसंबर को जसम, दिल्ली ने अपने सम्मेलन में इसके विरोध में प्रस्ताव लिया। मगर पूंजीपरस्ती और साम्राज्यवादपरस्ती किस हद तक बेशर्म और अलोकतांत्रिक बना दे देती है, इसका नमूना 25 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस के एक दिन पूर्व दिखा। नामवर सिंह, कृष्णा सोबती, महाश्वेता देवी, मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, मंगलेश डबराल, मुरली मनोहर प्रसाद जैसे कई वरिष्ठ लेखकों ने साहित्य अकादमी की स्वायत्ता और उसके संविधान के विरुद्ध बताते हुए विरोध में अपने बयान दिए थे, लेकिन उनके विरोध की भी अनदेखी करते हुए ओबेराय होटल के बालरूम में हिंदी समेत आठ भाषाओं के लेखकों को टैगोर लिटरेचर अवार्ड के बतौर सैमसंग की ओर से 91-91 हजार रुपये दिए गए। मगर धन के बल पर दुनिया की हर चीज की सरपरस्ती का घमंड पालने वाले अंदर से कितने डरे होते हैं यह नजारा भी उस रोज दिखाई दिया। जसम, दिल्ली ने पुरस्कार समारोह के मौके पर ओबेराय होटल के बाहर मानव श्ाृंखला बनाने की घोषणा की थी। मगर पुरस्कार वितरण करने वाली कोरिया के राष्ट्रपति की पत्नी की सुरक्षा का बहाना बनाकर पुलिस के आला अधिकारियों ने 24 जनवरी की देर शाम अचानक इस विरोध कार्यक्रम को इजाजत देने से मना कर दिया। तब आनन-फानन में रात में ही लेखकों को सूचित किया गया कि मानव श्ाृंखला साहित्य अकादमी के बाहर आयोजित की जाएगी। 25 जनवरी को ओबेराय होटल के पास तो भारी पुलिस का जमावड़ा था ही, साहित्य अकादमी के पास भी पुलिस की इतनी बड़ी तादाद मौजूद थी, मानो किसी बड़े आक्रामक जनसमूह द्वारा वहां हमले का आशंका हो। वैसे तो बहुत सारे आमंत्रित लेखकों ने समारोह का बहिष्कार किया, पर कुछ ‘महान’ लोग जो वहां पहुंचे उन्हें भी सैमसंग के दरबार में पहुंचने के लिए देर तक इंतजार करना पड़ा। आमंत्रण पत्र होने के बावजूद कई पत्रकारों को अंदर जाने की इजाजत नहीं दी गई। दैनिक भास्कर में अनिरुद्ध शर्मा ने लिखा कि विदेशी कंपनी का साया ऐसा था कि साहित्य अकादमी के पदाधिकारी एक तमाशबीन की तरह पत्रकारों की बेइज्जती का नजारा देखते रहे।
जिस वक्त पत्रकारों और साहित्यकारों को अपमानित करने का सिलसिला जारी था और अंदर समारोह में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय सैमसंग के खैरात के जरिए क्षेत्रीय भाषाओं के लेखकों के हित का सपना दिखा रहे थे और इस तरह के और भी गठबंधन करने के दावे कर रहे थे, उसी वक्त पुश्किन की मूर्ति (साहित्य अकादमी) के पास साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी अकादमी की स्वायत्तता और उसके लोकतांत्रिकरण के लिए संघर्ष चलाने का संकल्प ले रहे थे। उनके हाथों में और गले में तख्तियां थीं जिनपर नारे और रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण थे- ‘साहित्य अकादमी की स्वायत्तता चाहिए, किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की भीख नहीं’, ‘साहित्य अकादमी को किसी कंपनी का एड-एजेंसी मत बनाओ’, ‘सोनिया-मनमोहन संस्॥ति मंत्रालय को मत बेचो’ तथा ‘चिड़िया के पंखों को सोने से मढ़ दो,बस। फिर वह कभी उड़ नहीं सकेगी’, ‘ अंधकार प्रकाश की ओर बढ़ता है लेकिन अंधापन मृत्यु की ओर’, ‘उच्च कोटि के मानव समाजों का निर्माण मुनाफाखारों द्वारा नहीं होता है। वह तो स्वप्नद्रष्टाओं द्वारा होता है। वे करोड़पति जो ढेर-ढेर मात्रा में माल-असबाब का उत्पादन करते हैं, उन्होंने अभी तक एक भी सभ्यता का निर्माण नहीं किया है।’
इस मौके पर वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने कहा कि अब यह साफ हो गया है कि इस शर्मनाक पुरस्कार के पीछे प्रधानमंत्री स्वयं हैं। साहित्य अकादमी को एक तरह से सैमसुंग के हाथों बेच दिया गया है। इस प्रधानमंत्री के मन में साहित्य, कला, संस्कृति के लिए कोई सम्मानजनक भाव नहीं है। सैमसंग और साहित्य अकादमी के बीच यह संबंध कालाबाजारी, बेईमानी और भ्रष्टाचार को तरजीह देने के समान है। इसके खिलाफ लेखकों को संघर्ष तेज करना चाहिए। जसम दिल्ली के अध्यक्ष कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि उन्हें जिस साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिल चुका है उसी संस्था का एक विदेशी कंपनी के समक्ष समर्पण शर्मनाक है। इस पुरस्कार का निर्णय और पूरी प्रक्रिया ऐसी रही है जैसे किसी अंडरवल्र्ड के जरिए इसे संचालित किया जा रहा हो। खतरनाक यह है कि यह पुरस्कार साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में तमाम विदेशी कंपनियों के लिए रास्ता खोल देगा। समयांतर पत्रिका के संपादक और कथाकार पंकज बिष्ट ने कहा कि दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं है जिसकी अकादमियों में किसी विदेशी कंपनी का दखल है। इस पुरस्कार के जरिए साहित्य की गरिमा और स्वायत्तता को चोट पहुंचाई गई है। आज जरूरत यह है कि लेखक अपने को संगठित करते हुए अकादमियों के ढांचे को स्वायत्त और लोकतांत्रिक बनाएं। उद्भावना पत्रिका के संपादक अजेय कुमार ने कहा साम्राज्यवाद विरोधी साहित्य की गौरवशाली परंपरा को आघात पहुंचाने वाला है यह पुरस्कार। इसके जरिए आर्थिक क्षेत्र में सरकार का जो एजेंडा है उसे संस्कृति के क्षेत्र में लागू किया गया है। कवि रंजीत वर्मा ने कहा कि इस शर्मनाक पुरस्कार ने साहित्यिक संगठनों को और भी मजबूत बनाने की जरूरत को सामने ला दिया है। अधिवक्ता रवींद्र गढ़िया ने कहा कि यह सरकार का दिवालियापन है जो साहित्य संस्॥ति के लिए स्पांसर तलाश रही है। कवि मुकुल सरल ने कहा कि सरकार अपनी साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के लिए साहित्य में समर्थन जुटाने के लिए ऐसा कर रही है। हिंदी साहित्य के अध्येता छात्र नेता अवधेश ने कहा कि इस चारण-भांटों की संस्..ति के खिलाफ लेखकों के संघर्ष में छात्रों की भूमिका भी सुनिश्चित की जाएगी। सुधीर सुमन ने कहा कि गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर इस सम्मान समारोह को आयोजित करके सरकार ने यही संकेत दिया है कि वह जबरन अपना साम्राज्यवादपरस्त एजेंडा साहित्य में लागू करेगी, लेकिन देश के साहित्यकारों की बड़ी आबादी जो अपने और अपने समाज के जीवन संघर्ष को रचनाओं मे दर्ज कर रही है, उसका इस एजेंडे से स्वाभाविक टकराव है। ऐसे लेखकों की एकजुटता जरूर बनेगी। जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह ने कहा कि यह सिर्फ साहित्यकारों का मामला नहीं है, बल्कि जनता के पैसे से चलने वाली एक स्वायत्त संस्था का कारपोरेट के हित में इस्तेमाल का मामला है। अतः इस संघर्ष के साथ व्यापक लोगों को जोड़ना होगा। मानव श्ाृंखला में वैभव सिंह, कुमार मुकुल, सुनील सरीन, अलका सिंह, रमन कुमार सिंह, अंजनी कुमार, रामजी यादव, भूपेन, धर्मेंद्र सुशांत, कपिल शर्मा, रंजीत अभिज्ञान, आलोक, योगेंद्र आहूजा, अच्युतानंद मिश्र आदि भी मौजूद थे। आगामी विश्व पुस्तक मेले में इस मुद्दे को साहित्यकारों औेर पाठकों तक ले जाने तथा उनको एकजुट करने, हस्ताक्षर अभियान चलाने, पर्चा बांटने और तमाम साहित्यिक सांस्कृतिक संगठनों को एक मंच पर लाने की कोशिश की जा रही है।
सैमसंग-साहित्य अकादमी का यह टैगोर लिटरेचर अवार्ड हो या सरकार द्वारा गणतंत्र दिवस पर घोषित पद्मश्री वगैरह पुरस्कार, इनके चुनाव की प्रक्रिया से भी यह अंदाजा लगता है कि इसमें किसी को सम्मानित करने के बजाए सरकार या कंपनी का प्रचार ही मूल मकसद रहता है। इसी कारण अक्सर दिवालिये या विवादास्पद किस्म के निर्णय लिए जाते हैं। ऐसा ही इस बार हुआ 1995 में पद्मश्री ठुकराने वाले वरिष्ठतम गीतकार जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ, उन्हें एक बार फिर सरकार की ओर से पद्मश्री का खैरात दिया गया। इससे उन्होंने अपमानित महसूस किया और उसे पद्मश्री अमपान बताकर वापस कर दिया। यह केंद्र सरकार के साथ नीतिश सरकार को भी दिया गया करारा जवाब है जो हर चीज का इस्तेमाल बिहार विकास के छद्म की ब्रांडिंग के लिए करने को उतावली है। यह भी सवाल नहीं है कि पद्मविभूषण मिलता तो वे ले लेते या नहीं। यह वही जानकी वल्लभ शास्त्री हैं, जिनकी कविता बिहार की राजधानी पटना और हाजीपुर को जोड़ने वाले गांधी सेतु पर अंकित है, जिसे उन्होंने उसके निर्माण में अपना जीवन लगा देने वाले मजदूरों के लिए लिखी थी और जब उस कविता के लिए सरकार ने उन्हें पुरस्कार देना चाहा तो यह कहकर उन्होंने मना कर दिया था कि पुरस्कार तो मजदूरों को मिलना चाहिए। एक ओर जानकीवल्लभ शास्त्री हैं और दूसरी ओर सैमसंग के दरबार में साहित्यकारों का हित तलाशने वाले लोग। आज साहित्यकारों के लिए यह सवाल है कि वे किसकी परंपरा के साथ खड़े होंगे?
यह मेल जसम की ओर से मिला है। हालाँकि इस बारे में कुछ अन्य ब्लॉग भी जानकारी दे चुके हैं पर विषय की गंभीरता के नाते इसे यहाँ भी दिया जा रहा है। (लेखकों के अलावा सजग नागरिकों से भी इस मसले पर विरोध की अपेक्षा के साथ)
8 comments:
विरोध बिलकुल करेंगे, लेकिन अलग-अलग… आप अपने "साथियों" के साथ कीजिये, हम अपने साथियों के साथ करेंगे…। यह दो धाराएं हैं कांग्रेस विरोध की, जो कभी मिल नहीं सकेंगी और कांग्रेस इसी तरह मजे मारती रहेगी…
kitna khatarnaq hai ye sajish ?
‘चिड़िया के पंखों को सोने से मढ़ दो,बस। फिर वह कभी उड़ नहीं सकेगी,'
यह कितना बड़ा सच है धीरेश भाई
मै पुस्तक मेले जा रहा हूं…सुधीर से भी बात करुंगा और कुमार मुकुल से भी। ऐसा कोई भी अभियान चलता है तो मेरा उसे पूरा समर्थन होगा।
वैसे सुरेश जी निश्चिंत रहें उनके 'साथी' न अभी कोई विरोध कर रहे हैं न आगे करेंगे।
यह कांग्रेस नहीं पूंजीवाद विरोधी और सर्वहारा पक्षधर धारा है जिसका विरोध और संघर्ष का गौरवशाली इतिहास रहा है। शायद यह पुरस्कार ही इसके हालिया विचलन के दौर में विरोध का एक कामन प्वाइंट बने। यह लोलुप और प्रतिबद्ध लेखकों की विभाजक रेखा को और स्पष्ट करेगा।
पुरस्कारों की संस्कृति के सन्दर्भ में मैंने जो चिट्ठा [punarvichar.blogspot.com ] लिखा, उस पर मृत्युंजय की यह टिपण्णी बार बार दुहराए जाने ने लायक है -
'संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून,
अब तक छुपे हुए थे उनके दांत और नाखून,
नहीं किसी को दिखता था दुधिया वस्त्रों पर खून,
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून !!
अजी समझ लो उनका अपना नेता था जयचंद,
हिटलर के तम्बू में अब वे लगा रहे पैबंद,
तक्षक ने सिखलाये इनको सर्प नृत्य के छंद,
अजी समझ लो उनका अपना नेता था जयचंद!!
(बाबा ने इन खानदानी लोगो को क्या खूब पकड़ा था'
vishnu khare ji ne sabse pahle is dushchakra ko pahchana thaa. tab unki soochna par shanka karne wale nikal aaye the aur unmein kuchh kee baat mujhse bhi hui. maine is bare mein vijay gaud ke blog par tippani mein likha thaa. sahitya akadami ka yah nanga sach ab sabke saamne hai, ab ve shankalu jan kuchh kahenge ki nahin, pata nahin. desh ke sahitya sanskriti ko bech khaane ke is poore duchakra ka ham sab virodh karte hain. un sabhi lekhkon ko salaam jo virodh ke liye wahan maujood the.
पूँजीवाद कि महिमा इतनी अपरम्पार हों जाएगी इसको सोचना मुश्किल था !
नाक़ाबिले बर्दाश्त
हूँ....हूँ..... हूँ.....हुई, हुई, हुई....
कुछ बात हुई. पुरस्कार! जिस का एक मतलब है प्रतिफल!
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