मेरे दस सिर हैं
क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ
मेरे बीस हाथ हैं
क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ
मैंने सीता का अपहरण किया है
क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ
सोने की लंका मेरी राजधानी है
क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ
मुझे खाक में मिला दिया जाएगा
क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ
लेकिन मेरी तुलना रावण से करना भी ज़्यादती है
क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ
मेरी क्या हैसियत
कि मैं अट्टहास कर सकूँ
मेरी क्या हस्ती
कि मैं सीता का अपहरण करने की सोच भी सकूँ
मैं हूँ क्या
जो सोने की लंका में रह सकूँ
मैंने ऐसा किया क्या जो तुलसी के राम के हाथों
मरने की कल्पना भी कर सकूँ
क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ
***
विष्णु नागर की यह कविता उनके नए संग्रह `घर के बाहर घर` से ली गई है. इस संग्रह की कुछ कवितायेँ यहाँ भी देखें.
57 comments:
main chutiya hoon kyunki main vishnu nagar HOON !!
सलीम खान साहब, आपने जिन शब्दों का इस्तेमाल यहां किया है, जवाब में आपके लिए मैं या कोई और वह शब्द तो नहीं कहना चाहेगा। लेकिन आपकी अक्ल पर तरस आता है।
आप शायद इस कविता को समझ नहीं सके। अगर ऐसा है तो इसमें आपकी गलती नहीं है लेकिन किसी चीज को बिना समझे बकवास करना अच्छा नहीं लगता।
आप विष्णु नागर जी के बारे में न तो ठीक से जानते हैं और न ही कोशिश की।
दूसरी बात- इस ब्लॉग को चलाने वाले धीरेश सैनी के बारे में भी शायद आप अच्छी तरह नहीं जानते। आपने एम.एफ.हुसैन के बारे में धीरेश की नीचे वाली पोस्ट भी नहीं पढ़ी। अगर पढ़ी होती तो इस तरह की टिप्पणी नहीं करते। अगर आप ब्लॉगर हैं तो ऐसी भाषा के इस्तेमाल करने से वैसे भी बचें।
अच्छा पढ़ा करें, निश्चित रूप से अच्छे विचार आएंगे।
समय निकालकर मेरे ब्लॉग पर भी आएं।
सलीम खान साहब, आपने जिन शब्दों का इस्तेमाल यहां किया है, जवाब में आपके लिए मैं या कोई और वह शब्द तो नहीं कहना चाहेगा। लेकिन आपकी अक्ल पर तरस आता है।
आप शायद इस कविता को समझ नहीं सके। अगर ऐसा है तो इसमें आपकी गलती नहीं है लेकिन किसी चीज को बिना समझे बकवास करना अच्छा नहीं लगता।
आप विष्णु नागर जी के बारे में न तो ठीक से जानते हैं और न ही कोशिश की।
दूसरी बात- इस ब्लॉग को चलाने वाले धीरेश सैनी के बारे में भी शायद आप अच्छी तरह नहीं जानते। आपने एम.एफ.हुसैन के बारे में धीरेश की नीचे वाली पोस्ट भी नहीं पढ़ी। अगर पढ़ी होती तो इस तरह की टिप्पणी नहीं करते। अगर आप ब्लॉगर हैं तो ऐसी भाषा के इस्तेमाल करने से वैसे भी बचें।
अच्छा पढ़ा करें, निश्चित रूप से अच्छे विचार आएंगे।
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सलीम भाई आपका दिमाग तो नहीं खराब हो गया है , आपको किसी के लिए ऐसे शब्दो का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
सलीम खान साहब मुझे अफ़सोस है कि आपने कविता को समझे बगैर कवि पर नितांत व्यक्तिगत टिप्पणी कर डाली है ! अगर कोई बात पल्ले न पड़े तो उस पर टिप्पणी कैसी ? कवितायें क्या सपाट बयानी हुआ करती हैं ? ख्याल था कि आप सबक सीखने वाले इंसान हैं लेकिन शायद मैं गलत हूँ !
एक उम्मीद फिर भी कि आप इसे वापस लेकर खेद जतायेंगे !
सलीम साहेब आप इतने मंद बुद्दी के होंगे , हमने तो कभी सोचा भी नहीं थ. मगर क्या करे Aapki सोच कभी हिन्दुस्तानी तो रही नहीं है.
मेरी क्या हैसियत
कि मैं अट्टहास कर सकूँ
मेरी क्या हस्ती
कि मैं सीता का अपहरण करने की सोच भी सकूँ
मैं हूँ क्या
जो सोने की लंका में रह सकूँ
मैंने ऐसा किया क्या जो तुलसी के राम के हाथों
मरने की कल्पना भी कर सकूँ
क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ
अंदर का दर्द छलक आया है ।
Taras aata hai saleem ki soch par... ki musalman bhaiyon par hone wali jyadatiyon ke virodh me likhi ek vyangya kavita ko bhi na samajh sake.. Vishnu ji ne to achchhe aur sachche muslimon ka dard hi ukera tha.. kamaal hai ji.. ab aur kya samjhenge??
बढ़िया कविता.
पहले भी पढ़ी है कहीं..
saleem khan aapko maafi mangni chahye. pahle kavita ko samjho phir kuch kaho.
सलीम खान से कविता को समझने में भूल हुई है और उन्होंने सोचे-समझे बिना तात्कालिक रूप से टिप्पणी की है. उनकी भाषा निश्चय ही आपत्तिजनक है. यह आसान था कि मैं इस टिपन्नी को हटा देता पर इससे उन्हें लग सकता था कि वे सही सोच रहे हैं और इस कमेन्ट को घबराकर हटा दिया गया है. फिर मैंने इस कविता को तुरंत दो वरिष्ठ कवियों असद जैदी और मनमोहन को भी सुनाया और इस कविता के साम्प्रदायिकता विरोधी होने की अपनी समझ की पुष्टि ही हुई.
दूसरी बात सलीम खान को लेकर आए कुछ कमेन्ट को लेकर है. एक में `अच्छे और सच्चे मुस्लिमों` शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. ये बहुत आपत्तिजनक टर्म है और निश्चय ही संघ परिवार की बनायी साम्प्रदायिक भाषा का हिस्सा है. तारकेश्वर गिरी का कमेन्ट भी सांप्रदायिक विष वमन का उदाहरण है और ये कविता ऐसे ही लोगों पर गहरा तंज़ है. सलीम खान को लेकर गली-गलौज भरी एक टिपन्नी मैं हटा रहा हूँ. बेहतर हो गली के बजाय इस कविता पर और उस मानसिकता पर बात की जय जिसकी तरफ ये कविता इशारा करती है.
यार धीरेश भाई क्यूं लगाते हो ऐसी पोस्टें! यहां बहुत कम लोग हैं जो अपना दिमाग़ लगाते हैं। तुर्रम खानों और महानों की एक पूरी फ़ौज़ है जिसके पास इकलौती योग्यता है की बोर्ड पर उंगलियां चलाने की और इस योग्यता के बल पर धीरेश या अशोक की तो औकात ही क्या वे विष्णु नागर को गाली दे सकते है और हुसैन को यौन कुठिंत बता सकते हैं। और अगर आपने उन्हें कुछ कहा तो हर संभव तरीके से आपको भी गालियां दे सकते हैं। कविता पढ़कर मन उद्वेलित हुआ था कमेंट पढ़कर उदास
पहली टिप्पणी के बाद बाकी टिप्पणियाँ बहुत संयम, उदारता एवं गरिमा के साथ की गई हैं। इनका स्वागत है। लेकिन इसका कारण कहीं यह तो नहीं कि पहली टिप्पणी किसी सलीम खान द्वारा की गई है ? जो कविता को समझने की बात करते हैं बेहतर होता वे उसे समझाते तो शायद सलीम समझते और अपनी गलती समझकर माफी माँगते। लेकिन बयानबाजी के अलावा शेष टिप्पणीयों में भी कविता के पक्ष में कोई रचनात्मक योगदान नहीं है।
थोडे दिन पहले आप सबने एक शेर पढ़ा होगा..
हमें तो इतना पता था कि ये सलमान का घर है
वो बोले कि नहीं मुसलमान का घर है (पूरे सही शब्द याद नहीं है इसके लिये क्षमा चाहता हूँ)
बहुत ही अच्छी कविता ..
एक कौम के दर्द को उकेर गई है..
Vishnu Nagar ji ne kya sochkar musalman aur ravan ko gutham-gutha kiya hai yeh to vahi janen lekin "jai ram ji" se "jai shriram" ke sankraman-kal ki sanskritik gundagardi ko aaina dikhane men kamyab rahe hain.Badhai.
बहुत अच्छी कविता! सलीम खान का कमेंट हटाने की क्या जरूरत है जी! लगा रहन दो। सलीम जी जित्ती समझ उन्होंने उत्ती बात कर दी।
सलीम खान ने इस कविता पर होने वाली बात को अपनी तरफ़ मोड़ दिया।बात इस कविता पर होनी चाहिये ना कि सलीम पर।कविता आज की कड़ुवी सच्चाई को सामने रख रही है।
कविता ईमानदार मुसलमान के दिल का दर्द कहती है !!
aur beimaan hinduon ki haramkhori ko bhi kholti hai Pragya Ji
छोड़िये यह सब श्री विष्णु नागर के कविता संग्रह " हँसने की त्रह रोना " से यह पंक्तियाँ लीजिये
" वह ईश्वर के लिये मर मिटा
क्या ऐसा हो सकता है कि
किसी दिन ईश्वर भी उसके लिये मर मिटे ?"
दो जवाब...............
शरद जी,
लो जवाब ........
1. यहाँ जयपुर में मैं अपने स्वार्थ या मूर्खता में आप के लिये मर मिटूँ तो क्या आप भी मेरे लिये मर मिटेंगें?
2. ईश्वर कब मनुष्य के लिये नहीं मर मिटा है ?
3. ऐसा सवाल वही कर सकता है जिसको ईश्वर का मर मिटना दिखाई नहीं देता यानि अंधा है।
4. मनुष्य को किसने दे दी इतनी क्षमता कि वह मर मिटे ? जो उसके लिये आग बना, पानी बना, हवा बना, माटी बना, आकाश बना उसका मिटना तो दिख ही नहीं रहा।
5. ईश्वर के किस काम के लिये वह मर मिटा, इसके लिये ईश्वर ने उसे कब कहा ?
आप दें जवाब.....
उक्त कविता कैसे मुसलमानों का, या मानवता का भला करती है? इसकी रचनात्मक विशेषता क्या है?
मुसलमानों के हत्यारों के खिलाफ या क्या मुसलमानों के खून चूसने वालों का गिरोह नहीं है ?
यह किन उदात्त मूल्यों की सर्जना करती है ? पहले इस कविता को आप जैसा समझते हैं वैसा समझा दें तो बात आगे बढ़े।
कम से कम इतना तो आपने माना की मुसलमान भी बेईमान हों सकते हैं .
्मुझे मार्क्स की एक टिप्पणी याद आती है ' एक व्यक्ति के रूप में कोई सर्वहारा भी उतना ही पतित हो सकता है जितना कि कोई बुर्ज़ुआ पर इतिहास ने एक वर्ग के नाते उस पर इतिहास के क्रांतिकारी रुपांतरण का दायित्व सौंपा है।' उसी तरह एक व्यक्ति के तौर पर मुसलमान कुछ भी हो सकता है लेकिन एक समूह के रूप में उसके साथ सत्ता और बहुसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले लोग निश्चित तौर पर सौतेला व्यवहार कर रहे हैं।
प्रीति्श भाई सच में आप अगर मुश्किल में हों तो आपको बचाने के लिये आपके दोस्त मर-मिटेंगे।
वैसे बताईये कब इश्वर मरमिटा है? जब दंगो में उसके नाम पर लाशें गिरीं तो वह कहां था? जब भूख से बिलबिलाते बच्चों ने दम तोड़ा तब और जब किसी औरत को हिंस्त्र मानवपशुओं ने अपमानित किया तब? अगर मनुष्य की क्षमता किसी से मिलनी ज़रूरी है तो उस इश्वर को क्षमता किसने दी? मुझे किसी इश्वर का मर-मिटना दिखाई नहीं देता पर दुनिया में अन्याय और शोषण साफ़ दिखता है-- उस कथित इश्वर को क्यूं नहीं दिखता? ईश्वर हो तब ना कहे? कहते तो उसके नामपर लिखे ग्रंथ हैं जिनमें गहरे तक नफ़रत अऔर गैरबराबरी भरी है।
प्रीतेश बारहठ जी, शायद आप भी वही दुहरा रहे है जो हमारे सलीम खान जी कर गए ! यहाँ पर जिन पंक्तियों को शरद जी ने उद्घृत किया उसमे कवि ने मुसलमानों पर चोट की है यह कहते हुए कि तुम अथवा तुम्हारे धर्मगुरु कहते है (या अपने स्वार्थो के लिए अशिक्षित मुसलमानों से बहकाते है) कि तुम अल्लाह के बन्दे हो,अल्लाह पर मर मिटो ! ...... उस बात पर ये लाईने लिखी गई है............................................................ शायद !:)
केवल मुसलमानों पर नहीं सभी धर्मों के धर्मगुरुओं पर यह तीखी टिप्पणी है गोदियाल साहब!
आदरणीय पाण्डेय जी ,
जहां तक मैं समझता हूँ, स्वार्थी हिन्दू धर्म गुरु या हिन्दू धर्म अपने आगे लिखने वाले लोग तो शायद ही भगवान के लिए मर मिटने की बात सोचते होंगे
नहीं गोदियाल जी… संघी स्कूलों में अपने विद्यार्थी जीवन के अनुभव और गुजरात दंगो के प्रत्यक्षदर्शी होने के कारण मैं हिन्दु धर्म के धुरंधरों के हत्यारे रूप के बारे में बहुत विश्वास पूर्वक कह सकता हूं। इतिहास में जायें तो बौद्धों के ख़िलाफ़ शंकराचार्य के अभियान को या फिर आर्यसमाज के आज़ादी के पहले के दंगों में भागीदारी को देखा जा सकता है…बशर्ते हम तर्कसंगत और वस्तुपरक होकर देख पायें।
सादर
@अशोक जी,
शरद जी की टिप्पणी भी आ जाये तो आप दोनों के सामने एक साथ ही अपने विचार रखूं। एक वर्ग कट्टर हिन्दुओं का है जो मुसलमानों का क़त्ल करता है और हिन्दु मुसलमानों के बीच खाई खोदकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है तो दूसरा वर्ग भी इन दोनों के बीच खाई खोदता है और मुसलमानों का अपना बनकर खून चूसता है। वह भी इस खाई को नहीं पटने देना चाहता है। ईश्वर नहीं दिखता है तो कोई समस्या नहीं है फिर उसकी बाबत् सवाल भी पैदा नहीं होता। जो पंक्तियाँ शरद जी ने लिखी हैं उनमें धर्मग्रंथों का उल्लेख नहीं है। ये मरने वाले क्या ईश्वर पर संकट आने पर मर मिटे थे और उसे बचा लिया था?
शरद जी टिप्पणी के इंतजार में कल तक के लिये जा रहा हूँ, गोदियाल साहब, अशोक जी आप तो हैं ही।
भाषा की मर्यादा लाँघना तो सर्वथा अनुचित ही है, चाहे वो कहीं भी और कोई भी हो.
bahut hi khoobsurat kavita...agar koi vyang nahi samajhta to ye uski pareshani hai...hame aise logon ko nazarandaaz karna chahiye
मैं यह कविता नहीं पढ़ी थी, इसलिए यहां पोस्ट करने के लिए धन्यवाद। बाकी तो बहुत से बातें बहुत लोग लिख ही गये हैं...
माफ कीजिए, मैंने को मैं लिख दिया..इसे ऐसे पढ़ा जाए:
मैंने यह कविता नहीं पढ़ी थी, इसलिए कविता यहां पोस्ट करने के लिए धन्यवाद। बाकी तो बहुत-सी बातें बहुत लोग लिख ही गये हैं...
Dhiresh ji agar main ek achchhe aur sachche musalmaan hone ki baat karta hoon to yahi baat ek achchhe aur sachche hindu banne ke liye bhi kahta hoon.. kyonki sirf ek yahi zariya hai ek achchhe aur sachche insaan banne ka un sabke liye jo is raah se bhatke hue hain.. magar afsos ki secularism ke naam par aap hindu aur muslim dono ke kisi sangathan ki buraiyaan to dekhte hain achchhaiyaan nahin.. RSS ke liye poorvagrah paale hue hain jo ki media ka banaya hua hai aur tathakathit secularon ka.. kabhi mil ke baithiye sath to main bataunga ki kaun kahan galat hai aur kyon hum insaan banne se door hote ja rahe hain.
यदि कोई व्यक्ति किसी रचना पर प्रश्न उठाये तो सबसे आसान तरीक़ा है उसकी समझ पर प्रश्न उठाकर प्रश्न को खारिज करना। ‘मैं मुसलमान हूँ’ कविता को यदि व्यंग्य माना जाये तो जैसा मुझे इसे पढ़ते हुए लगा था कि किसी कट्टर हिन्दु ने मुसलमानों की तुलना रावण से कर उनके खात्मे की बात की होगी उस पर व्यंग्य है। लेकिन इस अनुमान को भी कविता ही खारिज कर देती है जब वह कहती कि मुसलमान की रावण से तुलना करना भी खतरनाक है। नहीं की जा सकती है। इसलिये यह कविता यदि व्यंग्य करती है तो मुसलमानों पर ही करती है हिन्दुओं पर नहीं। यह कविता कहती है कि मुसलमान के सारे लक्षण रावण के से है उसकी इच्छायें भी रावण जैसी ही हैं। लेकिन वह रावण –सा दुस्साहस नहीं कर सकता है क्यूँ कि अल्पसंख्यक है और सामने उससे भी बडे रावण हैं। यदि तो निचोड़ है इस कविता का। दूसरा हो तो बतायें। इससे मुसलमान की क्या छवि बनती है, क्या भला होता है उसका ? क्या इस प्रकार के चित्र से किसी को अल्पसंख्यक मुसलमान से सहानुभूति हो सकती है ? बल्कि यह कविता कट्टर हिन्दुओं के दम्भ को तुष्ट करती है कि मुसलमान कितना ही रावण हो ले उसे रहना पडेगा अपनी औकात में चूहे जैसे। क्या नहीं ? इसी कविता पर मुग्ध हुये जा रहे हैं भाई लोग !!! मुझे होली के अवसर पर बच्चन के गीत की पंक्ती याद आ रही है... नंगा नाचै, चोर बलैया लेय, भैया नंगा नाचै।
@ गोदियाल साहब ! मैं सलीम साहब के द्वारा प्रयोग किये शब्द को आपत्तिजनक मानता हूँ, मेरा सलीम साहब से अनुरोध है कि इस प्रकार के शब्दों का प्रयोगकर गलत आदमी को सही होने का भ्रम न पालने दें और अपनी आपत्ति को हल्का न बनायें। मेरा ऐसे शब्दों को संस्कार नहीं है लेकिन मैं उनके भाव से पूरी तरह सहमत हूँ । मैं यह भी कहता हूँ सलीम साहब की पंक्ति ही इस कविता को पूर्ण करती है (उचित शब्दों का इस्तेमाल कर)। सलीम साहब आप कतई निराश न हों यदि आप एक जिद्दीधुन या इस कवि के तेज से अनभिज्ञ हों, लक्ष्मण भी परशुराम के तेज से अनभिज्ञ थे। लेकिन अपनी आपत्ति उचित शब्दों से दर्ज कराया करें। बाकी आपसे पूरी सहमति है।
@ Ashok ji, Sharad ji,
Eshwar vali kavita ki panktiyon ki vyanjana yah hai ki vah Eshwar ke hone me vishwas kar marmitata hai, jabaki Eshwar ka ashtitva nahi hai aur usake sankat ke samay me vah kisi prakar ki sahayata nahi karata hai. Isame दो जवाब............... jaisi anuchit line jodane ki avashyakta nahi thi aur vah bhi Sharadji dwara.
Ashok ji, bahut sankshep me nivedan karna chahata hun ki apaki vyaktigat anubhav ke adhar par yadi aap hinduon ke prati vish-vaman karate hai to easi longon, jinka madarshon, taliban, aatankwadikampon ka anubhav raha ho, ke drwara musalmanon ki awamanna karane par hamare dwara unaka itana hi samman karane ko uchit thaharayenge jitana samman hum aapaka karaten hain. Aap hi ka tark hai ki ek vyakti ke roop me musalman kitana hi patit ho sakta hai to main kahata hun ki ek giroh, ek parti, ek sangthan ke roop me hindu kitana hi patit ho sakta hai. ek dharmik samuday ke roop me hindu hamesha sahishnu aur sabhi ke sath sahchrya se rahane wala raha hai. kisiko bhi apani vaktigat kunthaon ko darshan knahi banana chahiya.
वाकई कविता की समझ बाज़ार में नहीं मिलती। मुसलमान की तुलना रावण से करना इसलिये ख़तरनाक हो जाता है कि वह भी ब्राह्मण था और इसलिये हिन्दू कट्टरपंथी एक बार उसे स्वीकार कर लेंगे परंतु मुसलमान को नहीं। वह ब्राह्मण था एक राजा था और सत्ता वर्ग का हिस्सा लेकिन आज मुसलमान एक वर्ग के तौर पर क्या हैं? यह केवल व्यंग्य नहीं है बल्कि उस भयावह त्रासदी का बयान है जिसमें पूरे अल्पसंख्यक वर्ग को इस बहुसंख्यकवादी राजनीति ने फंसा दिया है। इसे समझने के लिये एक संबद्ध तथा वस्तुपरक दृष्टि चाहिये। प्रीतिश जी वह कविता एक सवाल खड़ा करती है कि धर्म ख़तरे में है का नारा देकर हज़ारों लोग मार दिये जाते हैं लेकिन इश्वर कहीं किसी को नहीं बचाने आता। आप ही बतायें कि अयोध्या का सारा विवाद क्या उस इश्वर के एक घर को लेकर नहीं था। एक समुदाय के रूप में मैंने किसी धर्म पर टिप्पणी नहीं की लेकिन जो उनका प्रतिनिधी बनने का दावा करते हैं ( साफ कहूं तो संघ गिरोह) वे वास्तव में हिंसक और पाशविक हैं…और एक धर्म दर्शन के रूप में भी हिंसा इसमें अंतर्निहित है। कांचा इलैया जब पूछते हैं कि क्यों कोई हिन्दू देवता बिना अष्त्र-शस्त्र नहीं होता तो वे इसे स्पष्ट कर रहे होते हैं। शम्बूक की हत्या, सीता की अग्निपरीक्षा अगर हिंसा नहीं तो क्या है? या फिर वैदिक हिंसा हिंसा न भवति? क्या अश्वमेध यज्ञ और ऐसे ही पशुबलि हिन्दू धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा नहीं? क्या दलितों और औरतों के साथ जो व्यवहार मनु स्मृति सुझाती है वह हिंसक नहीं और बता दूं कि गोलवरकर व संघ ने बाकायदा संविधान की जगह मनुस्मृति स्थापित करने की मांग की थी। कब रहा है हिन्दू सहिष्णु और शांति के सात रहने वाला? क्या इतिहास में बौद्ध धर्म के साथ जो इसका व्यवहार रहा वह सहिष्णु है? क्या अपने ही दलित जातियों के लिये इसके नियम सहिष्णु हैं? क्या महिलाओं के प्रति यह सहिष्णु है? क्या विधवाओं को पति के साथ जला कर मार डालना और फिर सती का ढोंग सहिष्णुता है?
कविता दिल को छू लेनेवाली है
@अशोक जी!
वाकई कविता की समझ बाजार में नहीं मिलती।(वही समझ पर प्रश्न उठाकर) इसके लिये जिन गिरोहों को यह नहीं मिलती वे नकली नोटों की तरह नकली तर्क भी छाप लेते हैं। आप कविता का जो भाष्य कर रहे हैं उसे इसकी लाईनों से सम्बद्ध करिये। सूत्र हाथ आते-आते छूट जायेगा। आपको बहुत देर से याद आया कि यह केवल व्यंग्य नहीं है इसमे सच्चाई है। अगर यह व्यंजना में नहीं अभिधा में है तो और भी आपत्तिजनक है। मैंने अपनी तुन्नक में इसका एक भाष्य यह किया था कि भई मुसलमान कोई रावण नहीं है उसके दस सिर, बीस हाथ नहीं है, वह सोने की लंका में नहीं रहता है उसने सीता का अपहरण नहीं किया है तो उसके साथ रावण जैसा बर्ताव न करें। राम मुझे केवल इसलिये नहीं छुयेगा कि मैं मुसलमान हूँ। लेकिन इसी कविता की पंक्तियां मुझसे ये सूत्र भी छीन लेती हैं। और बलिहारी जाता हूँ बाजार से खरीदी कविता की समझ पर कि हिन्दु रावण को स्वीकार लेगा मुसलमान को नहीं। राम (हिन्दु) मुसलमान को खाक़ में भी मिला देगा और उसे मारेगा भी नहीं। जय हो। मुसलमान आज वर्ग के तौर पर क्या हैं उसे बनाने में उनके हितैषियों का बड़ा योगदान है। वरना तो मुसलमानों ने यहाँ राज किया है। मैं आपसे संबद्ध तथा वस्तुपरक दृष्टि की माँग करूँगा तो दुविधा में पड़ जायेंगे क्यूँकि मैं संघी नहीं तो मुसलमानों का भितरघाती भी नहीं हूँ। जो नज़र हिन्दुओँ पर दौड़ाते हैं उसी को मुसलमानों पर दौड़ा लीजिये मेरा प्रश्न खुद समझ आ जायेगा।
रही बात हिन्दु धर्म और दर्शन की तो उसे कविता के साथ घालमेल न करें मेरी उस पर आपसे सहमतियाँ हैं। मेरी दोनों आँखें खुली हैं और आपसे अनुरोध है कि अपनी भी दूसरी आँख को रोशनी दें, एक आँख को बंद कर आप शायद जिसका बिगाड़ करना चाहते हैं उसका बिगाड़ तो कर सकें लेकिन जिसका सुधार करना चाहते हैं उसका कुछ भला न कर सकें।
मुझे हिन्दु पर गर्व है तो मुसलमान पर भी है, हिन्दु पर शर्म आती है तो मुसलमान पर भी आती है। हिन्दु किसके साथ कब नहीं रहा ? आपको कुछ कहना छोटे मुंह बड़ी बात होगी लेकिन धर्मनिरपेक्ष होना इतना आसान काम नहीं है।
ईश्वर वाली शरद जी द्वारा उद्धृत कविता प्रश्न उठाती है ! मैं आपसे असहमत हूँ वह अपने आपमें उत्तर है। उसके साथ - दो जवाब........ जैसी पंक्तियाँ जोड़ना निंदनीय है।
सच है प्रीतिश जी कि और-और कटु होने से कोई फ़ायदा नहीं। आपके पूरे कमेण्ट में बस एक बात मुझे सार्थक लगी - 'धर्मनिरपेक्ष होना कोई आसान चीज़ नहीं' बाकी हम दोनों ने अपनी बात कह दी है और पाठक ख़ुद सही-ग़लत का फैसला कर लें।
यह आपकी उदारता है। इसे मैं अपने दिल में बसाता हूँ। आप हर तरह से मुझसे बड़े हैं आपसे हमेशा सीखता रहूँगा लेकिन हमारे मूल्यों का अन्तर शायद बना रहेगा।
सादर
अब कोई आरएसएस के बारे में ज्ञान दे तो उससे हाथ जोड़कर माफी. देश का बंटवारा, गांधी की हत्या, कत्ले आम, गुजरात, बाबरी मस्जिद का विध्वंस और राष्ट्रीय एकता व् इंसानियत की हत्यारी जमात के समर्थकों से अपना फिर दूर का सलाम.
जहाँ तक इस कविता का सवाल है, मुझे ये कीमती लगती है और कई बने-बनाए यूटोपिया और लगातार बनाए जा रहे नए यूटोपिया को नंगा करती लगती है. जहाँ तक मेरे तेज या नागर जी के तेज का जुमला उछाला गया है, उस पर क्या कहा जा सकता है. यदि कोई बातचीत कटुता या किसी में ऐसा गुस्सा पैदा करती है तो मैं माफी ही मांग सकता हूँ. यदि यह जरूरी नहीं है कि आप मुझसे सहमत हों तो ये भी जरूरी नहीं कि आपकी बात से मैं सहमत हो ही जाऊं पर मैं उस पर सोचता जरूर हूँ और सही लगता है तो कायल भी होता हूँ. बाकी आप जैसा समझे स्वतंत्र है.
..और ईश्वर के बारे में यदि आस्था के कोण से बात हो तो फिर सिर्फ जय-जय.
jo din rat hindu-musalaman ki tota ratant lagaye rahte hai, ratant me ek aankha band rakhate hai, dharmik, sampradayik sangyaon ke, pratikon ke aur dharmik pahchan se favi-quick ke jod ki tarah n keval chipke rahte hai balki apni parti line ke tahat behad agrahi-duragrahi hote hai aur fir bhi khud ko dharmnirpeksha kahate hai. ese mahan dharmnirpekshon ko apna bhi door ka salam.. bahut-bahut doot ka. jai ho dharmnirpekshata. Jo bat kate vahi sanghi aur RRS ka samarthak? Mera irada nahi hai ki kisi ko Taliban ka samarthak kahun.
kavita! tera kya hoga?
Apane dunia par kripa ki jo Salim ka kament nahi hataya varana prithvi apni dhuri se vichalit ho jati. Brihmand ki gati isi blog se to hai. Duniya hi nast ho jati duniya is ahasan ko samazegi to yugon tak yad rakhegi. Muze to yah kavita nanga karati hui nahi nanga hoti hui lagati hai. Sanghiyon ko suna dekhiye ve ise haton-hath lenge. Ashok ji ne sahi kaha ki bajar me nahi milati varana kucha logon ke pas jaroor hoti. Mere pas to isliye nahi hai kunki ji dukano par milti hai vanha tak jane ki n takat hai n dam. Tej ka jumala nahi hai bloging tanashahi ka jumala hai. Salim khan ko vo kyun samazana chahiy jo samazane ka sadhan hai hi nahi.
Rahi bat Eshwar ki to Esa mudda uthane se pahale hi soch lena chahiye. Mudde ki bat Ayi aur mudkar Eshwar ka patthar utha liya. Yadi Eswar keval ashtha hai to keval anastha se use kharij bhi nahi kiya ja sakta. Ghere se bahar jakar khelana beimani hai kaushal nahi.
Door-door bahut door ka salam.
@प्रीतीश जी , ओह.. चर्चा यहाँ तक आ गई है । मैं स्वीकार करता हूँ ..दो जवाब यह दो शब्द मुझे नहीं लिखने चाहिये थे । कविता अपने आप में सम्पूर्ण है और इसे कविता की तरह ही देखा जाना चाहिये । यह दोनो शब्द मै वापस लेता हूँ । दरअसल कवि नासिर अहमद सिकन्दर की एक कविता "दो जवाब "भी साथ मे टाइप की थी उसकी यह अंतिम पंक्ति थी जो रह गई । उसे हटाकर विष्णु जी की कविता टाइप की थी । आपने कविता को सही समझा है इस बात की प्रसन्नता है । शुभकामनायें ।
priitiish aur dhiresh, shayad aaplogon ko ashokji aur sharad jii se sahishnuta aur dhiiraj siikhne kii zaroorat hai. aise ladne se kyaa hasil hoga? aap hi bataiye jo kavita 'kya' se shuru hoti ho aur '?'par khatm vah savaal kyoon nahii? aur 'lo javab' likhne ke bad bhi aapkaa sharad jii ko lagaatar gariyana kyaa hai? ashok ji ke savaalon kaa bhi aapke paas javaab nahii thaa....n itihas se aur n vartman se...phir bhi in dono logon ne shalinta se bahas khatm kii. Dhiresh ko bhi samjhna chahiye ki kisi ko sanghi kahkar gaali dene se apnaa dil bhale thanda ho jaaye lekin asal me aap use aur chidha rahe ho tatha khud se door kar rahe ho.
jahan tak kavita kaa savaal hai to vah manushyataa kii pakshdhar hai.
धन्यवाद आदरणीय। इस संवाद का अंत मैं कवि नासिर अहमद सिकन्दर की उसी कविता के साथ ही करना चाहूंगा जिसे मं उद्ध्रत नहीं कर पाया था और यह बतंगड़ बन गया । क्षमा के साथ ..।
है कोई माँ जो हिन्दू जनती है
है कोई माँ जो मुसलमान जनती है
है कोई माँ जो सिख जनती है
है कोई माँ जो ईसाई जनती है
माँ है कोई
जवाब दो दंगों में शरीक माई के लाल
दो जवाब.........?
kavita bahut hi achchi hai ..ye saleem sahab ...ki baato ka kuch jada hi tul diya jata hai .........kahi ye kavita ke ajar andaj ka naya tatika to nahi ..hai ...vishnu ji ke bare me jo kha gaya woh afsosh janak hai
kavita bahut hi achchi hai ..ye saleem sahab ...ki baato ka kuch jada hi tul diya jata hai .........kahi ye kavita ke ajar andaj ka naya tatika to nahi ..hai ...vishnu ji ke bare me jo kha gaya woh afsosh janak hai
kaild a khan
आदरणीय बेनामी जी मित्र, आपकी बात ठीक है लेकिन मैंने जिसे संघी कहा ही नहीं वह नाहक नाराज है. जिन मशाल साहब ने संघ को सही ढंग से जानने की नसीहत दी थी, ये दूर का सलाम उन्हें था और है पर जाने क्यूँ वे साहब इस पर इतने गुस्से में प्रतिक्रिया दे बैठे. मैं तो उनसे माफी मांग चुका था, फिर मांगता हूँ.
अरे प्रीतिश…इस कविता को तुम बिल्कुल समझ नहीं पाये भाई…बस कुतर्कों से झण्डा ऊंचा करते रहे और बेनकाब हुए…
भाई जिद्दीधुन जी! मुझे शर्मिंदा करने के लिये मुद्रायें बदलने की क्या आवश्यकता है, पहले शरदजी और अब आप, मैं तो स्वयं के किये पर पहले ही बहुत शर्मिंदा हूँ या कहूँ कि ऐसी दुनिया में आकर ही, मेरे और मेरे जैसों के पास शर्मिंदगी और मज़बूरियों के सिवा होता ही क्या है। शरद जी को मेल कर चुका हूँ और उन्होंने उसे स्वीकार भी कर लिया है, आपको भी मेल करता पर बेनामी जी नहीं चाहते। आप महान् आदमी हैं बिना अपराध के माफी मांग सकते हैं। महान् केवल माफी ही नहीं मांगते कभी-कभी माफ भी किया करते हैं तो माफ करिये आप भी।
यदि कोई स्मृति किसी प्रसंग को लज्जास्पद बनादे तो उसे याद नहीं दिलाना ही अच्छा होता है, मैं बहुत बचा पर खैर याद करिये..। बंधु आप तो पत्रकार हैं मुझसे बेहतर आपको याद भी होगा और आप कटिंग भी जुटा सकते हैं, रावण की उपमा आतंकवाद को दी गई थी और बिल्कुल यही उपमा 'आतंकवादी रावण के दस सिर और बीस भुजायें हैं' यह विभिन्न आतंकवादी संगठनों को लेकर था। मैं केवल राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर और कभी-कभार इंडिया टुडे पढ़ता हूँ आपको इन्हीं में कहीं यह आर्टिकल मिल जायेगा। आतंकवाद पर लगाये गये आरोप का जवाब मुसलमानों की ओर से दिया जाये तो मुझे नहीं लगता कि इससे अल्पसंख्यकों का कुछ भला होता है मेरी समझ में इस तरह मुसलमान को आतंकवाद का पर्याय कहा जा रहा है। यह राजनीति करती है या रचना का काम अब यही रह गया है कि वह दो समुदायों में बैर बढ़ाये और बहुत सब्जैक्टिव हो जाये। अशोक जी के भाष्य को मानलेता हूँ कि हिन्दु मुसलमान को स्वीकार नहीं करेगा रावण को कर लेगा तो क्या अब उम्मीद की कोई किरण नहीं है।
आदरणीय बेनामी जी, किसी संवेदनशील साम्प्रदायिक प्रसंग में मुझे उन प्रश्नों के जवाब के लिये क्यूँ उकसाना चाहते हैं जो मुझे किसी धर्म का, उसकी कुरीतियों के समर्थन तथा किसी धर्म के चरित्र हनन के लिये कटु प्रश्न पूछने को बाध्य करे. मैं उकसाने के बावजूद ऐसा नहीं करूँगा। हालांकि मैं भी प्रगतिशीलता की सोहबत में रहता हूँ शब्दों से खेलना, विचारों का खून करना थोड़ा-बहुत मुझे भी आता है लेकिन मैं ये छुरे छोड़कर हाथ धो चुका हूँ पुनः नहीं उठाऊँगा। मैं आपसे न किसी धर्म के बारे में, न किसी संगठन के बारे में कोई प्रश्न करूँगा और खास कर तब जब उनके उत्तर दो समुदायों में बैर बढा सकते हों। मैं नहीं पूछूंगा कि कहाँ कितनी हिंसा है, कहाँ स्त्रियों की दशा क्या है, कहाँ कितनी गैर-बराबरी है, किसका इतिहास क्या रहा है, किसी खास धर्म में अन्य धर्मों के बारे में क्या है? मैं धर्म को मानवता का महत्त्वपूर्ण स्रोत मानता हूँ इसलिये धर्म के नाम पर ही फ्लर्ट हो जाता हूँ फिर चाहे वह कोई भी धर्म हो।
दूसरे बेनामी जी, मैं कोई नकाब रखता ही नहीं हूँ फिर भी कोई नकाब था और उतर गया तो शुक्रिया।
आप तो उन लोगों के लिये दुआ करिये जिनका नकाब सलामत है, दुआ करें कि कभी न उतरे। वैसे भी बेनामियों को इसका खतरा नहीं है निश्चिंत रहें..
"हम क्यूँ रोया करते हैं, वो अक्सर पूछा करते हैं
हम उन्हें कुछ और ही समझे वो अपना धंधा करते हैं"
बेनामी जी, मैं कविता नहीं समझा पर वह नंगा करती है, बहुत अच्छी कविता है, मेरी ओर से भी तालियाँ।
आशा है बेनामियों की बाढ़ रुक जायेगी और मुझे फिर माफी नहीं माँगनी पडेगी...
और हाँ ईश्वर..
कोई शिकवा नहीं, गिला नहीं
मैं खुदा से कभी मिला नहीं
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