बनारस से वाचस्पति जी ने फोन पर बताया कि आज बाबा नागार्जुन की जन्मशती शुरु हो रही है। बाबा से उनका आत्मीय रिश्ता रहा है. इच्छा यही थी कि वे ही कोई टुकड़ा यहाँ लिख देते पर तत्काल यह संभव नहीं था. इसी बीच किसी ने कबीर जयंती की बात बताई जिसकी मैंने तस्दीक नहीं की लेकिन यूँ ही लगा कि कबीर और नागार्जुन के बीच गहरा और दिलचस्प रिश्ता है.
मसलन दोनों का ही लोगों से बड़ा ही organic किस्म का जुड़ाव रहा या कहें कि दोनों ही जनता की organic अभिव्यक्ति हैं. दोनों प्रतिरोध के, हस्तक्षेप के कवि हैं. दोनों में गजब की लोकबुद्धि है, तीखापन है और दोनों ही व्यंग्य को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। जनशत्रुओं से दोनों की सीधी मुठभेड़ है और दोनों के लिए ही कविता कोई इलीट सी, शास्त्रीय सी, `पवित्र` सी चीज़ नहीं है.
कबीर के लिए अक्खड़-फक्कड़ जो भी विशेषण दी जाते हैं, वे नागार्जुन के लिए भी सटीक हैं। कबीर की भाषा सधुक्कड़ी कही गयी है और घुमंतू नागार्जुन की भाषा भी पंजाबी, हरयाणवी, भोजपुरी जाने कहाँ-कहाँ ट्रेवल करती है. दोनों ही कविता से एक `जिहाद` लड़ते हैं, अपने समय के ताकतवर-उत्पीड़क के खिलाफ. कबीर के यहाँ तो ब्राह्मणवाद लड़ाई के केंद्र में ही रहा है. नागार्जुन के यहाँ भी इस बीमारी से मुसलसल मुठभेड़ है. दोनों ही अपने समय की प्रतिरोधी परम्परा से रिश्ता बनाते हैं, उससे ताकत पाते हैं और उसे मजबूत करते हैं. कबीर का रिश्ता नाथपंथियों से, सूफियों से बनता है और नागार्जुन का बुद्धिज़्म से, वामपंथ से.
यह भी दिलचस्प है कि शास्त्रीय परम्परा के विरोध के ये कवि शास्त्रीय आलोचना के लिए उपेक्षा करने लायक ही रहे गोकि दोनों ही लोगों की जुबान पर खूब चढ़े रहे। ब्राह्मणवादी आलोचना कबीर को कभी कवि मानने को तैयार नहीं हुई और उसने नागार्जुन को भी कभी महत्व नहीं दिया. उनकी कला आलोचकों के लिए कविता कहे जाने लायक नहीं थी और दोनों ही बहुत समय तक प्रचारक की तरह देखे जाते रहे. (अशोक वाजपेयी का यह कबूलनामा भी सिर्फ मजेदार है कि नागार्जुन को समझ न पाने की उनसे बड़ी भूल हुई.)
बहरहाल नागार्जुन की यह कविता -
शासन की बंदूक
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
6 comments:
कबीर और नागार्जुन की यह तुलना काफी दिलचस्प है। आपकी यह टिप्पणी शायद यह किसी बहस को जन्म दे... एक सार्थक बहस इस विषय पर जरूरी भी लगती है।
जनपक्षधरता लोक परपराओं के ही निकट लाती है...
अच्छा लगा...
और बाबा की यह रचना भी...
कभी हम इस पर एक पोस्टर बनाए थे...
जले ठूंठ पर बैठ कर गई कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक
लेकिन कुछ तो ज़रूर् था जो बाबा नागार्जुन को "झीनी चदरिया" जैसी गहरी चीज़ लिखने से रोकता रहा......
ज़रूरी पोस्ट
शायद बाबा अपनी ज़िम्मेदारी प्रत्यक्ष लड़ाई में ज़्यादा देखते थे अजेय भाई इसीलिये ऐसा था। फिर सबकी अपनी क्षमता होती है…कोई किसी का प्रतिरूप नहीं होता तो बन्दे ने जो किया उस पर बात ज़्यादा महत्वपूर्ण है…
आपने बेहतरीन तुलना की है। इस तरह से हम एक काव्य-परंपरा को रेखांकित कर सकते हैं। जहां तक मुझे याद है सबसे पहले नामवर सिंह ने नागार्जुन को आधुनिक कबीर कहा था।
सुन्दर तुलनात्मक अध्ययन।
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