Friday, October 1, 2010

मीर बाक़ी ने बनवायी जो कोई वह मस्जिद ही न थी

हलफ़नामा

नहीं ऐसा कभी नहीं हुआ
मनुष्य और कबूतर ने एक दूसरे को नहीं देखा
औरतों ने शून्य को नहीं जाना
कोई द्रव यहाँ बहा नहीं
फर्श को रगड़ कर धोया नहीं गया

हल्के अँधेरे में उभरती है एक आकृति
चमकते हैं कुछ दाँत
कोई शै उठती है कील पर टंगी कीई चीज़
उतारती है चली जाती है

नहीं कोई बच्चा यहाँ सरकंडे की
तलवार लेकर मुर्गी के पीछे नहीं भागा

बंदरों के क़ाफ़िलों ने
कमान मुख्यालय पर डेरा नहीं डाला

मैंने सारे लालच सारे शोर सारे
सामाजिक अकेलेपन के बावजूद केबल कनेक्शन
नहीं लगवाया

चचा के मिसरों को दोहराना नहीं भूला
नहीं बहुत सी प्रजातियों को मैंने
नहीं जाना जो सुनना न चाहा
सुना नहीं, गोया बहुत कुछ मेरे लिए
नापैद था

नहीं पहिया कभी टेढ़ा नहीं हुआ

नहीं बराबरी की बात कभी हुई ही नहीं
(हो सकती भी न थी)

उर्दू कोई ज़बान ही न थी

अमीरख़ानी कोई चाल ही न थी

मीर बाक़ी ने बनवायी जो
कोई वह मस्जिद ही न थी

नहीं तुम्हारी आँखों में
कभी कोई फ़रेब न था।

असद ज़ैदी की यह कविता उनके कविता संग्रह `सामान की तलाश` से ली गई है।

2 comments:

मृत्युंजय said...

वह मस्जिद तो थी ही नहीं
मंदिर था साहब
हम आँखों देखी बता रहा हूँ.
घंटे बजते थे
वहीं अपनी रिवाल्वर टांग घूमते थे गठीले पुजारी जी
श्री 1008 जी महाराज
सर चटकाते हुए मुकुराते थे !
फरेब था उन आँखों में
जो मरने के वक्त खुली थीं
हमारे गुरूजी इश्क में मत्त थे
वे तो हत्या भी इश्क से करते थे !

हाँ हाँ पूजा करने जा रहे लोगों की लंगोटियां उतरवा कर
नंगाझोरी लेते हुए
वहां मनुष्य से ज्यादा बन्दर तब भी रहते थे

संशय तो सिर्फ मियां खुसरो की आँख में था/है
और डर तो हम रहे हैं
की तिहाई पर क्या होगा?

वर्षा said...

मीर बाक़ी ने बनवायी जो..कोई वो मस्जिद ही न थी....एक अच्छी कविता का अनुभव बहुत शानदार होता है।