यह फैसला एक राजनीतिक निर्णय है और एक ऐसे फैसले को दर्शाता है जो राज्य द्वारा वर्षों पहले लिया जा सकता था. इसका फोकस भूमि के आधिपत्य और ढहा दी गई मस्जिद के स्थान पर एक नया मंदिर बनाने पर है. यह मसला धार्मिक पहचानों से जुड़ी समकालीन राजनीति में उलझा हुआ था पर इसके ऐतिहासिक साक्ष्य पर भी आधारित होने का दावा था. ऐतिहासिक साक्ष्य के पहलू का ज़िक्र तो किया गया है पर तत्पश्चात उसे फैसले में दरकिनार कर दिया गया.
अदालत ने घोषणा की है कि एक विशिष्ट स्थान ही वह जगह है जहाँ एक ईश्वरीय या ईश्वर-स्वरुप व्यक्ति का जन्म हुआ और उसकी स्मृति में जहाँ मंदिर का निर्माण होगा. और यह हिन्दू आस्था और विश्वास के आग्रह के प्रतिसाद में है. इस दावे के पक्ष में साक्ष्य का अभाव होने से, ऐसे निर्णय की अपेक्षा न्यायालय से नहीं की जा सकती. एक आराध्य के तौर पर राम के प्रति हिन्दुओं में गहरा आदर है पर क्या जन्मस्थान पर किये गए दावों, भूमि के आधिपत्य और ज़मीन हथियाने हेतु एक ऐतिहासिक स्मारक के जानबूझकर किये गए विध्वंस के बाबत के कानूनी फैसले में यह प्रमाण हो सकता है?
इस निर्णय का कहना है कि उस स्थान पर बारहवीं सदी का मंदिर था जिसे नष्ट कर मस्जिद बनाई गई थी- और इसी वजह से नया मंदिर बनाने का औचित्य बनता है.
भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) की खुदाइयों और उनकी व्याख्या को पूरी तरह स्वीकार कर लिया गया है जबकि उनका अन्य पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने प्रतिवाद किया है. चूंकि यह पेशेवर विशेषज्ञता का ऐसा मामला है जिस पर तीव्र मतभेद थे, एक दृष्टिकोण के सीधे-से और वह भी एकांगी स्वीकार से इस निर्णय पर भरोसा नहीं हो पाता. एक न्यायाधीश ने कहा कि चूंकि वे इतिहासकार नहीं है इसलिए उन्होंने ऐतिहासिक पहलू की छानबीन नहीं की पर उन्होंने यह भी कह दिया कि इन मुकदमों पर फैसला देने के लिए इतिहास और पुरातत्वशास्त्र अत्यावश्यक नहीं थे! फिर भी यहाँ मुद्दा तो दावों की ऐतिहासिकता और पिछली एक सहस्त्राब्दी के ऐतिहासिक ढांचों का ही था.
राजनीतिक नेतृत्व के उकसावे पर भीड़ ने वह मस्जिद जानबूझकर नष्ट कर दी जो लगभग पांच सौ साल पहले बनी थी और हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा थी. अकारण विध्वंस के इस कृत्य की, और हमारी विरासत के प्रति इस अपराध की निंदा की जानी चाहिए इसका निर्णय के सार में कोई उल्लेख नहीं है. नए मंदिर का गर्भगृह - जो राम का जन्मस्थान माना गया है -मस्जिद के मलबे की जगह पर होगा. संभवतः मस्जिद के विध्वंस को सुविधाजनक तरीके से इस मुकदमे के दायरे से बाहर रखकर उसकी भर्त्सना नहीं की गई है, जबकि कथित मंदिर के विध्वंस की निंदा की गई है और यही नया मंदिर बनाने का औचित्य बन गया है.
इस फैसले ने न्याय के क्षेत्र में इस बात की मिसाल कायम की है कि अपने आपको समुदाय के तौर पर परिभाषित करने वाले किसी समूह द्वारा पूजे जाने वाले किसी दैवीय या देवस्वरूप का जन्मस्थान बताकर भूमि पर दावा किया जा सकता है. अब जहाँ भी ठीकठाक संपत्ति हो या जहाँ आवश्यक विवाद तैयार किया जा सके ऐसे और कई जन्मस्थान सामने आएँगे .ऐतिहासिक स्मारक के सुविचारित विध्वंस की भर्त्सना चूंकि नहीं की गई है, लोगों को अन्य स्मारकों का विध्वंस करने से रोकने के लिए है ही क्या? जैसा कि हमने हाल के वर्षों में देखा है, उपासना स्थलों की स्थिति बदलने के खिलाफ 1993 में बना कानून अत्यंत अप्रभावी रहा.
इतिहास में जो हुआ वह हुआ.उसे बदला नहीं जा सकता. पर जो हुआ उसे हम समूचे सन्दर्भ में समझना सीख सकते हैं और उसे विश्वसनीय प्रमाण के आधार पर देखने का प्रयत्न कर सकते हैं.वर्तमान की राजनीति का औचित्य सिद्ध करने के लिए हम अतीत को नहीं बदल सकते. यह फैसला इतिहास के प्रति आदर को अमान्य कर उसकी जगह पर धार्मिक आस्था को रखने की चेष्टा करता है. सच्चा समाधान तभी हो सकता है जब भरोसा हो कि इस देश का क़ानून केवल आस्था और विश्वास पर नहीं बल्कि प्रमाण पर आधारित है.
-रोमिला थापर
(दि हिन्दू से साभार) अनुवाद-भारत भूषण तिवारी
6 comments:
जब प्रमाण की बात होती है और अर्धप्रमाण प्रस्तुत कर दिये जाते हैं पटल पर ज्ञानियों द्वारा। अधिक पढ़ लेने को निर्णययोग्यता समझ लेने में हानि है।
आपसी बातचीत से निर्णय तो बहुत पहले लिया जा सकता था यदि उसमें तथाकथित बौद्धिकता की खरोचें न होतीं। आस्था के शत्रु तो किसी भी प्रकार की आस्था को परास्त करने के प्रयास में रहते हैं, तब मिलजुल कर निर्णय कैसे लेने देंगे भला।
इस ज़रूरी पोस्ट के लिए आभार...लैपटाप कराब होने के कारण मैं इस पर कुछ जनपक्ष पर नहीं दे पाया...आपने एक ज़रूरी काम किया है..मुझे तो यह फैसला हिन्दू तुष्टीकरण की औपचारिक शुरुआत लगता है..
Romola Ji ne wajib baaten uthaaii hain. durbhagy se desh faseewad ke shikanje men jata dikhaii de raha hai. yh faisla vidhvans ke apradhiyon ko bachata hai aur aainda aise krityon ke liye adhar ban sakta hai. secular logon ki jimmedari hai ki ve samajh ke sath sangharsh jaree rakhen
मैं तो यही कहना चाहूंगी की उस ऊपर वाले ने तो हमें दी थी एक जमीन ..हमने उस पर मंदिर मस्जिद क्यों बना दिए..
रोमिला थापर का यह लेख बहुत ज़रूरी सवाल खड़े करता है । इनका समाधानकारी उत्तर दिया जाना चाहिये ।
anuvaad achcha nahi hai mool lekh ki pathmeeyta khatm ho gai hai.
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