Sunday, November 7, 2010

अमरीकी राष्ट्रपतियों की मुस्कान















वे आश्चर्यजनक रूप से मुस्कराते रहते हैं

शिवप्रसाद जोशी


अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत दौरे पर हैं, उन्हीं के शब्दों में गांधी के देश में.


उनके राष्ट्रपति बनने के कुछ ही समय बाद नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा हुई थी और संयोग से ओबामा तब तक मध्य एशिया और अरब देशों और मुसलमानों के बारे में अपनी टिप्पणियों-दौरों से पुरस्कार कमेटी और विश्व नेताओं को मोहित कर चुके थे.


इसी संयोग के बीच ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने का ऐलान हुआ. इसी दौरान तिब्बती नेता दलाई लामा से न मिल पाने की असमर्थता ओबामा ने जताई जो उन दिनों अमेरिका जाने की तैयारी कर रहे थे. जिस वक़्त नोबेल शांति का अवार्ड ओबामा को देने की घोषणा दुनिया भर में जा रही थी उस समय ओबामा अपनी सर्वोच्च युद्ध परिषद की बैठक के लिए जा रहे थे जिसमें अफ़ग़ानिस्तान पर भावी रणनीति की चर्चा की जानी थी.


इसी बैठक से मुस्कराते हुए निकलकर ओबामा ने दुनिया का शुक्रिया कहा, शांति की कामना की, और महात्मा गांधी की अहिंसा को याद किया. ये उनका दबदबा ही रहा होगा या दलाई लामा की अपनी ख़ामोशी की पॉलिटिक्स जो उन्होंने भी कह दिया कि ओबामा मिलना नहीं चाहते तो कोई बात नहीं.


ओबामा ऐसे समय में भारत के दौरे पर हैं जब अमेरिका के मध्यावधि चुनावों के इतिहास में उनकी पार्टी की शर्मनाक हार हुई है. प्रतिनिधि सभा में रिपब्लिकनों की भरमार हो गई है. ओबामा कमज़ोर हुए हैं. और उनकी आवाज़ और मुस्कान और इरादों की हवा धीरे धीरे निकल रही है. वे ऐसे समय में गांधी को याद करते हुए हिंदुस्तान में हैं, जब अफ़ग़ानिस्तान में सैनिकों की आमद बढ़ाए जाने का फ़ैसला उन्हें करना है, ड्रोन हमलों के दायरे में कुछ और ठिकाने लाए जाने हैं, उनके दबंग खुफ़िया अधिकारी रात दिन एक कर जुलियन असांजे की तलाश कर रहे हैं. वो असांजे जिसने अपनी विकीलीक्स नाम की वेबसाइट पर सीआईए और दूसरे एजेंटों की हाल की ख़ुराफ़ातों के दस्तावेज़ सार्वजनिक कर दिए हैं. ओबामा का गांधी प्रेम की परत के नीचे असांजे से निपटने की रणनीति की नाकामी का क्रोध धधक रहा है.


हेरॉल्ड पिंटर ने लिखा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति मुस्कराते बहुत हैं. ओबामा के पूर्ववर्ती बुश के विश्व संग्राम के दौर में पिंटर ने लिखा था कि अमेरिका ने वास्तव में- दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद से- एक चमकदार, यहां तक कि चतुर नीति अख़्तियार की है. सार्वभौम अच्छाई की स्थापना का झंडा उठाकर उसने विश्वव्यापी ताक़त का टिकाऊ, सुव्यवस्थित, अपराध बोध से मुक्त और क्लिनिकीय प्रदर्शन किया है. लेकिन कम से कम- अभी तो ये कहा जा सकता है कि- अमेरिका अपने दड़बे से बाहर आ गया है. मुस्कान ज़ाहिर है अपनी जगह क़ायम है(तमाम अमेरिकी राष्ट्रपतियों के पास हमेशा आश्चर्य जनक मुस्कान रही है) लेकिन भाव भंगिमा अनिर्णीत रूप से ज़्यादा नंगी और ज़्यादा रूखी है जितना कि पहले कभी नहीं रही.


एक अघोषित नारे की ओट में ओबामा भारत दौरे पर हैं कि वो गांधी के पुजारी जैसे हैं. भक्त हैं. आदि आदि. आंतकवाद के ख़िलाफ़ अमेरिका की अगुवाई वाला युद्ध जारी है. अफ़ग़ानिस्तान एक दुष्चक्र में फंस गया है. इराक़ में अमेरिकी फ़ौजें सबकुछ बरबाद कर लौट रही हैं. इस्राएल पहले से ज़्यादा खुंखारी के साथ फ़िलस्तीनी संघर्ष को ख़त्म करने पर तुला है. यूरोप में कट्टरवादी ताक़तें सिर उठाने लगी हैं. जर्मनी की मैर्केल और फ्रांस के सारकोज़ी की ज़बानें बदल रही हैं. वे और अनुदारवादी हो रहे हैं. रूस पूतिन के दर्प और दबदबे में स्थानीय अस्मिताओं का दमन कर रहा है. खाड़ी देश एक विराट अलौकिक निर्माण में व्यस्त हैं और वहां को़ड़े फांसी दुर्दांत सज़ाएं जारी हैं. अफ़्रीका में अमेरिका के रक्तबीज संहार मचा रहे हैं. चीन बहुत शातिरी से अल्पसंख्यकों की आवाज़ को बर्फ़ में दबा रहा है. उसका राष्ट्रपति दुनिया का शक्तिशाली व्यक्ति हो गया है. लातिन अमेरिका में अमेरिकावाद का विरोध पहाड़ों में गायब हो रहे पानी की तरह हो गया है. क्यूबा अब किसी भी वक़्त अमेरिकी जबड़े में जा सकता है.


ओबामा ऐसे समय में शांति और अहिंसा की कामना के साथ आए हैं जब हम सब जानते हैं कि उस देश के तमाम राष्ट्रपतियों ने क्योटो प्रोटोकोल को ख़ारिज किए रखा है, छोटे हथियारों के व्यापार को नियंत्रित करने के लिए होने वाले समझौते में दस्तख़त करने से इंकार कर दिया है, एंटी बैलिस्टिक मिसाईल संधि, व्यापक एटमी परीक्षण प्रतिबंध संधि और जैव हथियार कन्वेंशन से किनारा कर लिया है. जैव हथियार मामले पर तो अमेरिका ने बिल्कुल साफ कर दिया था कि वो इन हथियारों को निषिद्ध करने के लिए राज़ी है बशर्ते अमेरिकी धरती पर किसी जैव हथियार उत्पादन फैक्ट्री का कभी मुआयना न किया जाए. अमेरिका ने प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्याय अदालत को स्वीकृति भी नहीं दी है. दूसरे देशों पर सैन्य अभियान की उसकी मर्जी का डंका तो बजता ही रहता आया है.


हेरॉल्ड पिंटर ने इस अमेरिकी दादावाद की धुनाई करते हुए लिखा था कि वो दर्प से भरा, बेपरवाह, अंतरराष्ट्रीय क़ानून की मानहानि करने वाला, संयुक्त राष्ट्र को मन मुताबिक ख़ारिज और तोड़ने मरोड़ने वाला- वो अब दुनिया में अब तक ज्ञात सबसे ख़तरनाक शक्ति है- विशुद्ध रूप से ‘लफंगा’ राज्य लेकिन विराट सैन्य और आर्थिक बल वाला ‘लफंगा’. और यूरोप- ख़ासकर ब्रिटेन- शिकायती और शिकार दोनों है. या जूलियस सीज़र में जैसा कि कैसियस कहता है: ‘हम अपनी ही अपमानजनक क़ब्रें देखकर चिंचियाते हैं.’


लेकिन. लेकिन अपनी ही इच्छाओं, लालच, दमन और कट्टरवादी आग्रहों के भारी बोझ में अमेरिका एक स्वर्ण जड़ित बूढ़े महादैत्य की तरह डोल रहा है. उसके फैलाए युद्ध दुनिया को धूल और ख़ून से भरकर अब दम तोड़ रहे हैं. दुनिया में घास उग ही रही है, हवाएं चल ही रही हैं और प्रतिरोध करने वाले अपने अपने ढंग से हर कहीं जमा हो रहे हैं. अमेरिका का विरोध उसकी नाक के नीचे वेनेज़ुएला ही नहीं करता, अमेरिका से कोसों दूर इधर उत्तराखंड में मेरे गांव का एक पूर्व हलवाहा भी करता है. पहले जिसकी खेती छूटी, डंगर छूटे, बीज छूटे, हल छूटा और फिर गांव. दुनिया में अमेरिकी ताक़त और भूमंडलीय पूंजीवाद के प्रति एक अत्यधिक घृणा और उबकाई है.

3 comments:

उम्मतें said...

शायद बाकी के हलवाहे भी इस मुस्कान को पहचानने लग जायें ? पर कब ?

Arvind K.Pandey said...

तुम जो इतना मुस्कुरा रहे हो !!!

Arvind K.Pandey

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dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

हमारे यहा मानते है जो बिना बात मुस्कराता रहता है और मुस्करा कर बात करता है ऎसा व्यक्ति विश्व्सनीय नही होता