Wednesday, November 24, 2010

संस्कृति का जनपक्ष : हबीब तनवीर


(उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी 'क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भों में भारत की जीवन शक्ति' में हबीब तनवीर ने यह व्याख्यान अंग्रेज़ी में दिया था जो 'नुक्कड़ जनम संवाद' में छपा था. आभा गुप्ता ठाकुर का यह हिंदी अनुवाद संवेद पत्रिका के जुलाई २०१० अंक से साभार)

अधिकतर मैं कुछ सूत्रों से मदद लेकर तात्कालिक भाषण दिया करता हूँ, पर ऐसे में शब्दों के भावावेग में बह जाने की प्रवृत्ति की वजह से समय का ध्यान नहीं रहता. मैंने एक व्याख्यान ही लिखा है, लेख नहीं, इसलिए मैं इसे पढ़कर सुना रहा हूँ.
कल के एक घंटे के व्याख्यान में ही अध्यात्म की काफी भारी खुराक आपको मिल चुकी है. मैं मूलतः एक रंगकर्मी हूँ. मैं कला को अध्यात्म से अलग-थलग नहीं देखता. कला हो या विज्ञान दोनों ही जीवन से सम्बंधित हैं. मेरा मानना है कि रंगकर्म जीवन के हर पहलू से सम्बंधित होता है. भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित अभिप्राय की ही तरह मैं प्रस्तुति कला को एक गंभीर अध्यात्मिक कार्य मानता हूँ.
मुझे अपनी लोक-कलाओं की जीवंत समृद्ध परंपरा और क्लासिकल नाटकों की महान विरासत पर गर्व है. जैसा कि अधिकाँश कला समीक्षक मानते हैं, ये एक दूसरे के विरोध में नहीं खड़ी हैं, अपितु के दूसरे से जुड़ी हुई हैं. स्पष्ट कारणों की वजह से मैं संस्कृत भाषा के ज्ञान से अनभिज्ञ रहा, पर मैंने अनुवाद के माध्यम से अपने धर्मग्रंथों, नाटकों एवं उपनिषदों से परिचित होने का प्रयास किया. मैंने ऋग्वेद के उस प्रसिद्द स्तोत्र का अनुवाद किया जो प्राचीन भारत की वैज्ञानिक दृष्टि का प्रतिबिम्ब है. यह स्तोत्र जिज्ञासा एवं प्रश्नाकुलता से परिपूर्ण है और अज्ञेयवाद की सीमा तक पहुंचे संशय के प्रति एक संबोध-गीति है. मैंने एक उर्दू कविता में इस स्तोत्र का भाषांतरण किया है. उर्दू मेरी मातृभाषा है और मैं मूलतः एक उर्दू लेखक हूँ. मैं उर्दू,हिंदी एवं छतीसगढ़ी में नाटक लिखता हूँ, पर मेरा सर्जनात्मक लेखन हमेशा अरबी लिपि में होता है. मैंने अपने जीवन में हिंदी काफी देर से सीखी. मैं हिंदी पढ़ता हूँ और ज़रूरत पड़ने पर सिर्फ व्यावसायिक पत्र हिंदी में लिखता हूँ.
मुझे अफ़सोस है कि उत्तर से दक्षिण तक के इतने व्यापक क्षेत्र में बोली जाने वाली समृद्ध भाषा उर्दू को हमारे देश के राजनीतिज्ञों ने एक राज्य तो क्या,एक शहर यहाँ तक कि एक मोहल्ला भी देना मुनासिब नहीं समझा. इस रूप में निश्चित ही इन लोगों ने इस समृद्ध भाषा को दुर्बल किया है. उर्दू सिर्फ मुसलमानों की भाषा नहीं है, बल्कि यह जनता की भाषा है और हिन्दू और मुसलमान दोनों कौमों में प्रचलित है. उर्दू गद्य और पद्य को विकसित करने में मुसलमानों का ही नहीं हिन्दू लेखकों का भी योगदान है. इन लेखकों में कुछ महत्त्वपूर्ण नाम हैं- मुंशी प्रेमचंद, चकबस्त,रघुपति सही 'फ़िराक', किशनचन्दर, राजेन्द्र सिंह बेदी आदि. उर्दू को अपनी जायज़ जगह न देकर और चालाकी से हिंदी साम्राज्यवाद के प्रसार के माध्यम से एक भाषा द्वारा दूसरी का दम घोंट दिया गया और इसके परिणामस्वरूप हिंदी भाषा स्वयं असक्त एवं कमज़ोर हो गयी. विश्व की अन्य भाषाओं में मौखिक और लिखित रूप में बहुत कम अंतर है. इसके विपरीत रेडियो तथा अन्य सरकारी उपायों के माध्यम से हिंदी के जिस सरकारी संस्करण को प्रचलित किया गया, वह मौखिक हिंदी से बिलकुल अलग थी, जिसके परिणामस्वरूप लिखित हिंदी के स्वरूप पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा और हिन्दी भाषा मूलतः मौखिक भाषा के रूप में ही सफल हो पायी.
इस तरह के विकृत विकास का केवल एक ही और उदाहरण मिलता है. हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानते हुए इसकी प्रतिक्रिया में पाकिस्तान ने उर्दू को इतने खतरनाक रूप से संरक्षण दिया कि पश्तो,पंजाबी,सिन्धी आदि समृद्ध भाषाएँ हाशिये पर धकेल दी गयीं और पाकिस्तान के उर्दू साम्राज्यवाद ने अंततः उर्दू को एक गूढ़ भाषा बना दिया. पाकिस्तान एवं हिन्दुस्तान का आम आदमी इन भाषाओं से इतना कट गया अपनी मातृभाषा समझने के लिए उसे विशिष्ट अकादमिक उपाधि की ज़रूरत पड़ने लगी. हमारी प्राचीन गौरवशाली समृद्ध देशी-बोलियों के साथ भारतीय न्याय व्यवस्था के इसी बर्ताव की वजह से संस्कृत के दिव्य शब्दों के साथ-साथ ध्वनियों से भी दूर रखा गया. इस तरह आभिजात्य वर्ग ने जनसंचार के माध्यम से जनता को अलग रखकर इस भाषा की ओजस्विता से वंचित रखा, जिससे वह आसानी से शासन कर सके.
हम सभी प्राचीन भारत के गौरव से परिचित हैं पर हमें देशभक्ति पूर्ण व्याख्यानों के माध्यम से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्राचीन भारतीय संस्कृति की महानता से परिचित होने की ज़रूरत है. हमने जहाँ अमीर खुसरो एवं गुरु नानक जैसे मुस्लिम और सिख संतों का आवाहन किया वहीँ इकबाल का गलत हवाला दिया. हमने समकालीन भारत के कुछ हिस्सों में अल्पसंख्यक जाति संहार, महान कवियों एवं गायकों की कब्रों का विनाश एवं मस्जिदों के ध्वंस की पृष्ठभूमि में भारत में धार्मिक विश्वासों,भाषाओँ एवं संस्कृतियों की विविधता का गुणगान किया. इस क्रम में कई कलाकृतियों, किताबों,फिल्मों एवं रंगमंच पर प्रहार किया गया और इस तरह से भारत को मजबूती प्रदान करने की दुस्साहसी कोशिशें की गईं जिससे आने वाले चुनाव में अल्पसंख्यक समुदाय के वोट हासिल किये जा सकें.
प्रोफ़ेसर यशपाल के द्वारा 'शक्ति' को कट्टर देश प्रेम के सन्दर्भ में परिभाषित करने पर मुझे इस शब्द से घृणा होती है. इस शब्द से अंधी उग्र राष्ट्रीयता की गंध आती है, जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और नकलची संस्कृति के रूप में प्रचलित हो गया है, विशेषतः इस सन्दर्भ में कि किसी राष्ट्र की जीवन-शक्ति से सम्बंधित पहली चर्चा अमेरिका,नीदरलैंड तथा जापान में प्रारम्भ हुई. मैं 'जीवन-शक्ति' (vitality) की जगह सामान्य शब्द 'शक्ति' का प्रयोग बेहतर मानता हूँ. अंग्रेजी शासकों, वर्तमान अमेरिकी मालिकों और बहुराष्ट्रीय संगठनों के प्रभाव में हम लोग नकलची राष्ट्र के रूप में परिवर्तित हो चुके हैं. हम अभी भी सीखने के दौर से गुज़र रहे हैं, क्योंकि लोकतंत्र का पश्चिमी ढांचा हमारे सामने पहले आया फिर पूंजीवाद. अतः पूंजीवाद के पश्चिमी संस्करण अभी भी अपने चरम उत्कर्ष पर हैं. लेकिन पूंजीवाद के परिणामस्वरूप विकास का कौनसा रूप हमारे सामने आया? तकनीक ने विज्ञान को अपने वश में किया और उसे पीछे छोड़ दिया, पूरी दुनिया को प्रदूषित और निरावृत्त कर दिया. मानव निवास के लिए अंतरिक्ष में जगह की खोज शुरू हुई और हर प्रकार के युद्ध की शुरुआत हुई - पेट्रोल के लिए,पानी के लिए, बाज़ार के लिए, राज्य पोषित आतंकवाद पर आधारित युद्ध, नस्ली युद्ध, गैर ईसाईयों से युद्ध आदि. ये युद्ध अफ्रीका,एशिया,पूर्वी यूरोप,लातिन अमेरिका तथा अन्य सभी जगहों में फ़ैल गए, लेकिन विशुद्ध पश्चिमी देशों में ये शायद ही कभी लड़े गए.
पश्चिमी संस्कृति की नकल की इस अंधी दौड़ में हमने अविकसित देशों की स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक विकास के ढाँचे को विकसित करने का स्वर्णिम अवसर खो दिया. हम यह भूल गए कि पूंजीवादी एकरूपता पर आधारित पश्चिमी समाज बंद गली के उस आखिरी मुकाम तक पहुँच गया है जहाँ युद्ध के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है. पश्चिमी जगत इस विनाश के कगार पर बहुत तेजी से पहुँचा, अविकसित देशों के लोगों ने उनकी इस गलती से सीखने का स्वर्णिम अवसर देखा. लेकिन हम भूल गए कि विकास के इस अराजक परिदृश्य और संतृप्ति के कगार पर पहुंचे मानव समाज के बीच भी सिर्फ अविकसित दुनिया के लोगों के पास स्वयं के विकास का ढांचा बनाने तथा अस्तित्व बचाने का दुर्लभ अवसर उपलब्ध था.
हमने अपनी आत्मा को प्रौद्योगिकी,भूमंडलीकरण,उपभोक्तावाद,उदारीकरण,खुली बाज़ार-व्यवस्था,अश्लील विज्ञापनों एवं जहरीले दूरदर्शन के शैतान को बेच दिया और हमने १३ प्रतिशत सेलफोन और वाहन धारकों को विपुल धन-संपत्ति के नशे में झूमने का मौका दिया है. इस तरह वंचितों की एक बहुत बड़ी आबादी जिसमें आदिवासी,दलित, किसान एवं शहरी निम्न मध्यवर्ग शामिल है, गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को बाध्य है,हज़ारों लोग आत्महत्या कर रहे हैं. पिछले पांच वर्षों में ग्रामीण एवं शहरी बेरोजगारों की संख्या में कई गुना बढ़ोतरी हुई है. कृषि प्रधान भारत के वही लोग जिनके उत्पादन ने 'चमचमाते भारत' को कायम रखा है, उन्हीं को इस साम्प्रदायिक एवं दूषित शिक्षा-व्यवस्था ने निरक्षर एवं अशिक्षित छोड़ दिया है. बस्तर के एक व्यक्ति ने मुझसे कहा-' तुम अपने शिक्षक को पढ़ाने के लिए पैसे देते हो, पर हमारे बच्चों को क्यों पढ़ने के लिए पैसे नहीं देते?'

(अगली किस्त में समाप्य)

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