Friday, November 19, 2010

जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन


लूट और दमन की संस्कृति के खिलाफ सृजन और संघर्ष को समर्पित जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन 13-14 नवंबर को दुर्ग (छत्तीसगढ़) में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। सम्मेलन में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, दिल्ली, राजस्थान, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों के प्रतिनिधि शामिल हुए। प्रो. मैनेजर पांडेय और प्रणय कृष्ण को पुनः जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष और महासचिव रूप में चुनाव किया गया। सम्मेलन में 115 सदस्यीय नई राष्ट्रीय परिषद का चुनाव किया गया। कामकाज के विस्तार के लिहाज से महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के प्रतिनिधियों को भी राष्ट्रीय पार्षद बनाया गया। प्रलेस के संस्थापक सज्जाद जहीर की पुत्री प्रसिद्ध कथाकार-पत्रकार और नृत्यांगना नूर जहीर समेत 19 नए नाम राष्ट्रीय परिषद में शामिल किए गए। मंगलेश डबराल, अशोक भौमिक, शोभा सिंह, वीरेन डंगवाल, रामजी राय, मदन कश्यप, रविभूषण, रामनिहाल गुजन, शंभु बादल और सियाराम शर्मा को जसम का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया। राष्ट्रीय कार्यकारिणी 35 सदस्यों की है, जिसमें सुधीर सुमन, भाषा सिंह, दीपक सिन्हा, सुरेंद्र सुमन, संतोष झा, अनिल अंशुमन, अजय सिंह, के. के. पांडेय, आशुतोष कुमार, बलराज पांडेय, संजय जोशी, सुभाष कुशवाहा, हिमांशु पंड्या, गोपाल प्रधान, कौशल किशोर, पंकज चतुर्वेदी, कैलाश बनवासी और सोनी तिरिया शामिल हैं।
सृजन और संघर्ष के दो बडे नाम- मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी सम्मेलन के केंद्र में थे। सम्मेलन के तमाम सत्रों में मंच पर लगे मुख्य बैनर पर दोनों की तस्वीरें थीं। दुर्ग के शंकर गुहा नियोगी हाल (बाकलीवाल स्मृति भवन) में हिरावल (पटना) के कलाकारों द्वारा मुक्तिबोध की ‘अधेरे में’ कविता के एक उत्प्रेरक अंश ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/ अब तक क्या किया/ जीवन क्या जीया’ के बेहद प्रभावशाली गायन से सम्मेलन की शुरुआत हुई और समापन हिरावल (भिलाई) द्वारा ‘अधेरे में’ की नाट्य प्रस्तुति से हुई। सम्मेलन ने बिहार के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के नायक का. रामनरेश राम, छात्र नेता राजेश, ‘सही समझ’ के संपादक और कथाकार सोहन शर्मा, रंगकर्मी शिवराम, जनकवि गिर्दा, रंगकर्मी अमिताभ दासगुप्ता और अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता को एक मिनट का मौन रखकर अपनी श्रद्धांजलि दी।
प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल ने ‘सत्ता और संस्कृति’ विषय पर मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यान दिया, जो कि सम्मेलन का उद्घाटन वक्तव्य भी था। मंगलेश डबराल ने इराक, अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले और भारतीय शासकवर्ग द्वारा आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, मजदूरों और किसानों के बर्बर दमन का जिक्र करते हुए कहा कि आज सत्ता को अपने किसी भी दुष्कृत्य के लिए कोई ग्लानिबोध नहीं रह गया है। साधारणजन की तकलीफों के प्रति सत्ता बिल्कुल संवेदनहीन हो चुकी है। कश्मीर में जनप्रदर्शनों के हिंसक दमन, अरुंधति राय को जेल भेजने की धमकी, दंतेवाड़ा में आदिवासियों की हत्याओं और विस्थापन, कामन वेल्थ गेम के नाम पर मजदूरो को दिल्ली से भगाए जाने जैसे कई प्रसगों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सत्ता बिल्कुल प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट हो चुकी है। एक अनियंत्रित आर्थिक उदारवाद की जो संस्कृति है, भाजपा और कांग्रेस उसके प्रवक्ता और वाहक हैं और उन्हें भारत में पनपे नवधनाढ़य नए मध्यवर्ग का निर्लज्ज साथ मिल रहा है। साधारण जनता के जो बड़े सांस्कृतिक मूल्य है सत्ता उसे खत्म कर देना चाहती है और लूट, बर्बरता के मूल्यों के प्रचार में लगी है, मीडिया उसका एक ताकतवर माध्यम है। मंगलेश डबराल ने कहा कि आज संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों को ऐसी सत्ताओं से अपने संबंध को पुनर्परिभाषित करना होगा। राज्य, पूंजी, बाजार या उसके उत्पाद और उसकी राजनीति के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध संगठित करना होगा।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि जो आतताई, निर्मम, लुटेरी और झूठ की सत्ता है, उसका होना ही मनुष्यता के प्रति अपराध है। उसके विकल्प के प्रति सोचना ही पड़ेगा। आज पूंजीवाद समाजवाद से लड़ने के लिए उसी सामंतवाद और धार्मिक प्रवृत्तियों का सहारा ले रहा है, जिसका कभी उसने विरोध किया था। हमारे पास जनता, समाजवाद और माक्र्सवाद से जुड़े लेखकों और संस्कतिकर्मियों के त्याग, समर्पण और संघर्ष की मिसालें हैं, उनकी स्मृति हमारी ताकत है, हमें उस ताकत के साथ मौजूदा सत्ताओं के खिलाफ खड़ा होना होगा। अन्याय और बुराई के खिलाफ जनता में जो बेचैनी और आक्रोश है, उसे अभिव्यक्ति देनी होगी। उद्धाटन सत्र में प्रलेस के महासचिव कमला प्रसाद, जलेस की केंद्रीय कार्यकारिणी की ओर से मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और चंचल चैहान द्वारा भेजा गया शुभकामना संदेश भी पढ़ा गया। कवि आलोक धन्वा ने भी सम्मेलन के लिए अपना संदेश भेजा था, जिसका पाठ किया गया। सम्मेलन को जलेस के नासिर अहमद सिकंदर और प्रलेस के रवि श्रीवास्तव ने भी संबोधित किया। मंच पर वीपी केशरी, रविभूषण, राजेंद्र कुमार, रामजी राय, अशोक भौमिक आदि भी मौजूद थे। संचालन अवधेश ने किया।
सम्मेलन को संबोधित करते हुए विशिष्ट अतिथि सुप्रसिद्ध कवि नवारुण भट्टाचार्य ने कहा कि मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी को याद करते हुए आज फिर से ‘संघर्ष और निर्माण’ के नारे की याद आती है। जिस तरह से आज का साम्राज्यवाद और उसके देशी दलाल अपने स्वार्थ में आदिवासियों और देश के मेहनतकशों के लिए विनाश और विस्थापन का चक्र चला रहे हैं, उसके खिलाफ फिर उसी नारे के साथ उठ खड़ा होना वक्त की जरूरत है।
दूसरे दिन सांगठनिक सत्र की शुरुआत मसविदा दस्तावेज के पाठ से हुई। दस्तावेज की शुरुआत जनभाषा में अवधेश प्रधान द्वारा रचित एक गीत से हुई, जो अपने आप में जसम के लक्ष्य की ओर भी संकेत करता है। उस गीत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कारपोरेट के हित में भारतीय शासकवर्गों द्वारा की जा रही लूट और लूट को जारी रखने के लिए किए जा रहे बर्बर दमन के यथार्थ के साथ उसके खिलाफ एक ताकतवर जनप्रतिरोध का आह्वान है। दस्तावेज ने इसे चिह्नित किया कि अमेरिका अपने देश में बेरोजगारी दूर करने लिए भारतीय बाजार के आखेट में लगा है। ओबामा इसी मकसद से भारत आए थे। विकास के नाम पर आदिवासी क्षेत्रों, जंगल, पहाड़, जल, जमीन के दोहन, भारी पैमाने पर विस्थापन, पर्यावरण विनाश और जनसंहार की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जाहिर करते इस दस्तावेज में यह कहा गया कि आज पूंजीवादी लोकतंत्र के हर खंभे की निष्पक्षता और स्वायत्तता स्वांग लगने लगी है। न्यायपालिका तक सत्ता की राजनीति और पूंजी के तकाजों से घिरी नजर आ रही है। अयोध्या और यूनियन कार्बाइड मामले में जो फैसला आया है, वह इसी का उदाहरण है। पेड न्यूज, अंधविश्वास, युद्धोन्माद, सांप्रदायिकता के सहयोगी होने और जनांदोलनों के प्रति विरोधी रुख के कारण मीडिया की भूमिका भी जनपक्षधर नहीं रह गई है। अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी कंपनियों-एजेंसियों के साथ सरकार, संसद, सैन्यबल, नौकरशाही, वित्तीय संस्थाओं, एनजीओ और मीडिया के स्वार्थपूर्ण समझौतों तथा शैक्षणिक, बौद्धिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर ग्राम पंचायतों तक लूट और दमन की संस्कृति के विस्तार पर गहरी फिक्र जाहिर करते सम्मेलन के इस दस्तावेज में जनता के प्रतिरोध की संस्कृति को संगठित करने पर जोर दिया गया। किसानों की आत्महत्या और आनर किलिंग के संदर्भ में जसम की ओर से मजबूत सांस्कृतिक हस्तक्षेप की जरूरत पर भी दस्तावेज में जोर दिया गया।
दस्तावेज पर विचार विमर्श की शुरुआत करते हुए प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि आज आशा के जो स्रोत हैं, उन्हें भी याद करने की जरूरत है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ क्यूबा, वेनेजुएला जैसे देशों का प्रतिरोध और सेज के खिलाफ भारतीय जनता के प्रतिरोध को उम्मीद की तरह देखना होगा। उन्होंने कहा कि संघर्ष की छोटी सी छोटी कोशिशों को भी दर्ज करना होगा। उन्होंने कहा कि कला-संस्कृति की सारी विधाओं में जनता के जीवन की जो अभिव्यक्ति हो रही है, उसे एक सुचिंतित वैचारिक दिशा देनी होगी। समाजवाद आज और भी प्रासंगिक हो गया है। समाजवादी सपनों की दिशा में संस्कृतिकर्म को गति देनी होगी। उड़ीसा से आए राधाकांत, पश्चिम बंग गण सांस्कृतिक परिषद् के नीतीश, जेवियर कुजूर-झारखंड, राकेश दिवाकर, सुनील चौधरी-आरा, सूर्यनारायण-इलाहाबाद, सुरेश पंजम-लखनऊ, आशुतोष कुमार-दिल्ली, संजय जोशी-गाजियाबाद, शोभा सिंह-लखनऊ, पंकज चतुर्वेदी-कानपुर, कपिल शर्मा-दिल्ली, समता राय-पटना, जय प्रकाश नायर-छत्तीसगढ़, मंगलेश डबराल-दिल्ली और के.के.पांडेय-इलाहाबाद ने सांगठनिक सत्र में चले विचार विमर्श में हिस्सा लिया। सांगठनिक सत्र की अघ्यक्षता रामजी राय, राजेंद्र कुमार, शंभू बादल और रामनिहाल गुंजन ने की।
जसम के इस सम्मेलन में कला-संस्कृति की कई विधाओं और शैलियों की छटाएं देखी गई। कला का हर रंग इस स्वप्न को सामने ला रहा था कि कैसे देश दुनिया में जनपक्षधर व्यवस्थाएं निर्मित हों, किस तरह मानवीय सभ्यता-संस्कृति की प्रगति हो। जो है उससे बेहतर चाहिए, मुक्तिबोध की यह चिंता जैसे सम्मेलन के केंद्र में थी। मुक्तिबोध के चारों पुत्र- रमेश, दिवाकर, गिरीष और दिलीप सम्मेलन में आए, यह सम्मेलन एक सुखद संयोग था।

भारतीय चित्रकला के प्रगतिशील पक्ष से अवगत हुए दर्शक

प्रसिद्ध चित्रकार-कथाकार अशोक भौमिक ने भारतीय चित्रकला का प्रगतिशील पक्ष’ विषय पर काफी जानकारीपूर्ण और सरोकारों के लिहाज से अत्यंत उपयोगी व्याख्यान दिया। उन्होंने भारतीय चित्रकला के इतिहास को, उस पर मौजूद राजनैतिक-आर्थिक प्रभावों का जिक्र करते हुए, पेश किया। धर्म, सामंती मूल्यबोध, मुगल और यूरोपीय कला से भारत की चित्रकला किस कदर प्रभावित रही और किस तरह बंगाल के भीषण अकाल और तेभागा आंदोलन के दौर में भारतीय चित्रकला में आम मेहनतकश जन के दुख-सुख और संघर्ष का दस्तावेजीकरण हुआ, इसकी भी उन्होंने चर्चा की। उन्होंने भारतीय चित्रकला को जनोन्मुख बनाने में कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित किया। अशोक भौमिक अपने कविता पोस्टरों के लिए भी चर्चित रहे हैं। जसम सम्मेलन स्थल पर लगाए गए राधिका-अर्जुन द्वारा बनाए गए पोस्टर उसी परंपरा को विकसित करने की एक कोशिश लगे।

कविता पोस्टरों के जरिए याद किए गए मशहूर कवि और शाय

यह वर्ष भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर शायर फैज अहमद फैज,मजाज, हिंदी कवि नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय का जन्मशताब्दी वर्ष है। राधिका-अर्जुन ने उनकी कविताओं पर आधारित बडे़ प्रभावशाली पोस्टर बनाए थे। इन कविता पोस्टरों के जरिए इन शायरों और कवियों की विचारधारा, काव्य-संवेदना और उनकी प्रतिबद्धता से दर्शक रूबरू हुए। नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘प्रतिबद्ध हूं’ के संकल्प के साथ एक पोस्टर में यह दिशानिर्देश भी नजर आया कि ‘साधारण जनों से/ अलहदा होकर रहो मत/ कलाधर या रचयिता होना नहीं है पर्याप्त/ पक्षधर की भूमिका धारण करो।’ पोस्टरों में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘हरिजन गाथा’ के अंश थे तो शासकीय दमन के प्रतिरोध में उतरे मुक्ति सैनिकों की तलाश भी थी। फैज के मशहूर नज्म ‘लाजिम है’ का यकीन एक ओर था तो दूसरी ओर आदमी में मौजूद लोहे की ताकत का बयान करती केदारनाथ अग्रवाल की कविता का अंश तो तीसरी ओर शमशेर की कविता में मौजूद ‘वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में पथ प्रदर्शिका मशाल’। अधिकांश कविता पोस्टरों में साधारण मेहनतकश जनता की इंकलाबी ताकत के प्रति गहन आस्था की अभिव्यक्ति थी। रक्तपायी शासकवर्ग के हित में जनता की बदहाली, शोषण-दमन आदि के सवाल पर चुप रहने वाले साहित्यिक-कविजन, चिंतक, शिल्पकार आदि के प्रति सख्त आलोचना मुक्तिबोध के साथ-साथ सर्वेश्वर, गोरख, मायकोव्स्की, पाब्लो नेरुदा, आलोक धन्वा की कविताओं पर आधारित पोस्टरों में भी थी। गुर्राते हुए भेड़ियों के खिलाफ मशाल जलाने और बेजुबानों की आवाज बनने का आह्वान और संकल्प का इजहार भी थे ये पोस्टर।
सांगठनिक सत्र में मंच की दायीं ओर लगा मशहूर कवि और गायक पाल राबसन की कविता पर आधारित पोस्टर एक तरह से जसम के राष्ट्रीय सम्मेलन के मकसद की अभिव्यक्ति था-

प्रत्येक कलाकार, प्रत्येक वैज्ञानिक
प्रत्येक लेखक को अब यह तय करना
होगा कि वह कहां खड़ा है
सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्ठभाग
नहीं है.....कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा।
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, या फिर गुलामी- उसे
किसी एक को चुनना ही होगा....
और कोई विकल्प नहीं है।

लोकार्पण

नवारुण भट्टाचार्य ने जसम सम्मेलन की स्मारिका का लोकार्पण किया। जिसमें जन्मशताब्दी वर्ष वाले रचनाकारों के अतिरिक्त पहल के संपादक ज्ञानरंजन, मैनेजर पांडेय, रघुवीर सहाय, निराला आदि की रचनाएं हैं। संपादन कैलाश बनवासी ने किया है। इस अवसर पर झारखंड के संस्कृतिकर्मी कालेश्वर गोप के कहानी संग्रह ‘मैं जीती हूं’ का लोकार्पण कैलाश बनवासी ने किया।
चित्र और मूर्ति प्रर्दशनी सम्मेलन में गिलबर्ट जोसेफ, सुनीता वर्मा, डीएस विद्यार्थी, एफ.आर. सिन्हा, बृजेश तिवारी, रश्मि भल्ला, जीके निर्मलकर और प्रांजली के चित्र तथा धनंजय पाल के चित्र प्रदर्शित थे, जो सम्मेलन का महत्वपूर्ण आकर्षण थे।

जनगीत, बाउल, डाक्युमेंटरी और फिल्म का प्रदर्शन

पश्चिम बंग गण परिषद की ओर से आए बाउल गायकों-नर्तकों ने अपनी प्रस्तुति के जरिए अद्भुत समां बांधा। भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के महानायक का. रामनरेश राम के निधन के तुरत बाद बनाई गई नीतिन की डाक्यूमेंटरी और ईरानी फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ भी सम्मेलन में दिखाई गई। शहीद गुरु बालकदास बाल मंच (जामुल/छत्तीसगढ़) और हिरावल (भिलाई) के बालकलाकारों की प्रस्तुति जितनी मनमोहक थी, उतना ही भविष्य की संभावनाओं से लैस थी। सम्मेलन में हिरावल (भिलाई), हिरावल (बिहार), दस्ता(इलाहाबाद) और युवानीति (आरा) के कलाकारों ने जनगीत पेश किए।

कविता पाठ

सम्मेलन के आखिरी सत्र के आरंभ में कविता पाठ हुआ, जिसमें नवारुण भट्टाचार्य ने अपनी बहुचर्चित कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश' का अंश सुनाया। मीता दास ने हिंदी में अनुदित उनकी कविताओं का पाठ किया। मंगलेष डबराल ने टार्च, भूख और भूत, मैं तैयार नहीं हूं, दरवाजे और खिड़कियां जैसी अपनी प्रसिद्ध कविताओं को सुनाया। विनोद कुमार शुक्ल ने भी अपनी तीन कविताओं का पाठ किया, जिसमें हमारे दौर की कई ज्वलंत समस्याओं को लेकर चिंता मौजूद थी। शोभा सिंह ने कश्मीर के हालात पर रची गई दो कविताओं और शमशेर की याद में लिखी गई अपनी कविता का पाठ किया। रमाशंकर विद्रोही ने नूर मियां के सूरमे और मानव सभ्यता में स्त्रियों के उत्पीड़न और दमन के खिलाफ लिखी गई अपनी लंबी कविता का पाठ किया। राजेंद्र कुमार की कविता में शासकों-प्रशासकों की खबर ली गई थी तो शंभू बादल की छोटी कविताएं जनजीवन की छोटी-छोटी उम्मीदें को बटोरने की एक कोशिश थी।
सम्मेलन का समापन हिरावल (बिहार) द्वारा गोरख पांडेय की स्मृति में रचित दिनेष कुमार शुक्ल की कविता ‘जाग मेरे मन मछंदर’ के गायन और हिरावल (भिलाई) द्वारा ‘अंधेरे में’ कविता की नाट्य प्रस्तुति से हुआ।
सम्मेलन में लेनिन पुस्तक केंद्र (लखनऊ), गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और समकालीन जनमत की ओर से बुकस्टाल भी लगाए गए थे।

--सुधीर सुमन

5 comments:

उम्मतें said...

अच्छी रपट !

Ashok Kumar pandey said...

साथियों को लाल सलाम…और न पहुंच पाने की क्षमा याचना

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अच्छी रपट!

suman rewa said...

behtar reportig

suman rewa said...

behtar