जन्मशताब्दी वर्ष
के बहाने अज्ञेय की प्राण प्रतिष्ठा के अभियान में अक्सर यह आरोप मढ़ा जा रहा है
कि अज्ञेय की आलोचना करते समय उनकी रचनाओं की अनदेखी की जाती रही है. या कि उनके
रचनाकर्म पर गंभीर विमर्श का अभाव रहा है. असद ज़ैदी और मंगलेश डबराल के ये लेख
अज्ञेय के रचनाकर्म की विभिन्न `विशेषताओं` की व्यापक, गंभीर और बेबाक
पड़ताल करते हैं. ये दोनों लेख समयांतर के जून 2011 अंक में छपे हैं.
अज्ञेय की विफलता
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-असद ज़ैदी
अज्ञेय मूलतः एक यथास्थितिवादी लेखक और चिन्तक थे. यथास्थितिवाद के बारे में दो आमफ़हम सी बातें अक्सर भुला दी जाती हैं. पहली तो यह कि यथास्थितिवादी आदमी ज़रूरी नहीं कि यथास्थिति की ज़ोरदार वकालत करे. बल्कि होता यह है कि वह यथास्थिति का ज़िक्र ही नहीं करता. पहले वह सन्नाटा बुनता है. वह बोलता ही तब है जब यथास्थिति के बदलने -- और उसकी उम्मीदों के विपरीत दिशा में बदलने -- के आसार बनने लगते हैं. तब भी वह रक्षक/प्रहरी की भूमिका में कम ही सामने आता है, बल्कि, अगर वह बुद्धिजीवी है तो, परिवर्तन पक्ष के मोर्चे पर नज़र जमाए रखता है. वह वहाँ बारीक तरीक़े से नैतिक और वैचारिक वैधता का संकट पैदा करता है, या परिवर्तन के विकल्प (विकल्प के विकल्प) दिखाने लगता है. अज्ञेय एक ऐसे ही आदमी थे. दूसरी बात यह है कि यथास्थिति किसी मृत, स्पंदनहीन या जड़ स्थिति का नाम नहीं बल्कि एक चलायमान स्थिति
का नाम हैं जिसमें व्यवस्था का भीतरी संतुलन, शक्ति संरचना, बुनियादी ढांचा और उसे बनाए रखने वाले भौतिक और मानसिक उपकरण अपनी क्रियाशीलता और
उपयोगिता बनाए रखें. यथास्थिति अपने को रोज़ पुनरुत्पादित करती है, उसमें ठोकपीट और 'मेंटेनेंस' का काम भी चलता रहता है (बक़ौल आलोकधन्वा, दुनिया रोज़ बनती है).यथास्थिति एक चलती हुई गाड़ी है, और जैसा कि इतिहासकार हॉवर्ड ज़िन कहते थे, "You cannot be
neutral on a moving train."अज्ञेय भी इस बात को जानते थे.
परेशानी दूसरी थी : अपने समय के यथास्थितिवादी रचनाकारों के सिलसिले की वह सबसे कमज़ोर कड़ी थे. अज्ञेय हमेशा किसी "बड़े साहब" की तरह लिखते थे औरउनकी कविता और कथा साहित्य को हमेशा इसी तरह - रियायत देकर - पढ़ा भी गया. बिना रियायत दिए उनको पढ़ना अपने आप को सज़ा देना है. पुराना उपनिवेश ख़त्म होने केएक डेढ़ दशक तक कुछ हवा बची रही और कुछ "ऊँची कुर्सियाँ", या कि उनका आभास, बचा रहा. फिर ज़माने ने अपनी राह ली. आश्रय और ताबेदारी के सामंती-औपनिवेशिकइथॉस और उसकी सलामती पर भरोसा करने वाली बंगले-वाली कविता के लिए गुंजाइश कम से कमतर होती गयी. बराबरी की तेज़ धूप में भाप की तरह उड़ जाने वाली कविता कोसाहित्येतर तरीक़ों से बनाए रखे जा सकता था. लेकिन ऐसे चैनल पूरी तरह अज्ञेय के नियंत्रण में न थे. नए हिन्दुस्तान में शक्ति संतुलन राजभाषा तंत्र को चलाने वाले राजनीतिकमध्यस्थों और हिन्दी विभागों में नव-स्थापित, सशक्तीकृत मध्यवर्ग के हाथ में आ गया था. इस सेक्टर में अज्ञेय को यथायोग्य मान-सम्मान तो मिला, किसी तरह कीसंचालाकीय भूमिका न मिल सकी. इस सेक्टर का अपना पिछड़ापन था, जो आचार्य रामचंद्र शुक्ल की खींची लक्ष्मण-रेखा से आगे जाने में हिचकता था, और शायद अक्षम भी.उनके लिए अज्ञेय की उपयोगिता सीमित थी. हालांकि इसमें दोष अज्ञेय का न था.
मेरी पीढ़ी के लिए 'अज्ञेय' हिन्दी साहित्य में औसतपन, उससे भी आगे देखें तो रचनात्मक बाँझपन, के अवतार थे. भावहीन भावात्मकता, बेजान अनुभव, निष्प्राण भाषा, कृत्रिम मुहावरे. किसी दौर में वे प्रतिभा के अच्छे पारखी रहे होंगे, पर हर तरह की मीडियॉक्रिटी को अपनी और खींचने, और लगभग उसी ताक़त से बाक़ी को विकर्षित करने, की चुम्बकीयप्रतिभा उनमें ताउम्र बनी रही. अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने अपने लोगों को लामबंद करके 'प्रतिभावानों' की जैसी सांस्कृतिक और जातीय जमात छोड़ी है वह अपनी मिसालआप है. जिसके ऐसे मुहाफ़िज़ हों उसे दुश्मनों की क्या ज़रूरत!
उन्हें हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद और नई कविता के जनकों में गिना जाता है. क्या इन दावों पर कभी ग़ौर किया गया है? क्या ये हिन्दी विभागों के पाठ्यक्रम की ज़रूरतों से उपजेऔर प्राध्यापकों के गढ़े हुए, कामचलाऊ पद नहीं हैं? इनके पीछे कोई गहरा ऐतिहासिक विवेक या आलोचनात्मक श्रम नहीं है. ज्ञानात्मक अवधारणा या साहित्य के समाजेतिहासकी श्रेणी के बतौर इनकी उपयोगिता संदिग्ध है. ऐसे छात्रोपयोगी वर्गीकरण और उनके गिर्द बुने गए विमर्श हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों की समझ को स्थायी रूप से जड़ता कीतरफ़ धकेलते हैं. क्या इस बात में अब विवाद की गुंजाइश है कि अज्ञेय के अनेक महत्वपूर्ण समकालीन उनसे कहीं ज़्यादा प्रयोगशील और आधुनिक थे और साहित्य में उनकायोगदान भी ज़्यादा बुनियादी था?
मैं यह बात किसी निरादर या अवज्ञा-भाव के तहत नहीं कहता, और न ही मैं अज्ञेय की राजनीति और सामाजिक-विचारधारात्मक आग्रहों को लक्ष्य करके कह रहा हूँ, क्योंकि वहपक्ष हमेशा ही स्पष्ट था और प्रायः चर्चा में रहता है. मैं यहाँ उनके साहित्य और सौंदर्यशास्त्र की, और हिन्दी साहित्य में उनके उस सफ़र की बात करना चाहता हूँ जिसकी तकमील'जय जानकी जीवन यात्रा' में न भी होती तो किसी और बदनसीब जगह पर होती. वत्सल निधि का गठन और उसके तत्वावधान में आयोजित बैठकें, व्याख्यान और यात्राएँ अज्ञेयके लड़ाका जीवन में कोई नया मोड़ नहीं था, बल्कि इस बात की तसदीक़ थी कि उनके पास बेहतर विकल्प नहीं बचा था.
1960 के दशक से, बल्कि उससे कुछ पहले से ही, वह अपनी प्रासंगिकता और 'पकड़' खोने लगे थे और अपनी भौतिक साधन-सम्पन्नता, सांगठनिक कौशल, संसाधन जुटाने कीक्षमता औरऔद्योगिक-सौदागर घरानों में और नेहरू युग की नौकरशाही के दक्षिणपंथी धड़ों में आशनाई के बावुजूद एक सांस्कृतिक बियाबान और निपट अकेलेपन में जी रहेथे. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आलमी पैमाने पर शीतयुद्ध के मोर्चे खुले तो अज्ञेय ने फिर से फ़ौजी अफ़सर की तरह हिन्दी प्रदेश की कमान संभाल ली और साम्यवाद-विरोधी स्पेशलसांस्कृतिक दस्तों के गठन का काम करने लगे. शीतयुद्ध के मोर्चों पर डटे रहना और कुछ चौकियों को जीत लेना एक बात है, पर कविता और कथा साहित्य की ज़मीन ही शिफ़्ट होचुकी हो तो कैसे सार्थक ढंग से हस्तक्षेप बनाए रखा जाए यह अज्ञेय को समझ में नहीं आ रहा था. वह एक क्विग्ज़ोटिक घुड़सवार की तरह मरीचिकाओं से लड़ रहे थे.
नई ज़मीन पर उनका नेटवर्क काम करना बंद कर चुका था, और उस वक़्त के वैचारिक और तकनीकी तक़ाज़ों को झेल पाने में वह मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक रूप सेअसमर्थ थे. वह सिर्फ़ मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, हरिशंकर परसाईं, राजकमल चौधरी, धूमिल और ज्ञानरंजन के लिए ही नहीं, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, धर्मवीरभारती, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, मलयज, विष्णु खरे, यहाँ तक कि अशोक वाजपेयी के लिए भी अप्रासंगिक हो चुके थे. किसी वक़्त 'प्रयोगवादी' और 'आधुनिक'कहा जाने वाला यह रचनाकार सबको नितांत अनाधुनिक और अजब 'नमूने' सा दिखाई देने लगा था. इनमें से कुछ ने मुरव्वत से, 'परिमलियन' वफ़ादारी में या निजी कारणों सेअज्ञेय से एक रस्मी, शरीफ़ाना ताल्लुक़ ज़रूर रखा, बाक़ी साहित्यिक दुनिया बिलकुल बेपरवाह रही. 'नया प्रतीक' और 'चौथा सप्तक' के प्रकाशन ने अज्ञेय की असमर्थता कोलेकर रही सही शंकाओं को भी दूर कर दिया. हिन्दी ज़बान और साहित्य में अज्ञेय युग शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गया. वह आज के उस वेंचर कैपिटलिस्ट जैसे थे, जो किसीस्टेज पर अपनी कल्पनाशीलता खो देता है और उसके निवेश डूबने लगते हैं.
सच बात तो यह है कि अज्ञेय ऐसे जनरल थे जिन्हें उनकी अपनी सेना ने ही अपदस्थ कर दिया था. इसमें वामपंथी साहित्यालोचकों का कोई ख़ास योगदान न था. अज्ञेय के इसजन्म-शताब्दी वर्ष में - जो कि शमशेर, नागार्जुन, फैज़, मजाज़, भुवनेश्वर, अश्क और केदार का भी शताब्दी वर्ष है - अचानक अज्ञेय के प्रशंसकों एक तबक़े ने इस सचाई पर पर्दाडालकर वामपंथी लेखकों पर "अज्ञेय की हत्या" का इलज़ाम धरना शुरू कर दिया है. यह हिन्दी के साहित्यिकों का अपना 'राइखस्टाग फ़ायर ट्रायल' है. विडम्बना यह है कि हिन्दीके कुछ वामपंथी अध्यापकों ने पूरे वामपंथी आन्दोलन की तरफ़ से इस जुर्म का इक़बाल करके तत्परता से क्षमायाचना और भूल-सुधार की मुहिम सी चला दी है. जो अपराध कियानहीं उसका श्रेय लेने की यह जल्दबाज़ी क्यों? नाकर्दा गुनाहों पर यह कैसी शर्मसारी!
अव्वल तो यह गुनाह, अगर यह गुनाह है तो, सिर्फ़ वाम का किया नहीं है. उसका हिस्सा तो बहुत मामूली है. वामपक्ष अगर अज्ञेय जैसे शीतयुद्ध की कमान संभाले हुए लेखक परख़ामोश रहता तो ज़रूर अजीब बात होती. पर वामपंथी आलोचना ने अज्ञेय का ख़ास नुक़सान भी क्या किया? हिन्दी के बहुत सेवामपंथी प्राध्यापक-आलोचकों ने 1950 के दशक केमध्य से ही 'शुक्ल-संहिता' और हिन्दी प्रतिष्ठान के द्वारा निर्धारित खेल के नियमों के भीतर ही अपनी वाम अस्मिता परिभाषित की है, और अक्सर सांस्कृतिक दक्षिणपंथ के साथबड़ा 'सूझबूझ' भरा तालमेल रखा है. इन लोगों ने क्या तो अज्ञेय का कुछ बिगाड़ा - और अगर कुछ बिगाड़ा तो मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय को भी कितना बख्शा! अकादमिक हलकोंके बाहर संघर्षशील वाम प्रतिबद्धता से प्रेरित साहित्य और समालोचना पर समर्पणवादी दबाव कम थे, और वाम अंतःकरण वहीं महफूज़ भी रहा. वामपंथी आलोचना की अस्मिताअज्ञेय-विरोध से तय नहीं हुई है; उसके सरोकार ज़्यादा व्यापक और सामाजिक रहे हैं. यह अज्ञेय ही थे जिनका वुजूद वामपंथ से गहरी नफ़रत और किसी भी मुक्तिकामीसामाजिक चिंता से फ़रार में रंगा हुआ है. (वह 'शरणार्थी' जैसी तथाकथित विभाजन-विषयक रचना में भी खुदग़रज़ी और साम्प्रदायिक विद्वेष दिखाने से बाज़ नहीं आते).
तो इस नए 'वामपंथी पश्चात्ताप' का आधार क्या है? और इस पश्चात्ताप को वाजिब ठहराने के लिए क्या अतीत को बदलना ज़रूरी है? इस कायापलट को वामपंथी परम्परा कादीर्घ-प्रतीक्षित भूल-सुधार कहा जाए या इतिहास का मनमाना पुनर्लेखन? अपनी गुमराही को न्यायोचित ठहराने के लिए सांस्कृतिक प्रतिरोध की परम्परा को इतना धुंधला करदिया जाए िक वर्तमान में प्रतिरोध की जगह सिर्फ़ प्रतिरोध का विमर्श या 'जेस्चर' ले ले? क्या यह उस व्यापक राजनीतिक संशोधनवादी पुनर्गठन का ही एक आसार नहीं है जोआज भारतीय वामपंथ के अनेक हल्क़ों पर एकबारगी क़ाबिज़ हुआ चाहता है.
अब उस मशहूर सेल्फ़ की तरफ आएँ जिसका कि चर्चा अज्ञेय के मामले में अक्सर किया जाता है. न सिर्फ़ उनके अनुयायी बल्कि अनेक विरोधियों ने आत्मा का शिल्पी,आत्माभिव्यक्ति का मननशील कलाकार, अंतर्मन का चितेरा, आत्म-केन्द्रित मेधा का भटका मेघ इत्यादि कहा है. यह हिन्दी साहित्य विमर्श का एक स्कैंडल ही है. यह कहना तोज़्यादती होगी कि अज्ञेय के यहाँ आत्म (सेल्फ़) ही ग़ायब है, पर अज्ञेय का आत्म एक आत्म-हीन आत्म है; वह किसी भी तरह की आन्तरिकता से ख़ाली है. उनका आत्म उनकीत्वचा ही है - बाहर और भीतर दोनों ही तरफ़ से. उनका आत्म ढोल, पखावज या तबले जैसे चमड़े मढ़े वाद्यों के तरह है जिनपर बाहर से ज़र्ब पड़ती है तो उनके खोखल में भी वहीझंकार होती है.
जिस कविता 'नाच' के हवाले से उनकी काव्य-प्रतिभा और काव्य-विवेक को रेखांकित किया जाता है, वह इस औसतपन का उत्कर्ष ही है. यह जन्मशती का दबाव है कि उत्सवधर्मीमौक़ापरस्ती कि अभिव्यक्ति में ऐसी बोदी, संरचना में ऐसी भोली और अंतर्वस्तु में इतनी लचर चीज़ को कुछ लोगों ने बीसवीं सदी की बहुत महत्वपूर्ण हिन्दी कविता का दर्जा देडाला है. पाठ्यालोचना करने बैठें तो इसकी मुआमलाबंदी, इसका इकहरापन और शब्दार्थवाद हैरान करने वाला है. कहते हैं अज्ञेय को अमूर्त से बहुत प्यार था, पर उन्हें कभीअमूर्तन का मसरफ़ पता न चला. He was more in love
with the idea of love. या बक़ौल ग़ालिब : 'हूँ मैं भी तमाशाई-ए नैरंगे तमन्ना / मतलब नहीं कुछ इससे कि मतलब ही बरआए.' लेकिन न यहाँ ग़ालिब का लुत्फ़ है न मानीसाज़ी. यह कविता तमाशाई और तमाशे दोनों को घटाती और डि-ग्रेड करती है. इसमें यह दुराग्रह बिना किसी तजरबे के व्यक्त करदिया गया है कि दर्शक/रसिक के दृष्टिक्षेत्र में रचना की प्रक्रिया, रचनाकार की तकलीफ़ और जोखिम, रचनाकर्म की भौतिक और लौकिक परिस्थिति आती ही नहीं, उसकी निगाहसिर्फ़ उसके अमूर्त हासिल ("नाच") पर होती है. ऐसी कविता अगर ठाले बैठे राज्यपाल या उपराष्ट्रपति लोग लिखें तो क्षम्य है. पर इसे हाल में एक आधुनिक साहित्य की विभूति,भारतीय साहित्य के 'निर्माता', एक 'नोबेल उम्मीदवार' की प्रतिनिधि रचना और उसकी जीनियस के नमूने के बतौर सगर्व पेश किया गया है. ऐसा हमारी हिन्दी ही में संभव है!
कविता का सपाट चेहरा
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-मंगलेश डबराल
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की जन्मशती की धूमधाम के बीच कई तरह से यह कहा जा रहा है किउनका पाठ फिर से किया जाना चाहिए क्योंकि उनमें अपने देश-काल के गंभीर साक्ष्य हैं। ऐसे स्वर भी सुनाई दिये हैं कि हिंदी में अज्ञेय का वही महत्व है जो बांग्ला में रवींद्रनाथ ठाकुर का है। विभिन्न अनुष्ठानों, रजत, स्वर्ण और प्लेटिनम जयंतियों या अमृत महोत्सवों के समय लोगों को उदात्त और अतिशय शब्दावली में याद करना हम भारतीयों की चिरपरिचित प्रवृत्ति है। वास्तविकता यह है कि रवींद्रनाथ का प्रभाव बांग्ला समाज और परवर्ती साहित्य पर इतना गहरा है कि कई रचनाकारों ने बहुत प्रयत्न करके उनसे मुक्ति पाने की कोशिश की । सुकांत भट्टाचार्य से लेकर सुनील गंगोपाध्याय तक अनेक लेखकों-कवियों ने उनकी परंपरा से खुलमखुल्ला विद्रोह किया लेकिन अंततः यह पाया कि रवींद्रनाथ की उपस्थिति,उनकी जड़ें बांग्ला संस्कृति में इतनी व्यापक और बुनियादी हैं कि उनसे पीछा छुड़ाना मुमकिन नहीं। कविता, कहानी, गीत-संगीत, उपन्यास, नाटक, नृत्य,निबंध, चित्रकला, रंगकर्म, अभिनय, हर विधा में वे इस कदर बैठे हुए हैं। प्रसिद्ध बांग्ला फिल्मकार ऋत्विक घटक कभी-कभी अपनी मुंहफट शैली में कहते थे: "हम जहां भी जायें, हर रास्ते पर वह बूढ़ा दाढ़ी हिलाता हुआ दिखाई दे जाता है।'
रवींद्रनाथ की इस उपस्थिति के संदर्भ में अज्ञेय को देखा जाये तो वह लगभग नगण्य दिखती है और कुछ आश्चर्य होता है कि कवियों की परवर्ती पीढ़ियों पर अज्ञेय की संवेदना और उनके विवेक का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना सरीखे प्रमुख कवि
, जो कि अज्ञेय से अपनी निकटता के दौर में भी सामाजिक रूप से जागरूक कविता लिख रहे थे, जल्दी ही अज्ञेय के प्रभामंडल से बाहर आ गये। अक्सर देखागया है कि एक पीढ़ी की संवेदना अगली पीढ़ी तक भले ही न जाती हो, लेकिन उसका विवेक जरूर हस्तांतरितहोता रहता है। अज्ञेय की विडंबना यह है कि उनका काव्यात्मक विवेक उन्हीं तक सीमित रहा और परवर्ती कविता के काम का नहीं साबित हुआ। यहां तक कि अज्ञेय की तुलना में काफी कम कविता लिखने वाले विजयदेव नारायण साही की कविता से नयी पीढ़ी ने कहीं अधिक संवाद कायम किया। इसी तरह बच्चनजैसे लोकप्रियतावाद की ओर झुके हुए कवि की भाषा ने शमशेर बहादुर सिंह और रघुवीर सहाय तक को प्रभावित किया। इसमें संदेह नहीं कि तीन सप्तकों के संपादन के माध्यम से अज्ञेय ने नयी कविता की एकबड़ी पीढ़ी को रेखांकित करने का ऐतिहासिक काम किया था और तीनों सप्तकों में शामिल 21 कवियों में से करीब दस कवि अपनी रचना की सार्थकता को अंत तक सिद्ध करते रहे। लेकिन बाद में कविता के नये परिदृश्यऔर नये प्रस्थापना बिंदुओं से अज्ञेय का कितना संबंधरह गया था, इसका एक स्थूल प्रमाण उनके द्वारा संपादित "चौथा सप्तक' में दिखाई देता है जिसमेंशामिल सातों कवि कोई अर्थवान कविता नहीं लिख सके।
आखिर अज्ञेय की विपुल मात्रा में लिखी कविता किसीकाम की क्यों नहीं बन पायी
? जीवन के अंतिम वर्षों में उनकी "नाच', "घर', "चीनीचाय पीते हुए', "मेरे देश की आंखें' जैसी कुछ कविताओं में सत्तर और अस्सी के दशक की कविता का रचाव प्रभाव दिखाई देता है, लेकिन इसके बावजूद उनकी यहनयी प्रयोगधर्मिता स्थायी महत्व की साबित नहीं हो पाती। इसके कारण शायद अज्ञेय की कविता में ही निहित हैं। उन्होंने कविता की प्रक्रिया, भाषा, व्यंजना और बात के संदर्भ में भी कई कविताएं लिखीं हैं। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि छायावाद से बाहर जाने, "मैले हो चुके उपमानों' और "कूच कर गये प्रतीकों के देवताओं' से मुक्ति पाने और प्रेमिका को "ललाती सांझके नभ की अकेली तारिका' की बजाय "हवा मेंलहलहाती बाजरे की छरहरी कलगी' जैसा नया संबोधन देने की कोशिश में अज्ञेय के लिए अपनी कविता काघोषणापत्र लिखना जरूरी था। लेकिन यह प्रयोगधर्मिता शुरू से ही अपनी सीमाओं के साथ प्रकट हुई थी। सन् 1949 की एक कविता में वे कहते हैं: "एक मौन ही है जो अब भी नयी कहानी कह सकता है/ इसी एक घट मेंनवयुग की गंगा का जल रह सकता है।' दरअसल अज्ञेय का यह मौन वर्षों पहले ही उनकी काव्य संवेदना की प्रस्थापना बन चुका था और वह "असाध्य वीणा' को पार करता हुआ आखिरी दौर की "छंद' जैसी कविता तक चला आता है जिसमें वे कहते हैं: "शब्द में मेरीसमाई नहीं होगी/मैं सन्नाटे का छंद हूं।' अज्ञेय का यह मौन और सन्नाटा हिंदी के अकादमिक जगत औररूपवादी कहे जाने वाले कवियों के बीच प्रबल आकर्षणऔर चर्चा का विषय रहा हैऔर इसे कविता की प्रक्रिया का एक पर्याय मान लिया गया है। यह और बात है कि हिंदी विभागों से बाहर कवियों की विशाल बिरादरी में इस मौन की कोई अनगूंज नहीं सुनी गयी और शब्द कीसीमाएं बतलाने के अज्ञेय के प्रयासों को उनके काव्य की सीमा के रूप में ही देखा गया। आखिरकार, कवि शब्दोंके ही कारीगर होते हैं और उनके अनुभवों की सारी समाई शब्दों में ही होनी चाहिए। अज्ञेय की कविता इस बात का उदाहरण है कि एक उत्कट प्रयोगधर्मिता और नयी राहों की खोज अगर किसी उतनी ही उत्कट अंतर्वस्तु और अनुभवों से संपन्न न हो तो वह किसतरह मौन और मूकता के घट में गंगाजल की तरह रखी हुई रह जाती है।
अज्ञेय नाम की त्रासदी की एक तस्वीर डॉ
. नामवर सिंह द्वारा संपादित और जन्मशती के उपलक्ष्य में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित "अज्ञेय: संकलित कविताएं' से उभर कर आती है। इसकी कुल153 कविताओं में अज्ञेय के काव्य का भरसकप्रतिनिधित्व करने की कोशिश की गयी है हालांकि भूमिका में कहा गया है कि "अन्य संकलनों की तरह यह संकलन भी संपादक की अपनी रुचि और विवेक का फल है।' बेमन से लिखी हुई साढ़े तीन पृष्ठों की इस सामान्य-सी भूमिका में डॉ. नामवर सिंह गहरे पानी में न जाकर अज्ञेय की कविता की कुछ स्थूल और बाहरी विशेषताओं, उनके कुछ काव्य गुणों का उल्लेख करते हैं। मसलन यह कि "नाटकीयता अज्ञेय की कविता काउल्लेखनीय पहलू है। वह सटीक शब्दों के चयन मेंजितने सर्तक हैं उतने ही कुशल हैं नये शब्दों को गढ़ने में और ऐसे शब्दों की एक लंबी सूची बनायी जा सकती है जो उन्होंने हिंदी को दिये हैं।' या यह कि "वह अपनीकविता में भी कम-सुखन हैं। क्या मजाल कि उनकी कविता में भूल से भी कोई फालतू शब्द आ जाये।' नामवर जी यह बताना भी नहीं भूलते कि "अज्ञेय मीठे व्यंग्य और विनोद का भी शौक रखते हैं।' लेकिन इस भूमिका में डॉ. नामवर सिंह की दो धारणाएं खास तौर से गौर करने लायक हैं। एक तो यह कि "ध्यान से देखें तो अज्ञेय हिंदी में प्रकृति के शीर्षस्थ चित्रकार हैं। उनकी कविता की चित्रशाला में कोमल रूप-छवियों के साथ "अंधड़' के लिए भी यथोचित जगह है', और दूसरी यह कि "अज्ञेय की सच्ची तस्वीर उनकी "नाच' शीर्षक कविता के उस नट की है जो दो खंभों में बंधी हुई तनीरस्सी पर नाचता है।'
हिंदी में प्रकृति के शीर्षस्थ कवि का दर्जा अभी तक सुमित्रानंदन पंत को ही मिला हुआ है। वे पेड़ों
, पत्तों, चिड़ियों, बादलों, हिमशिखरों, तारों-नक्षत्रों, सुबह की किरणों और चांद से भरी हुई रातों के आदिकवि हैं। "प्रकृति का भूधराकार शरीर' उन्हीं के पास है और उसका "मौन निमंत्रण' भी। उनकी बहुत सी कविताओंमें निसर्ग अपने मौन के माध्यम से निमंत्रण देता रहता है। इसी कारण बदलते हुए काव्य यथार्थ के संदर्भ में पंत की कविता जल्दी ही अप्रासांगिक भी करार दी गयी।लेकिन जब नामवर सिंह सरीखे विद्वान प्रकृति का यहमुकुट अज्ञेय के सर पर पहनाते हैं तो आश्चर्य होता है कि वे अपनी ही बहुचर्चित पुस्तक "छायावाद' को भूल रहे हैं और एक ऐसे कवि को शीर्षस्थ बता रहे हैं जो पंत की कविता से छूटी हुई प्रकृति के चित्र उकेरता है। प्रकृति के रौद्र-उद्दाम चित्रकल्प भी अज्ञेय के "अंधड़' की तुलना में पंत की कविता में अधिक दिखेंगे। अपनी एक कविता में वे बादल को पृथ्वी की तरह उड़ते हुए चित्रित करते हैं। दरअसल, प्रकृति ही नहीं, अज्ञेय की संवेदना, शब्द-योजना और चित्रात्मकता पर सबसे अधिक प्रभाव पंत की कविता का ही है। फर्क शायद यह है कि पंतप्रकृति को एक स्वायत्त, मनुष्य से कहीं बड़ी सत्ता की तरह व्याप्त देखते हैं और"द्रुमों की मृदु छाया' को छोड़कर किसी "बाले के बाल-जाल' में अपने "लोचन' नहीं उलझाना चाहतेजबकि अज्ञेय "नीड़ों में उमंगों सी चढ़ती डगर', "दर्द की रेखा जैसी नदी' और "मौन नीड़ोंमें विहग-शिशु' को सिर्फ "आंख भर' देखते हैं।
सामाजिक संदर्भों पर लिखी हुई कविताओं को छोड़ देंतो अज्ञेय जब भी प्रकृति की ओर जाते हैं
, उनकी संवेदना में पंत हमेशा दस्तक देते रहते हैं: "सामने था आर्द्र तारा नील', "बुझ गया आलोक जग में/ धधकते हैं प्राण मेरे', "रात के सहमे चिहुंकते बाल-खग अब निडर हो चुप हो गये हैं', "यह पथ अगम अंधेरा हो/ अनुभव का कटु फल मेरा हो', "कब कैसे किस आलोक-स्फुरण में इन्हें/ मिला दूं/दोनों हैं जो बंधु सखाचिर सहचर मेरे', "नीचे तरु-रेखा से मिलती हरियालीपर बिखरे रेवड़ को दुलार से टेरती हुई सी गड़रिये की बांसुरी की तान' इसके कुछ उदाहरण हैं। यह शब्दावली कुल मिलाकर नव-छायावादी है, उसकी संरचना भी "देवि-सहचरी-प्राण' जैसी पंक्ति लिखने वाले पंत की रचनाओं से मिलती है और वह प्रयोगधर्मिता, जो "कलगी बाजरे की' सरीखी कविताओं में आज भी पाठक को आकृष्ट करती है, फिर से छायावाद की शरण में चली जाती है। वह प्रकृति को मनुष्य के लिए किन्हीं नये अर्थों में अन्वेषित नहीं करती, जैसा हमें शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल के अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रकृति-काव्य में दिखता है। यही नहीं, शायद हरिवंश राय बच्चनप्रकृति के पर्यवेक्षण में अज्ञेय से अधिक आधुनिक कहे जायेंगे।
अज्ञेय को आधुनिक कविता से एक शिकायत यह रहीकि वह बोलती बहुत है, जबकि "कविता को बोलना नहीं चाहिए।' सच यह है कि हिंदी कविता में मौन की उपस्थिति ज्यादा नहीं है और निराला, प्रसाद, महादेवी के छायावाद से शमशेर-नागार्जुन-मुक्तिबोध की त्रयी और फिर बाद के अधिकतर कवियों की रचनाएं अपने देशकाल को मौन के भीतर रूपायित करने की बजाय उसमें हमेशा एक मुखर हस्तक्षेप करती हैं इसलिए इनमें से कोई कवि अज्ञेय का निकटवर्ती नहीं लगता। हिंदी आलोचना इस पर एकमत है कि अज्ञेय की "असाध्य वीणा' उनके मौन की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति है और उनके काव्य-चिंतन का सार भी है। डॉ. नामवर सिंह भी इस संकलन में कहते हैं कि "कवि की दृष्टि में मौन ही श्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो सकता है।' मूलतः एक चीनी लोककथा पर आधारित यह कविता अपने पूरे शिल्प-लाघव के साथ उस वीणा से संगीत के अवतरण को संभव करती है जिसे कोई नहीं बजा सका था औरयह तभी संभव होता है जब स्वयं महामौन एक साधक के रूप में उपस्थित होकर वीणा को गोद में लेता है और वीणा स्वयं इस तरह गा उठती है कि उसका स्वर सबके भीतर गूंजने लगे। किसी श्रोता को उसके स्वर में "तिजोरी में सोने की खनक' सुनाई देती है, किसी को "अन्न की सोंधी खुशबू', किसी को "मंदिर की ताल-युक्त घंटा ध्वनि' और किसी को "लोहे पर सधे हथौड़े कीचोटें।' यानी हर व्यक्ति उसमें अपना प्रिय राग सुन लेता है। ज़ाहिर है कि यह यथास्थिति,आत्म को पहचानने, आत्म-सिद्धि का राग है, उसमें कोई परिवर्तन उपस्थित करने का नहीं। यह वीणा जिस पेड़ की लकड़ी से निर्मित हुई है, जिस प्रकृति,बादल, वर्षा, कुहरे, जीव-जंतुओं, गड़रियों की बांसुरी और पर्वतीय गांव के उत्सवों ने उस पेड़ को "अभिमंत्रित' किया है, उस सबका अवतरण और अभ्यर्थना करती हुई यह कविता एक मिथकीयप्रभामंडल की सृष्टि करती है, लेकिन अंततः इतने बड़ेप्रयत्न का विसर्जन सिर्फ एक महामौन में होता है और उसके साथ कवि की "वाणी भी मौन' हो जाती है। विडंबना यह है कि यह वह मौन नहीं है जिसमें हिंदी समाज-बल्कि हिंदुस्तानी समाज- और उसका मन जीता है, बल्कि यह एक अवधारणात्मक, अर्ध-दार्शनिक-सा मौन है जो अपनी कोई अनुगूंज नहीं छोड़ता, अपना अध्यात्म प्रकट नहीं करता और एक निरावेग-निरात्म शून्य में तिरोहित हो जाता है।
अज्ञेय की एक और कविता
"नाच' पर इन दिनों खास तौर से गौर किया जा रहा हैऔर उसे रचनाकार के अंतर्जगत के साक्ष्य के तौर पर पढ़ा जा रहा है। डॉ. नामवर सिंह ने एकाधिक जगह उसकी चर्चा की है और मार्क्सवादी युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने उस पर एक कुतूहल-भरी टिप्पणीभी लिखी है। बेशक, "नाच' अज्ञेय की जानी-पहचानीतत्सम शब्दावली से मुक्त, एक चुस्त शिल्प में ढली हुई कविता है जिसमें रस्सी पर चलकर दर्शकों को रोमांचित करने वाले नट की यह विडंबना दर्ज हुई है कि लोगउसकी रस्सी, खंभों, रोशनी और तनाव को नहीं, बल्कि सिर्फ उसके नाच को देखते हैं अर्थात अंतर्क्रिया की पीड़ाको नहीं,उसकी परिणति से ही सरोकार रखते हैं। इस कविता की अंर्तवस्तु निश्चय ही मार्मिक है और नटों के करुण कठोर जीवन से जरा भी परिचित लोग जानते हैंकि उनके अबोध बच्चे तक रोजी-रोटी के लिए किस तरह इस कला में माहिर बना दिये जाते हैं। पूरे देश में फैले हुए नटों की यह परंपरा गरीब तबकों से लेकरसर्कस के कलाकारों तक मौजूद हैऔर सामंती दौर मेंउत्तराखंड जैसी जगहों में राजा के आदेश पर नटों को ढोलक बजाते हुए रस्सियों पर चलना और उनसे नीचे उतरना पड़ता था और इस खेल में कई बार उन्हें प्राण गंवाने पड़ते थे। लेकिन अज्ञेय का यह नट अपनीसामाजिक और वर्गीय चेतना से विच्छिन्न, एक हदतक नट का एकांतिक और आद्य-रूप है: जीता-जागतानट नहीं, बल्कि उसका एक प्रतीक, जो देशकाल-विहीन अपने निस्संग अकेलेपन में एक रस्सी पर चलता है और जिसे देखकर एक तकलीफदेह कला पर गुजारा करने वालों की याद नहीं आती।
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नाच' अगर पाठक को विचलित नहीं करती और सिर्फकुतूहल पैदा करके रह जाती है तो इसकी वजह यह है कि उसमें उस वस्तुगत सह-संबंध(ऑबजेक्टिवकोरिलेटिव) का अभाव है जिसे तमामआधुनिकतावादियों के आदर्श टीएस एलियट कविता के लिए लगभग अनिवार्य मानते थे और जिससे कथ्य के अंतर्संबंधों की विश्वसनीय पहचान संभव होती है। कविता यह बताने से चूक जाती है कि नट आखिर क्यों गांठ को खोलकर रस्सी के तनाव में ढील देना चाहता है (वैसे भी यह तथ्य का निषेध है क्योंकि कोई नट ऐसानहीं चाहता) और दर्शक क्यों रस्सी, गांठ, तनाव, रोशनी और खंभे की अनदेखी करते हैं। यथार्थ में नटों के कतरब देखने वाले दर्शक ऐसा नहीं करते। "वस्तुगत सह-संबंध' के अभाव में इस कविता का नट बेशक गिरता नहीं हैलेकिन कविता जरूर गिर पड़ती है। इस सह-संबंध के कई उदाहरण खोजे जा सकते हैं। मसलन, धूमिल जब "मोचीराम' में जब यह कहते हैं कि "सच कहूंबाबूजी/मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है/जो मेरेसामने मरम्मत के लिए खड़ा है' या रघुवीर सहाय "रामदास' कविता में बताते हैं कि "रामदास उस दिन उदास था/अंत समय आ गया पास था/उसे बता यह दिया गया था/उस दिन उसकी हत्या होगी' तो हमें उनकी विश्वसनीयता यानी वस्तुपरक सह-संबंध के लिए कविता से बाहर नहीं जाना पड़ता।
इस संचयन में अज्ञेेय सौ वर्ष बाद एक ऐसे कवि के रूप में उभरते हैं जिनका भूगोल ऊंचाइयों
-गहराइयों से नहीं, बल्कि समतल-सपाट रेखाओं से निर्मित हुआ है। इसमें अज्ञेय की कुछ चर्चित कविताएं भी छूट गयी हैं। मसलन, "घृणा का गान', "पराजय है याद', "हरी घास पर क्षण भर', "कांगड़े की छोरियां', "जितना तुम्हारा सच है', "सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान', "बांगर और खादर', "भार' और"औपन्यासिक' जैसी कविताएं इस लिहाज से उल्लेखनीय अनुपस्थिति हैं। भारत विभाजन के समय हुए दंगों पर लिखी गयी "शरणार्थी' श्रृंखला की कविताएं भी यहां नहीं हैं जिन पर जाने-माने मार्क्सवादी आलोचक डॉ. मेनेजर पांडे और कवि राजेश जोशी ने पिछले दिनों काफी सकारात्मकटिप्पणियां करते हुए अज्ञेय के सामाजिक सरोकारों को याद करने की कोशिश की है। लेकिन ये सब कविताएंअगर इस संचयन में शामिल होतीं तब भी इसमें संदेह है कि अज्ञेय अपनी समतल कविता से और हिंदी के अकादमिक सरोकारों से ऊपर उठ पाते। अक्सर लगता है कि कई वर्ष पहले शमशेर बहादुर सिंह ने अज्ञेय के बारे में अपनी जो संक्षिप्त राय दी थी उसमें शायद अज्ञेय का समग्र आकलन था। शमशेर सराहना करने के मामले में अत्यंत उदार थे और उन्होंने शायद ही कभी किसी कवि की कठोर आलोचना की होगी। लेकिन नेमिचंद्र जैन और मलयज से अपनी लंबी बातचीत में उन्होंने अज्ञेय के बारे में दो टूक ढंग से एक महत्वपूर्णबात कही थी: "अज्ञेय एक चतुर शिल्पी हैं। इससेअधिक कुछ नहीं। ही इज द फाइनेस्ट क्राफ्ट्समैन, बट हिज लैंग्वेज इज नॉट अवर लैंग्वेज।' कहना न होगा कि अज्ञेय के बारे में अंतिम सत्य काफी पहले कहा जा चुका था।
3 comments:
sukriya dhiresh, agyeya pe gar dusare samkalin kaviyo ke rachna sansar ke saath baat kare to unki 'mahanta' aur acchhi tarah samne aa jati hai....
असद जैदी और डबराल जी के प्रतिमान पुरी तरह कविता के बाह्र के है. संदर्भों का स्पष्ट इस्तेमाल ना होने से उनकी बात को आधार नहीं मिल पाता.
ज़ैदी जी से वाक्य उधार लेकर ऐसा हिन्दी में ही संभव है.
मंगलेश जी ने तो कविता पर बात की है पर असद जैदी का लेख जैदी जी की पोलिटिक्स को ही दिखता है और इससे अज्ञेय का तो कुछ भी नहीं बनता-बिगड़ता पर उनकी मानसिकता सामने आती है.आखिर एक रचनाकार पर बात करते हुए उसके लिखे हुए को कही छोड़ कर क्यों बात की जाती है? अज्ञेय अगर एक साहित्यकार नहीं होते तो कितने लोग उनपर लिखते और कौन उनके बारे में पढने में दिलचस्पी रखता?अत:उनके ऊपर लिखते हुए उनके लेखन को दरकिनार न किया जाये.भले ही उस आधार पर कोई उन्हें एक सतही लेखक साबित करे पर निराधार बातें बनाना ठीक नहीं.
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