Friday, November 18, 2011

दो अमरीकी कविताएँ







अभी नहीं

ज़रा धीरे, उन्होंने कहा.
इतनी जल्दी भी नहीं, वे बोले.
अभी नहीं.
इंतज़ार करो.

हम आपसे सहमत हैं, उन्होंने कहा, पर यह ठीक वक़्त
नहीं है.

दासता समाप्त करने के लिए.
नवीनतम युद्ध रोकने के लिए.
सही चीज़ करने के लिए.

अभी से इतनी आज़ादी दे देने से तो
अनर्थ हो जायेगा, वे कहते हैं. ज़रूरत है लोगों को सिखाने की
कि आज़ादी को कैसे बरता जाए.

हम पूछते हैं, वक़्त कब ठीक होगा?
कब होगी वह मुकम्मल स्थिति,
न ज्यादा कच्ची, न अधिक पकी?

और कैसे हमें पता चलेगा कि आ गया है वह सुनहरा क्षण
कहता हुआ, "लो, आखिर मैं आ ही गया, जिसके आने की भविष्यवाणी की गई थी
मैं वही हूँ. कानून और हथियारों के बल पर मेरा भरोसा दिलवाओ बेझिझक."

और हम अब तक यहाँ हैं, अपनी खाली कलाई घड़ियों को थपथपाते
उस फ्रीडम ट्रेन के लिए पटरियों पर यहाँ से वहाँ नज़र दौड़ते.
पटरियों से उतर गई होगी किसी वजह...

इस बीच, हमें किसी न किसी स्वर्ग की टिकटें
बेचने वाला, हमारे अपने इतिहास में प्रवेश के लिए
हमसे पैसे लेना वाला अमीर आदमी--
उसके लिए अभी क्या बजा है?

मज़े की बात है कि  उन घड़ियों पर
वक़्त हमेशा रुका हुआ होता है, या जा रहा होता है पीछे की ओर..

हमेशा वक़्त से बहुत पहले.
हमेशा वक़्त से बहुत बाद.

इब्तिदा का वक़्त हमेशा अभी होता है.



--रॉबर्ट एडवर्ड्स


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बड़ा आदमी, छोटा कुत्ता

शहर के व्यवसायिक इलाके में फुटपाथ पर
एक बहुत बड़ा आदमी एक बहुत छोटे कुत्ते को सैर करा रहा है
वह या तो पोस्ट ऑफिस जा रहा होगा या स्टोर से अचार का डिब्बा खरीदने
और इसी चक्कर में निबटा रहा है कुत्ते की आज की सैर

कसी हुई ज़ंजीर के एक तरफ वह छोटा कुत्ता है ऊर्जा और मुस्तैदी से भरपूर
कान खड़े, चुस्त, बड़े ध्यान से चारों ओर देखता
ज़ंजीर के दूसरे सिरे पर आदमी टहलते हुए परेशान सा लगा रहा है
उसकी  हवाइयन शर्ट फूली है उसकी तोंद से जो फुटपाथ को निहार रही है

शायद वह आदमी चरमराती अर्थव्यवस्था के बारे में सोच रहा है
या उसकी नौकरी छूट गई है शायद और वह सोच रहा है कि
कब तक उसे दूसरी नौकरी मिल पाएगी
और कैसे वह कुत्ते के लिए खाना खरीद पायेगा, कैसे किराया चुका पाएगा

या वह सोच रहा है मौसम के बारे में और यह कि क्यों कर
नवम्बर के आखिरी हफ्ते का यह दिन इतना गर्म है, धूप भी खिली है और न बारिश हुई है
जबकि हर हिसाब से इस दिन को होना चाहिए ठंडा, उदास और गीला
जब एक के बाद एक तूफ़ान नदी-नालों और तालाबों को भर देते हैं लबालब

यहाँ से पास ही जो खाड़ी है वहाँ लौटती हैं सैमन मछलियाँ हर बरस
और जहाँ स्थानीय लोग जाते हैं धारा में बहती मछलियों को देखने और वाहवाही करने
फेंक देते हैं अपने आप को प्रवाह के विरुद्ध
झरनों से और सीढ़ियों से

या हो सकता है कि वह मन ही मन हिसाब लगा रहा है  इराक़ और अफगानिस्तान में हुई मौतों का
हमारे मोबाइल फ़ोनों के लिए कांगो में जमा होती लाशों का
संभव है वह गाज़ा की भुखमरी के बारे में सोच रहा है
या नवाजो दादी-अम्माओं को महापर्वत से बेदखल किये जाने के बारे में

कुत्ता बेशक अर्थव्यवस्था और ग्लोबल वार्मिंग के बारे में नहीं जानता कुछ भी
वह नहीं जानता कब्जों और छद्म-युद्धों और बर्बर घेरेबंदियों और नरसंहारों के बारे में
पर उसे अंदाज़ा है कि कुछ गड़बड़ तो है जिसकी वजह से उसका मित्र तकलीफ में है
इसलिए बहुत छोटा कुत्ता बहुत बड़े आदमी को सैर करा रहा है
क्योंकि कुत्ता समझता है निराशा से हार न मानना कितना ज़रूरी है
कितना ज़रूरी है रोज़ घर से बाहर निकलना और खुली हवा का आनंद लेना
तथ्यों को सूंघ निकालना, खोद निकालना सच को, बड़े कुत्तों का सामना करना
और सारी दुनिया को यह बताना कि आप जिंदा हैं और भौंक रहे हैं

--बफ़ व्हिटमन-ब्रॅडली



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'शुक्रवार' (11 से 17 नवम्बर) से साभार, अंग्रेज़ी से अनुवाद: भारत  भूषण तिवारी 

3 comments:

अजेय said...

कुत्ता सूँघ लेता है

सोतड़ू said...

बढ़िया सैणी साब.... बहुत बढ़िया.... हम भी जिंदा हैं भौंक कर ही.... हालांकि हमारे वक्त में और हमारी जगह में रोने को भी विद्रोह मान लिया जाता है...

वर्षा said...

पहले मैं सोच रही थी, क्या मैं वो आदमी हूं, समंदर किनारे बैठा हुआ, फिर कविता के आखिर में पहुंचकर सोचा, क्या मैं वो कुत्ता हूं, अपने मालिक को सैर कराता हुआ....हा-हा

कविता बहुत अच्छी है।