भारत विरोधाभासों का देश है. मगर दलित और कम्युनिस्ट आन्दोलन के दो भिन्न दिशाओं में जाते इतिहास से ज़्यादा अनुवर्ती और कोई विरोधाभास न होगा. दोनों लगभग एक ही समय उपजे थे, दोनों समान मुद्दों के पक्ष में या उनके खिलाफ खड़े हुए, दोनों में आये उभार और फूटें एक सी रहीं, और नाउम्मीदी की स्थिति भी आज दोनों में एक सी है. और इन सबके बावजूद दोनों एक दूसरे से आँखें नहीं मिलाना चाहते. इस रवैयात्मक रसातल में पड़े रहने का दोष ज़्यादातर आम्बेडकर के सर मढ़ा जाता है जिसका सीधा-साधा कारण कम्युनिस्टों और मार्क्सवाद की उनके द्वारा की गई साफ़-साफ़ समालोचना है. यह बात अगर एकदम गलत नहीं तो एकांगी ज़रूर है.
आम्बेडकर मार्क्सवादी नहीं थे. कोलम्बिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में उनकी बौद्धिक परवरिश फेबियन प्रभाव में हुई. जॉन ड्यूई, जिनके लिए आम्बेडकर में मन में गहरा सम्मान था, एक अमेरिकी फेबियन थे. फेबियन जन समाजवाद चाहते थे, मगर वैसा नहीं जैसा मार्क्स ने प्रस्तावित किया था. उनका विश्वास था कि समाजवाद क्रमिक विकास (इवोल्यूशन) के द्वारा लाया जा सकता है न कि क्रान्ति (रेव्ल्यूशन) के द्वारा. इन प्रभावों के बावजूद, मार्क्स से सहमत हुए बिना आम्बेडकर ने न केवल मार्क्सवाद को गम्भीरता से लिया, बल्कि उसे जीवन भर स्वयं के फैसलों को आँकने के पैमाने के तौर पर भी इस्तेमाल किया.I
आम्बेडकर की राजनीति वर्ग-आधारित थी, यद्यपि वह मार्क्सियन समझ के अनुसार न थी. अछूतों के बारे में कहते समय भी वे 'वर्ग' का प्रयोग करते थे. अपने सर्वप्रथम प्रकाशित निबंध "कास्ट्स इन इण्डिया" में, जो उन्होंने पच्चीस साल की उम्र में लिखा था, उन्होंने जाति को "समावृत वर्ग" (एन्क्लोस्ड क्लास) बताया था. अनुमान लगाने की क्रियाकलापों में लगे बिना कहा जा सकता है कि यह लेनिन के साथ उनकी अनिवार्य सहमति का सूचक है- लेनिन ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि वर्ग विश्लेषण "ठोस परिस्थितियों" में किया जाना चाहिए न कि वैक्यूम में. जातियाँ भारत का सर्वव्यापी यथार्थ थीं और वर्ग विश्लेषण से कोई छुटकारा नहीं था. मगर तत्कालीन कम्युनिस्टों ने, जो मार्क्स और लेनिन पर अपनी मोनॉपली का दावा करते थे, आयातित 'साँचों' का इस्तेमाल किया और जातियों को "अधिरचना" में फेंक दिया. एक ही झटके में उन्होंने समस्त जाति-विरोधी संघर्षों को गौण मुद्दा बना दिया. लिखे हुए को वेदवाक्य या सर्वोपरि मानने की ब्राह्यणीय सनक का ही यह प्रतिबिम्बन था.
दलितों के प्रति होने वाले भेदभाव को कम्युनिस्टों द्वारा नज़रंदाज़ किये जाने की एक मिसाल बम्बई की कपड़ा मिलों में मिलती है. जब आम्बेडकर ने ध्यान दिलाया कि अच्छी तनख्वाह वाले बुनाई विभाग में दलितों को काम नहीं करने दिया जाता, और यह कि छुआछूत के दीगर तरीके उन मिलों में भी बहुतायत में चलन में थे जिनमें कम्युनिस्टों की गिरणी कामगार यूनियन थी- कम्युनिस्टों ने इस पर ध्यान नहीं दिया. जब उन्होंने १९२८ की हड़ताल तोड़ने की धमकी दी तो वे अनिच्छा के साथ गलतियाँ सुधारने को राज़ी हुए.
१९३७ में हुए प्रांतीय असेम्बलियों के चुनावों को देखते हुए उन्होंने अगस्त १९३६ में अपनी प्रथम राजनीतिक पार्टी, इन्डिपेंडंट लेबर पार्टी (आई एल पी) का गठन किया जिसे उन्होंने घोषित तौर पर 'मेहनतकश वर्ग' की पार्टी कहा था. पार्टी के घोषणापत्र में बहुत सारे 'प्रो-पीपुल' वादे थे, और 'कास्ट' शब्द का बस एक बार और यूँ ही उल्लेख किया गया था. क्रिस्तोफे जफ्रेलोत जैसे विद्वानों ने आई एल पी को भारत की पहली वामपंथी पार्टी माना है क्योंकि कम्युनिस्ट उस समय तक या तो अधिकतर भूमिगत थे या कांग्रेस सोशलिस्ट ब्लॉक के तहत थे.
१९३० के दशक में वे अपने रैडिकल उत्कर्ष पर थे. १९३५ में उन्होंने मुम्बई कामगार संघ की स्थापना की जिसमें वर्ग और जाति के विलय की प्रत्याशा थी जो आई एल पी में रूप में साकार हुआ. मतभेदों के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्टों के साथ हाथ मिलाया और १९३८ में औद्योगिक विवाद अधिनियम (इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट) के खिलाफ विशाल हड़ताल का नेतृत्व किया. १९४२ में क्रिप्स रिपोर्ट में आई एल पी को इस दलील के आधार पर शामिल नहीं किया गया कि वह किसी समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती. इस वजह से वे आई एल पी को भंग करके शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (एस सी एफ़) का गठन करने को प्रवृत्त हुए जो प्रकट रूप में जाति आधारित थी. वाइसराय की कार्यकारी समिति का सदस्य होने के बावजूद भी उनका वामपंथी रुझान बना रहा. इसकी परिणिति उनकी पुस्तक स्टेट्स एण्ड माइनॉरिटीज़ के रूप में हुई जो भारत के संविधान में समाजवादी अर्थव्यवस्था को 'हार्डकोड' किये जाने की रूपरेखा थी. कम्युनिस्टों ने मगर उनके आन्दोलन को सर्वहारा को बाँटने के प्रयास के तौर पर लिया. इसी रुख की परिणिति हुई डांगे के उस निंदनीय आह्वान में जिसमें १९५२ के आम चुनावों में उन्होंने मतदाताओं से कहा कि भले ही उनका वोट ज़ाया हो जाए लेकिन वे आम्बेडकर के पक्ष में वोट न दें. परिणामस्वरूप चुनावों में आम्बेडकर की हार हुई.
उनके बौद्ध धर्म स्वीकार करने का भी सतही पाठ किया जाता है यह कह कर कि वह एक हताश व्यक्ति की आध्यात्मिक ललक थी और इसे उनके मार्क्सवाद विरोध के एक और प्रमाण के तौर पर पेश किया जाता है. हालाँकि बहुत से विद्वानों ने इस गलत पढ़त का खण्डन किया है, लेकिन कहा जाना चाहिए कि यह मार्क्सवाद के प्रति उनका करीब-करीब आखिरी निर्देश था. अपनी मृत्यु से महज एक पखवाड़े पहले बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद की तुलना करते हुए, उन्होंने अपने निर्णय की तस्दीक करते हुए उसे हिंसा और अधिनायकवाद से रहित मार्क्सवाद के अनुरूप माना. दुख की बात है कि मार्क्स को स्वीकार कर आम्बेडकर को अस्वीकार करने की नादानी अब भी बरकरार है.
OUTLOOK से साभार (अनुवाद- भारतभूषण तिवारी)
OUTLOOK से साभार (अनुवाद- भारतभूषण तिवारी)