Sunday, September 2, 2012

तन्हा कर देने वाली है इंसाफ की लड़ाई - तीस्ता सीतलवाड



गुजरात के नरोदा पाटिया केस में स्पेशल कॉर्ट के फैसले और पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ी जा रही पूरी लड़ाई पर एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड से Tehelka की मैनेजिंग एडिटर शोमा चौधुरी की बातचीत। 

इस फैसले में सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि क्या है?

दोषियों की संख्या – 32 – जो अब तक सबसे अधिक है। और एक यह तथ्य कि छुटभैयों और आसपड़ोस के अपराधियों से आगे पॉलिटिकल मास्टरमाइंड और भड़काने वाले दोषी साबित हुए है, ऐसे लोग जो सर्वोच्च राजनीतिक संरक्षण का लुत्फ ले रहे थे।

क्या इससे बाहर यह संदेश गया है कि गुजरात में इसांफ मिल सकता है?

मैं समझती हूं कि इससे बाहर यह मजबूत संदेश गया है कि न्याय व्यवस्था काम कर सकती है बशर्ते कि इससे पहले की जरूरी अपेक्षाएं पूरी हों। मतलब कि सुप्रीम कॉर्ट केस को सावधानी के साथ मॉनिटर करता है, अपॉइंटमेंट्स में रुचि लेती हैं कि केस किस तरह संचालित किया जा रहा है और यह सुनिश्चित करती है कि केस को डीरेल नहीं किया जा रहा है। इस केस में स्पेशल कोर्ट गठित कर स्पेशल जज की नियुक्ति की गई थी। सभी पीड़ितों-गवाहों को केंद्रीय अर्द्धसनिक बलों की सुरक्षा मुहैया कराई गई थी। यह एक बेहद महत्वपूर्ण कारक है। फिर हमने पीडितों और प्रत्यक्षदर्शी गवाहों को रोजबरोज कानूनी सहायता मुहैया कराने का इंतजाम किया था। ये बेहद जटिल मामले हैं, आम आदमी के लिए कानूनी प्रक्रिया समझ पाना आसान नहीं है। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप section 24 (8) के तहत पीड़ितों-गवाहों को उपलब्ध अपने निजी वकील के अधिकार, का इस्तेमाल करते हैं। हां, यदि ये सभी पूर्व-अपेक्षाएं पूरी हुई हैं तो बाहर एक मजबूत संदेश गया है कि इंसाफ किया जा सकता है। लेकिन, हम इस बारे में बहुत सतही नहीं हो सकते हैं। यह दुर्लभ है कि सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को मॉनिटर करे और पीड़ितों को उच्चतम स्तर की सुरक्षा मिले और आप उनके लिए कानूनी तौर पर किस तरह भावनात्मक व आर्थिक मदद की जिम्मेदारी ले पाएं।

आप इसमें क्यों शामिल हुईं?

गुजरात से मेरा रिश्ता 1998 का है, जब मैंने बतौर पत्रकार यहां काम शुरू किया। पहले ही दिखाई देने लगा था कि कुछ नृशंस बन रहा है। हमें पहले ही 1992-93 के बंबई दंगों का अनुभव था और हम श्रीकृष्णा कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित कराने की कोशिश में जुटे थे। गुजरात दंगों ने मुझे गुस्से से भर दिया था, मैंने कहा, आओ देखते हैं कि क्या हम लड़ सकते हैं और क्या यह देश कभी पीड़ितों को इंसाफ दे सकता है। अप्रैल 2012 में हमने सिटीज़न फॉर जस्टिस एंड पीस (सीपीजे) गठित की क्योंकि हमें लगा कि मदद की जरूरत है। विजय तेंडुलकर हमारे संस्थापक अध्यक्ष थे और साथ में आईएम कादरी थे, एक समूह था – साइरस गुज़देर, राहुल बोस, अलीक़ पदमसी, ग़ुलाम पेश ईमान, जावेद और मैं। आपके पीछे एक ऐसे ग्रुप का होना जरूरी है ताकि आप निपट अकेले न हो जाएं क्योंकि इसके लिए भावनात्मक और मानसिक रूप से बड़ी कीमत अदाकरनी होती है। खुद को बहुत सारे ऐसे आरोपों के लिए पेश करना पड़ता है जो कभी साबित नहीं होते लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में फैले रहते हैं।

एसआईटी के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी? नरोदा पाटिया केस में उसने अलग तरह काम किया जबकि ज़किया जाफरी केस जिसमें नरेंद्र मोदी पर व्यापक साजिश का आरोप है, में उसका रवैया ठीक अलग रहा।
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2002 में नरोदा पाटिया पुलिस स्टेशन में दर्ज कराई गई करीब 16 एफआईआर में मायाबेन कोडनानी को नमजद कराया गया था। लेकिन मई 2002 में जांच गुजरात क्राइम ब्रांच के हाथ में आई तो इन्हें छोड़ दिया गया। एसआईटी का गठन हो जाने के बाद भी उसे आरोपी नहीं बनाया गया। 2009 में हम इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट गए कि ताकतवर लोगों को सजा नहीं दी जा रही है। शायद इसी से प्रेरित होकर अप्रेल 2010 में मायाबेन को आरोपी बनाया गया। संक्षेप में कहूं तो समग्र अन्वेषण के मामले में संभवतः एसआइटी २५-३० प्रतिशत सुधार ले आई है मगर (अलग-अलग) जाँचों में शत प्रतिशत सुधार लाने में वह बहुत पीछे रह गई है। गुलबर्ग सोसाइटी और ज़ाकिया जाफरी केस में वे पूरी तरह पीडितों के विरोधी रहे। एक जांच एजेंसी का ऐसी पॉजिशन लेना बेहद अजीब है। शायद बाधा यह रही कि इन मामलों में नरेंद्र मोदी पर बड़े पैमाने पर साजिश रचने का आरोप है। लेकिन एसआईटी की इन पॉजिशन्स पर से सवाल खत्म होने नहीं जा रहे हैं। इस केस में मायाबेन और बाबू बजरंगी को सजा हो चुकी है तो एसआईटी हमारी प्रोटेस्ट पिटीशन की सुनवाई में अपनी विरोधाभासी पॉजिशन का बचाव कैसे करेगी? ये दोनों ज़ाकिया केस में भी आरोपी हैं। इस तरह यह हमारे लिए महत्वपूर्ण है।
     
कुछ बड़े अनुत्तरित सवाल क्या हैं?

बहुत सारे हैं। राहुल शर्मा और आरबी श्रीकुमार जैसे गुजरात के सीनियर पुलिसकर्मियों द्वारा उपलब्ध कराए गए क्रिटिकल साक्ष्य कोर्ट में समय पर क्यों पेश नहीं किए गए? यदि 2006 में राहुल शर्मा की सीडी (उन संहारक दिनों की कॉल रेकॉर्ड्स के साथ) की सीबीआई जांच होती और इसे विश्वसनीयता मिलती तो इससे बहुत सामग्री उपलब्ध होती। लेकिन इसका विश्लेषण एनजीओज पर छोड़ दिया गया। पहले जन संघर्ष मोर्चा ने कुछ विश्लेषण किया और फिर जब हमें पता चला कि मोदी और दूसरों के फोन रेकॉर्ड जांच में शामिल नहीं किए गए तो हमने विश्लेषण की कमियों को दूर किया।

मोदी के फोन रेकॉर्ड का विश्लेशषण क्या बताता है?
हमने उसके घर के नंबर, दफ्तर के नंबर, मुख्यमंत्री कार्यालय और उनसे जुड़े अफसरों का विश्लेषण किया। इनसे साफ होता है कि कई दिशाओं में जांच की जानी चाहिए। मसलन, 28 फरवरी को दोपहर 12 बज से तीसरेपहर तीन बजे के बीच जब गुलबर्ग सोसाइटी और नरोदा पाटिया जल रहे थे, बेहद हैरत की बात है कि तब डीजीपी पी. सी. पांडे अपने कमरे से, जोकि इन दोनों जगहों से महज आधेक किलोमीटर दूरी पर है, बाहर ही नहीं निकले। उन्होंने बाहर निकलकर संकट का मुआयना नहीं किया अलबत्ता इस दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री कार्यालय से 15 फोन कॉल रिसीव कीं। किसी भी जांच एजेंसी को यह पूछना चाहिए कि ये कॉल किस बारे में थीं। अगर वे उन्हें अपना काम करने के लिए कह रहे थे, तो वे काम क्यों नहीं कर रहे थे या फिर वे उन्हें अपना काम करने से रोक रहे थे? लेकिन इस बारे में एसआईटी और कॉर्ट दोनों की ही स्पष्ट खामोशी है, दोनों ही मोदी, पांडे या सीएम कार्यालय के अफसरों से इस बारे में सवाल नहीं पूछ रही हैं। ये न्यायिक व्यवस्था और जांच एजेंसी में बड़ी खामियों की तरह हैं। हमें हर मुद्दे पर हर तरीके से दबाव बनाना पड़ा। और हर बार जब आप दबाव बनाते हैं तो आप खुद को और ज्यादा उत्पीड़न व आरोपों के लिए पेश कर रहे होते हैं।

नरोदा पाटिया केस में न्याय मिलने में `तहलका` के स्टिंग `ऑपरेशन कलंक` की क्या भूमिका रही?

`ऑपरेशन कलंक` की बहुत बड़ी भूमिका रही। 2007 में जब यह जांच सार्वजनिक की गई तो इससे सभी को धक्का पहुंचा। ज़ाकिया जाफरी केस हाई कॉर्ट में  इन्साफ़ का मुन्तज़िर था। हमने तुरंत ज़ाकिया आपा के हलफनामे के जरिए हाई कॉर्ट से `ऑपरेशन कलंक` पर गौर करते हुए जांच का आदेश जारी करने का अनुरोध किया। जज ने प्रार्थनापत्र को खारिज कर दिया। हम सुप्रीम कॉर्ट गए लेकिन शुरू में वहां भी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। मैं बहुत चिंतित थी। हम राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास गए। आयोग ने मेरे प्रार्थना पत्र पर फुल बेंच ऑर्डर पारित करते हुए तहलका टेप्स में सीबीआई जांच का आदेश दे दिया। गुजरात सरकार ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि आयोग ऐसा आदेश जारी नहीं कर सकता है। आयोग के चेयरपर्सन जस्टिस राजेंद्र बाबू ने तमाम कानूनी किताबों से उद्धरण पेश करते हुए कहा कि आयोग के पास सीबीआई को जांच सौंपने का अधिकार है। आयोग के इस कदम से तहलका टेप्स को विश्वसनीयता हासिल हुई। यदि टेप्स सीधे राघवन की अध्यक्षता वाली एसआईटी के पास पहुंचते तो उनमें छेड़छाड़ मुमकिन थी।
मुझे लगता है कि साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास में इस तरह की सामग्री पहली बार उपलब्ध हो सकी। भागलपुर दंगों, 1984 के सिख दंगों या 1992-93 के बंबई दंगों में ऐसी कोई सामग्री नहीं थी. लेकिन गुजरात मामले में हमारे पास ऐसी तमाम अंदरूनी जानकारियां थीं, मसलन- राहुल शर्मा की दंगों के दौरान मिसिंग कॉल रेकॉर्ड वाली सीडी, आरबी श्रीकुमार का हलफनामा और साक्ष्यों को मजबूती देने वाले तहलका टेप्स से मिलीं बेहद कीमती सामग्री। मैंने फौजदारी के जितने भी वकीलों से बात की, उन सभी ने यही कहा कि तहलका जांच एक्सट्रा-जुडिशल लीगल कन्फेशन्स है। यह प्राथमिक साक्ष्य नहीं हो सकता है लेकिन यदि किसी व्यक्ति के अपराध में शामिल होने के पहले से ही साक्ष्य हैं और टेप्स को विश्वसनीयता हासिल होती है तो यह अपराध को साबित करने में सबसे ज्यादा मजबूत साक्ष्य होगा। लेकिन एसआईटी ने इस सामग्री को लेकर उत्साह दिखाने के बजाय क्या किया?
उन्होंने श्रीकुमार को यह कहकर अविश्वसनीय बताने की कोशिश की कि यह अफसर सिर्फ प्रोन्नति से इंकार कर दिए जाने की वजह से बोल रहा है। यह तथ्यात्मक रूप से गलत है क्योंकि उन्होंने अपने पहले दो हलफनामे प्रोन्नति प्रकरण से पहले जमा कर दिए थे। यही वे हलफनामे हैं जिनमें अपराध साबित कर पाने वाले साक्ष्य और स्टेट इंटेलीजेंस ब्यूरो के आंकड़े हैं। केवल तीसरे-चौथे हलफनामे में ही उनकी अपनी राय शामिल है। लेकिन राघवन का अनंत टालमटोल वाला रवैया रहा कि श्रीकुमार का रजिस्टर वैध है भी या नहीं।
तहलका टेप्स पर भी उनका रवैया अजीब और विरोधाभासी रहा। नरोदा-पाटिया केस में उन्होंने टेप्स को स्वीकार किया और हमारे पास आशीष खेतान का 120 पेज का मूल्यवान बयान (deposition) है। लेकिन ज़ाकिया जाफरी केस में, जहां नरेंद्र मोदी मुख्य आरोपी है, साक्ष्य बेकार और प्रेरित बता दिया गया। किसी भी तर्कशील मनुष्य के लिए यह बात समझ से परे है। हम इन सारे विरोधाभासों को पकड़ सकते हैं और इन पर प्रतिक्रया सिर्फ इसलिए दे पाते हैं क्योंकि हम इन सभी मुकदमों में शामिल हैं। लेकिन यह आपको पागल कर देता है।

इंसाफ की तलाश की इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा विपरीत पहलू क्या रहा?

सबसे मुश्किल बात यह है कि यह एक बेहद अकेली लड़ाई है। हमारे ग्रुप में हर कोई बेहद शानदार है पर फिर भी यह बेहद, बेहद तन्हा कर देने वाली है। आपको सार्वजनिक रूप से झूठे आरोप लगाकर जलील किया जाता है। लड़ाई में बड़ा तबका शामिल होता तो इससे बहुत ताकत मिलती। हम जानते हैं कि अच्छे लोग सभी जगहों पर हैं जो हमारे काम की सराहना करते हैं लेकिन ऐसे बहुत कम हैं जो व्यवस्था के खिलाफ आगे आकर खतरा मोल लें। आप किसी व्यवस्था से जूझते हुए ही उसके खिलाफ लड़ाई लड़ सकते हैं लेकिन ऐसे में आप ही सबसे ज्यादा खतरे में होते हैं। व्यवस्था आपको थकाकर बाहर फेंक देती है, इंसाफ नहीं देती। आप दृढ़निश्चयी और किस्मत वाले हैं तो आप सर्वाइव कर जाते हैं, किस्मत वाले नहीं हैं तो नहीं।  
ये सभी इल्जाम - कि गवाहों को मैंने सिखा दिया या हमारे पूर्व कर्मचारी रईस ख़ान का मामला- गुजरात कॉर्ट निराधार करार दे चुकी है। लेकिन फिर भी यूट्यूब पर ऐसी बकवास फैली हुई हैं। मैंने इस बारे में जवाब देना बंद कर दिया है। अगर लोग वाकई जानना चाहते हैं तो वे सच तक पहुंच जाएंगे। पर मैं नहीं जानती कि मैं यह सब दोबारा कर पाऊंगी। इसकी कीमत बहुत बड़ी है। आपको खुद को बताना पड़ता है कि आप अपनी ज़िंदगी के 10-20 बरस किसी एक चीज के लिए न्यौछावर कर देंगे। यह बहुत मुश्किल है। आप इसके बाद सामान्य नहीं रह पाते।
http://www.tehelka.com से साभार।  (मूल अंग्रेजी से अनुवाद)

1 comment:

varsha said...

aapke blog ka link f/b par sajha kar rahi hoon....shukriya.