(पिछली पोस्ट से जारी)
माउंटबेटन के आगमन के साथ भारत में धार्मिक फूट को लेकर साम्राज्यवादी नीति का एक
चक्र पूरा हुआ। 19 वीं सदी के दूसरे उत्तरार्ध में अंग्रेज़ी राज को यह शक़ था
कि ग़दर में पेशकदमी करने वाले मुसलमान थे और हिन्दुओं को ज़्यादा भरोसेमंद समझा जाता था।
बीसवीं सदी के पहले उत्तरार्ध में यह पसंदगी तब बदल गई जब हिन्दू
राष्ट्रवाद ज़्यादा आग्रही हो गया और उसे रोकने के लिए मुस्लिम
महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा दिया गया। अब अपने अंतिम चक्र में लन्दन ने ज़बर्दस्त झटका देते हुए बहुसंख्यक समुदाय को अपना
विशेषाधिकृत सम्भाषी चुन लिया। 1947 में इस भारी परिवर्तन की जज़्बाती शिद्दत उभरी थी विचारधारा, रणनीति और शख्सियत के
अचानक हुए संगम से। ब्रिटेन की लेबर पार्टी हुकूमत के
लिए उनके अपने दृष्टिकोण से सबसे
निकटतम भारतीय पार्टी काँग्रेस थी; नेहरू के साथ जुड़ी फेबियन कड़ियाँ काफी पुरानी
थीं। राष्ट्रीय स्वाभिमान जा कर भावनात्मक अपनेपन से मिल गया। ब्रिटेन ने एक छितरे हुए उपमहाद्वीप को इतिहास
में सर्वप्रथम एक एकल राजनीतिक क्षेत्र बना डाला था। सही समझ वाले
सारे अंग्रेज़ देशभक्त, जिनमें सिर्फ एटली जैसे साम्राज्यवादी
शिक्षा के उत्पाद ही शामिल नहीं थे,इस बात को बड़े गर्व के साथ अपने साम्राज्य की सबसे
उत्कृष्ट सृजनात्मक उपलब्धि मानते। और उनकी रवानगी के वक़्त उस में दरारें पड़ना उस
उपलब्धि पर सवालिया निशान लगने जैसा होता। ब्रिटेन को अगर भारत छोड़ना है तो
भारत को वैसे ही रहना होगा जैसा कि अंग्रेज़ों ने उसे गढ़ा था। ब्रिटेन के पास तब भी सिर्फ मलाया ही नहीं बल्कि एशिया में भी
कीमती मिल्कियतें थीं -उनके सबसे फायदेमंद उपनिवेश जो जल्द
ही कम्युनिस्ट विद्रोह की रंगभूमि बन जाने वाले थे और जिन्हें छोड़ने की ब्रिटेन को कोई जल्दी नहीं थी। उसी समय उत्तर-पश्चिम सीमा से
थोड़ी ही दूर अंग्रेज़ी राज का पारंपरिक हौवा बैठा हुआ था जो अब सोवियत संघ के
रूप में और भी भयंकर था। आला अफ़सरान इस बात पर एकमत थे कि
उपमहाद्वीप के विभाजन से रूसियों को ही फायदा
पहुँचेगा। अगर दक्षिण एशिया के दरवाज़ों को साम्यवाद के
खिलाफ़ मज़बूती के साथ बंद किया जाना था तो न सिर्फ
ब्रिटेन बल्कि पश्चिम के भी रणनीतिक हितों को संयुक्त भारत के
परकोटे की दरकार थी।
ये सारी बातें इसी तरफ इशारा कर रही थीं कि
मुस्लिम लीग, जो कभी अंग्रेज़ी राज
का नीतिगत साधन हुआ करती थी, अब उसके मामलों के यथेष्ट
निपटारे में एक प्रमुख अड़चन थी और उसका साक्षात रूप जिन्ना थे। काँग्रेस के नेता ब्रिटेन द्वारा उन्हें सौंपे जाने वाले विरसे की अखंडता का झंडा उठाये हुए थे और जिन्ना यह उम्मीद नहीं
कर सकते थे कि उनके साथ समतुल्य बर्ताव किया जाएगा। मगर इस ढांचागत विषमता में एक व्यक्तिगत आत्म्श्लाघिता का असंतुलन मिलाया गया और यह सम्मिश्रण घातक साबित हुआ। 'वह झूठा,बौद्धिक रूप से सीमित और चालबाज़ शख्स' - माउंटबेटन के इस अमिट पोर्ट्रेट के
लिए हमें एंड्रयू रॉबर्ट्स का शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
दक्षिण-पूर्व एशिया में मित्र राष्ट्रों की सेना के प्रतीकात्मक कमांडर के तौर पर
कोलम्बो में अपनी कैडिलैक की पिछली सीट पर बैठे-बैठे ख़याली कारनामों में डूबे हुए माउंटबेटन जब दिल्ली आये
तो इस बात से बेइंतहा खुश थे कि उन्हें ' लगभग दिव्य शक्तियों से
नवाज़ा गया है। मैंने महसूस किया कि मुझे
दुनिया का सबसे ताक़तवर आदमी बना दिया गया है।' माउंटबेटन पहनावे और
समारोह सम्बन्धी आडम्बर का विकृत रूप थे और झंडों और झालरदार सूटों को लेकर उनका जूनून अक्सर राज्य के मामलों पर तरजीह पा जाता। उनके दो सर्वोपरि सरोकार थे:
अंग्रेज़ी राज के अंतिम शासक के तौर पर एक ऐसी हस्ती बनना जो हॉलीवुड को शोभा दे और ख़ासकर
यह सुनिश्चित करना कि भारत राष्ट्रमंडल के अंतर्गत का ही एक राज्य बना रहे: ' विश्व में प्रतिष्ठा और
रणनीति दोनों को लेकर यूनाईटेड किंगडम के लिए यह अत्यधिक महत्त्व की
बात होगी।'
ऐसा माना गया था कि अगर ब्रिटिश राज का
बँटवारा होना ही है तो बड़ा हिस्सा- जितना बड़ा उतना अच्छा - ब्रिटिश उद्देश्यों के
लिए महत्त्व रखता है। उपमहाद्वीप के भविष्य की योजना बनाने में काँग्रेस अब पसंदीदा सहयोगी क्यों थी इस बात के पीछे के राजनीतिक कारणों में एक
व्यक्तिगत कारण भी जुड़ गया था। नेहरू के रूप में माउंटबेटन को एक दिलचस्प साथी मिल गया था, एक से स्वभाव वाले वे दोनों ही सामाजिक तौर पर भी
समकक्ष थे। गांधी ने अंग्रेज़ों के साथ हमेशा अच्छे सम्बन्ध बनाये रखना चाहा था। गांधी द्वारा नेहरू को उत्तराधिकारी चुने जाने का अंशतः कारण यह था कि
वे अंग्रेज़ों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखने के लिए
सांस्कृतिक तौर पर सुसज्ज थे जबकि पटेल और अन्य उम्मीदवारों में वह चीज़ न थी। सारे सम्बंधित लोगों के लिए यह
तसल्ली की बात थी कि कुछ ही हफ़्तों में नेहरू वायसराय
के न केवल ख़ास दोस्त बन गए बल्कि जल्द ही उनकी बीवी के
साथ हमबिस्तर भी हो गए। इस सम्बन्ध को लेकर भारतीय
राज्य इतना संकोची रहा आया है कि पचास सालों के बाद भी वह इस विषय को छूने वाली एक
अमरीकी फिल्म का प्रदर्शन रोकने में दखल दे रहा था। भारतीय राज्य के इतिहासकार भी
इस विषय के बगल से चुपचाप निकल जाते हैं। दिल के मामले कदाचित ही हुकूमत के मामलों पर असर डालते हैं। मगर इस मामले कम-अज़-कम यह इमकान न था कि त्रिकोण
के शेहवानी ताल्लुकात ब्रिटिश नीति को लीग के पक्ष में
झुका देते। राजनयिकों को सस्ते में चलता कर दिया जाता
है।
फिर भी एक ऐसे दौर में जब ब्रिटेन प्रकट रूप
से भारत में विभिन्न दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर ही रहा था और काँग्रेस एकीकृत देश को आज़ादी की तरफ ले जाने की कोशिश कर रही थी, गौरतलब है कि तब जिन्ना के बारे में माउंटबेटन और नेहरू कैसी भाषा
का इस्तेमाल कर रहे थे और एटली उसमें सुर मिला
रहे थे। माउंटबेटन के लिए जिन्ना एक 'पागल', घटिया आदमी' और 'मनोरोगी केस' थे; नेहरू के लिए वे एक 'हिटलरी नेतृत्व और नीतियों' वाली पार्टी की अगुआई कर
रहे पैरेनोइड थे और एटली के लिए वे 'गलतबयानी करने वाले' थे।
माउंटबेटन जब आये तो पंजाब में सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे। एक महीने के अन्दर-अन्दर
उन्होंने फैसला कर लिया कि विभाजन अपरिहार्य है क्योंकि
काँग्रेस और लीग के बीच का गतिरोध दूर नहीं हो पा रहा है। मगर समूचे इलाके का बँटवारा कैसे होना था? अनिवार्यतः बात पाँच सवालों पर आकर टिक गई।
बंगाल और पंजाब इन दो प्रमुख प्रान्तों का क्या होगा जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक तो थे मगर उनका संख्याबल
उतना ज़बरदस्त नहीं था? रजवाड़ों के शासन वाले अंचलों को, जहाँ काँग्रेस और लीग दोनों की ही उपस्थिति नगण्य थी, कैसे आवंटित किया जाएगा? विभाजन के सिद्धांत के
बारे में या सरहद कहाँ खड़ी की जायेगी इस बात को लेकर क्या जनता की राय
पूछी जायेगी? विभाजन की प्रक्रिया का
पर्यवेक्षण कौन करेगा? इस पर अमल कितनी समयावधि
में किया जाएगा?
इस मौके पर आकर काँग्रेस
और लीग का हिसाब अदल-बदल हो गया। सारे राष्ट्र की नुमाइंदगी करने का काँग्रेस का
दावा 1920 के दशक से ही उसकी
विचारधारा का केंद्र रहा था। मुस्लिम निर्वाचन मंडल में लीग द्वारा अपनी ताक़त
दिखाए जाने पर यह दावा धराशायी हो गया था। मगर अपनी नई-नवेली ताक़त का लीग क्या करने वाली थी? लाहौर प्रस्ताव के छह साल बीत जाने पर भी जिन्ना
को हिन्दू-बहुल प्रान्तों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के संरक्षण के साथ-साथ मुस्लिम बाहुल्य वाले
प्रान्तों की सार्वभौमिकता के लिए कोई संभाव्य समाधान नहीं मिला था। बस इतना भर हुआ था कि
पाकिस्तान का नारा, जिसे उन्होंने 1943 में खारिज कर
दिया था, मुसलमानों के बीच इतना
मकबूल साबित हुआ कि बिना किसी स्पष्टीकरण के जिन्ना ने उसे अपना लिया और यह दावा
किया कि लाहौर प्रस्ताव में 'राज्य' की जगह 'राज्यों' मुद्रण की अशुद्धि के कारण
आया था। शायद उन्होंने यह हिसाब लगाया था कि चूँकि अंग्रेज़ों के सामने लीग
और काँग्रेस के परस्पर विरोधी उद्देश्य हैं, वे आखिरकार अपने हिसाब से
समय लगाकर दोनों पक्षों पर अपनी पसंद का परिसंघ थोप देंगे। उस परिसंघ में
उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बाहुल्य वाले
इलाके स्वशासी होंगे और केंद्रीय सत्ता न इतनी मज़बूत होगी कि उन पर चढ़ सके और न ही
इतनी कमज़ोर कि स्वशासी हिन्दू-बहुल प्रक्षेत्रों में मुसलमान अल्पसंख्यकों की
रक्षा भी न कर सके। अंततः कैबिनेट मिशन ने जो योजना तैयार की वह जिन्ना की विजन के
काफी करीब थी।
मगर काँग्रेस पार्टी ने हमेशा से एक
शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य की आरज़ू की थी और नेहरू का मानना था कि भारतीय एकता को
बचाए रखने के लिए ऐसा ज़रूरी है। इसलिए ऐसी कोई स्कीम नेहरू के लिए विभाजन से भी खराब थी क्योंकि
वह उनकी पार्टी को उस शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य से महरूम कर देती। राष्ट्रीय वैधता के ऊपर अपनी इजारेदारी पर काँग्रेस ने शुरू से ज़ोर दिया था। यह दावा अब बिलकुल स्वीकार नहीं किया जा सकता था। लेकिन अगर बुरी से बुरी
स्थिति भी हुई तो भारत के बड़े हिस्से में सत्ता के अबाधित एकाधिकार के मज़े लेना
अविभाजित भारत में उस सत्ता को बाँटकर बँधे पड़े रहने से बेहतर था।
इसलिए जब लीग तकसीम की बात कर
रही थी तो जिन्ना परिसंघ के बारे में सोच रहे थे, और जब काँग्रेस संघ की बात
कर रही थी, तो नेहरू बँटवारे की
तैयारी कर रहे थे। कैबिनेट मिशन
योजना की लुटिया हस्बे-दस्तूर डुबो दी गई।
सारी निगाहें अब इस बात पर आ टिकीं कि लूट का
बँटवारा कैसे होगा। अंग्रेज़ अब भी राजा थे: बँटवारा माउंटबेटन करेंगे। नेहरू इस बात से निश्चिन्त थे कि उन पर इनायत ज़रूर होगी, मगर कितनी इसका अंदाज़ा पहले
से होना मुश्किल था। ब्रिटिश राज से जो भी राज्य
उभरेंगे उन्हें पुनर्नामित ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत बनाये रखना माउंटबेटन के लिए सबसे अहम बात थी। इसका मतलब था कि उन
राज्यों को आज़ादी एक स्वतंत्र-उपनिवेश (डोमिनियन) के तौर पर स्वीकार करनी होगी।
मुस्लिम लीग को इस से कोई आपत्ति नहीं थी। मगर लन्दन में चलने वाली जालसाज़ियों के आगे भारत के
नतमस्तक होने को काँग्रेस 1928
से ही सिद्धांततः खारिज करती आई थी और इसमें डोमिनियन
वाली बात भी ज़ाहिरन शामिल थी। तो जिस छोटी कौम को माउंटबेटन विभाजन के लिए ज़िम्मेदार मानते थे, उसी कौम के राष्ट्रमंडल का सदस्य बन जाने की अवांछनीय
संभावना माउंटबेटन के सामने इस कारण आ खड़ी हुई। वहीं बड़ी कौम जो उनके अनुसार न केवल अपेक्षाकृत दोषरहित थी
बल्कि रणनीतिक और वैचारिक तौर पर अधिक महत्त्वपूर्ण भी थी, राष्ट्रमंडल से बाहर रहने
वाली थी। इस पहेली को कैसे सुलझाया जाना था?
इसे सुलझाया उस घड़ी के
तारणहार वी पी मेनन ने। अंग्रेज़ों की नौकरशाही में केरल
के उच्च-पदस्थ हिन्दू अधिकारी मेनन माउंटबेटन के व्यकिगत अमले का हिस्सा थे और काँग्रेस के सांगठनिक बाहुबली सरदार पटेल के मित्र भी। क्यों न विभाजन सीधे-सीधे इस
तरह हो कि काँग्रेस को बहुत बड़ा क्षेत्र और आबादी हासिल
हो जाए जिसकी हकदार वह मज़हब के आधार पर थी ही, और तो और अंग्रेज़ी राज की
पूँजी और सैनिक एवं नौकरशाही तंत्र का भी बड़े से बड़ा हिस्सा मिल
जाए- और इसके बदले में माउंटबेटन से राष्ट्रमंडल में भारत के
प्रवेश का वायदा किया जाए? इतना ही नहीं, मुँह मीठा करने के लिए, मेनन ने रजवाड़ों को भी
थाली में परोसने की सलाह दी जिस से कि जिन्ना को
मिलने वाले हिस्से की क्षतिपूर्ति हो जाए। कुल मिलाकर
रजवाड़े क्षेत्रफल और आबादी में भावी पाकिस्तान के बराबर थे और उस समय तक काँग्रेस ने
उन्हें अलंघ्य मान रखा था। नेहरू और पटेल को मनाने में कोई मुश्किल नहीं हुई। अगर
मालमत्ता दो महीनों के अन्दर-अन्दर हस्तांतरित हो जाती है, तो सौदा पूरा। इस
ब्रेकथ्रू की सूचना मिलने पर माउंटबेटन फूले नहीं समाये और फिर
मेनन को उन्होंने लिखा: 'बड़ी
खुशकिस्मती रही कि आप मेरे स्टाफ में रिफार्म्स कमिश्नर रहे, और इस तरह हम बहुत शुरूआती
दौर में ही एक दूसरे के करीब आ गए, क्योंकि आप वह पहले आदमी थे जो डोमिनियन
स्टेटस के मेरे विचार से पूर्णतः सहमत थे, और आपने ने वह हल ढूंढ
निकाला जिसके बारे में मैंने सोचा भी नहीं था, और उसे सत्ता के अति शीघ्र
हस्तांतरण से पहले ही स्वीकार्य बना दिया। उस निर्णय की इतिहास हमेशा बेहद कद्र
करेगा, और इस बात के
लिए मैं आपका मशकूर हूँ।' इतिहास उतना कद्रदान नहीं
साबित हुआ जितनी उन्हें उम्मीद थी।
आखिरी घड़ी में एक गड़बड़ हो गई। स्वतंत्रता और
विभाजन का लन्दन द्वारा स्वीकृत मसौदा शिमला में सभी पक्षों के
आगे रखने से पहले माउंटबेटन को पूर्वबोध हुआ कि औरों के देखने से
पहले उन्हें वह मसौदा गुप्त रूप से नेहरू को दिखा देना चाहिए। उसे देखकर नेहरू
आग-बबूला हो गए: मसौदे में यह बात पर्याप्त रूप से साफ़ नहीं की गई थी कि भारतीय संघ अंग्रेजी राज का उत्तराधिकारी राज्य होगा और इस वजह से वे सारी चीज़ें जो उसे
हासिल होंगी और यह भी कि पाकिस्तान उस से अलग हो रहा है।
माउंटबेटन ने अपने अंतर्ज्ञान के लिए किस्मत का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने कहा कि अगर वे मसौदा नेहरू को नहीं दिखाते तो खुद वे और उनके
आदमी 'देश की सरकार के सामने
निरे अहमक साबित हो जाते कि उन्होंने सरकार को इस खुशफहमी में रखा था कि नेहरू मसौदा स्वीकार कर लेंगे ' और 'डिकी माउंटबेटन बर्बाद हो गए होते और अपना बोरिया-बिस्तर बाँध चुके होते'. मेनन का अमूल्य साथ तो था ही, और मुश्किल टल गई जब
उन्होंने नेहरू की पसंद वाला मसौदा तैयार किया। जून के पहले हफ्ते में माउंटबेटन ने घोषणा की ब्रिटेन 14 अगस्त को सत्ता का
हस्तांतरण कर देगा, उस तारीख को
बाद में उन्होंने स्वयं ही 'हास्यास्पद
रूप से जल्दबाज़' बताया था।
इस जल्दबाज़ी की वजह साफ़ थी, और वह बताने में माउंटबेटन ने कोई गोलमाल नहीं किया। 'हम क्या कर रहे हैं? प्रशासकीय तौर पर एक पक्की
इमारत बनाने और एक झोंपड़ी या तम्बू तानने में फर्क है। जहाँ तक
पाकिस्तान की बात है, हम एक तम्बू तान रहे हैं। इस से ज़्यादा हम कुछ नहीं कर सकते।'
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यह टुकड़ा `थ्री एसेज़ कलेक्टिव` से आई किताब `द इंडियन आइडियोलॉजी` से लिया गया है। हिंदी अनुवाद - भारतभूषण तिवारी।
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यह टुकड़ा `थ्री एसेज़ कलेक्टिव` से आई किताब `द इंडियन आइडियोलॉजी` से लिया गया है। हिंदी अनुवाद - भारतभूषण तिवारी।
(समयांतर, जनवरी 2013 से साभार)