मेरी दिलचस्पी त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मणिक सरकार (बांग्ला डायलेक्ट
के लिहाज से मानिक सरकार) के बजाय उनकी पत्नी पांचाली भट्टाचार्य से मिलने में थी।
मैंने सोचा कि निजी जीवन के बारे में `पॉलिटिकली करेक्ट` रहने की चिंता किए बिना वे ज्यादा सहज ढंग से
बातचीत कर सकती हैं, दूसरे यह भी पता चल सकता है कि एक कम्युनिस्ट नेता और कड़े
ईमानदार व्यक्ति के साथ ज़िंदगी बिताने में उन पर क्या बीती होगी। पर वे मेरी
उम्मीदों से कहीं ज्यादा सहज और प्रतिबद्ध थीं, मुख्यमंत्री आवास में रहने के जरा
भी दंभ से दूर। बातचीत में जिक्र आने तक आप यह भी अनुमान नहीं लगा सकेंगे कि वे
केंद्र सरकार के एक महकमे सेंट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड के सेक्रेट्री पद से रिटायर हुई
महिला हैं।
फौरन तो मुझे हैरानी ही हुई कि एक वॉशिंग मशीन खरीद लेने भर से वे
अपराध बोध का शिकार हुई जा रही हैं। मैंने एक अंग्रेजी अखबार की एक पुरानी खबर के
आधार पर उनसे जिक्र किया था कि मुख्यमंत्री अपने कपड़े खुद धोते हैं तो उन्होंने
कहा कि जूते खुद पॉलिश करते हैं, पहले कपड़े भी नियमित रूप से खुद ही धोते थे पर
अब नहीं। वे 65 साल के हो गए हैं, उनकी एंजियोप्लास्टी हो चुकी है, बायपास सर्जरी
भी हुई, ऊपर से भागदौड़, मीटिंगों, फाइलों आदि से भरी बेहद व्यस्त दिनचर्या।
पांचाली ने बताया कि दिल्ली में रह रहे बड़े भाई का अचानक देहांत होने पर मैं
दिल्ली गई थी तो भाभी ने जोर देकर वादा ले लिया था कि अब वॉशिंग मशीन खरीद लो।
लौटकर मैंने माणिक सरकार से कहा तो वे राजी नहीं हुए। मैंने समझाया कि हम दोनों के
लिए ही अब खुद अपने कपड़े धोना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है तो उन्होंने
पैसे तय कर किसी आदमी से इस काम में मदद लेने का सुझाव दिया। कई दिनों की बहस के
बाद उन्होंने कहा कि तुम तय ही कर चुकी हो तो सलाह क्यों लेती हो।
सीएम आवास के
कैम्प आफिस के एक अफसर से मैंने हैरानी जताई कि क्या मुख्यमंत्री के कपड़े धोने के
लिए सरकारी धोबी की व्यवस्था नहीं है तो उसने कहा कि यह इस दंपती की नैतिकता से
जुड़ा मामला है। मणिक सरकार ने मुख्यमंत्री आवास में आते ही अपनी पत्नी को सुझाव
दिया था कि रहने के कमरे का किराया, टेलिफोन, बिजली आदि पर हमारा कोई पैसा खर्च
नहीं होगा तो तुम्हें अपने वेतन से योगदान कर इस सरकारी खर्च को कुछ कम करना
चाहिए। और रसोई गैस सिलेंडर, लॉन्ड्री (सरकारी आवास के परदे व दूसरे कपड़ों की
धुवाई) व दूसरे कई खर्च वे अपने वेतन से वहन करने लगीं, अब वे यह खर्च अपनी पेंशन
से उठाती हैं।
मैंने बताया कि एक मुख्यमंत्री की पत्नी का रिक्शा से या पैदल बाज़ार
निकल जाना, खुद सब्जी वगैरहा खरीदना जैसी बातें हिंदी अखबारों में भी छपी हैं।
यहां के लोगों को तो आप दोनों की जीवन-शैली अब इतना हैरान नहीं करती पर बाहर के लोगों
में ऐसी खबरें हैरानी पैदा करती हैं। उन्होंने कहा कि साधारण जीवन और ईमानदारी में
आनंद है। मैंने तो हमेशा यही सोचा कि मणिक मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे तो ये
स्टेटस-प्रोटोकोल आदि छूटेंगे ही, तो इन्हें पकड़ना ही क्यों। मैं नहीं चाहती थी
कि मेरी वजह से मेरे पति पर कोई उंगली उठे। मेरा दफ्तर पास ही था सो पैदल जाती
रही, कभी जल्दी हुई तो रिक्शा ले लिया। सेक्रेट्री पद पर पहुंचने पर जो सरकारी
गाड़ी मिली, उसे दूर-दराज के इलाकों के सरकारी दौरों में तो इस्तेमाल किया पर
दफ्तर जाने-आने के लिए नहीं। सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के बाद अब सीआईटीयू में
महिलाओं के बीच काम करते हुए बाहर रुकना पड़ता है। आशा वर्कर्स के साथ सोती हूं तो
उन्हें यह देखकर अच्छा लगता है कि सीएम की पत्नी उनकी तरह ही रहती है। एक
कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के लिए नैतिकता बड़ा मूल्य है और एक नेता के लिए तो और भी
ज्यादा। मात्र 10 प्रतिशत लोगों को फायदा पहुंचाने वाली नई आर्थिक नीतियों और उनसे
पैदा हो रहे लालच व भ्रष्टाचार से लड़ाई के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और उससे मिलने
वाली नैतिक शक्ति सबसे जरूरी चीजें हैं।
दरअसल, मणिक सरकार पिछले साल विधानसभा चुनाव में अपने नामांकन के बाद
अचानक देश भर के अखबारों में चर्चा में आ गए थे। नामांकन के दौरान उन्होंने अपनी
सम्पत्ति का जो हलफनामा दाखिल किया था, उसे एक राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने फ्लेश कर
दिया था। जो शख्स 1998 से लगातार मुख्यमंत्री हो, उसकी निजी चल-अचल संपत्ति अढ़ाई
लाख रुपये से भी कम हो, यह बात सियासत के भ्रष्ट कारनामों में साझीदार बने मीडिया
के लोगों के लिए भी हैरत की बात थी। करीब अढ़ाई लाख रुपये की इस सम्पत्ति में उनकी
मां अंजलि सरकार से उन्हें मिले एक टिन शेड़ के घर की करीब 2 लाख 22 हजार रुपये
कीमत भी शामिल है। हालांकि, यह मकान भी वे परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए ही छोड़
चुके हैं। इस दंपती के पास न अपना घर है, न कार। कम्युनिस्ट नेताओं को लेकर अक्सर उपेक्षा
या दुष्प्रचार करने वाले अखबारों ने `देश का सबसे गरीब
मुख्यमंत्री` शीर्षक से उनकी संपत्ति का ब्यौरा प्रकाशित किया।
किसी मुख्यमंत्री का वेतन महज 9200 रुपये मासिक (शायद देश में किसी मुख्यमंत्री का
सबसे कम वेतन) हो, जिसे वह अपनी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी
(माकपा) को दे देता हो और पार्टी उसे पांच हजार रुपये महीना गुजारा भत्ता देती हो,
उसका अपना बैंक बेलेंस 10 हजार रुपये से भी कम हो और उसे लगता हो कि उसकी पत्नी की
पेंशन और फंड आदि की जमाराशि उनके भविष्य के लिए पर्याप्त से अधिक ही होगी, तो
त्रिपुरा से बाहर की जनता का चकित होना स्वाभाविक ही है।
हालांकि, संसदीय राजनीति में लम्बी पारी के बावजूद लेफ्ट पार्टियों के
नेताओं की छवि अभी तक कमोबेश साफ-सुथरी ही ही रहती आई है। त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल
और केरल की लेफ्ट सरकारों में मुख्यमंत्री रहे या केंद्र की साझा सरकारों में
मंत्री रहे लेफ्ट के दूसरे नेता भी काजल की इस कोठरी से बेदाग ही निकले हैं। लेफ्ट
पार्टियों ने इसे कभी मुद्दा बनाकर अपने नेताओं की छवि का प्रोजेक्शन करने की
कोशिश भी कभी नहीं की। मणिक सरकार से उनकी साधारण जीवन-शैली और `सबसे गरीब मुख्यमंत्री` के `खिताब` के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मेरी
पार्टी और विचारधारा मुझे यही सिखाती है। मैं ऐसा नहीं करुंगा तो मेरे भीतर क्षय
शुरू होगा और यह पतन की शुरुआत होगी। इसी समय केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली
यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के लिए अभूतपूर्व बदनामी हासिल कर चुकी थी और उसकी जगह
लेने के लिए बेताब भारतीय जनता पार्टी केंद्र में अपनी पूर्व में रही सरकार के
दौरान हुए भयंकर घोटालों और अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के मौजूदा कारनामों पर
शर्मिंदा हुए बगैर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश को
स्वच्छ व मजबूत सरकार देने का वादा कर रही थी। अल्पसंख्यकों की सामूहिक हत्याओं और
अडानी-अंबानी आदि घरानों पर सरकारी सम्पत्तियों व सरकारी पैसे की बौछार में अव्वल
लेकिन आम-गरीब आदमी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि मसलों पर फिसड्डी गुजरात को
विकास का मॉडल और इस आधार पर खुद को देश का भावी मजबूत प्रधानमंत्री बताते घूम रहे
नरेंद्र मोदी की शानो शौकत भरी जीवन-शैली के बरक्स मणिक सरकार की `सबसे गरीब-ईमानदार मुख्यमंत्री की छवि` वाली अखबारी कतरनों ने विकल्प की तलाश में बेचैन
तबके को भी आकर्षित किया जिसने इन कतरनों को सोशल मीडिया पर जमकर शेयर किया।
हालांकि, ये कतरनें मणिक सरकार की व्यक्तिगत ईमानदारी के तथ्यों को जरा और मिथकीय
बनाकर तो पेश करती थीं पर इनमें भयंकर आतंकवाद, आदिवासी बनाम बंगाली संघर्ष व घोर
आर्थिक संकट से जूझ रहे पूरी तरह संसाधनविहीन अति-पिछड़े राज्य को जनपक्षीय विकास
व शांति के रास्ते पर ले जाने की उनकी नीतियों की कोई झलक नहीं मिलती थी। लोकसभा
चुनाव में जाने से पहले माकपा का शीर्ष नेतृत्व सेंट्रल कमेटी की मीटिंग के लिए
अगरतला में जुटा तो उसने प्रेस कॉन्फ्रेंस और सार्वजनिक सभा में त्रिपुरा के विकास
के मॉडल को देश के विकास के लिए आदर्श बताते हुए कॉरपोरेट की राह में बिछी यूपीए,
एनडीए आदि की जनविरोधी आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना की। दरअसल, मणिक सरकार और
त्रिपुरा की उनके नेतृत्व वाली माकपा सरकार की उपलब्धियां उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी
की तरह ही उल्लेखनीय हैं लेकिन उनका जिक्र कॉरपोरेट मीडिया की नीतियों के अनुकूल
नहीं पड़ता है।
लेकिन, भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं के लिए मणिक
सरकार की ईमानदारी को लेकर छपी छुटपुट खबरों से ही अपमान महसूस करना स्वाभाविक था।
गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार
नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के सिलसिले में अगरतला आए तो वे विशाल
अस्तबल मैदान (स्वामी विवेकानंद मैदान) में जमा तीन-चार हजार लोगों को संबोधित
करते हुए अपनी बौखलाहट रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट खुद को ज्यादा ही
ईमानदार समझते हैं और इसका खूब हल्ला करते हैं। उन्होंने गुजरात के विकास की डींग
हांकते हुए रबर की खेती और विकास के सब्जबाग दिखाते हुए कमयुनिस्टों को त्रिपुरा
की सत्ता से बाहर कर कमल खिलाने का आह्वान किया। लेकिन, उनका मुख्य जोर बांग्लादेश
सीमा से लगे इस संवेदनशील राज्य में साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने और तनाव की
राजनीति पर जोर देने पर रहा। उन्होंने कहा कि त्रिपुरा में बांग्लादेशी घुसपैठियों
के कारण खतरा पैदा हो गया है जबकि गुजरात से सटा पाकिस्तान मुझसे थर्राता रहता है।
झूठ और उन्माद फैलाने के तमाम रेकॉर्ड अपने नाम कर चुके मोदी को शायद मालूम नहीं
था कि मणिक सरकार की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण सीआईए-आईएसआई के संरक्षण में चलने
वाली आतंकवादी गतिविधियों पर नियंत्रण और आदिवासी बनाम बंगाली वैमनस्य की राजनीति
को अलग-थलग कर दोनों समुदायों में बड़ी हद तक विश्वास का माहौल बहाल करना भी है।
माकपा के नृपेन चक्रवर्ती और दशरथ देब जैसे
दिग्गज नेताओं के मुख्यमंत्री रहने के बाद 1998 में मणिक सरकार को यह जिम्मेदारी
दी गई थी तो विश्लेषकों ने इसे एक अशांत राज्य का शासन चलाने के लिहाज से भूल करार
दिया था। 1967 में महज 17-18 बरस की उम्र में छात्र मणिक प्रदेश की तत्कालीन
कांग्रेस सरकार के खिलाफ चले खाद्य आंदोलन में बढ़-चढ़कर शामिल रहे थे। उस चर्चित
जनांदोलन में प्रभावी भूमिका उन्हें माकपा के नजदीक ले आई और वे 1968 में विधिवत
रूप से माकपा में शामिल हो गए। वे बतौर एसएफआई प्रतिनिधि एमबीबी कॉलेज स्टूडेंट
यूनियन के महासचिव चुने गए और कुछ समय बाद एसएफआई के राज्य सचिव और फिर राष्ट्रीय
उपाध्यक्ष चुने गए। 1972 में वे माकपा की राज्य इकाई के सदस्य चुने गए और 1978 में
प्रदेश की पहली माकपा सरकार अस्तित्व में आई तो उन्हें पार्टी के राज्य सचिव मंडल
में शामिल कर लिया गया। 1980 के उपचुनाव में वे अगरतला (शहरी) सीट से विधानसभा
पहुंचे और उन्हें वाम मोर्चा चीफ व्हिप की जिम्मेदारी सौंपी गई। 1985 में उन्हें
माकपा की केंद्रीय कमेटी का सदस्य चुना गया। 1993 में त्रिपुरा में तीसरी बार वाम
मोर्चा की सरकार बनी तो उन्हें माकपा के राज्य सचिव और वाम मोर्चे के राज्य संयोजक
की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गईं। 1998 में पार्टी ने उन्हें पॉलित ब्यूरो में
जगह दी और त्रिपुरा विधानसभा में फिर से बहुमत में आए वाम मोर्चा ने विधायक दल का
नेता भी चुन लिया। कहने का आशय यह कि यदि अशांत राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी एक
मुश्किल चुनौती थी तो उनके पास जनांदोलनों और पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण
जिम्मेदारियों का कीमती अनुभव भी था।
मणिक के मुख्यमंत्री कार्यकाल की शुरुआत को याद
करते हुए जॉर्ज सी पोडीपारा (त्रिपुरा में उस समय सीआरपीएफ के आईजी) लिखते हैं कि
आज के त्रिपुरा को आकर देखने वाला अनुमान नहीं लगा पाएगा कि उस समय कैसी विकट
परिस्थितियां थीं जिन पर मणिक सरकार ने कड़े समर्पण, जनता के प्रति प्रतिबद्धता,
विश्लेषण करने, दूसरों को सुनने, अपनी गलतियों से भी सीखने और फैसला लेने की
अद्भुत क्षमता, धैर्य और दृढ़ निश्चय से नियंत्रण पाया था। जॉर्ज के मुताबिक, `एक सच्चे राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने राज्य के
लिए बाधा बनी समस्याओं को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया। उस समय राज्य में
आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों के बीच आपसी अविश्वास और वैमनस्य सबसे बड़ी चुनौती
थे। दो जाति समूहों के बीच का बैर किसी भी तरह के आपसी संवाद को बांस के घने बाड़े
की तरह बाधित किए हुए था। निर्दोषों की हत्या, अपहरण और संपत्ति की लूटपाट 1979 तक
भी एक आम रुटीन जैसी बातें थीं। मणिक सरकार ने महसूस किया कि जब तक यह दुश्मनी
बरकरार रहेगी और जनता के बड़े हिस्से एक दूसरे को बर्बाद करने पर तुले रहेंगे,
राज्य गरीब और अविकसित बना रहेगा। उन्होंने अपना ध्यान इस समस्या पर केंद्रित किया
और अपनी सरकार के सारे संसाधन इससे लड़ने के लिए खोल दिए।`
मणिक सरकार ने एक तरफ टीयूजेएस, टीएनवी और आमरा
बंगाली जैसे आतंकी व चरमपंथी संगठनों के खिलाफ सख्ती जारी रखी, दूसरी तरफ आदिवासी
इलाकों में विकास को प्राथमिकता में शामिल किया। यहां की कुछ जनजातियों के नाम
भाषण में पढ़कर आदिवासियों के प्रति भाजपा के प्रेम का दावा कर गए नरेंद्र मोदी को
क्या याद नहीं होगा कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों के जंगलों
में रह रहे आदिवासियों को कॉरपोरेट घरानों के हितों के लिए उजाड़ने और उनकी
हत्याओं के अभियान चलाने में उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस दोनों की ही सरकारों
की क्या भूमिका रहती आई है? इसके उलट मणिक सरकार ने त्रिपुरा में आदिवासियों
के बीच लोकतांत्रिक प्रक्रिया तेज कर निर्णय लेने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित
करने पर बल दिया। उनकी अगुआई वाली लेफ्ट सरकार ने सुदूर इलाकों तक बिजली-पानी,
स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित कीं और कांग्रेस के शासनकाल में
आदिवासियों की जिन ज़मीनों का बड़े पैमाने पर अवैध रूप से मालिकाना हक़ ट्रांसफर
कर दिया गया था, उन्हें यथासंभव आदिवासयों को लौटाने की पूर्व की लेफ्ट सरकारों में
की गई पहल को आगे बढ़ाया। प्रदेश में जंगल की करीब एक लाख 24 हेक्टेयर भूमि
आदिवासियों को पट्टे के रूप में दी गई, जिसके संरक्षण के लिए उन्हें आर्थिक मदद दी
जा रही है।
खास बात यह रही कि उस बेहद मुश्किल दौर में
मुख्यमंत्री मणिक सरकार ने यह एहतियात रखी कि शांति स्थापित करने के प्रयास
निर्दोष आदिवासयों की फर्जी मुठभेड़ में हत्याओं का सिलसिला न साबित हों। वे सेना
और केंद्रीय सुरक्षा बलों के अधिकारियों से नियमित संपर्क में रहे और लगातार
बैठकों के जरिए यह सुनिश्चित करते रहे कि आम आदिवासियों को दमन का शिकार न होना
पड़े। इसके लिए माकपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को इस मुहिम में आगे रहकर शहादतें भी
देनी पड़ीं। यूं भी आदिवासियों के बीच लेफ्ट के संघर्षों की लम्बी परंपरा थी।
त्रिपुरा में राजशाही के दौर में ही लेफ्ट लोकतंत्र की मांग को लेकर संघर्षरत था।
उस समय दशरथ देब, हेमंत देबबर्मा, सुधन्वा देबबर्मा और अघोर देबबर्मा जैसी
शख्सियतों द्वारा आदिवासियों को शिक्षा के अधिकार के लिए जनशिक्षा समिति के बैनर
तले चलाई गई मुहिम में लेफ्ट भी भागीदार था। 1948 में वामपंथ के प्रसार के खतरे के
नाम पर देश की तत्कालीन नेहरू सरकार ने जनशिक्षा समिति की मुहिम को पलीता लगा दिया
और आदिवासी इलाकों को भयंकर दमन का शिकार होना पड़ा तो त्रिपुरा राज्य मुक्ति
परिषद (अब त्रिपुरा राज्य उपजाति गणमुक्ति परिषद यानी जीएनपी) का गठन कर संघर्ष
जारी रखा गया। 1960 और 1970 में आदिवासियों के लिए शिक्षा, रोजगार, विकास और उनकी
मातृभाषा कोरबरोक को महत्व दिए जाने के चार सूत्रीय मांगपत्र पर लेफ्ट ने जोरदार आंदोलन
चलाए थे। राज्य में माकपा की पहली सरकार आते ही केंद्र की कांग्रेस सरकार व राज्य
के कांग्रेस व दूसरे चरमपंथी संगठनों के विरोध के बावजूद त्रिपुरा ट्राइबल एरिया
ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (एडीसी) के गठन जैसे कामों के चलते भी आदिवासियों में
माकपा का मजबूत आधार था।
जाहिर है कि आतंकवाद के खिलाफ सख्त पहल और विकास कार्यों
में तेजी के अभियान में मणिक सरकार की पारदर्शी कोशिशों को परेशानहाल आदिवासियों
और खून-खराबे का शिकार हुए गरीब बंगालियों दोनों का समर्थन हासिल हुआ। हालांकि, शांति
की इस मुहिम में तीन दशकों में माकपा के करीब 1179 नेताओं-कार्यकर्ताओं को जान से
हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस की राज्य इकाई हमेशा आदिवासियों और बंगाली चरमपंथी
संगठनों को हवा देकर दंगे भड़काने में मशगूल रहती आई थी और इन संगठनों की बी टीमों
को चुनावी पार्टनर भी बनाती रही थी। केंद्र की कांग्रेस सरकारें भी आतंकवादी
संगठनों से जूझने के बजाय उनके साथ गलबहियों का खेल खेलती रहीं। लेकिन, आदिवासियों
के बीच लेफ्ट का प्रभाव बरकरार रहा और राज्य में शांति स्थापित हुई तो दोनों ही
समुदायों ने चैन की सांस ली। मणिक सरकार का यह कारनामा दूसरे राज्यों और केंद्र के
लिए भी प्रेरणा होना चाहिए था लेकिन इसके लिए विकास की नीतियों को कमजोर तबकों की
ओर मोड़ने की जरूरत पड़ती और कॉरपोरेट को सरकारी संरक्षण में जंगल व वहां के रहने
वालों को उजाड़ने देने की नीति पर लगाम लगाना जरूरी होता।
मुख्यमंत्री मणिक और उनकी लेफ्ट सरकार की वैचारिक
प्रतिबद्धता का ही नतीजा रहा कि बेहद सीमित संसाधनों और केंद्र सरकार की निरंतर
उपेक्षा के बावजूद त्रिपुरा में जनपक्षधर नीतियां सफलतापूर्वक क्रियान्वित हो
पाईं। केंद्र व दूसरे राज्यों में जहां सरकारी नौकरियां लगातार कम की जा रही हैं,
एक के बाद एक, सरकारी महकमे बंद किए जा रहे हैं, वहीं त्रिपुरा सरकार ने तमाम
आर्थिक संकट के बावजूद इस तरफ से अपने हाथ नहीं खींचे हैं। गरीबों के लिए सब्सिडी
से चलने वाली कल्याणकारी योजनाएं बदस्तूर जारी हैं और सरकार की वर्गीय आधार पर
प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं। मसलन, राज्य कर्मचारियों
को केंद्र के कर्मचारियों के बराबर वेतन दे पाना मुमकिन नहीं हो पाया है। विधानसभा
चुनाव में कांग्रेस ने कर्मचारियों के बीच इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की थी लेकिन
मुख्यमंत्री राज्य कर्मचारियों को यह समझाने में सफल रहे थे कि केंद्र ने राज्य की
मांग के मुकाबले 500 करोड़ रुपए कम दिए हैं। लेकिन, तमाम दबावों के बावजूद राज्य सरकार हर
साल 52 करोड़ रुपये की सब्सिडी उन गरीब लोगों को बाज़ार मूल्य से काफी कम 6.15
रुपये प्रति किलोग्राम भाव से चावल उपलब्ध कराने के लिए देती है जिन्हें बीपीएल
कार्ड की सुविधा में समाहित नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि बीपीएल कार्ड
धारकों को तो 2 रुपये प्रति किलोग्राम चावल दिया जा ही रहा है। गरीबों को काम देने
के लिए लेफ्ट के दबाव में ही यूपीए-1 सरकार में लागू की गई मनरेगा स्कीम जहां देश
भर में भयंकर भ्रष्टाचार का शिकार है, वहीं त्रिपुरा इस योजना के सफल-पारदर्शी
क्रियान्वयन के लिहाज से लगातार तीन सालों से देश में पहले स्थान पर है।
तार्किक आलोचना की तमाम जगहों के बावजूद त्रिपुरा
सरकार की विकास की उपलब्धियां महत्वपूर्ण हैं। प्रदेश की 95 फीसदी जनता चिकित्सा
के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर है। सुदूर क्षेत्रों तक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध
कराने के साथ ही राज्य सरकार अपने कॉलेजों से पढ़कर नौकरी पाने वाले डॉक्टरों को
पहले पांच साल ग्रामीण क्षेत्र में सेवा करने के लिए विवश करती है। प्रति व्यक्ति
आय की दृष्टि से त्रिपुरा उत्तर-पूर्व राज्यों में पहले स्थान पर है तो साक्षरता
दर में देशभर में अव्वल है। प्राथमिक स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों के
फैलाव, एनआईटी और दो मेडिकल कॉलेजों ने राज्य के छात्रों, खासकर आदिवासियों व
दूसरी गरीब आबादी के छात्रों को आगे बढ़ने और सरकारी मशीनरी का हिस्सा बनने का
मौका दिया है। सिंचाई सुविधा के विस्तार, सुनियोजित शहरीकरण, फल, सब्जी, दूध, मछली
उत्पादन आदि में आत्मनिर्भरता पर त्रिपुरा गर्व कर सकता है। कभी खूनखराबे का
पर्याय बन गया त्रिपुरा आज रक्तदान के क्षेत्र में भी देश में पहले स्थान पर है और
इसमें आदिवासी युवकों का बड़ा योगदान है।
नरेंद्र मोदी ने अगरतला में अपने भाषण में
त्रिपुरा सरकार पर रबर की खेती को बढ़ावा देने के लिए गुजरात की तरह जेनेटिक साइंस
का इस्तेमाल न करने का आरोप भी लगाया था। लेकिन, रबर उत्पादन में त्रिपुरा की
उपलब्धि की जानकारी मोदी को नहीं रही होगी। रबर उत्पादन में त्रिपुरा देशभर में
केरल के बाद दूसरे स्थान पर है। यह बात दीगर है कि रबर की खेती से आ रहा पैसा नई
चुनौतियां भी पैदा कर रहा है। मसलन, परंपरागत जंगल और खाद्यान्न उत्पादन के मुकाबले
काफी ज्यादा पैसा देने वाली रबर की खेती त्रिपुरा की प्राकृतिक पारिस्थितिकी में
अंसतुलन पैदा कर सकती है लेकिन उससे पहले सामाजिक असंतुलन की चुनौती दरपेश है।
आदिवासियों में एक नया मध्य वर्ग पैदा हुआ है, जो गरीब आदिवासियों को सदियों के
सामूहिक तानेबाने से अलग कर देखता है। उसके बीच सामाजिक-आर्थिक न्याय के सवालों पर
बात करना इतना आसान नहीं रह गया है। यह नया मध्य वर्ग और दूसरे पैसे वाले लोग गरीब
आदिविसियों की जमीनों को 99 साला लीज़ की आड में हड़पना चाहते हैं और एक बड़ी तबका
अपनी ही ज़मीन पर मजदूर हो जाने के लिए अभिशप्त हो रहा है। माकपा के मुखपत्र `देशेरकथा` के संपादक और माकपा
के राज्य सचिव मंडल के सदस्य गौतम दास कहते हैं कि उनकी पार्टी ने प्रतिक्रियावादी
ताकतों से और गरीबों की शोषक शक्तियों से वैचारिक प्रतिबद्धता के बूते ही लड़ाइयां
जीती हैं। उम्मीद है कि युवाओं के बीच राजनीतिक-वैचारिक अभियानों से ही इस चुनौती
का भी मुकाबला किया जा सकेगा।
पड़ोसी देश बांग्लादेश के साथ त्रिपुरा सरकार के
संबंधों का जिक्र भी तब और ज्यादा जरूरी हो जाता है जबकि आरएसएस और बीजेपी लम्बे
समय से बांग्लादेश के साथ हिंदुस्तान के संबंधों को सिर्फ और सिर्फ नफ़रत में
तब्दील कर देने पर आमादा हैं। मोदी ने उत्तर-पूर्व के दूसरे इलाकों की तरह अगरतला
में भी नफ़रत की इस नीति पर ही जोर दिया। लेकिन, मुख्यमंत्री मणिक सरकार और उनकी
सरकार का बांग्लादेश की सरकार साथ बेहतर संवाद है। बांग्लादेश में अमेरिका और पाकिस्तानी
एंजेसियों के संरक्षण में सिर उठा रही साम्प्रदायिक ताकतों के दबाव के बावजूद वहां
की मौजूदा शेख हसीना सरकार हिंदुस्तान के साथ दोस्ताना है और त्रिपुरा सरकार के
साथ भी उसके बेहतर रिश्ते हैं। इस सरकार ने त्रिपुरा में आतंकवाद के उन्मूलन में भी
मदद की है। अगरतला से सटे आखोरा बॉर्डर पर तनावरहित माहौल को आसानी से महसूस किया
जा सकता है। बांग्लादेश के उदार, प्रगतिशील तबकों व कलाकारों के साथ त्रिपुरा के
प्रगाढ़ रिश्तों को अगरतला में अक्सर होने वाले कार्यक्रमों में देखा जा सकता है
जिनमें मणिक सरकार की बौद्धिक उपस्थिति भी अक्सर दर्ज होती है। त्रिपुरा के लेफ्ट,
उसके मुख्यमंत्री और उसकी सरकार की यह भूमिका दोनों ओर के ही अमनपसंद तबकों को
निरंतर ताकत देती है।
56 इंच का सीना जैसी तमाम उन्मादी बातों और देह भंगिमाओं
के साथ घूम रहे उस शख्स से त्रिपुरा के इस सेक्युलर, शालीन, सुसंस्कृत मुख्यमंत्री
की तुलना का कोई अर्थ नहीं है। कलकत्ता यूनिवर्सिटी से कॉमर्स के इस स्नातक की
कला, साहित्य, संस्कृति में गहरी दिलचस्पी है और यह उसके जीवन और राजनीति का ही
जीवंत हिस्सा है। बहुत से दूसरे ताकतवर राजनीतिज्ञों और अफसरों की आम प्रवृत्ति के
विपरीत इस मुख्यमंत्री को सायरन-भोंपू के हल्ले-गुल्ले और तामझाम के बिना साधारण
मनुष्य की तरह सांस्कृतिक कार्यक्रमों को सुनते-समझते, कलाकारों से चर्चा करते और
संस्कृतिकर्मियों से लम्बी बहसें करते देखा-सुना जा सकता है।
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(समयांतर के अप्रैल अंक से साभार। पोट्रेट स्केच-उदयशंकर गांगुली)