Thursday, August 13, 2020

अमर शायरों की सफ़ में है राहत इंदौरी की जगह -धीरेश सैनी

 


अपनी विद्वता के `आइवरी टावर्स` में बैठे कवि-बुद्धिजीवी जो भी समझें, पर सच यही है, इत्ते बड़े मुल्क में, एक सीधी सी बात को ऐसे खरेपन से कह देना, राहत इंदौरी के ही हिस्से में आया था। हिर्स करो, पारसाई भी तो हासिल करो। बे-शक, उन्हें आप लोगों के मेयार से नहीं तौला जा सकता है, पर वे जिस सफ़ में हैं, उस में वे ग़ैर-मामूली शायर हैं, जिनके पास प्रतिरोध की कोई एक ही सही, पर ला-ज़वाल लाइन है।


शायर राहत इंदौरी ने मर कर बहुत से लोगों के लिए अजीब मुश्किल पैदा कर दी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि इस शायर को लेकर ऐसी दीवानगी क्यों है। दीवानगी, एक अलग चीज़ है जो बहुत सारे घटिया और जनद्रोहियों को भी अक्सर नसीब हो जाया करती है। राहत इंदौरी से परेशानी की वजह कुछ और है। इसमें कोई शक नहीं है कि वे मुशायरों में बेहद पॉपुलर थे। उनके अपने लटके-झटके थे, एक पूरा ड्रामाई अंदाज़ भी था जो बहुत से लतीफ़-नफ़ीस लोगों के लिए झुंझलाहट का बाइस भी हुआ करता था। राहत इंदौरी को पॉपुलर स्पेस में ही बेतरह याद किया जा रहा होता, तो मेयारी अदीबों को तकलीफ़ न हुई होती। रंज यही है कि बुद्धिजीवियों को भी इस शायर के जाने का इतना ग़म क्यों है। हालत यह है कि एक तरफ़, सोशल मीडिया पर शायर से मुहब्बत करने वाले हैं तो दूसरी तरफ़ उन्हें लेकर ज़हर उगला जा रहा है। इसी के बीच में ऐसे झुंझलाए बौद्धिक स्वर हैं जो कह रहे हैं कि बौद्धिक हलक़े में राहत को इतना महत्व क्यों या उनकी क्या साहित्यिक औक़ात।


साहित्यिक श्रेणियों में राहत इंदौरी का स्थान तय करने की हड़बड़ी वाले लोग असल में भूल कर रहे हैं। वे हल्कापन कहें या प्रतिक्रियावाद कहें या मामूली- ग़ैर मामूली की बहस में उलझे रहें, इस शायर को उनकी एक ग़ज़ल ने, एक शेर ने या एक लाइन ने ही अमरत्व प्रदान कर दिया है। इतने बड़े मुल्क में यह कहना उन्हीं के हिस्से में आया था - ``सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में/किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है``। एक सच को कहने की यह सलाहियत, यह मोराल और यह बेधड़क अंदाज़ उन्होंने ही पाया था। इस लिहाज़ से उनका कोई हमवार है तो वो हबीब जालिब हैं। आंदोलनों में उनकी लाइनें हबीब जालिब की लाइनों के साथ ही दिखाई देती रहेंगी।


बे-शक, हबीब जालिब की तरह राहत इंदौरी लाठियां खाते हुए सड़कों पर नहीं थे, न उनका वक़्त जेलों में बीता था, पर ऐसे अशआर के लिए दिल को जिस बेकली और जिस अज़ीयत से गुज़रते रहना होता है, वे उसी में जी रहे थे। वे 1950 के शुरुआती दिन पैदा हुए थे और एक मुसलमान होने के नाते 11 अगस्त 2020 तक अपने शहर और अपने मुल्क में क्या कुछ देखते-महसूस करते हुए नहीं गए? बात यह थी कि जो बात एक मुसलमान के लिए कहनी मुश्किल होती है, उसे वे बेख़ौफ़ कहते रहे। यह समझने के लिए एक साफ़ दिल ज़रूरी है। 1992 के बाद वे एक शेर पढ़ा करते थे- ``टूट रही है हर दिन मुझमें एक मस्जिद/इस बस्ती में रोज़ दिसम्बर आता है``। हर दिन का यह जो टूटना है, वे इसे कभी कलंदराना अंदाज़ में, कभी सिर्फ़ अफ़सोस में और कभी रेटरिक और चुनौती में तब्दील कर शायरी में दर्ज कर अवाम के बीच ले जाते थे। ज़ुल्म-ओ-सितम के बीच बेसहारा छोड़ दिए गए लोगों के लिए यह कितनी बड़ी राहत होती थी, कितना बड़ा सहारा, यह महसूस करने के लिए शास्त्रीय आलोचकों को हिक़ारत छोड़ कर मज़लूमों की भीड़ तक जाना पड़ेगा। यह बात अलग है कि वे साहित्य के मसीहाओं से भी न यह मांग करते हैं, न उम्मीद, न कोई ऐसा विद्वान उन्हें किसी महान शायर के रूप में देख रहा था। जो उन्हें करना था, वे खुद ही कर रहे थे, एक पॉपुलर स्पेस में कर रहे थे और असरदार ढंग से कर रहे थे। उन का एक शेर है - ``हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे / कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते``। उनके मक़ाम को तय करने के लिए ज़ल्दी में लग रहे हिन्दी के बुद्धिजीवी चाहें तो उनके इस शेर को देख सकते हैं और सोच सकते हैं कि अपनी `अच्छाइयों` के साथ वे लोग कैसे-कैसे खल-पत्थरों को राह के पहाड़ जैसे महानायक स्थापित करने में मदद करते रहे है।



राहत इंदौरी के पास और शायरी किस स्तर की है, ऐसे सवालों में सिर खपाने के बजाय मुशायरों की यादों को ताज़ा कर लेना चाहिए। हिन्दी कवि सम्मेलनों की भी। हिन्दी कवि सम्मेलन पूरी तरह फूहड़ चुटकुलों और उन्मादी तुकबाजियों के अड्डे बनते गए पर मुशायरों में शायरी का एक स्तर हमेशा क़ाएम रहा। यही वज़ह है कि एक पॉपुलर और एक प्रोपर शायर के बीच में एक फ़र्क़ होते हुए भी हिन्दी कविता की दुनिया जैसा फ़र्क़ कभी नहीं रहा। बाकी, हिन्दी कवि सम्मेलन के उन्मादी आह्वानों को लेकर जोश में रहने वाले लोग मुशायरों में सियासी सवाल उठा देने वाले एकाध शायर को कट्टर या साम्प्रदायिक बताते घूमा ही करते हैं। हिन्दी की लिबरल दुनिया के बीच यह मर्ज़ इस हद तक न भी हो पर दुचित्तेपन या बेलैंसवाद के रूप में तो वहाँ भी पलता ही रहा है।


“मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना/लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना", इस शेर को जिस धूम के साथ राहत इंदौरी की हिन्दुस्तानियत के प्रमाण की तरह पेश किया जा रहा है, असल में वह भी एक बीमारी का ही नतीजा है। बेधड़क और बेख़ौफ़ लगने वाले राहत इंदौरी को भी ऐसे शेर कहने पड़ते रहे। यह वही विडंबना है जिसमें एक मुसलमान को हमेशा जीना पड़ता है। उनके इस शेर को सेकुलर बुद्धिजीवियों ने भी उत्साह से कोट किया है । बाज़ लोगों ने तो फोटोशॉप के जरिये शायर की तस्वीर में माथे पर इसे चिपका भी दिया।


आगे मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकले मूलत: गाज़ीपुर निवासी युवा बुद्धिजीवी सुनील यादव की फेसबुक वॉल से उनकी एक पोस्ट उद्धृत कर रहा हूँ-

(राहत इंदौरी साहब की ये पंक्तियां मुझे बिलकुल पसंद नहीं हैं, जैसे महान कथाकार गुलशेर खान शानी को राही मासूम रज़ा का बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को गुदगुदाने वाली सेकुलरिज्म पसंद नही आता था। शानी ने लिखा है कि ''अगर आप भारतीय मुसलमान हैं और चाहते हैं कि आपकी बुनियादी ईमानदारी पर शक न किया जाए तो देश प्रेम और राष्ट्रीयता का झुनझुना बहुत ज़रूरी है ।’’ शानी ने इसी छद्म सेक्युलरिज़्‍म के लिए राही मासूम रज़ा की आलोचना करते हुए लिखा था कि ''भूख, भय, असुरक्षा, आतंक, नफ़रत और विभेदीकरण जैसे सच आपके अपने सच नहीं थे-ये रूमान के पंखों से उड़कर ऊपर से उतारे हुए दूसरे की सोच थे। विभाजित भारत में मुसलमान के लिए यह बहुत चमकीला और अभेद्य कवच होता है। उस पर कोई संदेह नहीं करता। वह सेक्यूलर कहलाने लगता है। उसे राष्ट्रीयता का प्रमाण पत्र अपने आप मिल जाता है। बहुसंख्य‍क समाज में अल्संख्यसक की तरह जनमने और जीने की नियति में ऐसे कवच बहुत काम आते हैं मासूम भाई।’’ वास्तव में ऐसी सेक्यूलर विचारधारा जो जीवन की वास्तविकता से कटकर सेक्यूलर होने का डंका बजाती है, वह कहीं न कहीं व्यापक स्तर पर हिंदू सांप्रदायिकता को गुदगुदाने का काम ही करती है। किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल उसके अपने अंतर्विरोधों के भीतर ही सुलझाए जा सकते हैं। इसीलिए शानी लिखते हैं कि ''अगर दस-पाँच पीढ़ियों से हमारा परिवार हिंदुस्तान में रह रहा है तो मैं उतना ही राष्ट्रीय हूँ जितने कि आप। फिर क्या ज़रूरी है कि आप तभी मुझे अपनाएंगे जब मैं आपके कानों में राष्ट्रीयता का झुनझुना बजाऊँ। यदि मैं सांप्रदायिक हूँ तो आप मुझसे ज्यादा सांप्रदायिक हैं जिन्होंने मुझे सांप्रदायिक बनाया है।`` दरअसल राहत इंदौरी साहब कई मौकों पर इस तरह की बातें लिख जाते थे। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि मैं राहत इंदौरी साहब का कोई विरोधी हूँ। वे मेरे प्रिय फ़नकार रहे हैं, जैसे राही मासूम रज़ा मेरे प्रिय फ़नकार रहे हैं। - सुनील यादव की पोस्ट)


(जनचौक वेबसाइट पर प्रकाशित होने के बाद वहाँ से साभार)

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

नमन और श्रद्धांजलि।