Sunday, August 2, 2020

अपने विद्वेषी पूर्वजों के मोह में धूर्तता कर रहे हैं अपूर्वानंद?

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अपूर्वानंद से बात कर रहे युवकों ने एक सीधे सवाल के जवाब में `कलाकार के अपने भीतर रहने` जैसी तमाम बातें झेलने के बाद फिर से अपने सवाल पर लौटने की कोशिश की। दब्बूपन से ही सही पर अपना सवाल और साफ़ करने की कोशिश करते हुए मेजबान युवा ने पूछा, ``…हम लोग एक्चुअली सवाल के जरिये जानना चाहते थे कि जहाँ कुछ लोग इस पर सवाल उठाते हैं कि वो एक फेक राष्ट्रवाद था, उन्होंने क्यों लिखा, लोग ये देखना भूल जाते हैं कि उस वक़्त और भी लेखक थे जो बिल्कुल जैसा आपने कहा, खुद में जीकर, आर्ट में छुपकर जो उस समय की सरकार थी, उस समय अंग्रेज थे, उनको बढ़ावा देने वाली, उस समय की जो पार्टी इन्वॉल्व थी, उनको बढ़ावा देने वाला लिटरेचर लिख रहे थे…``
सवाल में और भी तमाम बातें थीं पर शायद अपूर्वानंद के सीने में लगने वाली बात यही थी। वे बोले, देखिए पहले तो हम इसको समझ लें कि ऐसा शायद ही कोई लेखक था जो ब्रिटिश हुकूमत के लिए काम कर रहा हो। ब्रिटिश हुक़ूमत के बारे में हम अभी जैसा सोचते हैं, उस वक़्त के सारे लोग उसी तरह नहीं सोचते थे। यह कहकर अपूर्वानंद का हृदय अपने `पूर्वजों` से एकमेक होने लगा और वे मुग़ल सल्तनत में जा पहुंचे। अपूर्वानंद बोले, जैसे मुग़लिया-मुग़ल सल्तनत थी  या कोई और राज्य, वो तो आख़िर राज की ही चीज़ थी। बादशाह की चीज़ थी। उसमें जनता की तो भागीदारी नहीं थी। फिर उन्होंने तुलसी द्वारा मंथरा के मुँह से बुलवाई गई उस मशहूर पंक्ति का सहारा लिया कि कोई भी नृप हो, हम को क्या फ़र्क़ पड़ता है। अपूर्वानंद बोले कि मैं तो तय नहीं कर सकता कि राज्य कैसा हो। तो मुग़ल बादशाहों की जगह अगर अंग्रेज आ गए तो उसे हमारे गाँव की ज़िंदगी, बाकी ज़िंदगियों पर बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा।
यह एक ऐसा आदमी बोल रहा था जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिन्दी विभाग का प्रोफेसर है और जिसने हिन्दी के बाहर अपनी अच्छी-ख़ासी नेटवर्किंग करके अपनी पहचान एक बड़े सुलझे हुए विद्वान की बना रखी है। आख़िर उसे यह बताने में क्या दिक्कत थी कि प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन में घुसे हुए थे। मुग़ल शासन और अंग्रेजी राज के बीच 1857 की क्रांति भी हुई थी। जनता में गहरा उबाल था और उसे राजनीतिक नेतृत्व भी मिल रहा था। आंदोलन की भी कई धाराएं थीं और अंग्रेजों के पिट्ठुओं की भी जमात थी। हिन्दी लेखक भी थे जो अपूर्वानंद जैसी ही बातें करते थे और मुगल सल्तनत जैसे धूर्त तर्कों के जरिये अंग्रेजों के राज को फायदा पहुँचाने वाली साम्प्रदायिक और विद्वेषी चालें चला करते थे। प्रेमचंद ऐसे अभियानों से भी गुत्थमगुत्था थे। अपूर्वानंद ने धूर्तता और निर्लज्जता का अपूर्व परिचय देते हुए पहले मुगल काल में छलांग लगाई और फिर राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही चल रहे समाज सुधार आंदोलनों को सवाल के बरक्स खड़ा करने लगे। राजा राममोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्या सागर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि बाल विवाह समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू करने या विधवा विवाह शुरू करने की प्रक्रिया अंग्रेजी राज के बाद लोगों ने उनकी सहायता से ही शुरू की। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के साथ थे या नहीं थे, इस तरह देखने से महात्मा फुले, रमाबाई, आंबेडकर आदि के साथ अन्याय होगा। सवाल को उसकी जगह से हटाकर कहीं और ले जाने के पीछे अपूर्वानंद का मकसद क्या था? हिन्दी में प्रेमचंद अपने लेखन के जरिये राष्ट्रीय आंदोलन में मुब्तिला थे और उनके समकालीन क्या कर रहे थे या नहीं कर रहे थे, इस पर बात करने के बजाय सवाल को ही संदिग्ध बनाकर जो ओट लेने की कोशिश अपूर्वानंद ने की, वह इतनी धूर्तता भरी थी कि समझ तो बातचीत कर रहे युवा भी गए होंगे पर अपने ही सीनियर्स के द्वारा गोबर को देवता बना कर खड़ा कर देने की वजह से बोल नहीं पा रहे थे।
क्या मेजबान युवाओं का सवाल और अपूर्वानंद के जवाब में कोई तअल्लुक़ बनता है? अगर प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा थे तो क्या वे समाज सुधार आंदोलनों या बराबरी के दूसरे संघर्षों के ख़िलाफ़ खड़े थे या अगर उनके कोई समकालीन विभाजनकारी राह पर चलकर राजसत्ता को फायदा पहुँचा रहे थे तो क्या इसलिए कि राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, आंबेडकर, फुले, रमाबाई आदि शख़्सियतें विभिन्न मसलों पर सक्रिय थीं? प्रेमचंद के यहाँ तो उनकी समझ और सीमाओं के साथ सामाजिक भेदभाव, छुआछूत, साम्प्रदायिकता, स्त्रियों की स्थिति आदि सवाल केंद्रीयता पा रहे थे। राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी का मतलब भी इन सभी बातों से मिलकर बनता है। अपूर्वानंद को बताना चाहिए था कि हिन्दी में वे कौन लोग थे जो साम्प्रदायिकता, छुआछूत, स्त्री शोषण आदि मसलों पर प्रेमचंद्र के ही विरोध में खड़े थे। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि उनके वे कौन पूर्वज थे जो बाल विवाह और विधवा विवाह का उग्र विरोध कर रहे थे। हिन्दी की गौरवाशाली परंपरा के ज़िक्र से उन्हें सांप क्यों सूंघ गया और विभाजनकारी `पुरोधाओं` के बचाव में वे शातिराना कुतर्कों पर क्यों उतर आए? और अपूर्वानंद फिर से उसी ज्ञान पर लौट आए कि प्रेमचंद की दिलचस्पी ज़िंदगी में थी। लोग कैसे जी रहे हैं, वे बहुत रुचि के साथ देख रहे थे और उनका चित्रण करने की कोशिश कर रहे थे। उस जीवन के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास कर रहे थे।

अपूर्वानंद ने प्रेमचंद की कहानी `मंदिर और मस्जिद` पर चर्चा करते हुए अज्ञेय वगैराह के हवाले दिए और कहा कि प्रेमचंद को इंसानियत की अच्छाइयों में यक़ीन है। कोई अपने धर्मस्थल की नहीं बल्कि दूसरे के धर्मस्थल की भी बेइज़्ज़ती बर्दाश्त न करे, खून खौल उठे। अगर ऐसा हो सकता है तो आप पूरे इंसान हैं और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो आप की इंसानियत में कुछ कमी है। यह है ज़िंदगी का वो पैमाना है जो प्रेमचंद पेश करते हैं।  लेखिका सुसेन का हवाला देकर उन्होंने कहा कि इतना ऊंचा पैमाना जिस पर खरा उतरना मुमकिन न हो, उससे लोग चिढ़ जाते हैं और कहते हैं कि ऐसा करने वाला या तो मूर्ख है या इलीट। इस से वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों लोग चिढ़ जाते हैं। आखिर, अपूर्वानंद अपने इन दिनों के अपने मुख्य एजेंडे पर आए और बोले कि (बहुत लोग मानते हैं) जो मेरे मुताबिक नहीं होता तो उसे मारना ही पड़ेगा न! मेजबान युवा ने मूर्खता से हामी में सिर हिलाते हुए कहा, और कोई रास्ता ही नहीं है। अपूर्वानंद ने कहा कि सत्ताएं निरंकुश हो जाती हैं, वो लेनिन की हों, स्टालिन की हों, माओजेजोंग की हों या हिटलर की हों। वे विश्वास करतीं हैं कि मैं जिस तरह देख रहा हूँ, आपको जिस ढांचे में डाल रहा हूँ, आप बस वही हैं। चूंकि मैं अच्छा हूँ और आप अच्छे नहीं हैं तो आपको खत्म होना चाहिए। प्रेमचंद कहते हैं कि मनुष्य वह है जिसको अहसास है कि वह अधूरा है…।
तो इस धूर्तता भरे प्रवचन के आयोजन के लिए और ऐसे धूर्तों के लिए सीढ़ी बनते रहने वाले वाम बुद्धिजीवियों को बधाई देनी चाहिए?
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