प्रेमचंद की एक बड़ी मज़े की कहानी है, 'बड़े भाई साहब'। थियेटर वालों को भी यह काफ़ी पसंद रही है। दो अभिनेताओं के द्वारा बिना किसी तामझाम के, बल्कि बिना किसी प्रॉप के, इस कहानी के शानदार मंचन भी देखे हैं और इन दिनों एक्सप्लोर के नाम पर ज़बरन कुछ भी जोड़कर टीम और तामझाम वाली प्रस्तुतियां भी। दूरदर्शन आर्काइव्ज के सौजन्य से भी इस कहानी की नाट्य प्रस्तुति बल्कि फिल्मांकन यूट्यूब पर उपलब्ध है। मशहूर रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी एम. के. रैना के निर्देशन में।
'बड़े भाई साहब' कहानी के बारे में हिन्दी के पाठक जानते ही हैं। शहर में पढ़ने के लिए भेजे गए दो भाइयों में बड़ा किताब से चिपका रहने वाला गम्भीर युवक है पर फेल होता जाता है। छोटा लापरवाह, खेल-कूद में रमने वाला मगर होशियार है और इम्तिहान में अव्वल आता है। बड़े भाई साहब पर बड़े होने के नाते छोटे को नसीहतें देते रहने और बिगड़ने से बचाए रखने की जिम्मेदारी है। तंज़-ओ-मिज़ाह की शैली में लिखी गई यह कहानी आज भी जीवंत है। रैना ने दूरदर्शन के लिए इस कहानी पर जो कुछ तैयार किया है, उसकी क्वालिटी की बात छोड़ कर उनकी कल्पना की उस उड़ान को देखते हैं जो प्रेमचंद की कहानी के साथ भद्दे मज़ाक़ की तरह है। रैना ज़बरन कुछ दृश्य अपनी तरफ़ से ठूंसते हैं। वे जो स्कूल पेश करते हैं, वह कहानी से मेल नहीं खाता। बेहतर होता कि वे किसी ज़िले के गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में शूटिंग कर लेते। लेकिन यह इतनी बड़ी बात नहीं है। बात यह है कि रैना स्कूल प्रार्थना सभा का दृश्य क्रिएट करते हैं और पूरे गायत्री मंत्र का पाठ कराते है।
प्रेमचंद की कहानी से कहीं अहसास नहीं होता कि विद्यार्थी बंधु किसी आर्य समाज के स्कूल के विद्यार्थी हैं। कहानी ऐसे किसी 'धार्मिक-आध्यात्मिक' उद्देश्य का संकेत तक नहीं करती है। इस दृश्य का कहानी के साथ कोई मेल भी नहीं है। फिल्मांकन में विधा के लिहाज से छूट की मांग अक्सर की जाती है पर ऐसा भी कोई तर्क यहाँ महसूस नहीं होता। तो फिर रैना को गायत्री मंत्र का पाठ कराने की क्या खुड़क उठी होगी? प्रेमचंद को ज़रा आध्यात्मिक टच देना चाहते होंगे? कहानी में शिक्षा व्यवस्था को महान भारतीय आर्य संस्कृति से जोड़कर संदेश देना चाहते होंगे? प्रेमचंद का, उनकी कहानी का या उनके बहाने भारतीय समाज का सांस्कृतिक परिष्कार करना चाहते होंगे? आखिर, प्रेमचंद सहज पहुँच वाले कहानीकार हैं और दूरदर्शन इस पहुंच की रेंज को बहुत बढ़ा देता है। रैना इस तरह इस रेंज का क्या इस्तेमाल करना चाह रहे होंगे?
पिछले कई दिन मैं इस बारे में सोचता रहा हूँ। एनएसडी से निकले रैना लेफ्ट के ख़ासकर सीपीआइएम के सांस्कृतिक संगठनों के प्रिय इंटलेक्चुअल और संस्कृतिकर्मी हैं। एक तरह से लेफ्ट-एडॉप्टेड। 'सहमत' के तो मुख्य चेहरों में से माने जाते हैं। 'सहमत' द्वारा ज़ारी किए गए प्रेमचंद के पोस्टरों का उपयोग उन्होंने अपने इस कार्यक्रम में भी किया है। वे प्रेमचंद का ऐसा अपमान क्यों करेंगे?
आज मैंने यूँ ही गूगल पर खोज़ कर उनका परिचय पढ़ा। महाराज कृष्ण रैना, कश्मीरी पंडित। तो मसला संस्कारों का है जो प्रेमचंद को भी अपने रंग में रंगना चाहते हैं? 'बड़े भाई साहब' की शुरुआत में डायरेक्टर एमके रैना से पहले दो और प्रमुख सहयोगी रैना लिखे हुए आए। एक जोशी, एक झा और एक शर्मा। तो क्या यह ब्राह्मण आर्टिस्ट्स का ब्राह्मणद्रोही कहे गए प्रेमचंद से अपनी तरह का बदला है? हेजेमनी ऐसे ही काम करती है।
एक अकेली प्रस्तुति, हालांकि भयानक, को लेकर मैं शायद न लिखता। लेकिन, आज रैना के ही निर्देशन में 'दूरदर्शन' के ही लिए तैयार की गई 'मंत्र' कहानी की प्रस्तुति देखी तो लगा कि यह निश्चय ही प्रग्रेसिव रैना के ब्राह्मण संस्कारों का ही मसला है। 'मंत्र' कहानी में डॉ. चड्ढा एक ग़रीब आदमी के बीमार बेटे को अपने खेलने के वक़्त का हवाला देकर देखने से इंकार कर देता है। ग़रीब दंपती की सात बेटों में से अकेली जीवित बची यह संतान भी मर जाती है। एक वक़्त आता है, जब डॉ. चड्ढा के जवान बेटे कैलाश को साँप डस लेता है और उसे बचाने के सारे उपाय बेकार हो जाते हैं। जिस ग़रीब आदमी के मरणासन्न बेटे को कभी डॉ. चड्ढा ने एक नज़र देखने तक से मना कर दिया था, वही 'भगत' अपनी 'विद्या' से चड्ढा के बेटे को बचा लेता है।
मंत्र फूँक कर सर्प दंश के इलाज के नाते कहानी पूरी तरह अवैज्ञानिक है और यह सवाल भी उठता है कि कहानी एक ऐसे अंधविश्वास को मज़बूत करती है जो लोगों की जान लेता है। बहरहाल, बेहद ख़ूबसूरती से लिखी गई यह कहानी मनुष्य के अंतर्द्वंद्व को दिखाती है और उसकी अच्छाई को स्थापित करती है।
सभी जानते हैं कि ब्राह्मणों की 'विद्या' के समानांतर झाड़-फूंक कमज़ोर तबकों की 'विद्या' रही है। पिछड़े-दलित तबकों के ये 'भगत' सभी इलाक़ो में रहे हैं। इनके 'मंत्र' वेदों-शास्त्रों के 'मंत्र' नहीं होते थे। शास्त्रों के मंत्रों के उच्चारण की उन्हें अनुमति भी नहीं थी। कहानी में 'भगत' कहारों से पानी मंगवाने के लिए कहता है। कैलाश की प्रेमिका मृणालिनी भी कलश से पानी ढोती है। भगत मंत्र पढ़ता है और कोई जड़ी कैलाश के सिर पर रखता है।
रैना के यहाँ यह दृश्य विशुध्द ब्राह्मणवादी अनुष्ठान में बदल जाता है। पानी का काम तो एक लोटे से चल जाता है। भगत के हाथ में आरती का एक भव्य थाल सा पकड़ा दिया जाता है जिसमें ज्योति और धूपबत्तियां प्रज्ज्वलित हैं। भगत इसे लिए कैलाश की परिक्रमा करता है। इस दौरान पीछे से मंत्रोच्चार होता रहता है। वैदिक मंत्रोच्चार, इस दृश्य का जो कहानी से विपरीत अनुष्ठान है, सबसे प्रभावी हिस्सा है।
वही सवाल, रैना ऐसा क्यों कर रहे हैं? मैं तो वही जवाब समझता हूँ जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। सवाल यह है कि प्रग्रेसिव हलकों में सरकारी पैसे से ये कैसी प्रगतिशीलता फैलाई जा रही थी। यब सवाल आप उस प्रग्रेसिव सांस्कृतिक धारा से पूछिए जिसकी ग्रांट्स तक पहुंच थी और जिसके आइकन ऐसा कर रहे थे।
-धीरेश
1 comment:
Whaa bhai kya gazab nazariya hai aap ka. Salam hai aap ko.
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