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Saturday, December 31, 2011

रघुवीर सहाय की एक कविता



औरत की ज़िंदगी
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कई कोठरियाँ थीं कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया

उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा
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रघुवीर सहाय (९ दिसंबर १९२९-३० दिसंबर १९९०)
चित्र-  अंजलि इला मेनन की पेंटिंग

Tuesday, December 15, 2009

व्यथा के भार से थका नागरिक (रघुवीर सहाय पर मनमोहन) अंतिम किस्त




(पिछली दो किस्तों से जारी) :

रघुवीर सहाय के काव्य संसार में यह चीज बड़ी आश्वस्त करने वाली रही है कि यहाँ हम अपनी उन अनेक बनी-अधबनी चीजों को देखते हैं जिन पर अभी काम चल रहा है और जिनकी जगहें या शक्लें अंतिम रूप से तय नहीं हो गयी हैं। कई महाकवियों के यहाँ जो `आलीशान सन्नाटा` खिंचा दिखायी देता है, जिसमें देखने-दिखाने वाली तमाम चीजें होती हैं जो नाप-तौलकर चमका-चमकाकर रख दी जाती हैं, जैसे वे आख़िरी बार रख दी गयी हों, वैसा यहाँ नहीं है। लगता है रघुवीर सहाय अपनी कविताएँ काफी मेहनत, सावधानी और मनोयोग से लिखते थे लेकिन वह उनके लिए शायद ऐसी किसी विराट और महत्वाकांक्षी परियोजना का रूप नहीं लेती थी कि जिसकी सफलता अनिवार्य हो। उनकी कविता पूरी तरह जीवन-आलोचना के उन सूत्रों में व्याप्त रहती है जो निरंतर सजग-सक्रिय उनकी कविता में हर तरफ फैले रहते हैं। अक्सर वह अपने कामधाम में इतनी व्यस्त दिखायी देती है कि शायद ही वहां `कविताई` के लिए अलग से कोई जगह बच पाती है।

रघुवीर सहाय यथार्थ के साथ खुला हुआ विकासशील सम्बन्ध बनाने वाले कवि हैं। ऐसा कवि जो हर बार यथार्थ की गति का धीरज, सादगी, विवेक और दिलचस्पी के साथ पीछा करता है, अधबीच में भटक जाये या थककर लौट आये तो अपने अधूरे अनुभव को बताने में शर्म महसूस नहीं करता लेकिन `कविता पकड़ने` के लालच में हरगिज नहीं फंसता। शायद इसीलिए रघुवीर सहाय की कविता सबसे कम दावा करने वाली और सबसे कम नाज-नखरे उठाने वाली कविता है। शायद यह भी एक वजह है कि बहुत से कलाविदों को उनकी कविताएँ इतनी कम कविताएँ या लगभग गैर-कविताएँ लगती हैं।

रघुवीर सहाय यह दिखाने के लिये भी याद किये जायेंगे कि कविता अलग से शिल्पकारिता या काव्यात्मकता का कतई कोई भार उठाये बिना भी सीधे-सीधे अपना काम संभाल सकती है और इस तरह नए शिल्प का आविष्कार ज्यादा स्वतंत्रतापूर्वक कर सकती है। उन्होंने कविता की शिल्पकारिता को पूरी तरह उसके काम में ही शामिल कर लिया था। ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने चीजों को बिना किसी सहारे या बहाने के सीधे उनके नाम से पुकारने की मुश्किल लेकिन कारगर शुरुआत की थी। यहाँ यह याद दिलाना शायद उपयोगी होगा कि भाषा की `प्रतीकात्मक जड़ता` को लगभग निर्णायक रूप से ध्वस्त करने का उनका उपक्रम (शायद जिसे हर महत्वपूर्ण कवि अपने ढंग से करता ही है) किसी नयी भाषिक तरकीब की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। वह कवि की `प्रयोगशीलता` या कोई नया शिल्पगत पूर्वग्रह नहीं था। यह उस फासले को कम करने (या शायद स्पष्ट करने) की कोशिश थी जो रचनाकार के संज्ञान और यथार्थ की गतिविधि के बीच सहज ही बन जाता है और जिसमें तमाम तरह के धोखे और स्वांग डेरे डाले रहते हैं। यह कोशिश दरअसल यथार्थ की छटाओं को, उनकी तमाम गतिविधियों और प्रपंचों को खुली आँखों, सादगी के साथ, उसकी स्वाभाविकता में, गद्यात्मकता और लौकिकता में देखने-जाने और उसी भाषा में रचने की योजना का ही हिस्सा थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि रघुवीर सहाय ने कवि के संज्ञान की विधि को कई तरह की रूढ़ियों और कर्मकांडों से आजाद कर दिया और उसकी सृजनशील कल्पना के क्षेत्र को भी काफी कुछ बदल दिया। इस नए मैदान में कविकर्म के लिये जहाँ ढेरों नयी (कई बहुत भारी) असुविधाएं हैं, वहीं यह तय है कि इससे रचना की बिलकुल विरल, व्यापक और वास्तविक संभावनाएं खुली हैं। आधुनिक कविता और मुक्तिबोध की परम्परा में यह एक चीज रघुवीर सहाय का अपना योगदान कही जा सकती है।

रघुवीर सहाय का निधन एक ऐसे समय हुआ है जब तमाम रचनाशील जनतांत्रिक तत्वों के बीच गहरे संवाद और एक नयी किस्म की एकता की जरूरत सबसे ज्यादा बन रही थी। रघुवीर सहाय इस संवाद का शायद सबसे जरूरी पक्ष थे।

पिछले दिनों से (खासकर पिछले दो संग्रहों की कविताओं में) रघुवीर सहाय अधिक अकेले दिखायी देते थे। वहां वह नागरिक दिखायी देता था जो व्यथा के भार से थक चला था, अपने अकेलेपन में जो अपने आपसे और अपने लोगों से इस तरह जुड़ गया था जैसे किसी अप्रत्याशित हमले का सामना करने के लिए सन्नद्ध हो रहा हो। मृत्यु की नीली रेखा जो जब-तब दिखायी देने लगी थी वह यकीनन अपनी मृत्यु की नहीं थी। शायद फासिस्ट घेराबंदी में घेरा जाता हुआ वह हमारा अपना वक्त ही था।
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Monday, December 14, 2009

व्यथा के भार से थका नागरिक /(रघुवीर सहाय पर मनमोहन) दूसरी किस्त



(पिछली किस्त से जारी)

इसी तरह यह बात भी गौरतलब है कि उन्होंने अपने समय के इस शीतयुद्धीय सुझाव को अमान्य कर दिया था कि `जनतांत्रिक मूल्यों` या `मानव-मूल्यों`, व्यक्ति और `अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता` को अपनी जाहिल और निजी निर्विघ्न दुनिया की ढाल बनाकर खड़ा कर दिया जाय। अपने बहुत से समकालीनों से वे इस बात में महत्वपूर्ण भिन्नता लिए हुए थे कि उन्होंने अपनी आधुनिकता और अपने जनतांत्रिक आदर्शों को एक कहावत की तरह नहीं पा लिया था बल्कि उन्हें अपने रचनात्मक और सामाजिक व्यवहार से बार-बार खोजते, स्थिर करते, बरतते और बदलते हुए अर्जित किया था। एक तरह से रघुवीर सहाय पांचवें-छठे दशक की आधुनिकतावादी निर्मिति के सतही अंतर्विरोधों को बाहर लाकर उसकी स्वतः सम्पूर्णता को ध्वस्त करने वाले कवि भी कहे जा सकते हैं।

रघुवीर सहाय के रचनाशील व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी शायद उनकी संपन्न और आत्मप्रबुद्ध जनतांत्रिक संवेदनशीलता ही थी। लेकिन उनकी शक्ति इस बात में नहीं थी कि वे जनतांत्रिक मूल्यों के `पक्षधर`, उदघोषक या वकील थे बल्कि इस बात में थी कि उन्होंने इन मूल्यों को निर्दिष्ट और इनके पक्ष को परिभाषित मानकर इस तरफ़ से आँखें नहीं मूँद लीं। उन्होंने किसी जड़ अमूर्तता में इन्हें ग्रहण नहीं किया बल्कि ठोस सामजिक आलोचना करते हुए बार-बार परखा। यह निरंतर जाग्रत, सचेत, चीजों को उलटती-पलटती, खोजती, बचाती और नष्ट करती हुई कठोर आलोचनाशीलता ही रघुवीर सहाय की संवेदनशीलता की सबसे उल्लेखनीय विशेषता है। जो विद्वान इसे `निरी आधुनिकता` (या नयी कविता की `बौद्धिकता`!) मानकर बड़ी आसानी से पल्ला झाड़ लेते हैं, वे यह नहीं देख पाते कि कवि ने इस विवेक को समाज के भीतर, मनुष्यों और संस्थाओं के आपसी संबंधों के भीतर; अत्याचार, अन्याय और पतन के अनगिन दृश्य-अदृश्य रूपों की वर्षों की व्यथा भरी मुश्किल छानबीन के दौरान विकसित किया था।

रघुवीर सहाय ने बहुत सारे मसलों पर जिस तरह अपना रुख तय किया उससे द्वंद्वों को पहचानने वाली उनकी आधुनिक और कुशाग्र आलोचनात्मक बुद्धि का परिचय मिलता है। शायद इसे वजह से वे कई तरह के उन फंदों से बचे रहे जो उनसे बहुत दूर नहीं थे। मसलन रघुवीर सहाय उन लोगों में शामिल नहीं हुए जिनको एक झटके में आधुनिक होने के लिए पहले `कास्मोपालिटन` होने की जरूरत हुई और फिर `भारतीय` होने के लिए `जड़ों`और `जातीय स्मृति` के अन्धकार में शरण लेना जरूरी लगा। `राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत` से भी उन्होंने कोई `मिथकीय तादाम्य` कायम नहीं किया कि वे उस विरासत का भारी मुकुट बस सर पर उठाये घुमते। इसके बजाय उन्होंने इस परम्परा के जीवित अंश को सामाजिक जीवन में पहचानने की कोशिश की। यह पता लगाया कि पहले की इन इन परम्पराओं को अलग-अलग सामाजिक शक्तियां किस तरह व्यवहार में ला रही हैं और यह कि इनके जीवन पोषक तत्वों की रक्षा आज किस तरह की जा सकती है। यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती कि रघुवीर सहाय ने पश्चिमपरस्ती या पश्चिम-विरोध (या एक साथ दोनों) के कुटिल चक्र में फँसने के बजाय ठोस यथार्थ की सकारात्मक और विवेकपूर्ण आलोचना से ही अपनी दिशा तय की जबकि आधुनिकतावादी या `समाजवादी`चिंतन के प्रभाव में आने वाले अल्पविकसित मध्यवर्गीय तत्व अधिकतर इससे बच नहीं सके।

मुक्तिबोध के बाद संभवतः वे पहले कवि हैं जिन्होंने हमारे समय के गंभीर और सर्वव्यापी संकट की ऐतिहासिकता को इतनी सम्पूर्णता के साथ सामने रखा है। इस संकट का वर्णन बहुत से कवि करते हैं लेकिन रघुवीर सहाय की कविता एक तरह से इस संकट की प्रखर और विस्तृत आलोचना प्रस्तुत करती है जो यह बताती चलती है कि आखिर क्या-क्या दाँव पर लगा हुआ है और अभी बचा हुआ है।

एक सरलचित्त,सहजविश्वासी कवि अक्सर अपनी सदाशयता से कई तरह के काम चला लेता है। अक्सर इस सदाशयता में एक बौद्धिक आलस्य छिपा रहता है जो कवि के सामने कोई असुविधाजनक स्थिति खड़ी हो इससे पहले ही बच निकलने का रास्ता दिखा देता है। रघुवीर सहाय उन सरलचित्त कवियों में न थे। वे ऐसी सुविधाओं का इस्तेमाल करने से वितृष्णापूर्वक परहेज करते थे। इसके बजाय पूरी चुनौती स्वीकार करने का रास्ता उन्हें ज्यादा आकर्षित करता था। बल्कि हम जानते हैं कि रचना के बीच में ऐसे चोर दरवाजों को ढूंढ़-ढूंढ़कर पकड़ना और बंद करना उन्हें अलग से प्रिय था।

भारतीय समाज और राज्यव्यवस्था के फासीवादी पुनर्गठन की भूमिका ख़ास तौर पर पिछले बीस वर्षों में जिस तरह बनकर सामने आयी है, रघुवीर सहाय की कविता की एक नज़र लगातार उसकी क्रियाविधि पर रही है। इस कठिन दौर में अपमान और व्यथा का भार उठाये हुए भी वह इसकी अन्तरंग कथा को खोलकर कहती रही है। आने वाले दिनों में रघुवीर सहाय हमारे समय के इस उदीयमान फासीवाद के उन पूर्व प्रतिरूपों और विधियों की पहचान की एक साहसिक और बड़ी पहल करने वाले कवि के रूप में जाने जायेंगे जिन्हें पिछले दिनों हमारे सामाजिक जीवन में, रिश्तों में, देखने, महसूस करने,सोचने-समझने के तौर तरीकों में बड़े कपटपूर्ण और रहस्यमय ढ़ंग से शामिल किया गया है। आज जबकि और माध्यमों की तरह कविता की भाषा भी अभिव्यक्ति के इन झूठे साँचों की व्यूह रचना के भीतर चक्कर लगाने में ही परिपूर्ण हो जाती है, रघुवीर सहाय की कविता इन साँचों को तोड़कर बार-बार हमें हमारे वक्त के मनुष्य का जीवन, उसकी जीती-जागती वास्तविकता,उसकी तमाम सुन्दरता और क्रियाशीलता दिखला जाती है। कई बार ऐसे दुर्लभ कोण से, जहाँ से उसे बिना क्षति के पूरा देखा जा सकता है। ऐसा कई बार होता है कि वे एक सधे हुए, मेहनती, कुशल सर्जन की तरह मानवीय स्थितियों को,खासकर उनमें निहित ज्यादा नाजुक और कीमती चीजों को तमाम तरह के खतरों से खेलते हुए बचाकर निकाल लाते हैं। ऐसा अनुभव उनकी अनेक कविताएँ (मसलन `दयाशंकर`) पढ़कर होता है।

(जारी)

Thursday, December 10, 2009

व्यथा के भार से थका नागरिक /(रघुवीर सहाय पर मनमोहन)



(मैं यह लेख कल ९ दिसंबर को सहाय जी के जन्मदिन पर देना चाहता था पर यह मुमकिन न हो पाया। सहाय जी पर यह संभवतः सबसे अच्छे आलोचनात्मक लेखों में से है। यह सहाय जी के निधन के बाद लिखा गया था और बाद में असद जैदी और विष्णु नागर द्वारा संपादित पुस्तक `रघुवीर सहाय` में संकलित किया गया. लम्बा है, इस वजह से थोड़े धैर्य की अपेक्षा तो है ही। )


पिछले एक अरसे से हमारी पीढ़ी के लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकार इस बात को जान रहे थे कि रघुवीर सहाय की रचनाशीलता उनकी दुनिया में न सिर्फ़ किसी न किसी तरह शामिल हो गयी है बल्कि उसका एक ऐसा जीवंत हिस्सा बन गयी है जिससे उनका वास्ता अब बार-बार पड़ता है। रघुवीर सहाय कोई ऐसे लेखक न थे जो अपनी बात कह चुका हो, अपनी कारगुजारी दिखा चुका हो और अब जल्दी से उसका साहित्यिक मूल्यांकन कर डालना या स्मारक बना देना शेष रह गया हो। उनका निधन सिर्फ़ उस तरह असामयिक नहीं है जिस तरह कहने का चलन है। वह ज्यादा गहरे, ऐतिहासिक अर्थों में असामयिक है।



रघुवीर सहाय हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन के पिछ्ले४०-४५ वर्ष के इतिहास की उलझनों से गुजरकर रचनातमक अभिव्यक्ति का निरंतर संघर्ष करते हुए उस जगह आ पहुंचे थे जहाँ कोई कवि फिर से अपने तमाम पिछले अनुभव पर एक बड़ी नज़र डालता है। उनका रचनात्मक संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ था, बल्कि जैसा वे महसूस भी करते थे, एक नए, विषम और कठिन दौर में दाखिल हो रहा था। इस तरह उनकी रचा अभी बीचोंबीच और अधूरी थी क्योंकि वे वास्तव में इसी नए दौर के रचनाकार थे जो एक अर्थ में अभी-अभी शुरू हुआ है।



रघुवीर सहाय उस पीढ़ी के सदस्य थे जो आजादी की लड़ाई के ख़त्म होने के बाद (या लगभग उसके दौरान) सजग और रचनाशील हुई थी। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि उनकी संवेदनशीलता के बहुत से अंदरूनी सूत्र इसी दौर की खूबियाँ लिए हों। मसलन, एक तरह की स्वचेतनता और एक व्यक्ति, एक नागरिक होने का अहसास जो उनमें भरपूर था, शायद इसी दौर की देन था। लेकिन अब यह बात स्पष्ट हो गए है कि आजादी के बाद जो नयी काव्यधारा उभरकर सामने आयी उसमें कई तरह के मध्यवर्गीय तत्व शामिल थे,जो अपने-अपने कारणों से एक जगह आ मिले थे। उनका एक साथ होना लगभग एक तरह का ऐतिहासिक संयोग था। इतनी सहमति जरूर थी कि ये सभी तत्व नयी aइतिहासिक परिस्थिति में एजेंडे को पुनर्परिभाषित करना चाहते थे। इस धुंधली इच्छा में एक बड़ी ऐतिहासिक जरूरत भी शामिल थी। लेकिन प्रबल यह इच्छा नहीं, सामजिक शक्तियों का नया संतुलन सिद्ध हुआ जो इसके कुहासे में बन रहा था और जो बाद के वर्षों में धीरे-धीरे व्यवस्थित होता चला गया और इन तत्वों के भवितव्य को भी अपनी तरह तय करता चला गया। पिछले ३० साल की परीक्षाओं में यह भी स्पष्ट हो गया कि स्वतंत्रता संघर्ष और उसके बाद के समझौते की विरासत की तरह सामने आए इन मध्यवर्गीय तत्वों में जनतांत्रिक सारवस्तु और जीवनी शक्ति एक जैसी नहीं है। रघुवीर सहाय के बारे आज शायद यह अलग से प्रमाणित नहीं करना होगा कि वे उस दौर में सामने आयीं उन विरल प्रतिभाओं में थे जिनका रचनात्मक व्यक्तित्व जनतांत्रिक प्रेरणाओं और अनुरोधों के ज्यादा मौलिक, विकासमान और वास्तविक अंशों को आत्मसात करते हुए बना था। मेरे विचार से वे उस दौर के उन सबसे अधिक संवेदनशील, आधुनिक, विवेकशील और प्रबुद्ध मध्यवर्गीय तत्वों में थे जिनमें राष्ट्रीय नवजागरण की विकासशील, जीवित और श्रेष्ठ परम्पराओं का खोजपूर्ण और रचनाशील उपयोग करके उसे आगे विकसित करने की योग्यता और इच्छा इतनी थी कि उसे आसानी से कुचला नहीं जा सकता था।



अनेक सामाजिक-राजनीतिक कारणों से आजादी के बाद हमारे शासकों को यह जरूरत महसूस हुई कि वे नए मध्यवर्ग मध्यवर्ग की आदर्श भावना और जनतांत्रिक आकांक्षाओं को सामाजिक रूपांतरण के बड़े उद्देश्य से काट दें। `विकास` का नक्शा वे खुद बनाकर दें और बाके लोग उसी में रंग भरें। इस नयी ऊर्जा को अनुकूलित करने के लिए उन्होंने बड़े कौशल से इसे इसी की सीमा में बांधकर छोड़ दिया। इस तरह इन तत्वों को आत्म-परिष्कार के संघर्ष में भी अलग और लगभग मुक्त कर दिया गया। अब यह एक तथ्यहै कि नए मध्यवर्ग का यह जो नमूना तैयार करके सामने रखा गया उसकी नाप में उस दौर की अनेक समा ठीक-ठीक समा गयीं बल्कि उसी में मरखपकर सम्पूर्ण भी हो गयीं. लेकिन रघुवीर सहाय का मामला ऐसा नहीं था. उस दौर के अनेक कवियों की तरह अपने सामाजिक सरोकारों को धो-पोंछकर `आधुनिक` बनने के बजाय उन्होंने ज्यादा मुश्किल रास्ता चुना. मुफ्त की आधुनिकता और जाहिल आत्मप्रेम के जिस मकड़जाल में उस युग की अनेक प्रतिभाओं ने अपनी उम्र सुखपूर्वक गुजार दी, उसके प्रति रघुवीर सहाय शुरू से ही सशंकित और सावधान थे. बल्कि उसके साथ उनकी कुछ बुनियादी शत्रुता थी। उन्होंने अपनी मनुष्यता और अपनी रचना को समाज के बीचोंबीच, उसके भीतर और उसके साथ-साथ ही पहचाना और साथ-साथ ही बचाना चाहा. आजादी के बाद के दौर की यह हकीकत एक बड़ी दुर्घटना की तरह हमेशा उनकी स्मृति में जीवित रही कि हमारे शासक वर्गों ने सत्ता का निरंकुश संचय करने के क्रम में जनता के व्यापक हिस्सों से यह अधिकार भी छीनकर अपने पास रख लिया है कि वे अपने मानवीय अस्तित्व को खुद पहचान और बदल सकते हैं. संस्कृति और समाज की संस्कृति और समाज की रचना के अधिकार से साधारण जनता को वंचित करने और अभिव्यक्ति के तमाम उपलब्ध साधनों पर धीरे-धीरे कब्जा जमाते हुए ही सत्ताधारी वर्गों के लिए यह संभव हो सका है कि वे विकृति और विनाश की आक्रामक मुहिम को बिना किसी बड़े प्रतिरोध का सामना किये चला सकें. रचना को रघुवीर सहाय ने इसी खोयी हुई पहलकदमी को छीनने के अर्थ में पहचाना था.
            (जारी)...