बनारस से वाचस्पति जी ने फोन पर बताया कि आज बाबा नागार्जुन की जन्मशती शुरु हो रही है। बाबा से उनका आत्मीय रिश्ता रहा है. इच्छा यही थी कि वे ही कोई टुकड़ा यहाँ लिख देते पर तत्काल यह संभव नहीं था. इसी बीच किसी ने कबीर जयंती की बात बताई जिसकी मैंने तस्दीक नहीं की लेकिन यूँ ही लगा कि कबीर और नागार्जुन के बीच गहरा और दिलचस्प रिश्ता है.
मसलन दोनों का ही लोगों से बड़ा ही organic किस्म का जुड़ाव रहा या कहें कि दोनों ही जनता की organic अभिव्यक्ति हैं. दोनों प्रतिरोध के, हस्तक्षेप के कवि हैं. दोनों में गजब की लोकबुद्धि है, तीखापन है और दोनों ही व्यंग्य को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। जनशत्रुओं से दोनों की सीधी मुठभेड़ है और दोनों के लिए ही कविता कोई इलीट सी, शास्त्रीय सी, `पवित्र` सी चीज़ नहीं है.
कबीर के लिए अक्खड़-फक्कड़ जो भी विशेषण दी जाते हैं, वे नागार्जुन के लिए भी सटीक हैं। कबीर की भाषा सधुक्कड़ी कही गयी है और घुमंतू नागार्जुन की भाषा भी पंजाबी, हरयाणवी, भोजपुरी जाने कहाँ-कहाँ ट्रेवल करती है. दोनों ही कविता से एक `जिहाद` लड़ते हैं, अपने समय के ताकतवर-उत्पीड़क के खिलाफ. कबीर के यहाँ तो ब्राह्मणवाद लड़ाई के केंद्र में ही रहा है. नागार्जुन के यहाँ भी इस बीमारी से मुसलसल मुठभेड़ है. दोनों ही अपने समय की प्रतिरोधी परम्परा से रिश्ता बनाते हैं, उससे ताकत पाते हैं और उसे मजबूत करते हैं. कबीर का रिश्ता नाथपंथियों से, सूफियों से बनता है और नागार्जुन का बुद्धिज़्म से, वामपंथ से.
यह भी दिलचस्प है कि शास्त्रीय परम्परा के विरोध के ये कवि शास्त्रीय आलोचना के लिए उपेक्षा करने लायक ही रहे गोकि दोनों ही लोगों की जुबान पर खूब चढ़े रहे। ब्राह्मणवादी आलोचना कबीर को कभी कवि मानने को तैयार नहीं हुई और उसने नागार्जुन को भी कभी महत्व नहीं दिया. उनकी कला आलोचकों के लिए कविता कहे जाने लायक नहीं थी और दोनों ही बहुत समय तक प्रचारक की तरह देखे जाते रहे. (अशोक वाजपेयी का यह कबूलनामा भी सिर्फ मजेदार है कि नागार्जुन को समझ न पाने की उनसे बड़ी भूल हुई.)
बहरहाल नागार्जुन की यह कविता -
शासन की बंदूक
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
Saturday, June 26, 2010
Monday, June 14, 2010
कविता का कठिन रास्ता : संजय कुंदन

विष्णु नागर हिंदी के ऐसे विरले रचनाकार हैं जिन्होंने रोजमर्रा जीवन की एकदम मामूली दिखने वाली चीजों, प्रसंगों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। वह अपनी कविताओं की शुरुआत बहुत छोटी या साधारण बातों से करते हैं पर अचानक हमारा साक्षात्कार जीवन की किसी बड़ी विडम्बना से होता है या फिर हम अनुभव के एक असाधारण संसार में पहुंच जाते हैं। अक्सर एक जाने-पहचाने चित्र में हमारा एकदम अनजाना प्रतिरूप या समाज का कोई अछूता पहलू नजर आ जाता है या अनदेखा-अनचीन्हा सच सामने आ जाता है। जो बात कहने के लिए दूसरे कवि विवरणों का जाल फैलाते हैं या बोझिल व्याख्याओं-वक्तव्यों से पाठकों को आक्रांत कर देते हैं, उसे विष्णु नागर चुटकी लेते हुए रोचक अंदाज में कम से कम शब्दों में कह देेते हैं। उनमें खिलंदड़पन है। वह शब्दों के साथ खेलते भी हैं पर केवल खेलने के लिए नहीं बल्कि एक खास अर्थ तक पहुंचने के लिए। उनके खिलंदड़पन में एक इशारा रहता है जिसे पाठक जल्दी ही पकड़ लेता है। विष्णु नागर दरअसल प्रतिरोध के कवि हैं। प्रतिरोध का एक तरीका यह भी है कि स्थितियों या चरित्रों के विद्रूप को सामने लाया जाए और उसे एक्सपोज कर दिया जाए। इसमें व्यंग्य सबसे ज्यादा सहायक होता है। मनुष्य विरोधी या शोषणमूलक व्यवस्था पर हंसना प्रतिरोध का एक कारगर हथियार हो सकता है। लेकिन इस सिस्टम पर हंसते हुए उसके चीथड़े करते हुए विष्णु नागर आम आदमी की पीड़ा को पूरी मार्मिकता के साथ सामने लाते हैं। यानी उनकी कविता कॉमडी और ट्रैजेडी के स्वरों को साथ लेकर एक अलग ही रूपाकार ग्रहण करती है जिसमें जीवन अपनी पूरी जटिलता के साथ सामने आता है। इसकी एक बानगी देखिए:
पद पर बैठा शेर
वह तब भी शेर था, जब जंगल में रहता था
वह तब भी शेर था, जब पिंजड़े में आ गया
वह अब भी शेर है, जब मर चुका है
मेरी तरह नहीं कि पद पर हैं तो शेर हैं
और शेर हैं तो पिंजड़े को भी जंगल मान रहे हैं
और जब मर गये हैं तो न तो कोई आदमी मानने को तैयार है न शेर
गनीमत है कि कोई कु्त्ता नहीं मान रहा!
सरल विधान में जटिल यथार्थ की ऐसी अभिव्यक्ति करने वाले कवि हिंदी में बेहद कम हैं। उनसे पहले नागार्जुन ऐसा करते रहे हैं। एक तरह से विष्णु नागर शहरी नागार्जुन लगते हैं। लेकिन यह जोखिम भरा रास्ता है। कविता में महान बातें करके महान बने रहना आसान है लेकिन आम आदमी के जीवन को उसके पूरे अनगढ़पन के साथ सरल भाषा में सामने लाना बेहद कठिन। हिंदी में कविता के बने चौखटों में कई बार ऐसी कविताएं `फिट` नहीं बैठतीं। लेकिन विष्णु नागर की कविताओं का इस सांचे मे मिसफिट होना ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। विष्णु नागर जैसे कवि किसी सांचे में समा जाने के लिए नहीं बल्कि आम आदमी के सुख-दुख को व्यक्त करने की अपनी प्रतिबद्धता के तहत कविता लिखते हैं। इसलिए उन्होंने अपना अलग रास्ता चुना है।
***
यह पोस्ट वरिष्ठ कवि विष्णु नागर की षष्टिपूर्ति १४ जून के मौके पर।
पद पर बैठा शेर
वह तब भी शेर था, जब जंगल में रहता था
वह तब भी शेर था, जब पिंजड़े में आ गया
वह अब भी शेर है, जब मर चुका है
मेरी तरह नहीं कि पद पर हैं तो शेर हैं
और शेर हैं तो पिंजड़े को भी जंगल मान रहे हैं
और जब मर गये हैं तो न तो कोई आदमी मानने को तैयार है न शेर
गनीमत है कि कोई कु्त्ता नहीं मान रहा!
सरल विधान में जटिल यथार्थ की ऐसी अभिव्यक्ति करने वाले कवि हिंदी में बेहद कम हैं। उनसे पहले नागार्जुन ऐसा करते रहे हैं। एक तरह से विष्णु नागर शहरी नागार्जुन लगते हैं। लेकिन यह जोखिम भरा रास्ता है। कविता में महान बातें करके महान बने रहना आसान है लेकिन आम आदमी के जीवन को उसके पूरे अनगढ़पन के साथ सरल भाषा में सामने लाना बेहद कठिन। हिंदी में कविता के बने चौखटों में कई बार ऐसी कविताएं `फिट` नहीं बैठतीं। लेकिन विष्णु नागर की कविताओं का इस सांचे मे मिसफिट होना ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। विष्णु नागर जैसे कवि किसी सांचे में समा जाने के लिए नहीं बल्कि आम आदमी के सुख-दुख को व्यक्त करने की अपनी प्रतिबद्धता के तहत कविता लिखते हैं। इसलिए उन्होंने अपना अलग रास्ता चुना है।
***
यह पोस्ट वरिष्ठ कवि विष्णु नागर की षष्टिपूर्ति १४ जून के मौके पर।
Tuesday, June 8, 2010
दस कविताएं : मनमोहन
नींद
-----दक्षिण दिशा में
गया है एक नीला घोड़ाबहुत घने मुलायम अयाल हैं
काली और सजल
नंगी है उसकी पीठ
वह दक्षिण दिशा के
बादलों में दाखिल
हो चुका है***
बारिश
-------कपास के फूलों से
लदी नौकाओकई कोनों से आओ
भींगने के लिए
***घड़ी
-----घड़ी चुग रही है
एक एक दानाघड़ी पी रही है
बूँद बूँद पानीकभी न थकने वाली
गौरेया घड़ी
***धरती
-------धरती को याद है
अनगिन कहानियांधरती के पास है
एक छुपी हुई पोटलीनाक पर लटकी है
रुपहली गोल ऐनकपोपले मुँह में
जर्दा रखे धीमे चिराग मेंतमाम रात कथरी में पैबन्द लगाती
झुर्रियों वाली बूढ़ी
नानी है धरती***
गेंद
-----झन से गिरा शीशा
एक गेंद दनदनाती आई
खिड़की की राह मेज पर
टिप्पा खाया दवातगिराई और
चट पट चारपाई केनीचे भाग गई
कितने बरस बाद
मैं सुनता हूँ***
नदी
-----नदी मुझे बुलाती है
नदी मुझे पुकारती हैबांहें खोले दूरे से दौड़ी
आती है नदीमैं नदी से डरता हूँ
लेकिन नदी मेरी माँ है***
जीवित रहना
---------------माँ के पीछे है एक
और माँपिता के पीछे एक
और पितासाथियों में छिपे हैं साथी
जिनके लिए मैं जीवित रहता हूँ***
एक परिन्दा उड़ता है
----------------------
एक परिन्दा उड़ता है
मुझसे पूछे बिनामुझे बताए बिना
उड़ता है परिन्दा एकमेरे भीतर
मेरी आँखों में***
बूढ़ा माली
------------बूढ़ा माली गाता है
ये जो पत्ते गाते हैंबूढ़ा माली हंसता है
ये क्यारियां जो खिलखिलाती हैंमिट्टी की नालियों में
बहुत दूर सेपानी बनकर आता है
बूढ़ा माली***
पत्र
-----एक रसोई है
कालिख में नहाईमटमैली रसोई
जैसी आँखों वाली एक औरत
दहलीज पर आकर खड़ी होती हैऔर पसीने से सरोबार चेहरे को
आंचल से पोंछती हैयहां मैं कलम उठाता हूँ
और मेरी उम्रहो जाती है नौ साल
***मनमोहन की ये कविताएं `इसलिए` पत्रिका के मई 1979 अंक में प्रकाशित हुई थीं।
Monday, May 24, 2010
इतिहास का अंत

इतिहास की प्रवृत्ति है अपने को दुहराना, यह मार्क्स की प्रसिद्ध उक्ति है; इतिहास के अंत की घोषणाओं के बारे में ही यह बात सबसे ज़्यादा खरी है. न्यू टेस्टामेंट से लेकर हेगल तक ऐसे मृत्यु-सन्देश अनेकों बार जारी किये गए हैं. इतिहास के अंत की घोषणा फ़कत हमारे पास पहले से मौजूद इतिहास में एक टुकड़ा और जोड़ देती है, इतिहास को जीवित रखने में मदद करती है और इस प्रकार अजीब ढंग से आत्मघाती साबित होती है.
पचास के दशक का तथाकथित विचारधारा का अंत आन्दोलन पिछले दिनों दिए गए इतिहास के, या साफ़-साफ़ कहें तो विचारधारा के निष्कासन के आदेशों में एक था. वियतनाम, ब्लैक पावर और आसन्न छात्र आन्दोलन के दौर में वह एकदम असंगत भविष्यवाणी साबित हुई. अब जबकि हमारे अपने समय में यह घोषणा दुहराई गई है, तो हमें वह बात याद करनी होगी जैसे उसकी ओर ध्यान ऑस्कर वाइल्ड ने दिलाया हो - इतिहास के अंत के बारे में एक बार गलत होना बदकिस्मती है, जबकि उसी बारे में दुबारा गलत होना निपट लापरवाही.
(टेरी ईगल्टन की पुस्तक "दि गेटकीपर: अ मेमो'आ" से, अंग्रेजी से अनुवाद: भारत भूषण तिवारी)
Wednesday, May 12, 2010
Saturday, May 8, 2010
कसाब के बहाने उन्माद का जश्न
अदालत ने कसाब को फांसी की सजा सुना दी है। दुनिया ने भारतीय न्याय प्रक्रिया में मुल्क की डेमोक्रेसी को देखा जो मुल्क के बाहरी और भीतरी दुश्मनों को रास नहीं आती है। लेकिन मीडिया अदालत के फैसले का इंतज़ार करने के पक्ष में नहीं था।उसने फैसला आने से पहले ही उन्माद का जश्न परोसना शुरू कर दिया था। अखबारों के क्षेत्रीय संस्करणों के लोकल पन्ने भी इस बारे में परिचर्चाओं से रंगे पड़े थे। परिचर्चा क्या थी, सवाल और जवाब सब पहले से ही तैयार। जो जितना `जोशीला` बोले, उतना बड़ा देशभक्त। आरएसएस आखिर ऐसे ही `राष्ट्रवाद` की ज़मीन तैयार करता रहता है जो संविधान और अदालत का काम अपने हाथों में लेकर ही मजबूत होता है। अब तो कांग्रेस भी इस अभियान में खुलकर शामिल हो गयी है। सो, एक आवाज मुख्य थी कि कसाब पर मुकदमा क्यूँ चलाया, कानूनी प्रक्रिया पर पैसा क्यों ख़र्च किया, अदालत ने इतना लम्बा समय (हालांकि यह सबसे तेज सुनवाई थी) क्यूँ लिया। और यह भी कि कसाब को सरेआम सड़क पर क्यूँ नहीं लटका दिया जाता। जाहिर है कि बीजेपी का `राष्ट्रवाद` ऐसी ही फासीवादी और बर्बर कारगुजारियों का नाम है। (आरएसएस गांधी की हत्या से लेकर गुजरात में नरसंहार तक सरेआम कत्लो-गारत का `अनुष्ठान` करता भी रहा है।)
लेकिन कोई ऐसी सेंसिबल आवाज क्यूँ नहीं सुनायी दी कि हिन्दुस्तान को किसी आतंकवादी हमले से नहीं तोडा जा सकता है, बल्कि उसकी डेमोक्रसी को बेमानी करके ही यह काम किया जा सकता है? आरएसएस गांधी की हत्या से लेकर गुजरात में नरसंहार तक सरेआम कत्लो-गारत का `अनुष्ठान` करता भी रहा है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि तमाम हमलों के बावजूद हिन्दुस्तान में लोकतंत्र आधा-अधूरा ही सही, उसके मंसूबों में बाधक भी बन जाता है।
इस दौरान हिन्दुवाद के नाम पर खड़े किये गए आतंकवादी संगठनों के खिलाफ भी लगातार सबूत मिल रहे हैं। जाहिर है कि इन कारगुजारियों के लिये भी न्याय प्रक्रिया के तहत ही कठोरतम सजा मिलनी चाहिए। जो नागरिक मुल्क और उसके लोकतंत्र में आस्था रखते हैं, उन्हें निश्चय ही उन्माद में बहने के बजाय विवेकपूर्ण ढ़ंग से लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे को टालने के लिये संघर्ष करना चाहिए। उन्माद फैलाकर ही साम्प्रदायिक राजनीति करना आसान होता है और उन्माद फैलाकर ही आदिवासियों की जमीन पूंजीपतियों को लुटाने के लिये सैनिक अभियान चलाना सुगम हो जाता है। उन्माद फैलाकर ही यह काम आसान होता है कि किसी भी न्यायप्रिय , डेमोक्रेटिक, देशभक्त आवाज़ को पाकिस्तान या नक्सलवाद समर्थक करार दे दिया जाय।
लेकिन कोई ऐसी सेंसिबल आवाज क्यूँ नहीं सुनायी दी कि हिन्दुस्तान को किसी आतंकवादी हमले से नहीं तोडा जा सकता है, बल्कि उसकी डेमोक्रसी को बेमानी करके ही यह काम किया जा सकता है? आरएसएस गांधी की हत्या से लेकर गुजरात में नरसंहार तक सरेआम कत्लो-गारत का `अनुष्ठान` करता भी रहा है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि तमाम हमलों के बावजूद हिन्दुस्तान में लोकतंत्र आधा-अधूरा ही सही, उसके मंसूबों में बाधक भी बन जाता है।
इस दौरान हिन्दुवाद के नाम पर खड़े किये गए आतंकवादी संगठनों के खिलाफ भी लगातार सबूत मिल रहे हैं। जाहिर है कि इन कारगुजारियों के लिये भी न्याय प्रक्रिया के तहत ही कठोरतम सजा मिलनी चाहिए। जो नागरिक मुल्क और उसके लोकतंत्र में आस्था रखते हैं, उन्हें निश्चय ही उन्माद में बहने के बजाय विवेकपूर्ण ढ़ंग से लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे को टालने के लिये संघर्ष करना चाहिए। उन्माद फैलाकर ही साम्प्रदायिक राजनीति करना आसान होता है और उन्माद फैलाकर ही आदिवासियों की जमीन पूंजीपतियों को लुटाने के लिये सैनिक अभियान चलाना सुगम हो जाता है। उन्माद फैलाकर ही यह काम आसान होता है कि किसी भी न्यायप्रिय , डेमोक्रेटिक, देशभक्त आवाज़ को पाकिस्तान या नक्सलवाद समर्थक करार दे दिया जाय।
Thursday, April 22, 2010
नरेन्द्र जैन की तीन कविताएँ
(उनके नए संग्रह काला सफ़ेद में प्रविष्ट होता है से साभार)


भाई
-----
दिवंगत बड़े भाई के लिए
जहाँ तक छायाचित्र संबंधी समानता का प्रश्न है
बड़े भाई लगभग मुक्तिबोध जैसे दिखलायी देते थे
चेहरे पर उभरी हड्डियाँ और तीखी नाक
जीवन रहा दोनों का एक जैसा कारुणिक
और विषम
वह एक प्रतीक जो आया कविता में
जहाँ होता रहा पुनरावलोकन जीवन और समय का
जिसमें फ़ैली रही तंबाखू की गंध और
ऐसी ही चीज़ें तमाम बहिष्कृत
भाई बीड़ी पिया करते थे और
करता हूँ याद वह काला सफ़ेद छायाचित्र
जिसमें गहरी तल्लीनता में डूबे मुक्तिबोध
सुलगा रहे अपनी बीड़ी
लगभग एक सी जीवन शैली
एक सी ज़िद दोनों की
और २७ जनवरी १९७८ को
कैंसर वार्ड से प्रेषित
भाई का यह अंतिम पोस्टकार्ड मैं पढ़ता
उसी तरह
जैसे कविता मुक्तिबोध की।
***
उसने कहा
उसने उदास भाव से कहा
भयावह मंदी का दौर है यह
उसके आसपास हर चीज़ पर
छाई थी धूल की एक परत
मंदी का आलम यह था कि
पड़ोस के सेवानिवृत्त विद्युतकर्मी ने
फेंका एक रूपये का सिक्का
और खरीदी दो फ़िल्टर बीड़ी
हम चुपचाप घंटे भर बैठे रहे
"मौत और ग्राहक का भरोसा नहीं
कब आ जाये," उसने कहा
मैंने कहा
"अब ग्राहक आने से रहा"
उसने बदरंग कपड़ा उठाया
और उस तख्ती को पोंछने लगा
जहाँ लिखा था
"उधार प्रेम की कैंची है"
जिंसों के बीच
हम दोनों
लगभग जिंसों की तरह बैठे रहे
धूल की एक तह
हम पर भी चढ़ती रही
बदस्तूर।
***
बाजरे की रोटियाँ
बहुत सारे व्यंजनों के बाद
मेज़ के अंतिम भव्य सिरे पर रखी थीं
बाजरे की रोटियाँ
मैंने नज़रें बचाते-बचाते
कुछ रोटियाँ उठाईं
एक कुल्हड़ में भरा छाछ का रायता
और समारोह से बाहर एक पुलिया पर आ बैठा
अब मेरे पास
भूख थी
और
एक दुर्लभ कलेवा
मैंने पुलिया पर बैठे-बैठे वर वधू को आशीष दिया
और उस अंधकार की तरफ बढ़ा
जहाँ मेरा घर था।
***
(वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन का यह कविता संग्रह आधार प्रकाशन, SCF-267 सेक्टर 16 , पंचकुला, हरियाणा 134113 से आया है.)
-----
दिवंगत बड़े भाई के लिए
जहाँ तक छायाचित्र संबंधी समानता का प्रश्न है
बड़े भाई लगभग मुक्तिबोध जैसे दिखलायी देते थे
चेहरे पर उभरी हड्डियाँ और तीखी नाक
जीवन रहा दोनों का एक जैसा कारुणिक
और विषम
वह एक प्रतीक जो आया कविता में
जहाँ होता रहा पुनरावलोकन जीवन और समय का
जिसमें फ़ैली रही तंबाखू की गंध और
ऐसी ही चीज़ें तमाम बहिष्कृत
भाई बीड़ी पिया करते थे और
करता हूँ याद वह काला सफ़ेद छायाचित्र
जिसमें गहरी तल्लीनता में डूबे मुक्तिबोध
सुलगा रहे अपनी बीड़ी
लगभग एक सी जीवन शैली
एक सी ज़िद दोनों की
और २७ जनवरी १९७८ को
कैंसर वार्ड से प्रेषित
भाई का यह अंतिम पोस्टकार्ड मैं पढ़ता
उसी तरह
जैसे कविता मुक्तिबोध की।
***
उसने कहा
उसने उदास भाव से कहा
भयावह मंदी का दौर है यह
उसके आसपास हर चीज़ पर
छाई थी धूल की एक परत
मंदी का आलम यह था कि
पड़ोस के सेवानिवृत्त विद्युतकर्मी ने
फेंका एक रूपये का सिक्का
और खरीदी दो फ़िल्टर बीड़ी
हम चुपचाप घंटे भर बैठे रहे
"मौत और ग्राहक का भरोसा नहीं
कब आ जाये," उसने कहा
मैंने कहा
"अब ग्राहक आने से रहा"
उसने बदरंग कपड़ा उठाया
और उस तख्ती को पोंछने लगा
जहाँ लिखा था
"उधार प्रेम की कैंची है"
जिंसों के बीच
हम दोनों
लगभग जिंसों की तरह बैठे रहे
धूल की एक तह
हम पर भी चढ़ती रही
बदस्तूर।
***
बाजरे की रोटियाँ
बहुत सारे व्यंजनों के बाद
मेज़ के अंतिम भव्य सिरे पर रखी थीं
बाजरे की रोटियाँ
मैंने नज़रें बचाते-बचाते
कुछ रोटियाँ उठाईं
एक कुल्हड़ में भरा छाछ का रायता
और समारोह से बाहर एक पुलिया पर आ बैठा
अब मेरे पास
भूख थी
और
एक दुर्लभ कलेवा
मैंने पुलिया पर बैठे-बैठे वर वधू को आशीष दिया
और उस अंधकार की तरफ बढ़ा
जहाँ मेरा घर था।
***
(वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन का यह कविता संग्रह आधार प्रकाशन, SCF-267 सेक्टर 16 , पंचकुला, हरियाणा 134113 से आया है.)
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