वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन के नए कविता संग्रह `चौराहे पर लोहार` (आधार प्रकाशन) से कुछ कविताएं
चौराहे पर लोहार
विदिशा का लोहाबाज़ार जहाँ से शुरू होता हैइससे पहले 2010 में आधार प्रकाशन से ही छपे नरेन्द्र जैन के कविता संग्रह `काला सफ़ेद में प्रविष्ट में होता है` की कविताएं और उस संग्रह पर छपी वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी की टिपण्णी भी याद आ रही हैं। इस पोस्ट के साथ वह टिपण्णी भी यहां दे रहा हूं। -
`नरेन्द्र जैन की कविता को हम क़रीब 35 साल से जानते हैं. वक़्त के साथ इस जान-पहचान में पुख्तगी भी आई है. वह अपनी पीढ़ी के उन चंद खुशनसीब कवियों में हैं जिनकी कविता ने अपने समय की रचनाशीलता से एक ऐसा पायेदार रिश्ता बनाया है जिसमें कभी कोई अधीरता या बेजा आग्रह नहीं रहा : एक रचनात्मक तन्मयता, फ़िक्रमंदी लेकिन अपनी कविता के कैरियर से एक हद तक बेनियाज़ी नरेन्द्र का वह दुर्लभ गुण है जो उन्हें अपने समकालीनों के बीच आदर और प्यार का पात्र बनाता है।
नरेन्द्र जैन सहज ही अपने काव्य व्यक्तित्व और अनुभव-जगत की सम्पूर्णता के साथ अपनी कविता में मौजूद रहते हैं.हर नई कविता के लिए नुक्ता ढूँढ़ने और उसके इर्द-गिर्द अपनी काव्यकला को माँजने (या हथियार की तरह भाँजने) की ज़रूरत उन्हें कभी नहीं होती. एक आंतरिक संगीत, अक्षय रागदारी और नागरिक हयादारी की लौ उनकी कविताओं में हरदम मौजूद रहती है. अपने हमअस्रों के बीच उनकी शख्सियत इन्हीं चीज़ों की जुस्तजू से बनी है. वह अपनी गहन निजता और आन्तरिकता को भी अपने नागरिक और सामाजिक मन के माध्यम से ही पाने के हामी हैं. उनकी कविताएँअपने तग़ाफ़ुल में भी बहुत सी चीज़ों की ख़बर एक साथ रखती हैं – समाज, राजनीति, देश-विदेश, आसपास, कवि का अंतर्मन. यहाँ ऐसी सम्पूर्णता है जिसका सम्बन्ध लिखे जाने से कम, जिए जाने और घटित होने से ज़्यादा है.ज़िम्मेदारी और अकेलापन. दरअसल तनहाई की सच्ची गरिमा और अर्थवत्ता भी ऐसी ही कविता में रौशन होती है.
आज कविता एक भयावह सरलीकरण के दौर से गुज़र रही है और यह सरलीकरण मोटी समझ या ठसपन वाला सरलीकरण नहीं, एक नैतिक और राजनीतिक सरलीकरण है. चूंकि घुटन, पीड़ा, दुःख और क्रोध से, अन्याय और विषमता के प्रतिकार से, अंतर्विरोध की मार से बचकर कविता नहीं लिखी जा सकती, और लिखी जाए तो समकालीन कविता नहीं हो सकती, इसलिए यथास्थितिवादी रचनाकारों ने वास्तविक चुनौतियों और अंतर्विरोधों की जगह काल्पनिक चुनौतियों और अंतर्विरोधों की भूलभुलैयाँ रचनी शुरू की है. बिना विद्रोह किए, बिना उस विद्रोह की क़ीमत चुकाने को तैयार हुए ये लोग विद्रोह और प्रतिरोध का एक रुग्ण रोमांटिक और उत्तर-आधुनिकतावादी संसार कलाओं में रच रहे हैं. अब मुठभेड़ और प्रतिरोध की जगह 'जेस्चर' और 'मेटाफर' ने ले ली है. देखते देखते आज ऐसे कवि काफ़ी तादाद में इकट्ठे हो गए हैं जो इस तरीक़े को ही असल 'तरीक़ा' और सच्चा 'सिलसिला' मानते हैं. इस परिदृश्य में नरेन्द्र जैन की कविता क्लैसिकल प्रतिरोध की बाख़बर कविता है, जहाँ अत्याचारी का चेहरा दिखाई देता है, और कवि जिन पीड़ितों की हिमायत कर रहा है उनके चहरे भी दिखाई देते हैं. उनकी कविता ने अपना पैना राजनीतिक फ़ोकस खोया नहीं है, बल्कि उसे मामूली जीवन की तरह जिया है.
नरेन्द्र की कविता एक राजनीतिक विभीषिका, विराट दुर्घटना, आपातकालीन परिस्थिति,
नरेन्द्र ने अपनी वामपक्षीय प्रतिबद्धता को बोझ की तरह नहीं ढोया; उसे अपने रचनात्मक और नैतिक जीवन में जज़्ब किया है और एक गहरी ज़िम्मेदारी से उसे बरता है. उनके पास मुक्तिबोध के उस मशहूर सवाल का जवाब है.` -असद ज़ैदी
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आधार प्रकाशन, एससीएफ 267, सेक्टर-16 पंचकूला 134113 (हरियाणा)
6 comments:
विद्रोह किए बिना उसकी कीमत चुकाने के मेकअप मे हर नाके पर खड़े बांके- समकालीन भौद्धिक परिदृश्य का सहज बिम्ब और नहीं हो सकता। यह एक पंक्ति देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया असद चचा। बधाई
राजेश जोशी और नरेन्द्र जैन की कविताएं पढ़ते हुए हमेशा एक हौसला मिलता रहा है लिखने के लिए। यहां भी उनकी कविताएं पढ़कर अच्छा लगा।
bahut sundar sarthak rachna prastuti ke liye aabhar!
shukriya padhwaane ke liye
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
कल 18/04/2012 को आपके इस ब्लॉग को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
... सपना अपने घर का ...
कवितायें मन को झकझोर देने वाली हैं ... आभार
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