Wednesday, October 30, 2013

विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है - असद ज़ैदी


`प्रभात खबर` अख़बार में छपा वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी का इंटरव्यू

‘कविता’ आपके लिए क्या है?

कविता समाज में एक आदमी के बात करने का तरीक़ा है। पहले अपने आप से, फिर दोस्तों से, तब उनसे जिनके चेहरे आप नहीं जानते, जो अब या कुछ बरस बाद हो सकता है आपकी रचना पढ़ते हों। कविता समाज को मुख़ातिब करती बाहरी आवाज़ नहीं, समाज ही में पैदा होने वाली एक आवाज़ है। चाहे वह अंतरंग बातचीत हो, उत्सव का शोर हो या प्रतिरोध की चीख़। यह एक गंभीर नागरिक कर्म भी है। एक बात यह भी है कि कविता आदमी पर अपनी छाप छोड़ती है - जैसी कोई कविता लिखता है वैसा ही कवि वह बनता जाता है और किसी हद तक वैसा ही इन्सान।


लेखन की शुरुआत स्वत: स्फूर्त थी या कोई प्रेरणा थी?

खुद अपने जीवन को उलट पुलटकर देखते, और जो पढ़ने, सुनने और देखने को मिला है उसे संभालने से ही मैं लिखने की तरफ़ माइल हुआ। घर में तालीम की क़द्र तो थी पर नाविल पढ़ने, सिनेमा देखने, बीड़ी सिगरेट पीने, शेरो-शाइरी करने, गाना गाने या सुनने को बुरा समझा जाता था। यह लड़के के बिगड़ने या बुरी संगत में पड़ने की अलामतें थीं। लिहाज़ा अपना लिखा अपने तक ही रहने देता था। पर मिज़ाज में बग़ावत है, यह सब पर ज़ाहिर था।


आपने शुरुआत कहानी से की थी फिर कविता की ओर आये. कविता विधा ही क्यों?

शायद सुस्ती और कम लागत की वजह से। मुझे लगता रहता था असल लिखना तो कविता लिखना ही है। यह इस मानी में कि कविता लिखना भाषा सीखना है। कविता भाषा की क्षमता से रू-ब-रू कराती है, और उसे किफ़ायत से बरतना भी सिखाती है। कविता एक तरह का ज्ञान देती है, जो कथा-साहित्य या ललित गद्य से बाहर की चीज़ है। वह सहज ही दूसरी कलाओं को समझना और उनसे मिलना सिखा देती है। हर कवि के अंदर कई तरह के लोग - संगीतकार, गणितज्ञ, चित्रकार, फ़िल्मकार, कथाकार, मिनिएचरिस्ट, अभिलेखक, दार्शनिक, नुक्ताचीन श्रोता और एक ख़ामोश आदमी - हरदम मौजूद होते हैं।


अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताएं.

मैं अक्सर एक मामूली से सवाल का जवाब देना चाहता हूँ। जैसे : कहो क्या हाल है? या, देखते हो? या, उधर की क्या ख़बर है? या, तुमने सुना वो क्या कहते हैं? या, तुम्हें फ़लाँ बात याद है? या, यह कैसा शोर है? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, मेरे प्रस्थान बिंदु ऐसे ही होते हैं। कई दफ़े अवचेतन में बनती कोई तस्वीर या दृश्यावली अचानक दिखने लगती है जैसे कोई फ़िल्म निगेटिव अचानक धुलकर छापे जाना माँगता हो। मिर्ज़ा ने बड़ी अच्छी बात कही है - 'हैं ख़्वाब में हनोज़ जो जागे हैं ख़्वाब में।'

दरअसल रचना प्रक्रिया पर ज़्यादा ध्यान देने से वह रचना प्रक्रिया नहीं रह जाती, कोई और चीज़ हो जाती है। यह तो बाद में जानने या फ़िक्र में लाने की चीज़ है। यह काम भी रचनाकार नहीं, कोई दूसरा आदमी करता है - चाहे वह उसी के भीतर ही बैठा हो - जो रचना में कोई मदद नहीं करता।

मुक्तिबोध से बेहतर चिंतन इस मामले में किसी ने नहीं किया, वह इन मामलात की गहराई में गए थे। 'कला का तीसरा क्षण' निबंध और 'बाह्य के आभ्यंत्रीकरण' और 'अभ्यन्तर के बाह्यकरण' का चक्रीय सिद्धान्त जानने और समझने की चीज़ें हैं। लेकिन मुझे यक़ीन है कवि के रूप में मुक्तिबोध 'तीसरे क्षण' के इन्तिज़ार में नहीं बैठे रहते थे।


अपनी रचनाशीलता का अपने परिवेश, समाज और परिवार से किस तरह का संबंध पाते हैं?

संबंध इस तरह का है कि 'दस्ते तहे संग आमदः पैमाने वफ़ा है' (ग़ालिब)। मैं इन्ही चीज़ों के नीचे दबा हुआ हूँ, इनसे स्वतंत्र नहीं हूँ। लेकिन मेरे लेखन से ये स्वतंत्र हैं, यह बड़ी राहत की बात है।


क्या साहित्य लेखन के लिए किसी विचारधारा का होना जरूरी है?

पानी में गीलापन होना उचित माना जाए या नहीं, वह उसमें होता है। समाज-रचना में कला वैचारिक उपकरण ही है - आदिम गुफाचित्रों के समय से ही। विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है, चाहे आप इसको लेकर जागरूक हों या नहीं। बाज़ार से लाकर रचना पर कोई चीज़ थोपना तो ठीक नहीं है, पर नैसर्गिक या रचनात्मक आत्मसंघर्ष से अर्जित वैचारिक मूल्यों को छिपाना या तथाकथित कलावादियों की तरह उलीचकर या बीनकर निकालना बुरी बात है। यह उसकी मनुष्यता का हरण है। और एक झूटी गवाही देने की तरह है।


आप अपनी कविताओं में बहुत सहजता से देश और दुनिया की राजनीतिक विसंगतियों को आम आदमी की जिंदगी से जोड़ कर एक संवाद पेश करते हैं. क्या आपको लगता है कि मौजूदा समय-समाज में कवि की आवाज सुनी जा रही है?

मौजूदा वक़्त ख़राब है, और शायद इससे भी ख़राब वक़्त आने वाला है। यह कविता के लिए अच्छी बात है। कविकर्म की चुनौती और ज़िम्मेदारी, और कविता का अंतःकरण इसी से बनता है। अच्छे वक़्तों में अच्छी कविता शायद ही लिखी गई हो। जो लिखी भी गई है वह बुरे वक़्त की स्मृति या आशंका से कभी दूर न रही। जहाँ तक कवि की आवाज़ के सुने जाने या प्रभावी होने की बात है, मुझे पहली चिन्ता यह लगी रहती है कि दुनिया के हंगामे और कारोबार के बीच क्या हमारा कवि ख़ुद अपनी आवाज़ सुन पा रहा है? या उसी में एबज़ॉर्ब हो गया है, सोख लिया गया है? अगर वह अपने स्वर, अपनी सच्ची अस्मिता, अपनी नागरिक जागरूकता को बचाए रख सके तो बाक़ी लोगों के लिए भी प्रासंगिक होगा।


आपके एक समकालीन कवि ने लिखा है (अपनी उनकी बात: उदय प्रकाश) आपके साथ ‘हिंदी की आलोचना ने न्याय नहीं किया.’ क्या आपको भी ऐसा लगता है? इसके पीछे क्या वजहें हो सकती हैं?

मैं अपना ही आकलन कैसे करूँ! या क्या कहूँ? ऐसी कोई ख़ास उपेक्षा भी मुझे महसूस नहीं हुई। मेरी पिछली किताब मेरे ख़याल में ग़ौर से पढ़ी गई और चर्चा में भी रही। कुछ इधर का लेखन भी। इस बहाने कुछ अपना और कुछ जगत का हाल भी पता चला।


लेखन से जुड़े पुरस्कारों को कितना अहम मानते हैं एक लेखक के लिए?

मुझे अपने मित्र पंकज चतुर्वेदी की कविता 'कृतज्ञ और नतमस्तक' की याद आ रही है। यह कालजयी रचना बहुत थोड़े शब्दों में वह सब कह देती है जो इस मसले पर कहा जा सकता है।


कृतज्ञ और नतमस्तक
पंकज चतुर्वेदी

सत्ता का यह स्वभाव नहीं है
कि वह योग्यता को ही
पुरस्कृत करे
बल्कि यह है
कि जिन्हें वह पुरस्कृत करती है
उन्हें योग्य कहती है

अब जो पुरस्कृत होना चाहें
वे चाहे ख़ुद को
और पूर्व पुरस्कृतों को
उसके योग्य न मानें
मगर यह मानें
कि योग्यता का निश्चय
सत्ता ही कर सकती है

अंत में योग्य
सिर्फ सत्ता रह जाती है
और जो उससे पुरस्कृत हैं
वे अपनी-अपनी योग्यता पर
संदेह करते हुए
सत्ता के प्रति
कृतज्ञ और नतमस्तक होते हैं
कि उसने उन्हें योग्य माना


आप अपनी सबसे प्रिय रचना के तौर पर किसका जिक्र करना चाहेंगे?

इस बारे में राय बदलता रहता हूँ, किसी समय कोई कविता ठीक लगती है किसी और समय दूसरी। मेरे दोस्तों से पूछिए तो कहेंगे मेरी ज़्यादातर रचनाएँ अप्रिय रचनाएँ हैं। यह भी ठीक बात है। उन लोगों को जो पसन्द हैं - या सख़्त नापसंद हैं - वे कविताएँ हैं : बहनें, संस्कार, आयशा के लिए कुछ कविताएँ, पुश्तैनी तोप, दिल्ली दर्शन, कविता का जीवन, अप्रकाशित कविता, सामान की तलाश, आदि।


इन दिनों क्या नया लिख रहे हैं? और लेखन से इतर क्या, क्या करना पसंद है?

कुछ ख़ास नहीं। वही जो हमेशा से करता रहा हूँ। मेरी ज़्यादातर प्रेरणाएँ और मशग़ले साहित्यिक जीवन से बाहर के हैं, लेकिन मेरा दिल साहित्य में भी लगा रहता है। समाजविज्ञानों से सम्बद्ध विषयों पर "थ्री एसेज़" प्रकाशनगृह से किताबें छापने का काम करता हूँ। और अपना लिखना पढ़ना भी करता ही रहता हूँ। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, ख़ासकर ख़याल गायकी, सुनते हुए और विश्व सिनेमा देखते हुए एक उम्र गुज़ार दी है।


ऐसी साहित्यिक कृतियां जो पढ़ने के बाद ज़ेहन में दर्ज हो गयी हों? क्या खास था उनमें?

चलते चलते ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। मैं पुराना पाठक हूँ। जवाब देने बैठूँ तो बक़ौल शाइर - 'वो बदख़ू और मेरी दास्ताने-इश्क़ तूलानी / इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाए है मुझसे।' कुछ आयतें जो बचपन में रटी थीं और अन्तोन चेख़व की कहानी 'वान्का' जो मैंने किशोर उम्र में ही पढ़ ली थीं ज़ेहन में नक़्श हो गईं हैं। इसके बाद की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है।
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`प्रभात खबर ` में इस बातचीत के कुछ पैराग्राफ नहीं हैं।

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