Saturday, October 19, 2013

हिटलर के यातना शिविर हैं ये गांव- शंबूक

देसां म्हैं देस हरियाणा जित......

30 मार्च, शनिवार तक़रीबन शाम साढ़े 5 बजे के आस-पास का बात है, जब मदीना गांव, भैराण रोड़ नहर पर दबंग जाति के लोगों द्वारा खेतों में मेहनत-मजूरी करके लौट रहे दलितों के साथ जमकर ख़ून की होली खेली गई। ताक़तवर दबंग जाति के ये बिगड़े हुए शोहदे बकायदा योजनाबद्ध तरीके से, हथियारों से लैस होकर, नहर के पास झाड़ियों में घात लगाए बैठे थे। दलित मज़दूरों में महिलाएं भी थीं और बच्चे भी। दिन भर की कड़ी मेहनत और पसीने से रवां शरीर, मज़दूरी ख़त्म होने के बाद जब शाम को सूरज ढल रहा होता है, दोबारा से नई ताज़गी हासिल कर लेता है। क्योंकि इस बात का इत्मीनान होता है कि आाज का काम ख़त्म। चेहरे पर मेहनत की लकीरें चुहलबाज़ी करने लगती हैं और हल्की-फुल्की चुटकियां लेते मज़दूर घर को लौटने लगते हैं। इसी वक़्त परींदे भी अपने घोंसलों को लौटते हैं। ये दलित परीवार भी इसी तरह अपने घर को लौट रहा था। इस बात से अनभिज्ञ कि नहर पर मौत उनका इंतज़ार कर रही है।
जैसे ही दलितों की बुग्गी नहर पर पहुंची, बदमाशों ने हमला बोल दिया। अंधाधुंध फायरिंग कर दी। एक 10 साल के बच्चे के सिर में गोली लगी और बच्चा ख़ून से लथपथ तड़पने लगा। एक नौजवान की छाती में गोली लगी और उसकी मौके पर ही मौत हो गई। एक नौजवान की जांघ में गोली लगी जो आज भी मेडिकल में ज़िंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है। महिलाओं और लड़कियों ने खेतों में भागकर, छिपकर अपनी जान बचाई।
हादसे का कारण ये है कि दलितों ने बस्ती में महिलाओं के साथ बदसलूकी करने वाले दबंग जाति के इन बदमाशों को टोक दिया था। ये घटना कोई 8-9 महीने पहले की है। दबंग जाति के ये नौजवान एक मरतबा रात को जबरन एक दलित परिवार के घर में घुस गये अैर महिलाओं के साथ बदतमीज़ी करने लगे तो दलितों ने उसकी जमकर पिटाई की। गौरतलब है कि दलित बस्ती में गांव के सरपंच ने अपना अड्डा बना रखा है जहां दिन-रात लफंगे पड़े रहते है। राब पीते हैं, अय्याशी करते हैं और कहीं भी खड़े होकर पेशाब करने लगते हैं। पानी भरने या अन्य किसी काम से भीतर-बाहर जाने वाली लड़कियों के साथ बदतमीज़ी करते हैं। शौच के लिये बाहर जाना पड़ता है, इस वक़्त महिलाओं को तंग किया जाता है और जोर-जबरदस्ती तक की नौबत आ जाती है। इन लफंगों ने पहले भी कई बार बस्ती में महिलाओं के साथ बदतमीज़ी की है और कहासुनी हुई है। ये मामला 8-9 महीने पुराना है। इस दरम्यान पुलिस थाने में भी कई बार इतिल्ला दी गई लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नही की। आज गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है और दलित ख़ौफ के साये में हैं।
ऐसा ही सन्नाटा उस वक़्त पसरा था जब दलितों ने दबंग जाति के नौजवान की पिटाई की थी। तब जाटों ने योजना बनाई थी कि दलितों को गांव से खदेड़ दिया जाये। लेकिन गांव के ही एक पूर्व चेयरमैन और ज़िला प्रशासन के हस्तक्षेप से बड़ा हादसा टल गया था। बहरहाल उसी मौके पर लड़के ने भरी पंचायत में ऐलान कर दिया था कि मैं जेल से छूटते ही इन (दलित) लोगों को क़त्ल करूंगा। अभी कुछ दिन हुये ये लड़का जेल से छूटकर आया था। इसने आते ही अन्य बदमाशों को इकठ्ठा किया, गैंग बनाया और दलितों की बर्बरतापूर्ण हत्या कर दी। गांव के लोंगों का मानना है कि अगर पुलिस समय रहते कार्रवाई करती तो ये हादसा टल सकता था।
गौरतलब है कि हरियाणा में ये कोई पहली घटना नही है और ना ही मदीना में पहली घटना है। मदीना में पहले भी दबंगों ने एक दलित की हत्या की थी और पंचायत आदि करके मामले को रफा-दफा कर दिया गया था। जाटों ने पीड़ित परिवार को मुआवज़ा देने की बात तय की थी लेकिन गांव गवाह है कि आज तक कोई मुआवज़ा नही दिया गया। इसके अलावा गाहे-बगाहे दलितों के साथ मारपीट आम है। एक बार एक दबंग जाति के किसान ने दलितों की चैहनीशमशानघाट पर कब्ज़ा कर लिया था और मात्र थोड़ी सी ज़मीन छोड़ दी। दलित बस्ती के लोग इकठ्ठा होकर तुरंत मौके पर पहुंचे तब शान घाट पर बाड़ की जा रही थी। दलितों ने ऐतराज़ जताया तो उन्होंने बहुत बेहूदा और घटिया अंदाज़ में कहा था कि ‘‘के सारे चूड़े कठ्ठे मरोगे, जो इतना बड़ा शान घाट चाहिये।’’
रविदास जयंति पर मदीना गांव में ही कुछ दबंग जाति के नौजवान जानबूझकर बार-बार महिलाओं में घुस रहे थे। वहीं पर पास में कढ़ाई चढा रखी थी, प्रसाद के लिये। कुछ नौजवान वहां बैठकर सब्ज़ी काट रहे थे, आलू वगैरह छील रहे थे। इन दलित नौजवानों ने जब उन लफंगों को टोका तो उन्होंने चाकू से हमला कर दिया। जिसमें तीन नौजवान घायल हुए। एक नौजवान का ज़ख़्म आज तक नही भरा है। इसके अलावा वाल्मीकि जाति के नौजवान पंकज को सर्दियों में दबंगों ने तक़रीबन जान से मार दिया था। ख़ुदा की ख़ैर है कि वो बच गया लेकिन छः महीने तक खाट भुगती। सर्दियों की बात है, सुबह 6-7 बजे के आस-पास पंकज शौच आदि से निवृत्त होकर घर लौट रहा था। कोल्हू के पास दबंग जाति के नौजवान छिपे हुये थे। उन्होंने गुड़ बनाने वाले गरम पलटों से हमला बोल दिया....। मात्र मदीना ही नही बल्कि हर गांव में दलित उत्पीड़न के महाकाव्य हैं।
हरियाणा के गांव हिटलर के यातना शिविर बने हुए हैं। हर गांव में बर्बर हादसे सिर दबाये बैठे हैं। ये हर रोज़ गर्दन निकालते हैं और दलित ख़ून का घूंट पीकर, अपमान झेलकर, माफी आदि मांगकर इन हादसों को दो क़दम दूर ठेल देते हैं। रोजमर्रा के स्वाभाविक काम मसलन भीतर-बाहर आना-जाना, बच्चों का स्कूल जान, पानी लाना, दुकान से सौदा लाना, टट्टी-पेशाब जाना आदि अत्यंत अपमान से गुजरकर अंजाम पाते है। अगर कोई व्यक्ति ये स्वाभाविक क्रियाएं करने के लिये भी सौ बार सोचे तो आप समझ सकते हैं कि क्या स्थिति है। ग़रीबों का पूरा कुनबा खटता है तब पेट भरता है। दिहाड़ी-मजूरी करनी ही पड़ती है। दिहाड़ी के लिये इन्हीं के खेतों में जाना होता है। मजूरी के पैसे के लिये झगड़े होते हैं। ईंधन लेने जाने वाली महिलाओं के पीछे दबंग जाति के ये तथाकथित इज़्ज़तदार लोग और इनके सुपुत्र कपड़े निकाल कर भाग पड़ते हैं। अैसी कई घटनाएं सामने आई हैं। गुजारे के लिये कुछ परिवार पशुपालन करते हैं मसलन एकाध मुर्गी, बकरी या सुअर पालते है। इन पशुओं को लेकर दलितों को आये दिन धमकाया जाता है, पीटा जाता है। कई मरतबा पषुओं को ज़हर दे दिया जाता है। गांव में गुजारा कैसे हो? गांव में गुजारे के साधन यही हैं- ज़मीन, शुपालन या फिर दिहाड़ी-मजूरी। ज़मीन चाहे खेती योग्य हो या शामलाती, सब जगह वे ही पसरे पड़े हैं। जातिगत उत्पीड़न का ताल्लुक़ ज़मीन से सीधा है। हरियाणा में भूमि सुधार लागू किया जाना चाहिये और बेज़मीनी दलित परिवारों को भूमि आवंटित की जानी चाहिये।
दलित महिलाएं ताक़तवर तबकों के निशाने पर हैं। हरियाणा में पिछले दिनों हुई सामूहिक बलात्कार की घटनाओं में ज़्यादातर शिकार दलित लड़कियां हैं। दलित महिलाओं के साथ छेड़खानी, बलात्कार करना दबंग जाति के ये लफंगे अपना अधिकार समझते हैं। शायद गाम-राम, मौज़िज़ लोग, पुलिस और प्रशासन भी। तभी तो कोई कार्रवाई नही होती। उल्टा अगर दलित ऐतराज़ ज़ाहिर करते हैं, महिलाएं विरोध करती हैं तो सबमें कभी खुली तो कभी छिपी प्रतिक्रिया होती है। मात्र मदीना ही नही तक़रीबन हर गांव में दलित बस्ती को इन लफंगों ने अपनी चारागाह बना रखा है। अगर कोई टोक दे तो मारपीट, क़त्ल, दंगा, आगजनी।
कितने अैसे मामले हैं जिनमें टोकने पर दलितों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया और पंचायत में माफी भी मंगवाई और बेइज़्ज़त भी किया। सवाल उठता है कि ये असामाजिक तत्व इतना बेख़ौफ़ क्यों है? जवाब स्पष्ट है कि पुलिस, क़ानून, कोर्ट किसी बात का डर नही है। क्योंकि इन सब ने बार-बार दलित और महिला उत्पीड़न के मामलों में इन ताकतवर जातियों और लफंगों के साथ ही प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है। गौरतलब है कि दुलीना में पुलिस चौकी के अंदर पांच दलितों की पीट-पीट कर हत्या की गई थी, गोहाना में पुलिस की मौजूदगी में दलित बस्ती को आग लगाई और मिर्चपुर के दलित जब न्याय के लिये प्रतिरोध कर रहे थे तब उन पर लाठियां भांजी गई। सामूहिक बलात्कारों और यौन हिंसा के खि़लाफ रोहतक में प्रदर्शन कर रही महिलाओं पर लाठीचार्ज किया गया। प्रदर्शन में पीड़ित लड़कियां, उनके परिजन और पूर्व सांसद वृंदा करात भी थी। इन असामाजिक तत्वों को दूसरी ताक़त मिलती है जात से, ज़मीन से, दलाली से आयी नई पूंजी से, खाप पंचयतों से, पुरूष होने के दंभ से। हरदम ग़रीबों की जान हलक़ में अटकाये रखने वाले ये बदमाश हरियाणा की राजनीति को चलाने के महत्वपूर्ण क़िरदार हैं। इनको बकायदा राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है। क्योंकि दलित, अल्पसंख्यक, महिलाओं के साथ मनमर्ज़ी करना, अपमान करना, बेगार कराना इन बातों को सामाजिक स्वीकार्यता है, हरियाणा के दंभी समाज में।
इसलिये इस तरह की घिनौनी हरकतों को टोल बनाकर, गैंग बनाकर भीड़ बनाकर अंज़ाम दिया जाता है। इसके कई फायदे हैं ताकत तो बढ़ती ही है, इसके अलावा क़ानूनी चोर दरवाज़ों की मदद भी मिलती है। चाहे दुलीना का मामला हो, चाहे मिर्चपुर हो, हरसौला हो या फिर गोहाना हो या फिर मदीना हो, टोल बनाकर, इकठ्ठे होकर ये लोग अपनी ताकत का झण्डा कमजोरों की छाती में गाड़ते हैं। परिणामस्वरूप केस ज़्यादा लोगों के ख़िलाफ दर्ज़ होता है। इस बात पर और अधिक प्रतिक्रिया होती है। यहां तक कि कई संवेदनषील व समझदार लोग भी बेक़सूरोंको बचाने की दुहाई देने लगते हैं। ये फिनोमिना की तरह सामने आया है। मिर्चपुर में बेक़सूरोंको बचाने के लिये पंचायतें हुई। प्रगतिषील लोगों ने भी सुर में सुर मिलाया। आॅनर किलिंग के मामलों में भी अैसी बात सामने आई और अब मदीना में भी 1 अप्रैल को जाटों की पंचायत हुई। जिसमें यही बात सामने आई कि बेक़सूरोंके नाम भी लिखे गये हैं। मदीना कांड मामले की जांच कर रहे एसपी राजेष दुग्गल का कहना है कि ‘‘मामला गंभीर है और बेक़सूरों को सजा नही मिलनी चाहिये।’’ कमाल है बिना किसी कार्रवाई, पूछताछ, जांच, गिरफ्तारी के इन्हें कैसे मालूम पड़ जाता है कि कौन बेक़सूर है। दलित उत्पीड़न के केस में ये अधिकारी जांच करने की बजाय अंतर्यामी बन जाते हैं। गौरतलब है कि गांव के सरपंच जितेन्द्र के ख़िलाफ भी एफआईआर है। लेकिन वो गांव में खुला घूम रहा है और उसी ने गांव में पहलकदमी करके समानांतर पंचायत का आयोजन किया। जिसमे दलितों के किसी प्रतिनिधि और पीड़ित परीवार को पक्ष रखने के लिये षरीक तक नही किया गया। इससे साफ पता चलता है कि इस तरह की पंचायतों के क्या रूझान हैं। जिस पर गुजरी है वो ढंग से एफआईआर भी नही करा सकता। ये सुनिष्ति करना बहुत ज़रूरी है कि पीड़ितों के द्वारा दर्ज़ कराई गई एफआईआर को ही जांच का आधार बनाया जाये और भविष्यवाणी के आधार पर स्वयंभू न्यायधीष बनने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई हो।
इन गांवों की रोजमर्रा की ज़िंदगी में फासीवाद पसरा पड़ा है। प्रतिदिन का अपमान और उत्पीड़न, थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद बर्बर हमले और उसके बाद न्याय की लड़ाई। न्याय की प्रक्रिया और भी कष्टकारी है। क्येंकि बाद में धमकियों का दौर षुरू हो जाता है। डराया जाता है, कर्ज़ वापसी का दबाव बनाया जाता है, स्कूलों से बच्चों को निकाल दिया जाता है, दुकानों से सामान नही लेने दिया जाता मतलब पूरी ज़िंदगी अस्त-व्यस्त। हरियाणा में कितनी ही बार दलित विस्थापन की नौबत आई है। 200-250 परिवार, बुजुर्ग, महिलाएं, बच्चे, पषु वगैरह खुले आसमान के नीचे मौसम की मार खाते हैं। मिर्चपुर के ज़्यादातर परिवार अभी गांव से बेदखल हैं।
प्रष्न ये उठता है कि पुलिस, नौकरषाह, राजनेता, न्यायपालिका क्या अफीम खाये बैठे हैं। कब तक महिला सषक्तिकरण और दलित उत्थान के गूंगे ढोल पीटते रहेंगे। हरियाणा में दलित आयोग का गठन क्यों नहीं किया जा रहा है। ये सुनिश्चित किया जाये कि आयोग में ऐसे लोग हों जो सामाजिक न्याय और जातिगत मसलों पर संवेदनशील हों, जिनका इन मसलों पर संघर्ष करने का रिकार्ड हो। वर्ना महिला आयोग की तरह ही खानापूर्ति होगी। जगजाहिर है कि हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष ने लड़कियों के लिये ड्रैस कोडकी वकालत की थी। यूं तो 6-7 महीने पहले ही हरियाणा में मानवाधिकार आयोग बनाया गया है, जो ख़ुद दयनीय हालत में है। आयोग के नाम पर बेहूदा मज़ाक। ये और भी ज़्यादा भयानक बात है क्योंकि उत्पीड़ित तबकों के हक़ों, मान-सम्मान और सुरक्षा के लिये बनी महत्वपूर्ण एजेंसी प्रहसन बन जाती है। उत्पीड़ितों के बचे-खुचे एकाध सहारे भी छीन लिये जाते हैं, उनका अपहरण कर लिया जाता है।
जिस भी इलाके में जातिगत हिंसा होती है वहां पर कार्रवाई ना करने वाले पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को दोषी करार दिया जाये, सजा मिले। चुने हुये प्रतिनिधियों की जवाबदेही फिक्सकी जाए। इस तरह के मामलों पर उल-जुलूल बयान देने वाले राजनेताओं और पंचायतियों पर भी कार्रवाई की जाये। केस के दौरान होने वाली पंचायतों पर अंकुश लगे जो गुण्डों को बचाने के भोंडे तर्क देते हैं। पीड़ितों पर दबाव बनाते हैं और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। दलित उत्पीड़न के केसों में पीड़ितों के द्वारा बार-बार जोर दिये जाने के वजूद भी एससीएसटी एक्ट नही लगाया जाता। मात्र पुलिस ही नही बल्कि आमतौर पर समाज में भी जातिगत हिंसा को आम झगड़े व अपराध की तरह देखने का रुझान है। दुख और हैरानी की बात ये है कि संवेदनशील लोग भी इस रुझान की चपेट में आ जाते हैं। असल में एफआईआर दर्ज़ कराना ही महाभारत है और अगर हो भी जाये तो साधारण मारपीट, झगड़े आदि के केस बनाये जाते हैं। एफआईआर दर्ज़ करने की प्रक्रिया सुगम बने और कार्यरत प्रभारी कर्मियों की मनमानी पर अंकुश लगाने और उन्हें मॉनीटर करने का प्रबंध किया जाये। एफआईआार दर्ज़ ना करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई हो। असल में विडम्बना ये है कि बदमाशों के पास आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक ताकत है, साथ ही औपचारिक और अनौपचारिक ढांचे भी कहीं न कहीं इन्हें ही सर्पोट मुहैया कराते हैं। ग़रीब, दलित और महिलाओं के मदद, सुरक्षा और न्याय के लिये बनी एजेंसियों मसलन थानों आदि तक से ये तबके तौबा करते हैं, डरते हैं। ये बड़ा प्रश्न है कि कानूनों को व्यवहारिक तौर पर अमल में कैसे लाया जाये? थाने, तहसील, कोर्ट, पुलिस, प्रशासन को अपना क़िरदार बदलना होगा। ताकि पीड़ित लोग बेहिचक अपनी शिकायतें दर्ज़ करा पाएं और बदमाशों के आत्मविष्वास को ढीला किया जाये। वर्ना एफआईआर, शिकायत तो दूर की बात, अभी तो हालत ये है कि आपका कलेजा निकाल लें और रोने भी ना दें।

नोटः- गौरतलब है कि मदीना काण्ड में 18 लोगों के खि़लाफ एफआईआर दर्ज़ है लेकिन अब तक मात्र चार लोगों को ही गिरफ्तार किया गया है। इसी दरम्यान पबनावा कैथल में भी जातिगत उत्पीड़न का गंभीर मामला सामने आ चुका है। हिसार ज़िला के कल्लर भैणी गांव में 15 साल के बच्चे से दबंगों ने पानी का बर्तन छीन लिया, बर्तन का पानी उड़ेला और पीने के पानी के बर्तन में पेषाब किया। लड़के के मामा ने विरोध किया तो जातिसूचक गालियां दी, लाठियों और बल्लम से उस पर हमला बोल दिया। यहां भी दबंग जाति के इन लफंगों ने दलित बस्ती को अपना अड्डा बना रखा है।
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(मार्च 2013 में मदीना कांड के बाद दिल्ली से वहां गए एक दलित युवक ने ये बातें मेल के जरिये भेजी थीं। तब से जींद में दलित युवती के साथ रेप और उसकी हत्या समेत जाने कितनी वारदातें हो चुकी हैं। उन सभी को इस मेल की रोशनी में देखा जा सकता है कि हर बार सरकार और उसकी मशीनरी का रवैया वही रहता है। चाहें तो हरियाणा के पड़ोसी राज्यों और देश के बाकी हिस्सों के गांवों को भी इस मेल की रोशनी में देख-समझ सकते हैं। इसीलिए इस पुराने मेल को इतने दिन बाद भी पूरी तरह प्रासंगिक पाकर यहां चिपका रहा हूं।-धीरेश)

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