इन दिनों दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला चल रह है। कुछ वर्षों पहले मैं पहली बार इस मेले में आया था तो किताबों की बड़ी सी दुनिया में एक नया अनुभव हुआ था। देश भर के बडे लेखकों से सहज सवांद का मौका खास तजुर्बा था। बाद के वर्षों में मेले का माहौल तेजी से बदला। जिस साल मुरली मनोहर जोशी मंत्री था, उस साल मेले को बाबा बाज़ार में बदल दिया गया था। वो सरकार जाने के बाद भी ये विद्रूप कायम है। इस बार मेले में पहले दिन चंद्रास्वामी अपनी चेला म्मंद्ली के साथ घूमता दिखाई दिया। अचानक हैरानी हुई, एक साथी ने कहा कि नरसिम्हा राव के बाद बाबा के सितारे गर्दिश में आ गए हैं। मैंने कहा, इस वक़्त तो धूर्तता का पूरा सेलिब्रेशन है, हर किसी के सितारे चमक रहे हैं।
आज अचानक एक स्टाल पर एक हट्टा-कट्टा गेरुआधारी परिचित दिखाई दिया। ये शख्स मुझे करनाल मिल चुके थे। १९९९ में मैं वहाँ अमर उजाला के लिए एक प्रोग्राम कि कवरेज कर रह था, आर्य समाज के इन स्वामी जी (तब युवा) को राम मंदिर के लिए गरजते पाया। मैंने इनसे कहा, दयानंद का तो मंदिर वालो से जान का बैर था, आप मंदिर की बात कर रहे हैं, बोले-ये अस्मिता का प्रश्न है। करनाल में कई साल रह तो इनसे बार-बार सबका पड़ा और अक्सर बहस भी होती रहीं। अब कई वर्षों बाद अचानक दिखाई दिए तो अचानक मुँह से निकला, क्या हाल हैं स्वामी जी और शिष्टाचार के नाते हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया। स्वामी जी कुछ पल के लिए अन्यमनस्क हुए लेकिन तुरंत संभल कर आशीर्वाद देने की मुद्रा में आ गए। मेरा हाथ हवा में लटका सा रह गया और मुझे अपनी गलती का ख्याल हुआ कि धर्मगुरु मनुष्य नही होते। यों भी धर्म का धंधा ग़ैर बराबरी पर टिका होता है और धर्मगुरु इसे और बढाता जाता है। मैंने मजाक में कहा, स्वामी जी, कभी इस इमेज में ऊब तो होती होगी.
आज अचानक एक स्टाल पर एक हट्टा-कट्टा गेरुआधारी परिचित दिखाई दिया। ये शख्स मुझे करनाल मिल चुके थे। १९९९ में मैं वहाँ अमर उजाला के लिए एक प्रोग्राम कि कवरेज कर रह था, आर्य समाज के इन स्वामी जी (तब युवा) को राम मंदिर के लिए गरजते पाया। मैंने इनसे कहा, दयानंद का तो मंदिर वालो से जान का बैर था, आप मंदिर की बात कर रहे हैं, बोले-ये अस्मिता का प्रश्न है। करनाल में कई साल रह तो इनसे बार-बार सबका पड़ा और अक्सर बहस भी होती रहीं। अब कई वर्षों बाद अचानक दिखाई दिए तो अचानक मुँह से निकला, क्या हाल हैं स्वामी जी और शिष्टाचार के नाते हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया। स्वामी जी कुछ पल के लिए अन्यमनस्क हुए लेकिन तुरंत संभल कर आशीर्वाद देने की मुद्रा में आ गए। मेरा हाथ हवा में लटका सा रह गया और मुझे अपनी गलती का ख्याल हुआ कि धर्मगुरु मनुष्य नही होते। यों भी धर्म का धंधा ग़ैर बराबरी पर टिका होता है और धर्मगुरु इसे और बढाता जाता है। मैंने मजाक में कहा, स्वामी जी, कभी इस इमेज में ऊब तो होती होगी.
1 comment:
profitable image hai bhai aur profit kis dhandewale ko pasand nahi
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