ब्रेष्ट और निराला
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सपने में देखा कोई घर
थाघर क्या टूटाफूटा-सा कमरा एक
कुर्सियाँ रखी हुई थीं बहुत पुरानी
बैठे थे उन पर बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और निराला
वैसे ही जैसे अपनी-अपनी तस्वीरों में दिखते थे
निराला अस्तव्यस्त बालों में गहरी ऑंखें कहीं दूर देखतीं
ब्रेष्ट उसी गोल चश्मे में दो दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी
और आँखें जैसे काफी दुनिया देख चुकी हों
सुना रहे थे कविता एक-दुसरे को
अभी कुछ और सुनाओ कहते
दोनों बीच-बीच में दुनिया के रंगढंग पर अचरज करते
कहा ब्रेष्ट ने मैं एक अँधेरे युग में रहता हूँ
निराला बोले मैं इसी अँधेरे का ताला खोलने को कहता हूँ
फिर कहा निराला ने चारों ओर घना है दुःख का जंगल
बोले ब्रेष्ट मैं रहा खोजता इस दुःख का कारण
निराला बोले मैं लड़ा कुलीनों से ब्राहमण के घर के व्यंजन छोड़े
जो असली जान हैं समाज के महंगू और झींगुर जैसे
या इलाहाबाद के पथ की वह मजदूरिन
उन पर जब लिखा मैंने
आलोचक बरसे मुझ पर कईयों ने कहा मुझे पागल
मरा हूँ हजार मरण
कहा ब्रेष्ट ने पूंजी और ताकत की निर्मम चालों पर
मैंने भी कलम चलायी उनके व्यवहारों को बारीकी से देखा
समाज की तलछट में रहनेवाले मुझे भी भले लगे
साधारण की हिम्मत और अच्छाई को दर्ज किया
अत्याचारी से बचने की तरकीबें खोजीं कई देश बदले
किसी तरह बच गया मृत्यु और यातना शिविरों से
जगह-जगह खोजता रहा शरण
कहा निराला ने जनता की ही तरह कविता की मुक्ति ज़रूरी है
बोले ब्रेष्ट जनता की मुक्ति में कविता बची हुई है
दो महाकवि गले मिले बोले फिर मिलते हैं
सपने में जाते दिखते दोनों ऐसे
जैसे जीवन में साथ रहा हो बरसों से
-मंगलेश डबराल
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सपने में देखा कोई घर
थाघर क्या टूटाफूटा-सा कमरा एक
कुर्सियाँ रखी हुई थीं बहुत पुरानी
बैठे थे उन पर बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और निराला
वैसे ही जैसे अपनी-अपनी तस्वीरों में दिखते थे
निराला अस्तव्यस्त बालों में गहरी ऑंखें कहीं दूर देखतीं
ब्रेष्ट उसी गोल चश्मे में दो दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी
और आँखें जैसे काफी दुनिया देख चुकी हों
सुना रहे थे कविता एक-दुसरे को
अभी कुछ और सुनाओ कहते
दोनों बीच-बीच में दुनिया के रंगढंग पर अचरज करते
कहा ब्रेष्ट ने मैं एक अँधेरे युग में रहता हूँ
निराला बोले मैं इसी अँधेरे का ताला खोलने को कहता हूँ
फिर कहा निराला ने चारों ओर घना है दुःख का जंगल
बोले ब्रेष्ट मैं रहा खोजता इस दुःख का कारण
निराला बोले मैं लड़ा कुलीनों से ब्राहमण के घर के व्यंजन छोड़े
जो असली जान हैं समाज के महंगू और झींगुर जैसे
या इलाहाबाद के पथ की वह मजदूरिन
उन पर जब लिखा मैंने
आलोचक बरसे मुझ पर कईयों ने कहा मुझे पागल
मरा हूँ हजार मरण
कहा ब्रेष्ट ने पूंजी और ताकत की निर्मम चालों पर
मैंने भी कलम चलायी उनके व्यवहारों को बारीकी से देखा
समाज की तलछट में रहनेवाले मुझे भी भले लगे
साधारण की हिम्मत और अच्छाई को दर्ज किया
अत्याचारी से बचने की तरकीबें खोजीं कई देश बदले
किसी तरह बच गया मृत्यु और यातना शिविरों से
जगह-जगह खोजता रहा शरण
कहा निराला ने जनता की ही तरह कविता की मुक्ति ज़रूरी है
बोले ब्रेष्ट जनता की मुक्ति में कविता बची हुई है
दो महाकवि गले मिले बोले फिर मिलते हैं
सपने में जाते दिखते दोनों ऐसे
जैसे जीवन में साथ रहा हो बरसों से
-मंगलेश डबराल
2 comments:
bahut khub. Par mulaqat bahut choti rahi. Agle mulaqat ki asha me
आपकी इजाजत के बिना ही यह कविता अपने ब्लाग में डाल रही हूं आशा है आप अन्यथा नही लेंगे. वैसे निराला की कविता 'वो तोड़ती पत्थर देखा मैने उसको इलाहाबाद के पथ पर' आपके पास है तो कृपया उसे मेल कर दे
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