Tuesday, September 30, 2008

इस वक़्त मेरे पास आपकी दिलजोई के लिए कोई नाजुक कविता नहीं है

साहित्य में मेरी रूचि है और मैं कोई प्यारी सी कविता या कोई कविता सा गद्य का टुकडा पोस्ट करने का मन बनाता हूँ पर ऐसा हो नहीं पाता. आज सुबह द हिन्दू देखा और फिर दिल और दिमाग सुन्न सा रह गया. फिर भी कई साथी कहते हैं कि आतंकवादी तो मुसलमान हैं बस. ये मुल्क खतरे में है, कुछ कर सकते हो तो करो. आतंकवादी आर एस एस तो जो करना था कर चुका और कर रहा है.......
Nun was gang raped and priest brutally assaulted in Kandhamal
Parvathi Menon
FIRs lodged but no arrests by State government; no response from Centre; Sister Nirmala wrote to CM and PM appealing for protection to Christians

Bhubaneswar: The Orissa government has failed to take any action, under the law of the land, against those who committed bestial crimes — the gang rape of a 28-year-old Catholic nun and the brutal attack on a Catholic priest who courageously resisted their attempts to force him to participate in the atrocity. These incidents took place on August 25 at K. Nuagaon, 12 km from the Baliguda subdivision in Kandhamal district. Both victims filed First Information Reports at the Baliguda police station. Sister Nirmala, Superior-General of the Missionaries of Charity, wrote to the Orissa Chief Minister and the Prime Minister specifying the atrocities.
The brutalisation of the nun and the priest by a mob raising anti-Christian, Hindutva slogans took place around 1 p.m. at the site of the Divya Jyothi Pastor Centre. The church was burnt the previous day in reprisal against the murder of an RSS activist, Lakshmanananda Saraswathi, and four of his associates on August 23. The gang rape of the young nun, whose “virginity [was] grossly violated in public” (and whose identity is being withheld by this newspaper to protect her privacy) took place in front of a police outpost with 12 policemen from the Orissa State Armed Police present and watching, according to Father Thomas Chellan, the priest who was dragged out and badly beaten.
“Around 1 p.m., a gang came and pulled me and the Sister out of the house where we had taken shelter and started assaulting us,” Father Chellan told The Hindu in a telephonic interview from Kerala where he is recuperating.
“My appeals to the policemen who were standing nearby and watching only resulted in further beating. At one point the nun slipped away to plead with the police for help but she was dragged back by the mob and her blouse torn,” he said. The nun was gang raped in a nearby building, and he was doused with kerosene by the mob, which threatened to set him on fire. They were saved by a group of youth who took them to the police outpost where “one among the attackers was present with the police between 3 p.m. and 9 p.m.,” Father Chellan said.
News of the K. Nuagaon atrocity was conveyed through mobile phones to several priests and nuns hiding in the forests, fearing for their lives as the anti-Christian hunt was on. The victims were taken to the Baliguda police station around 9 p.m. where they lodged First Information Reports. “I believe the Sister wrote in her complaint that she was raped,” Father Chellan said.
The atrocity, about which the State government has not gone public, has outraged and terrified Christian organisations working in Kandhamal district. News of it was brought to the notice of Chief Minister Naveen Patnaik by Raphael Cheenath, Archbishop of the Cuttack-Bhubaneswar diocese.
Sister Nirmala wrote letters to the Orissa Chief Minister and the Prime Minister on this and other brutal attacks on Christians in Orissa. In her letter, dated August 28, 2008, to Chief Minister Patnaik, she took up “a very sad incident, soon after the eruption of the violence” of “one young sister, consecrated to God, who was administrator of an institute, being hunted out of her hiding place and stripped naked by the mob and her virginity grossly violated in public, without any help from the police present there.”
In her appeal for protection to Christians, Sister Nirmala urged the Chief Minister to “ask the Central Govt. for as many extra forces from the Centre as they are willing to give and you need.”
When contacted, Praveen Kumar, Superintendent of Police, Kandhamal district, told The Hindu that investigations into the episode by a Deputy Superintendent of Police were on and “the law will take its course.” He confirmed that no arrests have been made in connection with the incidents.

Tuesday, September 23, 2008

हमारे प्यारे आतंकवादी!

आतंकवादी दो तरह के होते हैं. एक वो जो मुसलमान होते हैं. (कहा तो यह भी जाता है कि मुसलमान होते ही आतंकवादी हैं) दूसरे वो जो हमारे अजीज हैं, आँखों के तारे हैं. वो आतंकवादियों की तरह छुपकर-दुबककर कुछ भी नहीं करते, जो करना होता है, खुलेआम करते हैं, डंके की चोट पे. कोई मस्जिद गिरानी हो, कोई बम फोड़ना हो, संविधान को गरियाना हो, कत्ले आम करने हों, पादरी-वादरी निपटाने हों, बस्तियां जलानी हों, जरूरत हो तो आतंकवाद से लड़ने के नाम पर धरने-प्रदर्शन करने हों- वे सब कुछ शान के साथ करते हैं. वो कभी किसी एन्काउन्टर में मारे नहीं जाते. जो मारे जाते हैं, वे खानदानी आतंकवादी होते हैं. पुलिस और सरकार की कहानी में लाख झोल हों, पर उनका मारा जाना वाजिब ही होता है, क्योंकि कहा न, वो होते ही खानदानी आतंकवादी हैं. आख़िर वे मुसलमान होते हैं.

Sunday, September 14, 2008

दिल्ली के धमाके - मुश्किल वक्त में कुछ ज़रूरी बातें


सांप्रदायिक ताकतों का काम हमेशा बेहद आसान होता है और इनके खिलाफ लडाई उतनी ही मुश्किल होती है। कई बार या कहें अधिकतर समय यह रास्ता बेहद तनहा, बार-बार हार का अहसास कराने वाला और खतरे व अपमान पैदा कराने वाला होता है. हम पाते हैं कि मुश्किल लड़ाई में शामिल कोई प्यारा साथी साम्प्रदायिक बहाव का शिकार हो गया है या फ़िर लोकतंत्र, न्याय, निष्पक्षता जैसे तर्कों का इस्तेमाल करते हुए ही वह घोर फासीवादी बातें करने लगा है.

साम्प्रदायिक ताकतों की असल जीत किसी धमाके में कुछ या बहुत सी जिंदगियां ले लेना नहीं होती, बल्कि यही होती है कि लोग उनके एजेंडे पर सोचना और रिअक्ट करना शुरू कर दें।

दिल्ली के धमाके मुझे भी बेहद दुखी और परेशां कर रहे हैं पर मैं ऐसे मौकों के लिए उत्साह से बयानों में भडास निकालने वाले पत्रकारों, नेताओं और राष्ट्रभक्तों से और भी ज्यादा परेशां होता हूँ। मसलन - आतंकवाद से आर-पार की लड़ाई का वक्त आ गया है, पकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए, पोटा-सोटा कुछ हो, चूडियाँ कब तक पहने रहेंगे (और मुसलमानों को सबक सिखाना होगा) जैसी बातें वो काम कर रही होती हैं, जो बम के धमाके भी नहीं कर पाते। या कहें जो धमाका करने वाले लोग चाहते हैं।

ऐसे मौके बीजेपी और पूरे संघ परिवार के लिए टोनिक का काम करते हैं। १९४७ में देश के बंटवारे और हाल के दो दशकों में इसी तरह की राजनीति से देश को छिन्न-भिन्न कर देने की कीमत पर ताकतवर होता गया संघ परिवार ऐसे धमाकों की इंतज़ार ही नहीं करता बल्कि ऐसी स्थितियां पैदा करने के लिए खाद-पानी भी देता है।

देखने में यह बेहद सामान्य और बेहद साफ़ बात है कि कोई भी सिमी-विमी किसी भी संघ-वंघ को और संघ-वंघ,सिमी-विमी को अपने-अपने अस्तित्व के लिए कितना जरूरी मानते हैं। दुर्भाग्य यह है कि सामान्य और साफ़ बातें देख पाना हमेशा ही मुश्किल रहता आया है. यह देखने के लिए मूलगामी नज़र की जरूरत होती है, जो माइंड सेट को तोड़ सके. यह नज़र एक चेतना का हिस्सा होती है, जो इस तरह के धमाकों को किसी धर्म के लोगों से नफरत की शक्ल में नहीं देखने लगती बल्कि यह पड़ताल कर लेती है कि इस साजिश से क्या चीज बन रही है. सांप्रदायिक ताकतों से मूलगामी नजर के साथ लम्बी लड़ाई लड़ते रहे मार्क्सवादी आन्दोलन के ही बहुत से साथी इस चेतना के अभाव में जब-तब अजीबोगरीब बातें करते दिख जाते हैं (हाल में हुसेन के चित्रों को लेकर और असद जैदी की कुछ कविताओं को लेकर भी यह देखा गया). लिब्रेलिज्म की आड़ में तो वैसे भी साम्प्रदायिकता और तमाम तरह का फासीवाद इत्मीनान से पलता रहता है। ऐसे लिबरल गुडी-गुडी बातें करते हुए मजे से डेमोक्रेसी की दुहाई देते रहते हैं और मौका मिलते ही साम्प्रदायिक नफरत उनके पेट से बाहर आ जाती है.

हाँ जरूरी नहीं कि हर कोई एक मूलगामी नज़र पैदा करने की कुव्वत रखता हो, पर अगर उसमें वैल्यूज़ की गहरी जड़ें हैं तो भी वह सांप्रदायिक साजिशों का शिकार होने से बचा रह सकता है. नेहरू ने एक सेकुलर और प्रगतिशील समाज की लडाई लड़ी थी तो प्रगतिशीलता और वैल्यूज़ उनकी बड़ी ताकत थी लेकिन गाँधी अपने पिछडेपन के बावजूद इंसानी वैल्यूज़ में गहरी आस्था के बूते ही साम्प्रदायिकता के खिलाफ इतनी बड़ी लडाई लड़ सके थे. अगर मूलगामी नज़र और वैल्यूज़ दोनों ही न हों, तो फ़िर साम्प्रदायिकता ही क्या, जाति और जेंडर के सवालों पर भी कोई लडाई लड़ना मुमकिन नहीं हो सकता. हम देखें कि हम किस नज़र और किन वैल्यूज़ को लेकर फासीवाद से लड़ना चाहते हैं.

(पेंटिंग The Wolf at the Door; water colour on paper by Atul Dodiya`सहमत` से साभार)


Wednesday, September 10, 2008

९/११ लोकतंत्र की हत्या के अमेरिकी अभियानों की प्रतीक बन चुकी तारीख


९/११ । यह तारीख अमेरिका की लोकतंत्रविरोधी करतूतों का प्रतीक बन चुकी है। डब्ल्यूटीओ पर हमले की बात भर नहीं है (हालांकि यह भी अमेरिका द्वारा दुनिया में हिंसा के सहारे लोकतंत्र और स्वतंत्र सरकारों को कुचलने के लिए पैदा किए गए आतंकवाद का ही नतीजा थी। इसके बाद आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अमेरिका ने जो घिनौने अभियान छेड़े, वो भी सामने हैं)। हम जरा पीछे जाना चाहेंगे, जब अमेरिका के पास आतंकवाद से झूठी लड़ाई का बहाना भी नहीं था। तब ११ सितंबर १९७३ को अमेरिका ने चिली की लोकप्रिय सरकार का तख्ता पलटकर वहां सैनिक तानाशाह को गद्दीनशीं किया था। चिली में अमेरिका के इशारे पर सल्वादोर अलेंदे का तख्ता पलटने के लिए दक्षिणपंथी फासिस्ट सैनिक धड़े ने मजदूरों, राजनैतक कार्यकर्ताओं और आम लोगों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया था। अलेंदे बाकायदा चुनाव जीतकर सत्ता में आए थे और यह अमेरिका को रास नहीं आ रहा था कि जनता के लिए प्रतिबद्ध क्रांतिकारी विचारों वाली सरकार इस तरह व्यापक जनसमर्थन के साथ सत्ता में आए। इस शांतिपूर्ण औऱ लोकतांत्रिक क्रांति को दुनियाभर ने सलाम किया था और यही बात अमेरिका को खतरे की घंटी लगी थी। तमाम आर्थिक साजिशों के बावजूद अलेंदे डटे रहे तो सीआईए ने सीधा हस्तक्षेप कर लोकतंत्र की हत्या को अंजाम दिया। यह बात अलग है कि अलेंदे आज भी दुनिया भर में लोकतंत्र और क्रांतिकारी प्रतिबद्धता की मिसाल के तौर पर जीवित हैं।

Friday, September 5, 2008

हबीब तनवीर से संगत

१ सितंबर को महान रंगकर्मी हबीब तनवीर का जन्मदिन था। इस मौके पर वीपी हाउस, दिल्ली में सहमत ने हबीब के चाहने वालों और अदीबों से उनकी बातचीत का इंतजाम किया था। मैं इसके कुछ हिस्से को पोस्ट करना चाहता था कि इस बीच वेणुगोपाल नहीं रहे। इस नाते इस पोस्ट को स्थगित करना पड़ा। इस बीच इसका बड़ा हिस्सा मुझसे खो भी गया.....बहरहाल जो है, उसका लुत्फ लीजिए-

मासूमियत या मजबूरी
कीमतें आसमान छू रही हैं। एक तरफ गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी है और दूसरी तरफ कुछ लोग लाखों रुपये महीना कमा रहे हैं। यह खाई पटना जरूरी है। कैसे पटेगी मोटेंक अहलूवालिया या चिदंबरम से, नहीं जानता। या तो मासूमियत है या मजबूरी कि वो किसी और तरीके से सोच नहीं सकते। ...मां के पेट से झूठ बोलते हुए कोई नहीं आता सोसायटी से ही सीखते हैं...

अंधेरे में उम्मीद भी
जो थिएटर छोड़कर फिल्मों, सीरियलों की तरफ जा रहे हैं, वहां काम की तलाश में जूतियां चटकाते हैं। कुछ चापलूसी, कुछ जान-पहचान काम करती है। मुझे उनसे कुछ शिकायत नहीं है। क्या करें पेट पर पत्थर रखकर काम मुश्किल है। हमारे जमाने में दुश्मन बहुत साफ नजर आता था। सामराजवाद से लड़ाई थी। एक मकसद (सबका) - अंग्रेजों को हटाओ, रास्ते कितने अलग हों (भले ही)। अब घर के भीतर दुश्मन है, उसे पहचान नहीं सकते। विचारधारा बंटी है। पार्टियों की गिनती नहीं, हरेक की मंजिल अलग-अलग। इस अफरातफरी में क्या किसी से कोई आदर्श की तवक्को करे। हां, मगर लिबरेलाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन, नए कालोनेलिज्म के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं सब तरफ से। खुद उनके गढ़ अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन में भी। तो ये उम्मीद बनती है।
जवाब से कतराता हूं
मैं अपने डेमोक्रेटिक मिजाज का शिकार रहा हूं। मेरी अप्रोच डेमोक्रेसी रही है, मैं प्रचारक या उपदेशक थिएटर में यकीन नहीं रखता। ये कोई जम्हूरी बात नहीं (शायद यही शब्द बोला था) कि आपने सब कुछ पका-पकाया दे दिया, कि मुंह में डालकर पी जाना है। अगर आप समझते हैं कि दिल-दिमाग वाला दर्शक आता है तो उकसाने वाला सवाल देना काफी होता है। ये नहीं कि मैं सवाल भी और जवाब भी पेश कर दूं। जवाब से कतराता हूं। हां, इसका हक नुक्कड़ नाटक को है, वहां जरूरी है जवाब भी देना। उनकी प्रोब्लम्स हैं। हड़ताल वगैरह होती हैं, सड़कों पर भी निकलना पड़ता है (नुक्कड़ नाटक वालों को)।

हुसेन के मिजाज की कद्र करता हूं
मैं दोनों काम करता हूं, सड़कों पर भी निकलता हूं, न निकलने वालों पर एतराज नहीं। हुसेन नहीं निकलते। उनका मिजाज अलग है। उसकी मैं कद्र करता हूं। उन्होंने (हुसेन ने) कहा, जो मेरे खिलाफ बातें हो रही हैं, सैकड़ों मुकदमे बना दिए गए हैं, इसलिए नहीं आ रहा हूं। ये भी एक तरीका है रेजिस्टेंस का। हर आर्टिस्ट अपने-अपने मिजाज के तहत काम करता है।
मैं यहां कोई फारमूला पेश नहीं करता। मैंने अपने नाटकों में कई तरह के प्रयोग किए। ये आप लोग रियलाइज करें, चाहें तो उड़ाएं, चाहें तो सराहें। इस बारे में पूछकर आप मुझे थका रहे हैं। मैं अपने काम की व्याख्या से इंकार करता

दिल को तनहा भी छोड़िए
(मख्दूम के एक शेर का हवाला देते हुए रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए कुछ कहते हैं। शायद अंतरात्मा जैसा कुछ )...वो इकबाल का शेर है- अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने अक्ल, कभी-कभी इसे तनहा भी छोड़िए। सिर्फ अक्ल से क्रिएट करना संभव नहीं है। दिल से भी बातें होती हैं। (मख्दूम का - शहर में धूम है एक शोलानवां की मख्दूम को पूरा पढ़ते हैं।) बाल्जक से पूछा गया था कि एक प्रास्टीच्यूट की एसी तस्वीर क्यों बनाई, उन्होंने कहा, एमा इज मी। एलन्सबर्ग ने भी कहा कि आप करक्टर क्रिएट जरूर करते हैं लेकिन वो अपनी कहानी खुद कहता है। आपका उसमें कोई कंट्रोल नहीं रहता।
देखिए आप उसमें शऊर घुसाएंगे तो वो कुछ हो जाएगी- उपदेश, अखबारनवीसी या कुछ न कुछ मगर कला नहीं रहेगी।

सरकारें नहीं बल्कि मौत के सौदागर कर रहे हैं रूल
ग्लोबलाइजेशन सब कुछ सपाट कर रहा है। सिस्टेमेटिक ढंग से सोचने के आदी हो गए हैं। आराम इसी में है कि सिस्टम बनाएं, उसके पीछे छिप जाएं। इन लोगों के लिए ये मुमकिन नहीं है कि आदिवासी सभ्यता को समझ कर लोकेट किया जाए या हर तबके के लिए अलग ढंग से सोचें। एक सिस्टम बना है शोषण-दमन का, बंटवारे का, कि लोगों को डिवाइड करो। यही क्लासिकल तरीका था, अब इसमें नए-नए तरीके जुड़ गए हैं। पालिटिशन, गवर्मेंट्स रूल नहीं कर रहे हैं, मर्चेंट्स आफ वार, मर्चेंट आफ डेथ, ड्रग मर्चेंट (कुछ और भी जुमले कहे), यही सब डिक्टेट कर रहे हैं। होम, फारन, इकानमी, सब पालिसी वही तय कर रहे हैं। हमारे यहां इसकी शुरुआत है। हम ग्लोबलाइजेशन के चौराहे पर हैं।

खतरे के रास्ते से मिलता है खजाना
पुराने जमाने में किस्से यूं थे कि एक हीरो निकला, दो रास्ते आए। एक मुश्किलों भरा, जिस पर न जाने के लिए उसे सलाह दी जाती है लेकिन वो उसी मुश्किलों भरे रास्ते पर निकलता है। और खजाना उसी रास्ते पर जाकर मिलता है। हीरोइन भी खतरे भरे रास्ते के आखिर में ही मिलती है।

(कार्यक्रम में कई बड़े आर्टिस्ट थे, अलग-अलग फील्ड के। सबने कुछ पूछा। लंबी बातें जो नोट कीं, मुझसे खो गईं। जोहरा सहगल से किसी ने कहा, आपा कुछ पूछेंगी, हबीब साहब से। उन्होंने कहा, मैं क्या पूछूंगी, मैं तो उनकी आशिक हूं। उन्होंने हबीब के 25 साल और जीने की तमन्ना भी की। एक सवाल के जवाब में हबीब ने कहा कि बहादुर कलारिन तैयार करने में सबसे ज्यादा मुश्किल आई। पोंगा पंडित पहले से होता आया। मैंने खेला तो संघ वालों ने खूब पत्थर फेंके और मुझे मशहूर कर दिया। इस सब के बीच कुछ करने का दबाव भी हमेशा रहा। गुमनामी अच्छी है या नामवरी...जैसे कई गीत भी हबीब की मंडली ने सुनाए।)

Wednesday, September 3, 2008

कुढ़िये, कुढ़िये, कुढ़ते रहिये


ब्लूलाइन बस शकरपुर बस स्टेंड से खिसकना शुरू हुई है। भीड़ नहीं है और कई सीटें खाली पड़ी हैं। अचानक एक लड़की चीखने लगती है - बस रोको, इसे बस से उतारो, ये परेशान कर रहा है। लड़की की बगल में बैठा अधेड़ खड़ा हो गया है और बड़े सधे हुए अंदाज में सवाल करता है- मैंने क्या कहा तुम्हें? लड़की मदद की उम्मीद और गुस्से में फिर चीखती है। बस रोको, इसे बस से उतारो। मैं उस आदमी को पकड़ने की कोशिश करता हूं और तब तक अगली सीट पर बैठी एक और लड़की कहती है - हां ये परेशान कर रहा था, मुझे भी। कपड़ों और हाथ में ली गई फाइलों से जेंटलमैन लग रहा अधेड़ तेजी से बस से उतरकर भागने की कोशिश में है और एक चुटियाधारी सज्जन उसे पकड़ने के अंदाज में बचाने की कोशिश करते हैं। एक युवक मेरी मदद में आता है पर अधेड़ एक-दो हाथ खाकर भाग निकलते हैं। एक और लड़की इस दौरान परेशान लड़की की मदद का हौसला दिखाती है। मैं देखता हूं, यह दीपा मेरे ही आफिस से हैं।
जो खामोश थे, वे अब घटना की व्याख्या कर रसरंजन की संभावना तलाशना चाहते हैं। चुटियाधारी कहता है- आदमी गलत था, उसके भागने के अंदाज से ही पता चल गया। कोई और भी कुछ बोलता है।
लगता है छेड़खानी कर भागा अधेड़ बस में ही है, सारे मरदों के भीतर और अब और ज्यादा खुलकर खेल रहा है। मैं चीखता हूं- तब हम चुप थे सब, हम सारे हरामखोर हैं। हम सब यही करते हैं। कोई लड़की बोलती है तो उस पर टूट पड़ते हैं। ९९ फीसदी लोग या तो चुप रहते हैं या विकृत मजा लेते हैं।
चुटियाधारी मोरचा लेता है। इसे पूरे पुरुष समाज पर हमला मानता है। गुस्से में चिल्लाता है। कहता है- लोग विरोध करते हैं गलत काम का, लेकिन हमने तो एसी लड़कियां भी देखी हैं जो झुट्टो ई (झूठा इल्जाम लगाकर) किसी को कुछ कह देत्ती हैं और बिचारे को सब पीटते हैं।
मैं देखता हूं जिस लड़की को छेड़खानी का शिकार होना पड़ा था, वह फूट-फूट कर रो रही है। मैं कहता हूं, तुम क्यों रोती हो, तुमने क्या बुरा किया? दीपा भी उसे संभालने की कोशिश करती हैं। हालांकि मैं जानता हूं, एसे समाज में जहां मनुष्य होने की गरिमा को इस तरह सरेआम कुचला जाता हो और फिर मरदानगी के वकील बेशरम दलीलें पेश करते हों, रोना ही बचता है। मैं भी रोना चाहता हूं।
चुटियाधारी अब तक उपदेश की मुद्रा में आ चुका है। कहता है - तू क्यूं रोवे, तन्नै तो हिम्मत करी। तू कायर थोड़े ही है। मेरा मन करता है, उसके मुंह पर थूक दूं। उसे कौन समझा समझा सकता है कि जो चीख नहीं पड़तीं, जो छींटाकशी पर हंसते हुए किसी तरह सफर पूरा करती हैं, जो किसी तरह जब्त किए खुद को संभाले रखती हैं, जो भीड़ चीरते वक्त अपने सीने पर अचानक आने वाली कुहनियों को सहज अनुमान के आधार पर धता देते हुए रास्ता तय करती हैं, जो अपनी कमर, कंधों, छाती और दिल-दिमाग पर मरदों की अश्ललीलता का गू ढोते हुए किसी तरह गुजर करती हैं, वे भी कायर नहीं हैं।
चुटियाधारी चुप नहीं होना चाहता। उसे ९९ फीसदी मरदों को बुरा कहना नागवार गुजरा है। उसे कौन कहे, लड़कियां अपने बाप, भाई और बेटे के पास भी अपमानित होती हैं। पुरानी खाप-पंचायतें और आधुनिक समाज उन्हें और भी अपमानित करता है। मैं और मेरी साथी कुछ बोलते हैं तो आगे बैठे एक सज्जन चुटियाधारी के पक्ष में लड़ने को तैयार दीखते हैं। देहाती और शहरी मरदों की एकता का कैसा कामन ग्राउंड है। यही लोग हैं जो बसों में छेड़खानी की शिकायत करने पर चिल्लाकर लड़की को डांटते हैं- बस में क्यूं चलती हो, कार में चला करो।
मैं कुछ और लिखना चाहता था पर एसी जिल्लत झेलने के बाद क्या लिखा जा सकता है। और ये जिल्लत रोज-रोज की है। एसे किस्से अनगिन हैं और पिट जाने की नौबत रोज ही आती है।