छत्तीसगढ़ में प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवित रखने के लिए किए जाने वाले किसी भी आयोजन या पुरस्कार से शायद ही किसी कि ऎतराज़ हो, लेकिन जिस तरह छ्त्तीसगढ के पुलिस महानिदेशक के नेतृत्व में इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया गया, जिस तरह छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इसका उदघाटन किया, शिक्षा और संस्कृतिमंत्री बृजमॊहन अग्रवाल भी अतिथि रहे और राज्यपाल के हाथों पुरस्कार बंटवाया गया, वह साफ़ बतलाता है कि यह कार्यक्रम एक साज़िशाना तरीके से एक खास समय में वाम, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक संस्कृतिकर्मियों के अपने पक्ष में इस्तेमाल के लिए आयोजित था। कई साहित्यकारों को इस आयोजन के स्वरूप की जानकारी ही नहीं थी। वे तो स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति को सम्मान देने आए थे। लेकिन वहां उन्होंने पाया कि प्रमोद वर्मा की स्मृति का शासकीय अपहरण किया जा चुका है। मुख्यमंत्री बुलाए गए हैं जो विचारधारा से मुक्त होकर लिखने का उपदेश दे रहे हैं, मार्क्सवाद को अप्रासंगिक बता रहे हैं और लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहे हैं। कई लोगों का नाम कार्ड मे बगैर उनकी स्वीकृति के छापा गया। कार्ड पर मुख्यमंत्री, राज्यपाल आदि के पहुंचने की कोई सूचना नहीं छापी गयी। आखिर क्यों? कई लोग स्वीकृति देने के बाद भी नहीं आए, तो शायद इसलिए कि उन्हें इसका अनुमान हो गया होगा। आश्चर्य है कि श्री आशोक वाजपेई ने अपने कालम 'कभी कभार' में ऎसे लोगों को यह तोहमत दी है कि वे राज्यहिंसा के विरोध में नहीं आए, जबकि माऒवादी हिंसा इन की निगाह में 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' की तर्ज़ पर आलोचना के काबिल नहीं है। श्री वाजपेई को बताना चाहिए था कि स्वीकृति देकर न आनेवालों में कौन से ऎसे लोग थे, जिन्होंने माओवादी हिंसा को उचित ठहराया हो। क्या उनमे से कोई माओवादी मंचों पर गया? यदि नहीं, तो राजसत्ता के साथ मंच का साझा करने का दबाव उनपर अशोकजी क्यों डालना चाहते हैं?
दरअसल छ्त्तीसगढ़ वह राज्य है जहां हर जनांदोलन या व्यक्तियों का भॊ माओवादी बताकर 'छत्तीसगढ़ पब्लिक सिक्योरिटी ऎक्ट' जैसे काले कानूनों के ज़रिए दमन किया जाता रहा है। एक फ़र्ज़ी एनकाउन्टर में कुछ आदिवासी जब माओवादी बताकर मारे गए, तो पी. यू. सी. एल. के राज्य सचिव और मानवतावादी चिकित्सक बिनायकसेन ने कहा कि मारे गए लोग सामान्य आदिवासी थे और उनका माओवाद से कोई संबंध नहीं था। इसके बाद ही उन्हें माओवादी बताकर दो साल जेल में डाला गया, फ़र्ज़ी गवाह और साक्ष्य जुटाए गए, हालांकि हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय ने उन्हें ज़मानत दे दी। यह छत्तीसगढ़ राज्य ही है जहां के खनिजों, जल, जंगल और ज़मीन की कार्पोरेट लूट के लिए सरकार ने खुली सुविधा मुहैया कराई हुई है और जब आदिवासी अपनी ज़मीन और आजीविका को बचाने का संघर्ष चलाते हैं, तो माओवाद के नाम पर उनका दमन किया जाता है। राज्यप्रायोजित सलवा जुडुम जैसी सेनाएं आदिवासियों को जंगल और ज़मीन से खदेड़कर कारपोरेट अधिग्रहण और दोहन का रास्ता साफ़ कर रही हैं। हिमांशु जैसे गांधीवादी का दंतेवाड़ा में आश्रम पुलिस ने ढहा दिया क्योंकि ७९% आदिवासी जनसंख्या वाले इस इलाके में वे आदिवासियों का कथित रूप से पुनर्वास कर रहे थे। अजय टी.जी. एक फ़िल्मकार हैं और उन्हें भी माओवादी बताकर सताया गया। छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले ही तमाम जनतांत्रिक आंदोलनों का गला घोटने में यह युक्ति काम में लाई जाती रही है। वर्षों पहले भारत के एस सी/एस टी कमिश्नर रहे गांधीवादी समाजसेवी डा. बी.डी. शर्मा को भाजपा के ही शासनकाल में बस्तर में नंगा घुमाया गया। महान ट्रेड यूनियन नेता और समाजसेवी शंकर गुहा नियोगी की एक कारपोरेट समूह ने हत्या करा दी। इस तरह हर लोकतांत्रिक आंदोलन का गला घोंटकर वहां की सत्ता ने खुद ही माओवाद का रास्ता प्रशस्त किया। ऎसी राजसत्ता के पुलिस मुखिया के आमंत्रण पर क्यों कोई साहित्यकार मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री और राज्यपाल का उपदेश सुनने जाए? फ़िर छतीसगढ़ राज्य की साहित्य अकादमी जैसी स्वायत्त सांस्कृतिक संस्थाएं भी तो प्रायोजन कर सकती थीं, पुलिस के मुखिया से ही कराने की क्या मजबूरी थी? क्यों अशोक वाजपेई को इसमे राजनीति नही दिखती?
दर असल यह पूरा आयोजन ही इसलिए किया गया कि बिनायक सेन और सलवा जुडुम के मसले पर विश्वस्तर पर निंदित सरकार यह दिखला सके कि उसके साथ तमाम प्रगतिशील, जनवादी लोग भी खड़े हैं। यह सत्ता द्वारा साहित्यकारों का घृणित उपयोग है। पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन राजसता का साहित्यिक चेहरा हैं। अपने कवि होने और महान शायर फ़िराक़ गोरखपुरी के वंशज होने का खूब उपयोग वे छ्त्तीसगढ़ की जनविरोधी सरकार के कारनामों को वैधता प्रदान कराने में कर रहे है। अशोक वाजपेई शायद चाहते हैं कि भले ही राजसत्ता साहित्यकारों का शातिराना उपयोग करे, लेकिन साहित्यकार को गऊ होना चाहिए, सत्ता को छूट है कि साहित्य के नाम पर उन्हें कहीं भी हंका कर ले जाए। छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक की निगाह में शंकर गुहा नियोगी नक्सली/माओवादी थे, जबकि सलवा जुडुम जनांदोलन है।
१९९० के बाद से सोवियत संघ के ढहने, भूमंडलीकरण की आंधी, समाजवाद के संकट, उत्तर-आधुनिकतावाद की सैद्धांतिकी और भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों के उभार ने बहुत से प्रगतिशील और जनवादियों को विचलित किया। उदय प्रकाश इस मामले में ज़रूर ईमानदार कहे जाएंगे कि जहां बाकी लोग इस विचलन को खुलकर स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जूटा पाए और जनवादी, प्रगतिशील मूल्यों वाले सांस्कृतिक संगठनों में बने रहते हुए भी साहित्य को विचारधारा और प्रतिबद्धता से मुक्त रहने, साहित्य की वर्गदृष्टि को खारिज करने और राज्याश्रय को उचित बताने में लगे रहे और नवोदित साहित्यकारों को गलत राह सिखाते रहे, वहीं उदय जी ने खुलेआम मार्क्सवाद से अपने मोहभंग को घोषित किया, उत्तर-आधुनिकता से प्रभाव ग्रहण को स्वीकार किया और हर तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता से इनकार किया, शायद संगठनों से भी किनाराकशी की। ऐसा नहीं कि उदय जी की इस दौर की कहानियों पर उनके वैचारिक बदलाव का असर नहीं है, भले ही इस दौर में भी उन्होंने अनेक उत्कृष्ट काहानियां लिखीं। इस दौर में उदय जी का व्यक्तिवाद और अराजकता की प्रवृत्ति ज़्यादा उभरकर आई जो पहले भी उनकी व्यक्तियों को निशाना बनाकार परपीड़न में लुत्फ़ लेनेवाली कहानियों में दिखती है, उनके यथार्थबोध को क्षतिग्रस्त करती हुई। लेकिन तब भी उनकी बेहतरीन कहानियां बहुत दूर तक इस दोष से मुक्त रहीं। आलोचना को जूते की नोंक पर रखते हैं। इसीलिए उनके क्षमा-प्रस्ताव में भी धमकी की गूंज है. कभी अपनी आलोचना को ब्राह्मणवादी षड़यंत्र बताते हैं, कभी पहाड़ी लाबी की करतूत. दरअसल, उदय जी को क्षमा किसी और से नहीं, अपने भीतर के कथाकार से मांगनी चाहिए.
(समयांतर से साभार)