साथियो, वाणी प्रकाशन से प्रकाशित 'चरनदास चोर, २००४ संस्करण की हबीब तनवीर द्वारा लिखित भूमिका का एक अंश भेज रहा हूं, ताकि पाठक खुद निर्णय कर सकें कि हबीब साहब का सतनामी समुदाय से क्या रिश्ता था. जबसे सहमत, बहुरूप, जन संस्कृति मंच, इप्टा, प्रलेस, जलेस आदि ने प्रतिबंध का विरोध किया है, तबसे रायपुर से ब्लाग दुनिया में रिपोर्टें आ रही हैं कि नाटक प्रतिबंधित नहीं हुआ है, किताब या उसकी भूमिका ही प्रतिबंधित है. बहरहाल इन रिपोर्टों में किसी आधिकारिक स्रोत का हवाला नहीं दिया गया है, जबकि हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स अफ़ इंडिया आदि में नाटक खेलने पर भी प्रतिबंध की बात स्पष्ट रूप से कही गई है. बहरहाल मैं यह उद्धरण भूमिका से ही दे रहा हूं -
मैने दर्शकों से कहा कि " हम एक नया नाटक तैय्यार करन्र जा रहे हैं.अभी यह दिमाग के कारखाने से पूरी तरह नहीं निकला है,और न ऎक्टरों की तैय्यारी अभी पूरी हुई है,फ़िर भी यह देखते हुए कि इस मंचन की आयोजक एक सतनामी संस्था है, और यहां सतनामी दर्शक हज़ारों की संख्या में जमा हैं, और हमारे नाटक का आधार 'सतनाम' धर्म है, अगर आप कहें तो हम इस अधपके नाटक को भी अभी प्रस्तुत कर दें!". सबने एक आवाज़ हो कर कहा "हो!, ज़रूर दिखाओ,हम मन ला कोई जल्दी नई है! अभी भोर कहां हुए है?"
विजयदान ने अपनी कहानी में चोर को कोई नाम नहीं दिया है. हम नाम सोचने में लगे थे. पहले सोचा चोर मरने के बाद अमर हो जाता है, क्यों न उसका नाम'अमरदास' रखें.पंथियों ने कहा, " ये नाम नहीं हो सकता,अमरदास नाम के हमारे एक गुरू गुज़रे हैं." हमने दूसरा नाम तज़वीज़ किया. ये दूसरे गुरू का नाम निकला.आखिर हमने भिलाई के शो के लिए 'चोर चोर' नाम रख दिया,और आगे चलकर 'चरनदास' रख दिया. नाचा पार्टियों में हमारे साथ वर्कशाप में धमतरी के अछोटा गांव की नाचा पार्टी भी थी,उसके लीडर थे रामलाल निर्मलकर. अच्छे कामिक ऎक्टर थे. उनसे कहा,चोर की भूमिका में खड़े हो जाओ.
मैनें दर्शकों से कहा, "हो सकता है कि बीच में उठकर मुझे किसी अभिनेता की जगह ठीक करना पड़े या संवाद में मदद करना पड़े, तो आप लोग कृपया इस बात को नज़रांदाज़ कर दीजिएगा". बिलकुल यही हुआ.मुझे न सिर्फ़ एकाध बार उठकरकिसी सैनिक की मंच पर जगह ठीक करनी पड़ी क्योंकि आगे चलकर इसके कारण सीन में बाधा पड़ने का अंदेशा था, बल्कि बीच बीच में आर्केस्ट्रा के साथ बैठकर खुद गाने भी गाता रहा. गाने उस वक्त तक नहीं लिखे गए थे. मैनें पंथी गीतों की एक छोटी सी पुस्तक अपने पास रख ली थी. साजिंदे हमारे अपने साथ थे ही,बस मैं गाता रहा, कोरस में गाने वाले कलाकार दोहराते रहे,और इस तरह कोई ४५-५० मिनट में नाटक समाप्त हुअ तो मैदान तारीफ़ और तालियों से देर तक गूंजता रहा.
मुझे दर्शकों की राय मिल गई थी, उन्होंने नाटक को अपनी कच्ची शैली और बाकी सब कमज़ोरियों के बावजूद पसंद कर लिया था.दर्शकों में सभी लोग पंथी थे और पंथियों का बुनियादी उसूल है ,"सत्य ही ईश्वर है,ईश्वर ही सत्य है." यही उसूल उनके रोज़मर्रा के पारंपरिक गीत में भी है,और उसी गीत पर हमने नाटक खत्म किया था. बाकी ये सब देख सुन कर उनकी भावुकता उबल पड़ी थी. इस भावुकता का एक कारण यह भी हो सकता है कि उन्ही के पंथ का एक व्यक्ति नाटक का नायक था जिसे नाटकों में पहले कभी नहीं देखा गया था.पंथ की स्थापना के पहले गुरू घासी दास स्वयं एक डाकू थे. शूद्र वर्ग के लोगों ने सतनामी धर्म अपनाया तो उन्होंने समाज में उनकी अत्महीनता दूर करने के लिए उन्हे जनेऊ पहनने का अदेश दिया.इन तमाम चीज़ों के बावजूद आजतक उनका मुकाम गांव के बाहर है.उनका कुआं,उनका पानी समाज से अलग है,इन्हीं कारणों से सतनामियों में अपने धर्म के प्रति जोश होता है. वे अपनी सुरक्षा के लिए लाठी चलाने में भी निपुण होते हैं और जहांतक अपने अधिकारों के लिए लड़ने का संबंध है, तो इतिहास सैकड़ों साल से उनके आंदोलनों,उनके संघ्र्ष से भरा पड़ा है."
तो मित्रो, ये है हबीब साहब के खयालात सतनामी समुदाय के प्रति, ममता और सम्मान से ओत-प्रोत.
-मृत्युंजय
(आलोचक मृत्युंजय का यह मेल कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने उपलब्ध कराया है।)
मैंने पोस्ट लगाने के बाद देखा कि कबाड़खाना पर अशोक भाई इसे लगा चुके हैं।
3 comments:
चूंकि रायपुर में पत्रकार हूं। इसलिए यह जानकारी है कि न तो इस नाटक के मंचन पर रोक थी/ है, न ही इस नाटक के किताब पर।
दर-असल छत्तीसगढ़ शासन 3 अगस्त से 9 अगस्त तक स्कूलों में छात्रों के बीच किताबों के प्रति रूचि बढ़ाने के लिए पुस्तक वाचन सप्ताह मनाता है। इस साल इस वाचन सप्ताह के लिए चरणदास चोर नाटक की किताब भी शामिल की गई थी। बकायदा 7 हजार प्रति खरीद भी ली गई थी। लेकिन इसी बीच सतनामी समाज के प्रतिनिधियों नें ुख्यमंत्री/शिक्षामंत्री आदि से मुलाकात की और अपनी आपत्ति दर्ज कराई। इसके बाद शिक्षा विभाग से एक परिपत्र जारी हुआ जिसमें कहा गया था कि
पुस्तक वाचन सप्ताह के दौरान इस किताब का वाचन न किया जाए। अर्थात सिर्फ़ पुस्तक वाचन सप्ताह के दौरान इस किताब के वाचन पर प्रतिबंध लगाया गया। इस परिपत्र में यह कहीं भी उल्लेखित नहीं था कि इस किताब की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध है या इस नाटक के ही मंचन पर प्रतिबंध है। फिर यह हल्ला क्यों मचा कि नाटक पर प्रतिबंध है, अपनी समझ से बाहर है।
छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख दैनिक अखबार देशबन्धु में ललित सुरजन जी ने बकायदा एक विशेष संपादकीय लिखकर यही बात कही है।
यह भी हैरत की बात है हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स अफ़ इंडिया ने नाटक नाटक खेलने पर प्रतिबंध की बात कैसे कह दी।
आभार.
( Treasurer-S. T. )
Habeeb ke natak ka kupath sangh ki sajish hai
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